Author : Basu Chandola

Published on Jun 08, 2022 Updated 0 Hours ago

इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि देशद्रोह क़ानून का दुरुपयोग हो रहा है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को इस घिसे-पिटे क़ानून की समीक्षा करनी पड़ रही है.

#Sedition Law: देशद्रोह क़ानून का कल, आज और कल….!

एस.जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा आदेश देश में असहमति के भविष्य के लिहाज़ से बेहद अहम है. भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के तहत देशद्रोह की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली अनेक याचिकाओं के संदर्भ में ये आदेश पारित किया गया. इस मामले की सुनवाई के दौरान भारत संघ ने अपने हलफ़नामे में ज़ोर देकर कहा कि उसने IPC के तहत देशद्रोह से जुड़े प्रावधानों की समीक्षा करने और उनपर पुनर्विचार करने का फ़ैसला किया है. भारत संघ की ओर से सुप्रीम कोर्ट से ये भी कहा गया कि सरकार द्वारा पुनर्विचार की प्रक्रिया पूरी कर लिए जाने के बाद वो देशद्रोह से जुड़े क़ानून की संवैधानिक वैधता की पड़ताल कर सकता है. इसके मुताबिक अदालत ने भारत संघ द्वारा पुनर्विचार की प्रक्रिया पूरी किए जाने तक देशद्रोह से जुड़े प्रावधानों के इस्तेमाल को ग़ैर-मुनासिब माना. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस पूरे मसले पर विचार के जारी रहते सरकारों द्वारा देशद्रोह के मामलों में नई FIR दर्ज करने या ज़ोर-ज़बरदस्ती वाली किसी तरह की कार्रवाई नहीं की जाएगी. कोर्ट ने ये भी आदेश दिया है कि देशद्रोह से जुड़ी तमाम लंबित कार्यवाहियां फ़िलहाल रुकी रहेंगी. 

भारत संघ की ओर से सुप्रीम कोर्ट से ये भी कहा गया कि सरकार द्वारा पुनर्विचार की प्रक्रिया पूरी कर लिए जाने के बाद वो देशद्रोह से जुड़े क़ानून की संवैधानिक वैधता की पड़ताल कर सकता है.

इस लेख में सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा आदेश के मद्देनज़र IPC के तहत देशद्रोह के प्रावधानों की चर्चा करते हुए देशद्रोह क़ानून के लिए आगे के संभावित रास्तों की पड़ताल की गई है. साथ ही देश में असहमति के भविष्य पर भी विचार किया गया है. 

इतिहास

देशद्रोह पर क़ानून IPC की धारा 124ए के तहत सामने रखे गए हैं. इसके मुताबिक किसी शख़्स पर देशद्रोह के आरोप लग सकते हैं अगर वो शब्दों, संकेतों या दृश्य रूप में “नफ़रत या अवमानना के हालात पैदा करते हैं या पैदा करने की कोशिश करते हैं; या भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ दुर्भावना भड़काते हैं या भड़काने की कोशिश करते हैं.” इस प्रावधान की गहरी औपनिवेशिक जड़ें हैं. 1837 में सर थॉमस मैकॉले ने अपने मसौदा प्रस्तावों में इस प्रावधान को शामिल किया था. हालांकि, 1860 में मूल रूप से तैयार IPC में ये प्रावधान शामिल नहीं था. 1870 में संशोधन के ज़रिए इसे IPC में जोड़ा गया था. दरअसल इसे English Treason Felony Act 1848 के ढांचे के हिसाब से तैयार किया गया. इसका मक़सद असंतुष्टों, बग़ावती गतिविधियों और विद्रोहियों से निपटना था. आज़ादी से पहले भारतीय समाज में आलोचना के स्वरों और असंतोष को कुचलने के लिए इस क़ानून का जमकर इस्तेमाल किया गया. बाल गंगाधर तिलक जैसे अनेक स्वतंत्रता सेनानियों पर इस प्रावधान के तहत मुक़दमे चलाए गए. 

न्यायपालिका ने समय-समय पर देशद्रोह के मसले पर अपना मार्गदर्शन देते हुए ये स्पष्ट किया है कि असहमति या आलोचना की हरेक घटना को देशद्रोह क़रार नहीं दिया जा सकता.

भारतीय न्यायपालिका ने अनेक अवसरों पर धारा 124ए की व्याख्या पर विचार किया है. तमाम अदालतों ने उन हालातों को साफ़ किया है जिनमें किसी भाषण को देशद्रोही समझा जा सकता है. मिसाल के तौर पर केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने देशद्रोह को “हिंसा भड़काने वाली गतिविधियों को हवा देने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने के इरादे या रुझान दिखाने या सार्वजनिक शांति को नुक़सान पहुंचाने वाली गतिविधियों” तक सीमित कर दिया है. बलवंत सिंह बनाम भारत संघ के मामले में दो टूक कहा गया है कि “आलोचना का हरेक प्रकटीकरण देशद्रोह नहीं है और किसी वक्तव्य को देशद्रोही करतूत बताने से पहले उसके पीछे के असल इरादों पर ग़ौर करना होगा.” इसी तरह पंकज बुटालिया बनाम सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ फ़िल्म सर्टिफ़िकेशन के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि देशद्रोह का निर्णय करते वक़्त इरादे को ज़ेहन में रखना होगा. अदालत ने कहा था कि “कुछ छिटपुट उदाहरणों को अहमियत दिए बिना संपूर्णता के साथ और निष्पक्ष रूप से” किसी बयान पर निर्णय किया जाना चाहिए. साफ़ है कि न्यायपालिका ने समय-समय पर देशद्रोह के मसले पर अपना मार्गदर्शन देते हुए ये स्पष्ट किया है कि असहमति या आलोचना की हरेक घटना को देशद्रोह क़रार नहीं दिया जा सकता.

मौजूदा परिस्थितियां

कई ख़बरों के मुताबिक भारत में 2010 के बाद से 13 हज़ार से ज़्यादा लोगों के ख़िलाफ़ देशद्रोह के तक़रीबन 800 मामले दर्ज किए जा चुके हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट “क्राइम इन इंडिया 2020” के मुताबिक 2018, 2019 और 2020 में देशद्रोह के क्रमश: 70, 93 और 73 मामले दर्ज किए गए. देशद्रोह के मामलों में इज़ाफ़े के बावजूद दोष सिद्ध होने (conviction) के उदाहरण बेहद कम हैं. आंकड़ों पर नज़र दौड़ाएं तो 2014 में दर्ज किए गए देशद्रोह के 47 मामलों में से सिर्फ़ एक में दोष साबित हो सका था. 2015 में दर्ज 30 मामलों में से किसी में गुनाह सिद्ध नहीं हुआ. 2016 में दर्ज 35 मुक़दमों में से केवल एक में अपराध साबित हुआ. इसी तरह 2017 में दर्ज 51 मामलों में से सिर्फ़ एक में, 2018 में 70 मामलों में से भी एक में और 2019 में दर्ज 93 मुक़दमों में से भी केवल एक ही मामले में ही अपराध प्रमाणित हो सका था. दोष साबित होने की नीची दर साफ़ करती है कि धारा 124ए का दुरुपयोग हो रहा है. इस धारा के तहत आवश्यक कारकों के नदारद रहने के बावजूद केस दर्ज किए जा रहे हैं. इस प्रावधान के तहत कई कलाकारों, पत्रकारों और असंतुष्टों के ख़िलाफ़ आरोप साबित करने की नाकाम कोशिशें हो चुकी हैं. मिसाल के तौर पर आदिवासियों के लिए काम कर रहे डॉक्टर और कार्यकर्ता बिनायक सेन पर नक्सली साहित्य रखने के चलते देशद्रोह का आरोप लगाया गया. इसी तरह असीम त्रिवेदी के ख़िलाफ़ देशद्रोह के तहत केस दर्ज किया गया. उनपर देश में भ्रष्टाचार और अनैतिक अफ़सरशाही पर टिप्पणी करने के लिए इस तरह का मामला दर्ज करने की कोशिश हुई थी. 

2017 में दर्ज 51 मामलों में से सिर्फ़ एक में, 2018 में 70 मामलों में से भी एक में और 2019 में दर्ज 93 मुक़दमों में से भी केवल एक ही मामले में ही अपराध प्रमाणित हो सका था. दोष साबित होने की नीची दर साफ़ करती है कि धारा 124ए का दुरुपयोग हो रहा है.

कई सांसदों ने भी इस दुरुपयोग के ख़िलाफ़ अनेक मौक़ों पर मुखर होकर अपनी चिंताएं ज़ाहिर की हैं. मिसाल के तौर पर दिग्विजय सिंह, ग़ुलाम नबी आज़ादबिनॉय विश्वमई. टी मोहम्मद बशीर और संजय राउत ने धारा 124ए के दुरुपयोग को लेकर चिंता जताई है. इतना ही नहीं संसद में अनेक प्राइवेट मेंबर विधेयकों के ज़रिए देशद्रोह क़ानून में बदलाव लाने की कोशिशें हो चुकी हैं. ग़ौरतलब है कि 2018 में गृह मंत्रालय ने क़ानून और न्याय मंत्रालय को पत्र लिखकर विधि आयोग से इस प्रावधान का अध्ययन करने का अनुरोध किया था. इसके बाद विधि आयोग अगस्त 2018 में देशद्रोह पर परामर्श पत्र (consultation paper) के साथ सामने आया था. विधि आयोग ने देशद्रोह क़ानून के भविष्य पर चर्चा के दौरान 10 मुद्दों पर ग़ौर करने का सुझाव दिया था. क़ानून को लेकर ऐसी चिंताओं और इसके दुरुपयोग को लेकर मुखर विरोध के बावजूद देशद्रोह पर बना क़ानून अब भी वजूद में है. हाल तक धारा 124ए के तहत मुक़दमे दर्ज किए जाते रहे हैं. बहरहाल, एस.जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ के मामले में भारत संघ के हलफ़नामे और उसपर आए आदेश के ज़रिए देशद्रोह से जुड़ी धारा 124ए पर फ़िलहाल रोक लग गई है. 

भविष्य

हालिया इतिहास में आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, घाना, नाइजीरिया और युगांडा जैसे दुनिया के कई देशों ने या तो देशद्रोह से जुड़े क़ानूनों को नरम बना दिया है या फिर इनको पूरी तरह से ख़त्म कर दिया है. भारत में देशद्रोह से जुड़े क़ानून का आधार यूनाइटेड किंगडम था. वहां भी कोरोनर्स एंड जस्टिस एक्ट, 2009 के ज़रिए देशद्रोह क़ानून को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है. 

भारत में भी देशद्रोह को लेकर कई प्राइवेट मेंबर बिल लाए गए. उनमें से ज़्यादातर में क़ानून ख़त्म करने की बजाए उसमें सुधार करने की वक़ालत की गई. डी. राजापी. करुणाकरण और एलामारम करीम द्वारा प्रस्तावित प्राइवेट मेंबर बिल में IPC की धारा 124ए को क्रूर और औपनिवेशिक प्रावधान बताकर उसे हटाने की सिफ़ारिश की गई थी. शशि थरूरभतृहरि महताबसौगत रॉय और बैजयंत पांडा द्वारा सामने रखे गए अन्य विधेयकों में इन प्रावधानों में सुधार का प्रस्ताव रखा गया. भले ही देश में देशद्रोह क़ानून के संभावित ख़ात्मे को लेकर उत्साह का माहौल हो लेकिन संभावना ऐसी है कि IPC की धारा 124ए के प्रावधानों में संशोधन कर दिए जाएं. अधिकतर प्राइवेट मेंबर बिलों में ऐसा ही प्रस्ताव किया गया है. विधि आयोग ने भी अपने परामर्श पत्र में राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए देशद्रोह क़ानून को ज़रूरी माना है. इनमें से चंद सुधार नीचे दिए गए हैं:

  • इस तरह का ब्योरा जोड़ना कि सरकारी उपायों, क़दमों या प्रशासनिक कार्रवाई से नापसंदगी जताने की क्रिया को देशद्रोह नहीं माना जा सकता. 
  • ये सफ़ाई शामिल करना कि देशद्रोह केवल तभी लागू होगा जब उसके नतीजे के तौर पर प्रत्यक्ष रूप से हिंसा भड़की हो या किसी निश्चित दंड का भागीदार बनने वाला अपराध हुआ हो.
  • इस प्रावधान के तहत “नापसंदगी” के दायरे को लेकर स्पष्टीकरण जोड़ना.
  • जायज़ विरोध-प्रदर्शनों को लेकर स्पष्टीकरण को शामिल करना.
  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 124ए में प्रक्रिया से जुड़ा सुरक्षा कवच जोड़ना या इस बाबत नीतिगत दिशानिर्देश तैयार करना.

वैसे ये दलील दी जा सकती है कि केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में स्पष्ट दिशानिर्देश होने के बावजूद पुलिस और सरकारी एजेंसियों द्वारा IPC की धारा 124ए का दुरुपयोग जारी है. लिहाज़ा इस प्रावधान में महज़ सुधार करने से ज़मीनी स्तर पर कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिलेगा. ये भी कहा जा सकता है कि संस्थागत सुधारों की ग़ैर-मौजूदगी में महज़ धारा 124ए की शब्दावली में सुधार करने से यथास्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं होगा. इससे निपटने के लिए संशोधित खंडों के बारे में नागरिकों, क़ानून का पालन कराने वाले एजेंसियों और कार्यपालिका के साथ-साथ निचली अदालतों में भी जागरूकता बढ़ानी होगी. सुधार के साथ-साथ इस प्रावधान के दायरे को लेकर समाज के विभिन्न तबक़ों को शिक्षित करने के वक़ालती उपाय अपनाने भी ज़रूरी हैं. 

देशद्रोह पर बने क़ानून का ख़ात्मा या उसमें संशोधन का देश में असहमति और आज़ाद अभिव्यक्ति के भविष्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. क़ानून में बदलावों से ही काफ़ी हद तक ये तय होगा कि देश का कोई नागरिक सरकार के ख़िलाफ़ अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने में सुरक्षित महसूस करेगा या नहीं. उम्मीद की जानी चाहिए कि जो बदलाव आएंगे उनके ज़रिए राष्ट्रीय और सुरक्षा हितों को ध्यान में रखते हुए नागरिकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी और असहमति या विरोध के अधिकार का बचाव मुमकिन हो सकेगा. 

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