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जैसा कि इतिहास ने बार-बार दिखाया है, अमेरिका ने युद्ध के नतीजों को तय करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता- चाहे वो सहयोगी हों या गैर-सहयोगी हों- की व्याख्या लचीले ढंग से की है. यूक्रेन-रूस युद्ध इससे अलग नहीं होगा.
Image Source: Getty
यूक्रेन-रूस के बीच चल रहे युद्ध को समाप्त करने के लिए मध्यस्थता करने के अमेरिका के फैसले ने उसके यूरोपीय सहयोगियों और यूक्रेन में नाराज़गी और प्रतिकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न की है. रणनीतिक लचीलेपन की इच्छा, जो कि जितना सत्ता का काम है उतना ही अधिकार का भी, कुछ हद तक ये बताती है कि अमेरिका ने यूक्रेन और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) को लेकर अपनी नीति क्यों बदली है. यूक्रेन और गठबंधन का साथ छोड़ने के लिए अमेरिका के भीतर और अमेरिका के नेटो सहयोगियों की ओर से ट्रंप प्रशासन की तीखी आलोचना हो रही है. कुछ जानकारों का कहना है कि रूस की वजह से युद्ध होने के बावजूद रूस के हितों और युद्ध के लक्ष्यों को प्राथमिकता देकर ट्रंप यूक्रेन पर रूस के पक्ष में शांति समझौता थोप रहे हैं. ट्रंप के शासन में यूक्रेन के खुले समर्थन को अमेरिका युद्ध को लंबा खींचने और अमेरिका को ऐसी नीति से बांधने के रूप में देखता है जिसे दूसरी ज़रूरी भू-रणनीतिक प्राथमिकताओं की वजह से लंबे समय तक बरकरार नहीं रखा जा सकता है. वैसे शांति समझौता तो छोड़िए बल्कि सभी दुश्मनी को समाप्त करने वाला टिकाऊ युद्धविराम भी दूर की बात है लेकिन अमेरिका और यहां तक कि पहले के सोवियत संघ के द्वारा युद्ध में शामिल पक्षों को हथियारों की आपूर्ति बंद करके लंबे समय के संघर्ष को रोकने के लिए हस्तक्षेप करने के ऐतिहासिक उदाहरण मौजूद हैं. बड़ी ताकतों के द्वारा यूक्रेन-रूस युद्ध जैसे संघर्षों में हस्तक्षेप करने का एक प्रमुख कारण रणनीतिक लचीलापन बनाए रखना है जिससे उन्हें सीधा हित न होने पर या युद्ध का नतीजा अनिश्चित होने पर मज़बूती से किसी एक पक्ष के साथ खड़ा होने से बचने में मदद मिलती है. यहां तक कि जिन मामलों में अमेरिका ने संधि के माध्यम से प्रतिबद्धता व्यक्त की है वहां भी उसने अपने सहयोगियों को संयमित रखा या फटकार लगाई. ऐसे भी कई मामले हैं जहां अमेरिका उन देशों की सहायता के लिए आगे आया जो या तो तटस्थ थे या सहयोगी नहीं थे.
ट्रंप के शासन में यूक्रेन के खुले समर्थन को अमेरिका युद्ध को लंबा खींचने और अमेरिका को ऐसी नीति से बांधने के रूप में देखता है जिसे दूसरी ज़रूरी भू-रणनीतिक प्राथमिकताओं की वजह से लंबे समय तक बरकरार नहीं रखा जा सकता है.
वैसे तो इतिहास से मिलने वाली सीख आकस्मिक, अनिश्चित और अव्यवस्थित होती है, लेकिन सबसे सीधा फिर भी आंशिक रूप से ऐतिहासिक उदाहरण भारतीय उपमहाद्वीप से मिलता है. ये उदाहरण कुछ संदर्भ मुहैया कराएगा और बताएगा कि क्यों ट्रंप प्रशासन यूक्रेन-रूस संघर्ष को ख़त्म करने के लिए मध्यस्थता की कूटनीति कर रहा है और नेटो को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को कमज़ोर कर रहा है. 1965 में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तानी घुसपैठ की वजह से हुआ. युद्ध से पहले कई प्रमुख घटनाक्रम हुए जैसे कि 1965 की शुरुआत में कच्छ के रण में भारतीय और पाकिस्तानी बलों के बीच मुठभेड़. इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि युद्ध से पहले यानी 50 के दशक में पाकिस्तान कई संधियों में शामिल हुआ जिसका उद्देश्य दिखाने के लिए तो साम्यवाद का मुकाबला करना था लेकिन मुख्य रूप से भारत के विरुद्ध अपनी सेना को मज़बूत करना था. इन संधियों में मिडिल ईस्ट डिफेंस ऑर्गेनाइज़ेशन (MEDO), सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (CENTO) और साउथ-ईस्ट एशिया ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (SEATO) शामिल हैं. अगस्त 1965 की शुरुआत में पाकिस्तान ने उस समय ऑपरेशन जिब्राल्टर की शुरुआत की जब पाकिस्तान की सेना ने जम्मू-कश्मीर में युद्धविराम की रेखा पार की.
इस बीच पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) ने विवादित चीन-भारत सीमा पर दूसरा सैन्य मोर्चा खोलने की धमकी दी. अमेरिका ने चीन को साफ कर दिया कि चीन-भारत सीमा पर चीन के द्वारा किसी भी सैन्य कार्रवाई को अमेरिका बर्दाश्त नहीं करेगा. ये संदेश पोलैंड में अमेरिका के राजदूत जॉन एम. कैबॉट के द्वारा 14 सितंबर 1965 को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के एक प्रतिनिधि के साथ भेंट के दौरान पहुंचाया गया.
अपनी तरफ से अमेरिका ने पाकिस्तान के द्वारा थोपे गए युद्ध के लिए पाकिस्तान और भारत- दोनों देशों को सैन्य आपूर्ति एकतरफा तौर पर बंद करने की घोषणा की. पाकिस्तान ने ऊपर बताई गई संधियों में अपनी सदस्यता को भारत पर हमला करने और अमेरिका से लगातार सैन्य सहायता के लाइसेंस के रूप में समझा. वहीं भारत के पास हथियारों की आपूर्ति बंद होने की वजह से नाराज़ होने का ठोस कारण था. अमेरिका पाकिस्तान के साथ अपनी संधि के दायित्व को केवल सोवियत संघ के साम्यवादी आक्रमण या भारत के द्वारा बिना किसी उकसावे के हमले के ख़िलाफ़ तक ही सीमित मानता था जबकि पाकिस्तान को ये मानने से आपत्ति थी. अमेरिका की सैन्य सहायता बंद करने के असर को पाकिस्तान ने ज़्यादा महसूस किया क्योंकि अमेरिका पर उसकी निर्भरता भारत की तुलना में अधिक थी. इसके कारण युद्धविराम की स्थिति बनी और अंत में सोवियत संघ की मध्यस्थता में ताशकंद में समझौता हुआ.
उस समय “नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था” कमज़ोर थी और ट्रंप के द्वारा लोकतांत्रिक यूक्रेन पर युद्धविराम के लिए दबाव डालने और यूक्रेन के युद्ध के लक्ष्यों के लिए ठोस गारंटी मुहैया कराने से इनकार करने, जबकि वो रूसी आक्रमण का पीड़ित है, की वजह से अभी भी वैसी ही स्थिति है. उन्होंने नेटो के अनुच्छेद 5, जिसके तहत संधि से जुड़े किसी सदस्य देश पर दुश्मन के हमले की स्थिति में हर सदस्य देश को उसकी रक्षा के लिए खड़ा होना होता है, के प्रति अमेरिका की प्रतिबद्धता को कमज़ोर किया है. ट्रंप का कहना है कि जब तक नेटो के सदस्य देश अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 5 प्रतिशत रक्षा पर खर्च नहीं करते हैं, तब तक वो इस अनुच्छेद को नहीं मानेंगे. इसने नेटो के यूरोपीय सदस्यों को इस बात के लिए मजबूर किया है कि वो अपना सैन्य खर्च बढ़ाएं और संभवत: अमेरिका से स्वतंत्र एक साझा रक्षा तैयार करें. जिस तरह 60 के दशक में अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ संधियों की प्रतिबद्धताओं की लचीले ढंग से व्याख्या की, ठीक उसी तरह का काम अमेरिका ने नेटो और यूक्रेन के साथ किया है.
वैसे तो यूक्रेन नेटो का सदस्य नहीं है लेकिन इसके बावजूद तीन वर्षों तक उसे बहुत अधिक सैन्य समर्थन मिला. लेकिन ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद इसे कमज़ोर करने और नेटो को समर्थन की शर्तों की फिर से व्याख्या करने का फैसला किया. यूक्रेन जैसे गैर-संधि साझेदार के लिए अमेरिका का सैन्य समर्थन महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है क्योंकि अमेरिका के द्वारा किसी गैर-संधि साझेदार को इस तरह की मदद देने का कोई उदाहरण नहीं है. वैसे तो युद्ध में रूस बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रहा है लेकिन यूक्रेन को भी लड़ाई के मैदान में कोई ठोस बढ़त नहीं मिली है.
जैसा कि हमने अपने ऐतिहासिक उदाहरण से देखा है, जहां तटस्थ भारत को 60 के दशक के मध्य में अमेरिका से सैन्य सहायता बंद होने का सामना करना पड़ा तो पाकिस्तान के साथ भी ऐसा ही हुआ. इसी युद्ध में चीन को भी सैन्य प्रतिक्रिया की चेतावनी के साथ रोका गया अगर वो पाकिस्तान की तरफ से दखल देता जबकि भारत के साथ अमेरिका की कोई संधि भी नहीं थी. इस बात का भी अनौपचारिक प्रमाण है कि अमेरिका और सोवियत संघ ने ख़ामोशी से सहयोग करके 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में माओ के चीन को भारत के ख़िलाफ़ रोका. तीन साल पहले 1962 के चीन-भारत युद्ध के दौरान जब भारत ने गैर-सहयोगी देश के रूप में अमेरिका की मदद मांगी थी तो अमेरिका आगे आया था. लगभग एक दशक के बाद 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाला बदल लिया और पाकिस्तान के पक्ष में “झुक” गया जिसका उद्देश्य न केवल एक सहयोगी की सहायता करना था बल्कि इस मुद्दे को लेकर चीन के साथ अपने उभरते मेल-मिलाप की विश्वसनीयता का प्रदर्शन करना भी था कि भारत के द्वारा पूरे पाकिस्तान को खंडित नहीं किया जाएगा.
अमेरिका की सैन्य सहायता बंद करने के असर को पाकिस्तान ने ज़्यादा महसूस किया क्योंकि अमेरिका पर उसकी निर्भरता भारत की तुलना में अधिक थी. इसके कारण युद्धविराम की स्थिति बनी और अंत में सोवियत संघ की मध्यस्थता में ताशकंद में समझौता हुआ.
जैसा कि ऊपर बताया गया इतिहास दिखाता है, केवल एक ही बात स्थिर है और वो ये कि अमेरिका ने संघर्षों को ख़त्म करने वाले नतीजों पर असर डालने के लिए सहयोगियों और गैर-सहयोगियों- दोनों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता की लचीले ढंग से व्याख्या की है. यहां तक कि उसने भारत और पाकिस्तान जैसे दो दुश्मनों के बीच भी अपनी निष्पक्षता बनाए रखी है जैसा कि वो एक तरफ यूक्रेन और उसके यूरोपीय नेटो साझेदारों और दूसरी तरफ रूस के साथ कर रहा है. अंत में, सामरिक या सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर और अधिक व्यापक रूप से सत्ता के संतुलन को लेकर ट्रंप प्रशासन का आचरण अतीत की तुलना में बहुत अधिक बदलाव नहीं दिखाता है.
केवल एक ही बात स्थिर है और वो ये कि अमेरिका ने संघर्षों को ख़त्म करने वाले नतीजों पर असर डालने के लिए सहयोगियों और गैर-सहयोगियों- दोनों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता की लचीले ढंग से व्याख्या की है. यहां तक कि उसने भारत और पाकिस्तान जैसे दो दुश्मनों के बीच भी अपनी निष्पक्षता बनाए रखी है
यूरोप के देश दूसरे समझौते वाले देशों की तुलना में भाग्यशाली रहे हैं क्योंकि अमेरिका ने नेटो के संरक्षण में उनकी सुरक्षा का ज़िम्मा संभाला था और कई दशकों तक हद से ज़्यादा बोझ उठाने का काम किया. लेकिन ये हमेशा चलने वाला नहीं था. एक सबक तो बिल्कुल साफ है कि ट्रंप प्रशासन और काफी हद तक उसके उत्तराधिकारी के तहत जब बात उनकी सैन्य सुरक्षा और रक्षा की आएगी तब न तो सहयोगी या रणनीतिक साझेदार (विशेष रूप से भारत), न ही दुश्मन अमेरिका के समर्थन को हल्के में ले सकते हैं.
कार्तिक बोम्माकांति ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में सीनियर फेलो हैं.
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Kartik Bommakanti is a Senior Fellow with the Strategic Studies Programme. Kartik specialises in space military issues and his research is primarily centred on the ...
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