Published on Nov 01, 2019 Updated 0 Hours ago

सच तो यह है कि भारतीय राजनयिक और नेता चीन और पाकिस्तान के साथ दोतरफा युद्ध तभी रोक पाएंगे, जब वे दोनों भी ऐसा चाहते हों. लेकिन क्या ऐसा होगा?

भारत को एक साथ दो मोर्चों की जंग से जुड़ी चुनौतियां, अनिश्चिततायें और विकल्प!

क्या भारत दोतरफा युद्ध लड़ना चाहेगा? चीन और पाकिस्तान दोनों के ही भारत के साथ सीमा विवाद हैं, जो उन्हें स्वाभाविक रणनीतिक सहयोगी बनाता है. चीन और पाकिस्तान के बीच सहयोग के आसार को देखते हुए हाल ही में जाने-माने रक्षा विशेषज्ञों ने कहा था कि भारत दोतरफा युद्ध नहीं लड़ सकता और इसलिए उसे इस बारे में सोचना भी नहीं चाहिए. उन्होंने यह भी बताया था कि भारत को दोतरफा युद्ध से बचाने की सीधी ज़िम्मेदारी भारतीय राजनयिकों पर है. युद्ध के मुक़ाबले डिप्लोमैसी आपसी हितों में संतुलन बनाने और मुश्किल से मुश्किल विवादों को सुलझाने का कम ख़र्चीला रास्ता है. एक और जाने-माने एक्सपर्ट ने कहा कि भारत ‘दोतरफा युद्ध की सोच छोड़ रहा है.’ उनके मुताबिक, इसकी वजह यह है कि भारत में ग्लोबल इंटरेस्ट्स का अभाव है, यहां सक्षम डिफेंस-इंडस्ट्रियल मिलिट्री बेस, वॉरफेयर और डिफेंस के शानदार सेंटर्स नहीं हैं. इसलिए भारत को क्षमता के बजाय ख़तरों को देखते हुए सैन्य संसाधन हासिल करने चाहिए. इस बारे में तफसील से बताते हुए उन्होंने कहा कि भारत को संभावित ख़तरों को देखकर योजना बनानी चाहिए. उसे ऐसी क्षमताएं विकसित करनी चाहिए कि कोई उससे युद्ध करना ही न चाहे, न कि उसे युद्ध लड़ने की क्षमताओं पर ध्यान देना चाहिए. लिहाज़ा, भारत को दो दुश्मनों के साथ एक साथ युद्ध लड़ने की संभावनाओं को किनारे लगा देना चाहिए.

पहली नजर में दोतरफा युद्ध के इन निष्कर्षों को देखने पर लगता है कि इनमें कुछ भी नया नहीं है. आख़िर, चीन की तुलना में भारत की इकॉनमी पांच गुना छोटी है. चीन का रक्षा बजट भी भारत के मुक़ाबले साढ़े तीन गुना बड़ा है. इसके अलावा, पाकिस्तान भी मज़बूत सैन्य शक्ति है. भारत में रक्षा क्षेत्र को मिलने वाले कम बजट की वजह से समस्या और बड़ी हो जाती है. सरकार से रक्षा क्षेत्र को बजट में जो पैसा मिलता है, उसमें से अधिकांश तो तीनों सेनाओं की सैलरी और पेंशन पर खर्च हो जाता है. इसे रक्षा बजट का रेवेन्यू एक्सपेंडिचर कहते हैं. इसके कैपिटल एक्सपेंडिचर में नए हथियारों-उपकरणों की लागत को शामिल किया जाता है. इसके लिए बजट में बहुत कम रकम बचती है. चीन की सेना के पास जैसे हथियार हैं, उसके मुक़ाबले में खड़ा होने के लिए यह बेहद मामूली रकम है.

इसमें कोई शक नहीं है कि भारत को दोतरफा युद्ध से बचने के लिए राजनयिक स्तर पर पूरी कोशिश करनी चाहिए, लेकिन हमें इस सच्चाई को भी स्वीकार करना होगा कि यह काफी नहीं है.

इन तथ्यों और खासतौर पर संसाधनों के अभाव को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत दोतरफा युद्ध गवारा नहीं कर सकता. हालांकि, इन विश्लेषणों में कुछ समस्याएं भी हैं. पहली, यह सोचना नादानी होगी कि भारत सिर्फ राजनयिक कोशिशों के दम से दोतरफा युद्ध को होने से रोक सकता है और वह ऐसा करने में सफल होगा. इसमें कोई शक नहीं है कि भारत को दोतरफा युद्ध से बचने के लिए राजनयिक स्तर पर पूरी कोशिश करनी चाहिए, लेकिन हमें इस सच्चाई को भी स्वीकार करना होगा कि यह काफी नहीं है. सच तो यह है कि भारतीय राजनयिक और नेता चीन और पाकिस्तान के साथ दोतरफा युद्ध तभी रोक पाएंगे, जब वे दोनों भी ऐसा चाहते हों. लेकिन क्या ऐसा होगा? बुनियादी बात यह है कि युद्ध दो पक्षों के बीच होता है. जाने-माने मिलिट्री स्ट्रैटिजिस्ट कार्ल वॉन क्लॉसविट्ज ने अपनी किताब ‘ऑन वॉर’ में लिखा था, “लेकिन युद्ध किसी जिंदा ताकत का बेजान पर एक्शन नहीं है (अगर एक पक्ष हमला करता है और दूसरा बिना प्रतिरोध के हथियार डाल देता है तो उसे युद्ध नहीं कहेंगे). युद्ध तभी होता है, जब दो जिंदा ताक़तों के बीच संघर्ष होता है.” युद्ध की भले ही यह जरूरी शर्त हो, लेकिन यह भी काफी नहीं है. अगर जंग दो जिंदा ताक़तों का संघर्ष है, तो भारत के पाकिस्तान और चीन दोनों के साथ टकराव की आशंका को कैसे ख़ारिज़ किया जा सकता है? अगर चीन और पाकिस्तान मिलकर संघर्ष शुरू करते हैं तो भारत उसे रोकने के लिए शायद ही कुछ कर पाए. तब भारत को पूरे दमखम के साथ उनका मुकाबला करना होगा. इस मामले में युद्ध करने या उससे बचने का फैसला पाकिस्तान और चीन के हाथ में होगा. इस बात को समझाने के लिए मैं एक गंदी मिसाल की मदद ले रहा हूं. बलात्कार पीड़िता अपराध से बचने या उसे रोकने की पूरी कोशिश करती है. वह रेप नहीं चुनती. इस मामले में यह अपराधी पर है कि वह बलात्कार न करे. बलात्कार पीड़िता उसे रोकने की कोशिश करती है. वह अपराध को रोकने के लिए मदद की गुहार लगाती है, भले ही वह मदद मिले या न मिले. इसलिए अगर युद्ध शुरू करना या नहीं करना भारत के हाथ में है तो यही बात चीन और पाकिस्तान पर भी लागू होती है. भारत के नहीं चाहने के बावज़ूद वे उस पर युद्ध थोप सकते हैं.

वहीं, अगर डिप्लोमैसी युद्ध रोकने और विवादों को सुलझाने का ज़रिया है तो विवाद को जंग से भी सुलझाए जाते हैं, फर्क इतना होता है कि इसमें ताकत का इस्तेमाल किया जाता है. डिप्लोमैसी के जरिये युद्ध रोकने की पहल की जितनी ज़िम्मेदारी भारत की बनती है, उतनी ही ज़वाबदेही पाकिस्तान और चीन की भी. जब डिप्लोमैसी के जरिये भारत के युद्ध रोकने की संभावनाओं पर चर्चा होती है, तब इस पहलू को दरकिनार कर दिया जाता है. लोग भूल जाते हैं कि भारत की राजनियक स्तर पर पूरी कोशिश के बावज़ूद जंग छिड़ सकती है. मुकम्मल सैन्य क्षमता और दुश्मन देश से संभावित ख़तरों का जो सवाल है, उसमें संभावित ख़तरों को देखकर सैन्य तैयारियों के तर्क में कुछ दम है. संभावित ख़तरों का अनुमान लगाकर ख़ुद को उससे निपटने के लिए तैयार करना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी कैपेबिलिटी आधारित योजना बनाना भी है. आख़िर, इसमें भी संभावित ख़तरों का पहलू शामिल किया जाता है.

अगर शांति स्थापित करने की कोशिश सफल नहीं रहती तो युद्ध होना तय है. नेता जहां अनिश्चितताओं को लेकर सहज होते हैं, वहीं सेना ऐसा नहीं कर सकती. वह किसी भी अनहोनी से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार रहना चाहती है.

सच तो यह है कि संभावित ख़तरों का पहलू इसका अनिवार्य हिस्सा होता है. वहीं, यह कहना कि संभावित ख़तरों से निपटने के लिए बनाई गई योजना में सिर्फ इसी बात पर नजर रहती है, ठीक नहीं होगा. इसमें एक तो वैसे ख़तरों का अनुमान लगाया जाता है, जिनका पैदा होना तय है. वहीं, ऐसे खतरे भी होते हैं, जिनके बारे में पहले से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. इसलिए, सर्विस हेडक्वॉर्टर्स और रक्षा मंत्रालय के योजनाकारों दोनों की प्राथमिकता तय करनी होगी. पहले तो उन्हें चीन और पाकिस्तान की तुलना में भारत की सैन्य क्षमताओं की कमियों की पहचान करके उन्हें दूर करना होगा, लेकिन इसके साथ लंबी अवधि में अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ाने की भी योजना तैयार करनी होगी. संघर्ष के दौरान कुछ परिस्थितियों के बनने की आशंका दूसरों से अधिक होती है. इस मामले में उलझन इस बात से भी बढ़ जाती है कि संभावित ख़तरों को अनुमान लगाकर बनाई गई योजना भी पूरी तरह सिर्फ इसी पर आधारित नहीं होती, इसमें संघर्ष के दौरान बनने वाली अलग-अलग परिस्थितियों का पहलू भी शामिल होता है. संघर्ष के दौरान क्या-क्या सिचुएशन सामने आ सकती हैं, सैन्य क्षमता तैयार करने का यह कोई परफेक्ट तरीका नहीं है, लेकिन इसके बावज़ूद भविष्य के लिए इससे बेहतर ढंग से ख़ुद को तैयार करने में मदद मिलती है. इसलिए दोतरफा युद्ध से बचना भारत के हाथ में नहीं है, भले ही राजनयिक स्तर पर वह इसके लिए कोई भी पहल क्यों न करे. यह चीन और पाकिस्तान के हाथ में भी है. भारत सैन्य और राजनयिक स्तर पर जो करता है, उसके बावज़ूद वे उसके ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई शुरू कर सकते हैं. इसके अलावा, भारत दुश्मन देशों से संभावित ख़तरों के साथ अलग-अलग अनुमानित परिस्थितियों के आधार पर भविष्य में अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाएगा और हथियार खरीदेगा. शांति कायम रखने के लिए भी सैन्य ताकत को बढ़ाना जरूरी होता है. ऐसे में भारत को कैपेबिलिटी बेस्ड प्लानिंग छोड़ने की सलाह देना ठीक नहीं होगा. रक्षा मामलों को लेकर जो बहस चल रही है, उसमें इन कैपेबिलिटी को लेकर मतभेद हैं. अगर शांति स्थापित करने की कोशिश सफल नहीं रहती तो युद्ध होना तय है. नेता जहां अनिश्चितताओं को लेकर सहज होते हैं, वहीं सेना ऐसा नहीं कर सकती. वह किसी भी अनहोनी से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार रहना चाहती है. हालांकि, मौजूदा मोदी सरकार समेत कोई भी सरकार इसके लिए राजी नहीं होगी क्योंकि उसकी अपनी अलग प्राथमिकताएं हैं. युद्ध की स्थिति में अनिश्चितताओं का सामना पाकिस्तान और चीन को भी करना होगा. अगर वे भारत के ख़िलाफ़ जंग छेड़ते हैं तो भारत की तरफ से कोई तीसरा देश भी उसमें कूद सकता है. यह बात और है कि किसी भी ताक़तवर देश ने भारत को ऐसी गारंटी नहीं दी है. युद्ध असल में किस्मत का खेल है और इसमें पल-पल हालात बदलते हैं. इसलिए भले ही चीन और पाकिस्तान ने भारत की सैन्य क्षमताओं और संघर्ष को लेकर अपने अनुमान लगाए हों, इससे बचने के लिए जितना भारत उन पर आश्रित है, उतने ही वे भी भारत पर आश्रित हैं.

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