Author : Kabir Taneja

Published on Aug 04, 2022 Updated 26 Days ago

अयमान अल-ज़वाहिरी की मौत के बाद अल क़ायदा के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि उसका अगला आका कौन होगा.

अयमान अल-ज़वाहिरी के ख़ात्मे से अल क़ायदा के सामने खड़ा ‘वारिस’ का सवाल

1 अगस्त को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एलान किया कि अमेरिकी सुरक्षा बलों ने अफ़ग़ानिस्तान में एक ड्रोन हमले में अल क़ायदा के मुखिया अयमान अल-ज़वाहिरी को मार गिराया है. ज़वाहिरी 1990 के दशक से ओसामा बिन लादेन का क़रीबी हमराज़ था. उसने लादेन के साथ मिलकर 9/11 आतंकी हमलों की साज़िश रची थी. ख़बरों के मुताबिक वो काबुल के एक संपन्न मोहल्ले में हक़्क़ानी नेटवर्क के मालिक़ाना हक़ वाले मकान में रह रहा था. अमेरिकी ड्रोन हमले का निशाना बनी इमारत भारतीय दूतावास से 2 किमी से भी कम की दूरी पर स्थित है. फ़िलहाल इस दूतावास में एक ‘तकनीकी टीम’ तैनात है. 

अल क़ायदा के सामने अब सवाल ये है कि ज़वाहिरी की जगह कौन लेगा. उसके पास बिन लादेन या ज़वाहिरी की तरह दुनिया की नज़रों में अपना मुकाम बनाने वाला कोई भी जाना-माना करिश्माई नेता नहीं है. 

अगस्त 2021 में अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबानी क़ब्ज़ा इन विद्रोहियों की कामयाबी का एलान था. पश्चिमी ताक़तों के ख़िलाफ़ 20 सालों की लड़ाई के बाद उन्होंने फ़तेह का बिगुल फूंका था. वो तोरा बोरा की पहाड़ियों से निकलकर काबुल के समृद्ध इलाक़ों में आ गए. तालिबान की कामयाबी अल क़ायदा जैसे तमाम दूसरे जिहादी कुनबों की भी जीत थी. इन संगठनों ने तालिबानी विद्रोह की फ़ौजी और माली- दोनों तरह से मदद की थी. तालिबान की जीत के बाद अपने प्रॉपेगैंडा वीडियो के ज़रिए ज़वाहिरी दोबारा सामने आने लगा. मिस्र में जन्मा आतंक का ये आका लंबे वक़्त से सार्वजनिक तौर पर नज़र नहीं आया था. उसके ज़िंदा होने को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं. मुजाहिदीन, तालिबान और हक़्क़ानियों के साथ अल क़ायदा के रिश्ते तीन दशकों से भी ज़्यादा पुराने हैं. लिहाज़ा “सार्वजनिक जीवन” में ज़वाहिरी की वापसी का वक़्त महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं था.     

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक अल क़ायदा का आका बनने की लिस्ट में अगला नंबर सैफ़ अल-अद्ल का है. मिस्र का ये भूतपूर्व कर्नल आज अल क़ायदा के सदस्य के तौर पर एक अजीब ज़िंदगी गुज़ार रहा है.  

ज़वाहिरी दुनिया की नज़रों में

ज़वाहिरी दुनिया की नज़रों में बिन लादेन का साया था. दरअसल ज़वाहिरी को ‘बिन लादेन के पीछे की ताक़त’ के तौर पर जाना जाता था. भले ही कई लोग उसे बेअसर समझते थे लेकिन विश्लेषकों का विचार था कि बुझी हुई शख़्सियत वाला इंसान होने के बावजूद अल क़ायदा के मुखिया के तौर पर वो असरदार था. बिन लादेन की मौत के बाद अपनी जगह बनाने के लिए उसे ज़्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी. तथाकथित इस्लामिक स्टेट के हॉलीवुड जैसे उभार के बीच अल क़ायदा की रफ़्तार सुस्त पड़ने के बावजूद उसने अपने कुनबे की एकजुटता कमोबेश बरक़रार रखी. अल क़ायदा के सामने अब सवाल ये है कि ज़वाहिरी की जगह कौन लेगा. उसके पास बिन लादेन या ज़वाहिरी की तरह दुनिया की नज़रों में अपना मुकाम बनाने वाला कोई भी जाना-माना करिश्माई नेता नहीं है. 1990 के दशक से लेकर 9/11 तक अल क़ायदा के नेता के तौर पर इन दोनों ने अपनी अलग पहचान बना ली थी.  

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक अल क़ायदा का आका बनने की लिस्ट में अगला नंबर सैफ़ अल-अद्ल का है. मिस्र का ये भूतपूर्व कर्नल आज अल क़ायदा के सदस्य के तौर पर एक अजीब ज़िंदगी गुज़ार रहा है. इसके बावजूद उसने अपनी मौजूदगी बनाकर रखी है और ईरान उसका मददगार बना हुआ है. अब्दल-रहमान अल मग़रेबी जैसे दूसरे नेताओं को भी अल क़ायदा का मुखिया बनने की दौड़ में शामिल बताया जा रहा है. अतीत में ओसामा बिन लादेन के बेटों में से एक हमज़ा बिन लादेन को अल क़ायदा के अगले आका के तौर पर देखा जा रहा था. हालांकि 2019 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकी कार्रवाई में हमज़ा बिन लादेन के मारे जाने की तस्दीक़ की थी. इस बारे में और ब्योरा नहीं दिया गया था. बहरहाल किसी नए नेता (जिसके पास पहले से तैयार शख़्सियत या ‘विरासत’ नहीं है) के मुक़ाबले एक और “बिन लादेन” के आका बनने पर अल क़ायदा को नई ताक़त मिलती और उसकी धार पैनी होती. तथाकथित इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में दाएश) के साथ भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला था. उसे भी अपने आका के तौर पर अबु बकर अल-बग़दादी जैसे रुतबे, लड़ाका ताक़त और वैचारिक मज़बूती वाला दूसरा नेता दोबारा नहीं मिल पाया. बग़दादी की मौत के कुछ ही महीनों बाद उसके वारिस अबु इब्राहिम अल-हाशमी अल-क़ुरैशी के सफ़ाए से ISIS का अंदरुनी नेतृत्व तबाह हो गया. यक़ीनन इस झटके से वो अब तक उबर ही नहीं पाया है. तब से लेकर अब तक सीरिया और इराक़ में लगातार ISIS के कई आला लड़ाके मारे जा चुके हैं. इधर, अल क़ायदा में अब कोई विरासती नेतृत्व नहीं रह गया है. ऐसे में अफ़्रीका के अल शहबाब और भारतीय उपमहाद्वीप में अल क़ायदा (AQIS) जैसे ताक़तवर सहायक संगठनों का अल क़ायदा के भविष्य पर कहीं ज़्यादा असर होने के आसार हैं.      

हालात में क्या बदलाव

बहरहाल, ज़वाहिरी के ख़ात्मे से समूह के भीतरी समीकरणों के अलावा कई और सवाल भी खड़े हो गए हैं. मध्य काबुल में हुआ ये ताज़ा हमला ‘क्षितिज के ऊपर (OTH)’ आतंक-निरोधी अभियानों से जुड़ी अमेरिकी नीति का दमदार आग़ाज़ है. अमेरिका अब इसी नीति को ‘आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध’ के पुराने तौर-तरीक़ों के स्थान पर इस्तेमाल में लाना चाहता है. ग़ौरतलब है कि इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान की जंगों में यही पुराना तौर-तरीक़ा अमेरिकी विदेश नीति के गले की सियासी फांस बन गया था. ख़बरों के मुताबिक OTH क्षमता के तहत महीनों तक डेटा और ख़ुफ़िया जानकारियां इकट्ठा करने के साथ-साथ काबुल की सरज़मीं पर क्षमताओं की तैनातियों तक के मसले आते हैं. हालांकि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौजी टुकड़ियों की वापसी के चंद महीनों पहले CIA के मुखिया विलियम जे बर्न्स ने वहां अमेरिकी ख़ुफ़िया तंत्र की क्षमताओं में ज़बरदस्त खलल आने का अंदेशा जताया था. बहरहाल अगस्त 2021 के बाद इन आशंकाओं के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी आतंकनिरोधी मुहिम की सबसे बड़ी कामयाबी ज़वाहिरी के ख़ात्मे के तौर पर सामने आई है. इससे बर्न्स का पुराना आकलन बेबुनियाद साबित हो गया है. ऐसे में सवाल उठता है कि अगस्त 2021 के बाद से हालात में क्या बदलाव आए हैं.   

अगस्त 2021 के बाद इन आशंकाओं के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी आतंकनिरोधी मुहिम की सबसे बड़ी कामयाबी ज़वाहिरी के ख़ात्मे के तौर पर सामने आई है. इससे बर्न्स का पुराना आकलन बेबुनियाद साबित हो गया है. ऐसे में सवाल उठता है कि अगस्त 2021 के बाद से हालात में क्या बदलाव आए हैं. 

इस सवाल से इन मसलों का असली किरदार उभरकर सामने आता है: वो है पाकिस्तान. पाकिस्तानी हवाई सीमा के भीतर अमेरिकी पहुंच के बग़ैर OTH ड्रोन हमले को अंजाम दिए जाने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. अतीत में इन कार्रवाइयों को लेकर अमेरिका के मन में हिचकिचाहट थी. बहरहाल पिछले कुछ महीनों में अमेरिकी अधिकारियों में अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा ख़तरों को निशाना बनाने की OTH क्षमताएं हासिल करने को लेकर पहले से ज़्यादा आत्मविश्वास आ गया है. पाकिस्तान अपनी ख़स्ताहाल अर्थव्यवस्था और अमेरिका के साथ डांवाडोल होते रिश्तों से दो-चार है. इसके बावजूद अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और हक़्क़ानी नेटवर्क तक ज़ाती तौर पर पाकिस्तान की अच्छी पहुंच और रसूख़ क़ायम है. ताज़ा ड्रोन हमले में पाकिस्तान की भूमिका तय है. इस क़वायद के पीछे का मक़सद और इसका मुनाफ़ा- ये वो सवाल हैं जिनके जवाब अगले कुछ हफ़्तों में तब सामने आ सकते हैं जब इस ऑपरेशन से जुड़ी और सूचनाएं छनकर बाहर आएंगी.  

निष्कर्ष 

आख़िर में भारतीय नज़रिए से अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी OTH क्षमता का ज़मीन पर उतरना नीतिगत तौर पर एक अनुकूल घटनाक्रम है. दरअसल पिछले कुछ अर्से से अमेरिकी क्षमताएं और उसका पूरा ज़ोर रूस-यूक्रेन जंग और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन से निपटने पर केंद्रित हो गया है. ताज़ा ड्रोन हमले से ज़ाहिर होता है कि कम से कम आतंकनिरोधी मोर्चे पर अमेरिका के इरादे ढीले नहीं पड़े हैं. शायद भीतरी तौर पर अमेरिका को एहसास हो गया है कि दख़लंदाज़ियों की परंपरागत नीतियों और जंगी तौर-तरीक़ों के बिना भी ख़ुफ़िया दांव-पेचों, तकनीकों और भागीदारियों से आतंकनिरोधी गतिविधियों को अंजाम दिया जा सकता है. भारत के लिए भी भविष्य में भागीदारी की संभावना के हिसाब से ये एक उपयुक्त ढांचा बन सकता है. 

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