Author : Abhishek Sharma

Published on Apr 22, 2024 Updated 0 Hours ago

दक्षिण कोरिया में हाल के चुनाव में विपक्षी पार्टी की जीत राष्ट्रपति को मजबूर करेगी कि वो विदेश नीति की तुलना में घरेलू एजेंडे पर ज़्यादा ध्यान दें.

दक्षिण कोरिया का चुनाव: राजनीतिक गतिरोध का एक और चरण?

दक्षिण कोरिया के संसदीय चुनाव के नतीजों ने ज़्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों को हैरान किया है. रुझानों के विपरीत विपक्ष ने मौजूदा राष्ट्रपति की पार्टी के ख़िलाफ़ आसान जीत हासिल की है. इसने सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष के बीच खाई और बढ़ा दी है. इसका ये मतलब है कि नेशनल असेंबली (संसद) में राजनीतिक गतिरोध जारी रहेगा. नतीजे साफ तौर पर मौजूदा राष्ट्रपति और उनकी नीतियों के ख़िलाफ़ असंतोष को उजागर करते हैं. इंडो-पैसिफिक में एक महत्वपूर्ण हितधारक (स्टेकहोल्डर) के रूप में दक्षिण कोरिया के राजनीतिक समीकरण और उसकी विदेश नीति पर चुनाव के असर को समझना महत्वपूर्ण है.    

दक्षिण कोरिया के संसदीय चुनाव के नतीजों ने ज़्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों को हैरान किया है. रुझानों के विपरीत विपक्ष ने मौजूदा राष्ट्रपति की पार्टी के ख़िलाफ़ आसान जीत हासिल की है. 

एक नया राजनीतिक परिदृश्य

दक्षिण कोरिया का आम चुनाव विपक्ष की बड़े अंतर की जीत के साथ ख़त्म हुआ और इस तरह उसने नेशनल असेंबली में अपना बहुमत बरकरार रखा. 300 सदस्यों की नेशनल असेंबली में डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ कोरिया (DPK) की अगुवाई वाले विपक्ष ने 175 सीटों पर जीत हासिल की. इनमें पीपुल्स पावर पार्टी (PPP), जिसने 108 सीटों पर जीत हासिल की, के ख़िलाफ़ आनुपातिक सीटें शामिल हैं. सीधे तौर पर जहां DPK और PPP के बीच मुकाबला हुआ वहां DPK ने 254 में से 161 सीटों पर जीत हासिल की. DPK ने राजधानी क्षेत्र में लगभग सभी सीटों पर जीत हासिल की जहां नेशनल असेंबली की लगभग आधी सीटें हैं. 2024 के चुनाव में 67 प्रतिशत मतदाताओं ने भागीदारी की जो 32 साल में सबसे ज़्यादा है. 

मुख्य विपक्षी पार्टी DPK के अलावा कुछ छोटी पार्टियों जैसे कि पूर्व न्याय मंत्री चो कुक के नेतृत्व वाली रिबिल्डिंग कोरिया पार्टी (RKP) ने पहली बार नेशनल असेंबली के चुनाव में अपनी राजनीतिक शुरुआत की है. इस पार्टी ने नेशनल असेंबली में 12 आनुपातिक सीटें हासिल कीं जिससे वो दक्षिण कोरिया की राजनीति में एक महत्वपूर्ण किरदार बन गई है. RKP ने लगभग 24 प्रतिशत समर्थन हासिल किया जो उसके विरोधियों जैसे कि पीपुल फ्यूचर पार्टी और डेमोक्रेटिक यूनाइटेड पार्टी के बीच सबसे कम है. ये दोनों पार्टियां मुख्य विपक्षी पार्टी के सहयोगी दल हैं. इसी तरह PPP के पूर्व प्रमुख ली जुन-सियोक की अगुवाई वाली न्यू रिफॉर्म पार्टी (NRP) ने भी दो सीटों पर जीत हासिल की हैं. 

सत्ताधारी पार्टी की हार के बाद प्रधानमंत्री हान डक-सू और PPP प्रमुख हान डोंग-हून समेत कई वरिष्ठ मंत्रियों ने ख़राब प्रदर्शन के लिए ज़िम्मेदारी लेते हुए राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा सौंप दिया. 

सत्ताधारी पार्टी की हार के बाद प्रधानमंत्री हान डक-सू और PPP प्रमुख हान डोंग-हून समेत कई वरिष्ठ मंत्रियों ने ख़राब प्रदर्शन के लिए ज़िम्मेदारी लेते हुए राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा सौंप दिया. 

लंबा विधायी गतिरोध

रूढ़िवादी पार्टी की हार के बाद ये उम्मीद की जा रही है कि राष्ट्रपति घरेलू मुद्दों जैसे कि पिछले दिनों डॉक्टरों के प्रदर्शन पर अपने आक्रामक रवैये में नरमी लाएंगे और महंगाई, रहन-सहन की लागत और रोज़गार के मुद्दों पर मतदाताओं के द्वारा जताई गई चिंताओं की तरफ अधिक संवेदनशील बन जाएंगे. विशेष रूप से 20 और 30 के आसपास की उम्र के युवा पुरुष मतदाताओं की तरफ जो पार्टी के मूल वोटरों में से हैं. अपनी पार्टी की हार के बाद राष्ट्रपति ने अपनी नाकामियों को स्वीकार किया और वादा किया कि वो मतदाताओं के मुद्दों का समाधान करेंगे. उन्होंने कहा “मैं आम चुनाव में जताई गई लोगों की इच्छा को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करूंगा और प्रशासन को सुधारने तथा अर्थव्यवस्था को स्थिर करने और लोगों की आजीविका को बढ़ाने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करूंगा.” लोगों की भावनाओं को व्यक्त करते हुए रूढ़िवादी समाचार संगठन (न्यूज़ आउटलेट) द चोसन भी सहमत हुआ कि चुनाव नतीजे राष्ट्रपति के ‘प्रशासन’ और उनकी पार्टी के ‘कथित अहंकार और अयोग्यता’ के लिए झटके थे. 

अब जबकि राष्ट्रपति की पार्टी के पास एक बार फिर नेशनल असेंबली में बहुमत नहीं है तो ऐसे में उम्मीद लगाई जा रही है कि वो लंबित बिलों को पास कराने और महत्वपूर्ण कानून तैयार करने के लिए विपक्ष के साथ मिलकर काम करेंगे. 

अब जबकि राष्ट्रपति की पार्टी के पास एक बार फिर नेशनल असेंबली में बहुमत नहीं है तो ऐसे में उम्मीद लगाई जा रही है कि वो लंबित बिलों को पास कराने और महत्वपूर्ण कानून तैयार करने के लिए विपक्ष के साथ मिलकर काम करेंगे. आगे की तरफ देखें तो राष्ट्रपति की स्थिति कमज़ोर होगी जिससे निश्चित रूप से पार्टी के भीतर उनका कद कम होगा क्योंकि उनके नेतृत्व में पार्टी अधिक सीटें हासिल करने में नाकाम रही. इसके अलावा अपने पहले के चुनावी वादों को पूरा करने में नाकामी भी उनके बाकी के राजनीतिक कार्यकाल को दागदार बनाएगी. 

राजनीतिक मोर्चे पर देखें तो अपनी जीत के बाद विपक्ष फर्स्ट लेडी पर लगे आरोपों और पूर्व रक्षा मंत्री ली जोंग-सुप की नियुक्ति को लेकर जांच पर ज़ोर देगा. उम्मीद जताई जा रही है कि DPK और चो कुक की पार्टी एक स्वतंत्र और खुली छानबीन के लिए ज़ोर देने के मक़सद से एक साथ आएगी जिस पर राष्ट्रपति पहले वीटो कर चुके हैं. ये राष्ट्रपति के लिए स्थिति और मुश्किल बनाएगी क्योंकि हाल के दिनों के विवाद की वजह से लोगों की राय पहले से ही उनके पक्ष में नहीं है. इसी तरह आर्थिक मोर्चे पर चुनाव के दौरान घोषित की गई कई उदारवादी नीतियों की नतीजों के बाद समीक्षा करनी होगी. इसका ये मतलब होगा कि सरकार के द्वारा टैक्स व्यवस्था, रेगुलेशन और कंपनियों के लिए इन्सेंटिव आसान बनाने पर ज़ोर की योजना को असेंबली में लेफ्ट पार्टियों से मज़बूत विरोध का सामना करना होगा. इसके विपरीत लेफ्ट पार्टियां ‘भारी विरासत (इनहेरिटेंस) और गिफ्ट टैक्स’ और राजनीतिक समर्थन मज़बूत करने के उद्देश्य से लाए गए पेंशन सुधार और श्रमिकों के अनुकूल कानून का समर्थन करेंगी. 

कूटनीतिक भागीदारी को सुस्त करना? 

लेकिन दक्षिण कोरियाई विदेश नीति के लिए मौजूदा चुनाव नतीजे का क्या मतलब होगा? राष्ट्रपति का कार्यभार संभालने के बाद से राष्ट्रपति यून सुक-योल ने अपने पद और शक्तियों का इस्तेमाल अमेरिका के साथ दक्षिण कोरिया की विदेश नीति को फिर से जोड़ने के लिए किया है. इसके साथ ही जब बात इंडो-पैसिफिक में अमेरिका-चीन दुश्मनी की आती है तो उन्होंने देश की विदेश नीति को सामरिक तौर पर अस्पष्टता से सामरिक स्पष्टता में बदल दिया है. दक्षिण कोरिया की बदली हुई नीति को साउथ चाइना सी, ताइवान स्ट्रेट और उत्तर कोरिया समेत अलग-अलग मुद्दों पर उसकी स्थिति के माध्यम से देखा जा सकता है. 

अमेरिका के साथ और नज़दीकी तौर पर जुड़ने के लिए राष्ट्रपति यून के प्रशासन ने दक्षिण कोरिया की इंडो-पैसिफिक रणनीति भी जारी की है और विपक्ष के विरोध के बावजूद जापान के साथ संबंधों को बेहतर बनाने के लिए ज़ोर लगाया है. इसके अलावा उन्होंने उत्तर कोरिया पर अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति की विदेश नीति को खारिज किया और इस प्रक्रिया में चीन को नज़रअंदाज़ करते हुए उग्र नज़रिया अपनाया है. उनके कार्यकाल में यूक्रेन संघर्ष और उत्तर कोरिया को रूस के समर्थन की वजह से रूस के साथ संबंध भी काफी बिगड़े हैं. इसके विपरीत दूसरे देशों जैसे कि यूनाइटेड किंगडम (UK), पोलैंड, वियतनाम, ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और सऊदी अरब के साथ दक्षिण कोरिया के रिश्ते मज़बूत हुए हैं. 

 वैसे तो चुनाव सीधे तौर पर राष्ट्रपति की विदेश नीति के दृष्टिकोण पर असर नहीं डालते हैं लेकिन ये निश्चित तौर पर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और विदेश नीति में ज़्यादा समय खर्च करने की उनकी क्षमता में कटौती करेंगे जबकि ये उनके दो साल के राष्ट्रपति के कार्यकाल की महत्वपूर्ण विशेषता रही है. 

हालांकि, आगे आने वाले समय की बात करें तो राष्ट्रपति को घरेलू राजनीति और विदेश नीति को सावधानीपूर्वक संभालने के बीच दुविधा का सामना करना होगा. वैसे तो चुनाव सीधे तौर पर राष्ट्रपति की विदेश नीति के दृष्टिकोण पर असर नहीं डालते हैं लेकिन ये निश्चित तौर पर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और विदेश नीति में ज़्यादा समय खर्च करने की उनकी क्षमता में कटौती करेंगे जबकि ये उनके दो साल के राष्ट्रपति के कार्यकाल की महत्वपूर्ण विशेषता रही है. अगर वो अपनी व्यापक कूटनीतिक भागीदारी को जारी रखने की इच्छा जताते भी हैं तो उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी- उन्हें घरेलू राजनीति पर समय कम करना होगा जो कि काफी मुश्किल साबित होगा, ख़ास तौर पर तब जब चुनावों में उनकी पार्टी की अभी-अभी हार हुई है और वो मतदाताओं का विश्वास फिर से हासिल करने में ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं. इस प्रकार ये संभावना ज़्यादा है कि राष्ट्रपति कुछ समय के लिए घरेलू मुद्दों जैसे कि आर्थिक एजेंडे से निपटने पर अधिक ध्यान देंगे और उसके बाद धीरे-धीरे अपनी कूटनीतिक भागीदारी को बढ़ाएंगे. 

कुछ हद तक पैर जमाने के बाद विपक्ष विदेश नीति को प्रभावित करने की कोशिश करेगा जैसा कि उसने पहले चीन, जापान, अमेरिका और उत्तर कोरिया के मामले में किया था लेकिन उसमें सीमित सफलता मिली थी. इस तरह हम DPK की तरफ से अधिक बयानबाज़ी और अड़ंगा देखेंगे. वो सरकार की कूटनीतिक भागीदारी की आलोचना करेगी. लेकिन ये लोगों को किस तरह प्रभावित करेगा ये एक बड़ा सवाल है क्योंकि विदेश नीति कोई चुनाव का मुद्दा नहीं है. फिर भी दक्षिण कोरिया का कूटनीतिक रिश्ता विपक्ष की ज़्यादा छानबीन के तहत बना रहेगा. कुछ संबंधों जैसे कि जापान और उत्तर कोरिया को लेकर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश होगी क्योंकि इसके लिए देश में लोगों की दिलचस्पी है. हालांकि चीन और अमेरिका को लेकर रवैया बदलना मुश्किल होगा. इंडो-पैसिफिक में समान विचार वाले देशों जैसे कि भारत, ऑस्ट्रेलिया और आसियान के सदस्यों के साथ संबंधों को मज़बूत करने के मामले में निरंतरता बनी रहेगी. 

आगे का रास्ता

चुनाव नतीजों में राष्ट्रपति की पार्टी की हार ने उन्हें मुश्किल हालात में डाल दिया है. उम्मीद जताई जा रही है कि चुनाव के नतीजे राष्ट्रपति का ध्यान विदेश नीति के एजेंडे से हटाकर आर्थिक मुद्दों जैसी घरेलू चुनौतियों पर अधिक केंद्रित करने के लिए मजबूर करेंगे. विपक्ष की भूमिका मज़बूत होने के साथ अपने वादों के लिए नेशनल असेंबली के भीतर और बाहर राष्ट्रपति को अधिक ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा. इसके अलावा इस बात की संभावना बढ़ रही है कि विदेश नीति विपक्ष के हाथ में एक राजनीतिक हथियार बन रहा है. इसलिए घरेलू राजनीतिक मुद्दों को लेकर राजनीतिक गतिरोध जारी रहने की आशंका है. इसकी वजह से राष्ट्रपति को कूटनीति पर ज़्यादा समय खर्च करने के उलट घरेलू स्तर पर अपनी राजनीतिक पूंजी और प्रतिष्ठा फिर से बनाने और मज़बूत करने में ज़्यादा समय खर्च करना होगा. 

अभिषेक शर्मा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में रिसर्च असिस्टेंट हैं.

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Abhishek Sharma is a Research Assistant with ORF’s Strategic Studies Programme. His research focuses on the Indo-Pacific regional security and geopolitical developments with a special ...

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