वायरस, ज़िंदा कोशिकाओं में घुसपैठ करते हैं. अपनी मेज़बान कोशिका को अंदर से बदल डालते हैं और उनकी प्रजनन की प्रक्रियाओं पर क़ाबिज़ हो जाते हैं. इसके बाद वायरस उन कोशिकाओं की क्षमता का इस्तेमाल अपनी संख्या बढ़ाने के लिए करते हैं. धीरे-धीरे वो अपने मेज़बान को क़त्ल कर देते हैं. आम एंटीबायोटिक दवाएं वायरस पर असर नहीं करती हैं. इनसे मुक़ाबला करने के लिए कोशिकाओं एक ऐसी चीज़ चाहिए होती है, जिससे वो वायरस को अपनी नक़ल बनाने से रोक सकें. या फिर, कोशिकाओं एक वैक्सीन चाहिए होती है, जिससे वो ऐसे वायरस के प्रति सतर्क हो जाएं और उसे अपने भीतर घुसपैठ न करने दें.
चीन की हुकूमत व्यापार, तकनीक़ और रिश्वत के ज़रिए लोकतांत्रिक देशों में घुसपैठ करती है. उनको भीतर से बदल डालती है और अपने हमलों का दायरा बढ़ाते हुए मेज़बान देशों को जीतने की कोशिश करती है
चीन की हुकूमत व्यापार, तकनीक़ और रिश्वत के ज़रिए लोकतांत्रिक देशों में घुसपैठ करती है. उनको भीतर से बदल डालती है और अपने हमलों का दायरा बढ़ाते हुए मेज़बान देशों को जीतने की कोशिश करती है. चूंकि, चीन की सरकार मेज़बान देश को बर्बाद करने का अपना मक़सद साधने के लिए उसकी ताक़तों यानी- लोकतांत्रिक संस्थाओं, स्वतंत्रताओं, मुक्त समाजों, स्वतंत्र न्यायपालिका, विश्वविद्यालयों, मीडिया और मुखर ग़ैर-लाभकारी संगठनों- का लाभ उठाती है, इसलिए, मेज़बान देश अपनी इन संस्थाओं को जितना ताक़तवर बनाते हैं, वो चीन के हमलों के सामने उतने ही कमज़ोर होते जाते हैं.
चीन के चेयरमैन ऑफ़ एवरीथिंग यानी शी जिनपिंग के नेतृत्व में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP), जो चीन नाम के एक देश से जुड़ी हुई है, वो एक के बाद दूसरे लोकतांत्रिक देश को इसी तरह निशाना बनाते हुए उन पर जीत हासिल करने में जुटी हुई है. चीन, अपने मक़सद के लिए देश की सभी संस्थाओं और क्षमताओं का इस्तेमाल कर रहा है. इनमें सरकारी और ग़ैर सरकारी, दोनों तरह की संस्थाएं शामिल हैं. जैसे कि कंपनियां, यूनिवर्सिटी, सांस्कृतिक संगठन और यहां तक कि आम नागरिकों को भी चीन ने अपनी नीति का मोहरा बना लिया है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सस्ते माल और सेवाओं से लोकतांत्रिक देशों को लालच देकर सामरिक बढ़त हासिल करती है. फिर उसकी मदद से वो मेज़बान देश के मूल्यों को तबाह कर डालती है.
खुली नज़रों के सामने छुपकर, ज्ञान के चमकदार संस्थानों के भीतर घुसकर और बोलने की आज़ादी के नाम पर दुश्मन ताक़तों को बढ़ावा देकर, नैरेटिव के भरोसे जीने वाले, यूनिवर्सिटी और मीडिया में सक्रिय पश्चिमी देशों का कुलीन तबक़ा, पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में चीन की दख़लंदाज़ी का सबसे बड़ा मोहरा बन गया है. वहीं अपनी तरफ़ से चीन कई दशकों से उसी नुस्खे का इस्तेमाल कर रहा है, जिसमें जानकारी और ज्ञान को हथियार बनाकर सामरिक ताक़त हासिल की जाए और फिर, लोकतांत्रिक देशों के सुरक्षा कवच की इन्हीं कमज़ोरियों का लाभ उठाकर उन पर हमला किया जाए. हालांकि, धीरे धीरे ही सही, मगर अब लोकतांत्रिक देशों को चीन की इन चालों का एहसास हो रहा है, और उनमें बदलाव आ रहा है.
ब्रिटेन में चीनी नागरिक
ब्रिटेन की संसद की ख़ुफ़िया और सुरक्षा समिति ने आठ साल पहले अपने नागरिकों को चीन की इस घुसपैठ को लेकर चेतावनी दी थी. इस चेतावनी को लेकर ब्रिटिश सांसदों की नींद अब जाकर खुली है. 13 जुलाई 2023 की अपनी रिपोर्ट में जूलियन ल्यूइस के नेतृत्व वाली इस समिति ने 207 पन्नों का जो दस्तावेज़ पेश किया है, उसमें चीन के हमलों के आगे ब्रिटेन की सुरक्षा संबंधी कमज़ोरियों को उजागर किया गया है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन की सरकार, चुनावों को प्रभावित करके, उद्योग और तकनीक़ और असैन्य परमाणु ऊर्जा क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए किस तरह ब्रिटेन के संस्थानों में घुसपैठ कर रही है. इस लेख में हम चीन की इन साज़िशों में ब्रिटेन के मीडिया और अकादमिक क्षेत्र की भागीदारी वाली भूमिका पर ध्यान केंद्रित करेंगे.
रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक बढ़त और राजनीतिक प्रभाव हासिल करने को लेकर चीन के लालच को बढ़ावा देने में ब्रिटेन के अकादमिक संस्थान ‘चारे का एक समृद्ध मैदान’ उपलब्ध कराते हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक बढ़त और राजनीतिक प्रभाव हासिल करने को लेकर चीन के लालच को बढ़ावा देने में ब्रिटेन के अकादमिक संस्थान ‘चारे का एक समृद्ध मैदान’ उपलब्ध कराते हैं. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) ‘ब्रिटेन के संस्थानों, ब्रिटेन के कुछ चुने हुए बौद्धिक लोगों और चीन के छात्रों के ज़रिए, ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों के भीतर चीन को लेकर होने वाली चर्चा को नियंत्रित करने की उम्मीद रखती है; और, वो ब्रिटेन के अकादमिक रिसर्च से सीधे सीधे चोरी करके बौद्धिक संपदा (IP) हासिल करना चाहती है, ताकि चोर दरवाज़े से चीन की विशेषज्ञता का निर्माण कर सके.’ चीन की ये गतिविधियां तब और बढ़ जाती हैं, जब बात चीन के ‘पांच ज़हरीले विषयों’ यानी ताइवान की आज़ादी, तिब्बत की स्वतंत्रता, शिंजियांग के अलगाववादियों, चीन के लोकतांत्रिक आंदोलन और फालुन गोंग की आती है.
ब्रिटेन को चीन से छह तरह के ख़तरे हैं, जो उसके अकादमिक क्षेत्र को मोहरा बनाते हैं. पहला तो चीन से ब्रिटेन पढ़ने जाने वाले छात्रों की तादाद है. 2019 में ब्रिटेन में चीन के एक लाख बीस हज़ार से भी ज़्यादा छात्र पढ़ रहे थे, जो किसी एक देश से आने वाले छात्रों की सबसे अधिक संख्या है. जबकि, विदेशी छात्रों की दूसरी सबसे बड़ी संख्या वाले भारत के केवल 27 हज़ार छात्र ही ब्रिटेन में पढ़ रहे थे. इसका नतीजा ये हुआ है कि फीस के मुक़ाबले सरकार से विश्वविद्यालयों को मिलने वाली रक़म का अनुपात 28:72 से उलटकर 78:27 हो गया है. इनमें से अकले चीन के छात्र लगभग 60 करोड़ यूरो (78.5 करोड़ डॉलर) का योगदान देते हैं. लेकिन, ये तो मासूम से वित्तीय आंकड़े भर हैं.
ब्रिटेन के लिए चिंता की जो और भी बड़ी बात है, वो ये है कि चीन से आकर उसके यहां पढ़ रहे ये 120,000 छात्र, चीन के क़ानून के मुताबिक़, इस बात के लिए बाध्य हैं कि वो चीन की ख़ुफ़िया एजेंसियों की मदद करें. दूसरे शब्दों में कहें, तो ब्रिटेन में पढ़ रहे हर चीनी छात्र के अपने देश का जासूस होने की संभावना है. चीन के पांच क़ानून ऐसे हैं, जो ये बात सुनिश्चित करते हैं- काउंटर एस्पियोनेज लॉ (2014), नेशनल सिक्योरिटी लॉ (2015), नेशनल साइबर सिक्योरिटी लॉ (2016), नेशनल इंटेलिजेंस लॉ (2017) और पर्सनल इन्फॉर्मेशन प्रोटेक्शन लॉ (2021). मिसाल के तौर पर नेशनल इंटेलिजेंस लॉ की धारा 7 कहती है कि देश के, ‘सभी संगठन और नागरिकों को राष्ट्र के ख़ुफिया प्रयासों में मदद, सहायता और सहयोग करना होगा.’ यही बात, क़ानून की 9, 12 और 14 धाराएं भी कहती हैं.
दूसरा, संस्थाओं पर क़ब्ज़ा तो चीन के प्रभाव के लिए एक ज़रूरी शर्त है- ये घुसपैठ सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं है. इसके लिए चीन अकादमिक क्षेत्र के विद्वानों को निशाना बनाता है, ताकि ये सुनिश्चित कर सके कि वो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के हितों को साधने में भूमिका अदा कर सकें. इसके लिए चीन ‘या तो पेशेवर प्रोत्साहन का सहारा लेता है और अगर ये काम नहीं करता तो वो डराने-धमकाने का नुस्खा भी अपनाता है’. इन नुस्खों में रिसर्च के लिए फंड देने से लेकर वाइस चांसलरों को दौरे के मौक़े मुहैया कराना और छात्रों के संगठन को फ़ोन करके उन्हें वक्ताओं को तिब्बत या शिंजियांग जैसे मुद्दे पर बोलने से रोकने के लिए कहना शामिल है.’ इसके अलावा, व्यापार और क़र्ज़ को हथियार बनाने का चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का अनुभव, अकादमिक विद्वानों पर भी आज़माया जाता है. ब्रिटेन की संसद की रिपोर्ट में यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन में स्कूल ऑफ ओरिएंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडी के चाइना इंस्टीट्यूट के प्रोफ़ेसर स्टीव त्सांग का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि, ‘आप कोई ऐसी बात कहते हैं जो उनको नहीं पसंद आती, तो वो आपको वीज़ा देने से इनकार कर देते हैं.’
तीसरा, चीन के जो छात्र जासूसी गतिविधियां करने से इनकार कर देते हैं, उन्हें धमकाया जाता है और कई बार तो जान से मारने की धमकी भी दी जाती है. नवंबर 2019 में स्कॉटलैंड के एडिनबरा में एक छात्र की हॉन्ग कॉन्ग में लोकतंत्र के समर्थन में प्रदर्शन करने तस्वीर खींची गई थी. फिर, जब वो अपनी मां को लेकर हवाई अड्डे पहुंचा, तो उसकी तस्वीर ली गई. उस छात्र की इन दोनों तस्वीरों को चीन के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म वीबो पर ख़ूब प्रचारित किया गया. उस पोस्ट में कहा गया था कि, ‘चेंगडू के भाइयो, इसे पीट-पीटकर मार डालो.’ इस पोस्ट में उस छात्र की फ्लाइट की जानकारी देने के साथ साथ पुलिस को उसे गिरफ़्तार करने या नागरिकों द्वारा उस पर हमला करने की अपील भी की गई थी. ‘ये पोस्ट 10 हज़ार बार शेयर की गई थी.’ शेफील्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले हॉन्ग कॉन्ग के एक छात्र ने बताया कि हॉन्ग कॉन्ग के तो कुछ सौ छात्र ही पढ़ते हैं, उनकी तुलना में यहां चीन के चार हज़ार छात्र हैं. एक छात्र ने कहा कि कि ‘हमें इस बात का डर सताता रहता है कि वो हमारे साथ क्या करेंगे. हमें विश्वास है कि जब हम अपने घर लौटेंगे, तो हम उनकी निगरानी सूची में होंगे.’
चौथा, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) केवल विश्वविद्यालयों पर ही हमले नहीं कर रही है. अपना नैरेटिव चलाने के लिए चीन, थिंक टैंकों और ग़ैर सरकारी संगठनों को भी इसी तरह डराने धमकाने का तरीक़ा अपनाता है. वैसे, ये तरीक़ा पश्चिम के थिंक-टैंक भी अपनाते हैं, जो किसी ख़ास विचारधारा और राजनीति को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन, जब चीन के ये दांव-पेंच ‘दख़लंदाज़ी’ की सीमा को पार कर जाते हैं, और वीज़ा को हथियार बनाते हैं. या फिर, चीन के किसी विद्वान को स्वदेश लौटने पर अंजाम भुगतने की धमकी देते हैं, तो ये सुरक्षा की समस्या बन जाती है.
पांचवां, अकादमिक क्षेत्र से बौद्धिक संपदा की चोरी करना. ब्रिटेन के नेशनल साइबर सिक्योरिटी सेंटर के चीफ एग्ज़ीक्यूटिव ऑफ़िसर ने कहा था कि, ‘ब्रिटेन को साइबर हमलों से सुरक्षित बनाए रखने की हमारी भूमिका के दौरान हमें सबसे ज़्यादा चिंता इस बात की होती है कि चीन अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए कहीं हमारी बौद्धिक संपदा (IP) न चुरा ले.’ इससे तीन साल पहले, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने 29 मई 2020 को जारी एक आदेश में खुलकर चीन द्वारा अपनी सेना यानी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के लिए काम कर रहे छात्रों के ज़रिए के बौद्धिक संपदा के अधिकारों की चोरी करने का मुद्दा उजागर किया था, और अमेरिका में उनके दाख़िले को ‘प्रतिबंधित, सीमित और अपवाद’ के दारे में डाल दिया था. उससे भी दो साल पहले 26 अक्टूबर 2018 को ऑस्ट्रेलिया के स्ट्रैटेजिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट ने अपनी एक रिपोर्ट में ब्रिटेन को आगाह किया था कि चीन की सेना (PLA) ने 2007 से 2017 के दौरान ब्रिटेन और अमेरिका के अकादमिक संस्थानों में 500-500 सैन्य मामलों के वैज्ञानिक भेजे थे. ब्रिटेन की इंटेलिजेंस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि, ‘चीन के टैलेंट प्रोग्राम के भागीदारों ने या तो इस बात का इक़बाल-ए-जुर्म किया है या उन्हें आर्थिक जासूसी करने और गोपनीय व्यापारिक राज़ चुराने, निर्यात नियंत्रण के क़ानूनों का उल्लंघन करने और मदद और कर के फ़र्ज़ीवाड़े करने के लिए सज़ा दी गई है.’
और छठवां, ब्रिटेन के रिसर्च का इस्तेमाल चीन के हित साधने के लिए करना. चोरी के अलावा, ‘ऐसे रिसर्च में पूंजी लगाता है या भागीदार बनता है, जो ख़ास तौर से चीन की सेना के लिए फ़ायदेमंद हो सकते हैं.’ चीन की ये करतूतें वस्तुओं, सॉफ्टवेयर, तकनीक़, दस्तावेज़ और ऐसे डायग्राम की शक्ल में दुनिया के सामने मौजूद होते हैं, ‘जो सामान्य उपयोग के साथ साथ, सेना के भी काम आ सकते हैं.’ चीन के विद्वान हुआंग शियांजुन ने ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैनचेस्टर से पीएचडी की थी. अब वो चीन की नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ डिफेंस टेक्नोलॉजी में रिसर्चर हैं और चीन की सेना (PLA) के लिए अहम रक्षा परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं. ध्यान देने वाली बात ये है कि जब शी जिनपिंग ने ब्रिटेन का दौरा किया था, तो उसके बाद मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी के साथ ‘उड्डयन उद्योग में ग्राफीन का इस्तेमाल बढ़ाने के लिए’ एक साझेदारी की गई थी.
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) केवल विश्वविद्यालयों पर ही हमले नहीं कर रही है. अपना नैरेटिव चलाने के लिए चीन, थिंक टैंकों और ग़ैर सरकारी संगठनों को भी इसी तरह डराने धमकाने का तरीक़ा अपनाता है.
निष्कर्ष
चीन की इन गतिविधियों के बारे में सुने सुनाए सुबूत तो पहले से ही मौजूद थे. लेकिन, अब पूरे देश में फैले तमाम विश्वविद्यालयों और संस्थानों में चीन पर केंद्रित अकादमिक केंद्रों, की गहराई से पड़ताल करने की ज़रूरत है. फिर चाहे वो तकनीक़ के क्षेत्र में हों या फिर कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट जैसे सांस्कृतिक केंद्र के साथ सहयोग कर रहे हों. ऐसे ‘सहयोग’ से निकल रहे आंकड़ों का धुआं अब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) से लेकर उसकी सेना (PLA) तक चीन की सरकार की सामरिक महत्वाकांक्षाओं की तरफ़ इशारा कर रहा है. वहीं दूसरी ओर, पश्चिम के विद्वान, थोड़ी सी रक़म के लालच में अपनी मर्ज़ी से चीन का मोहरा बनने के लिए तैयार हैं. वो अपने देश के हितों को नुक़सान की क़ीमत पर शी जिनपिंग, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की वकालत कर रहे हैं. ऐसे लोगों को ‘उपयोगी मूर्ख’ कहना उन्हें सस्ते में छोड़ने जैसा होगा. चूंकि, ये लोग तथाकथित रूप से दुनिया के सबसे चतुर लोगों में से एक कहे जाते हैं. ऐसे में उनके लिए, ‘सोच समझकर चीन की साज़िश में साझीदार’ अगर न भी कहा जाए, तो ‘जान-बूझकर साज़िश का मोहरा’ बनने का ज़िम्मेदार तो ठहराया ही जाना चाहिए.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.