Author : Nilanjan Ghosh

Expert Speak India Matters
Published on Sep 08, 2025 Updated 0 Hours ago

जीएसटी स्लैब को कम करके न केवल आम भारतीय परिवारों की जेब पर पड़ने वाले बोझ को कम किया गया है, बल्कि कारोबारी जगत को भी जटिल अनुपालन प्रक्रिया से राहत दी गई है. ताज़ा जीएसटी सुधार उपभोग-आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने वाला साबित होगा.

जीएसटी सुधार 2025: नए GST 2.0 युग की शुरुआत!

Image Source: गेटी

हाल ही में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की अध्यक्षता में हुई वस्तु एवं सेवा कर (GST) परिषद की 56वीं बैठक भारत की अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था में बदलाव के लिहाज़ से मील का पत्थर साबित हो सकती है. इस बैठक के दौरान जीएसटी स्लैब की संख्या को कम करने का निर्णय लिया गया है और अब देश में मुख्य रूप से जीएसटी के सिर्फ़ दो स्लैब ही बचे हैं. ज़ाहिर है कि अर्थशास्त्री लंबे अर्से से जीएसटी स्लैब में बदलाव की मांग कर रहे थे और जीएसटी को सरल, कुशल व विकास को गति देने वाली टैक्स प्रणाली बनाने की पैरोकारी कर रहे थे. अब आख़िरकार जीएसटी काउंसिल ने इस दिशा में क़दम बढ़ाए हैं और जीएसटी के स्लैब कम करके इसका सरलीकरण किया है.

जीएसटी में जो ताज़ा बदलाव किया गया है, उसमें मुख्य रूप से 12 प्रतिशत और 28 प्रतिशत वाले जीएसटी स्लैब को हटाना शामिल है. इससे जीएसटी की एक ऐसी कर प्रणाली बन गई है, जिसमें टैक्स कम हो गया है, यानी अब मुख्य तौर पर 5 और 18 प्रतिशत के जीएसटी स्लैब ही बचे हैं. इस बदलाव से रोज़मर्रा के जीवन में काम आने वाली ज़रूरी वस्तुओं जैसे कि अति-उच्च तापमान (UHT) वाले दूध और पनीर से लेकर तमाम दूसरे घरेलू उपयोग के सामानों पर लगने वाले टैक्स में अभूतपूर्व कमी की गई है. कई चीज़ें तो ऐसी हैं जिन पर पहले 12 प्रतिशत या 18 प्रतिशत जीएसटी वसूला जाता था, लेकिन अब उन्हें 5 प्रतिशत वाले स्लैब में ला दिया गया है, जबकि कई वस्तुओं पर तो जीएसटी समाप्त ही कर दिया गया है. सबसे ख़ास बात यह है कि कैंसर और कई दूसरी घातक बीमारियों के साथ ही पुरानी और लंबे समय तक चलने वाली बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होने वाली 33 जीवन रक्षक दवाओं को 5 प्रतिशत जीएसटी स्लैब से बाहर निकालकर, उन पर टैक्स शून्य कर दिया गया है.

केंद्र सरकार की ओर से जीएसटी दरों में किया गया यह बदलाव कोई मामूली बात नहीं है. दवाइयां ऐसी ज़रूरी चीज़ होती हैं, जिन्हें कोई चाहकर भी ख़रीदना बंद नहीं कर सकता है. यानी दवाएं चाहे कितनी महंगी मिलें, मरीज़ उसे ख़रीदते हैं और यह उनकी मज़बूरी होती है. ज़ाहिर है कि जिन परिवारों में बुजुर्ग सदस्य हैं और लंबे समय से बीमारियों से जूझ रहे हैं, उन्हें हर हाल में दवाएं लेनी होती हैं. पहले जो जीएसटी दरें थीं, उससे उन्हें महंगी दवाएं लेनी पड़ती थीं और इससे उनका ख़र्च बढ़ गया था. इन दवाओं पर लगने वाले जीएसटी कम करने से न सिर्फ़ ऐसे परिवारों की जेब पर पड़ने वाला बोझ कम होगा, बल्कि उन्हें मानसिक तौर पर भी बहुत राहत पहुंचेगी. हालांकि, अभी केवल कुछ दवाओं को ही जीएसटी से मुक्त किया गया है, लेकिन इस क़दम को आगे बढ़ाना चाहिए और एमोक्सिसिलिन जैसी व्यापक स्तर पर उपयोग की जाने वाली अन्य दवाओं को भी इसके दायरे में लाते हुए उन पर लगने वाले टैक्स को भी खत्म किया जाना चाहिए.

कई चीज़ें तो ऐसी हैं जिन पर पहले 12 प्रतिशत या 18 प्रतिशत जीएसटी वसूला जाता था, लेकिन अब उन्हें 5 प्रतिशत वाले स्लैब में ला दिया गया है, जबकि कई वस्तुओं पर तो जीएसटी समाप्त ही कर दिया गया है. 

इस बदलाव के दौरान सरकार ने एक और सराहनीय क़दम उठाया है, यानी व्यक्तिगत स्वास्थ्य एवं जीवन बीमा प्रीमियम पर लगने वाले जीएसटी को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है. ज़ाहिर है कि पहले ऐसे सभी बीमा पर 18 प्रतिशत कर वसूला जाता था. निसंदेह तौर पर इस छूट से देश में बीमा कराना सस्ता होगा और लोगों की पहुंच में होगा. देश में अभी भी बहुत बड़ी आबादी की सामाजिक सुरक्षा के इस उपाय, यानी हेल्थ और लाइफ इंश्योरेंस तक पहुंच नहीं है और इससे इनका दायरा बढ़ेगा, साथ ही आम लोग अपना बीमा कराने के लिए प्रोत्साहित होंगे. जीएसटी काउंसिल ने बीमा प्रीमियम पर लगने वाले कर को समाप्त करके कहीं न कहीं लोगों को बड़ी आर्थिक राहत प्रदान की है. ज़ाहिर है कि लंबे वक़्त से भारत की विकास यात्रा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मध्यमवर्गीय परिवारों की मांगों और ज़रूरतों को नज़रंदाज़ किया जा रहा था और निश्चित रूप से अब उन्हें इससे राहत मिलेगी.

इसके अलावा, सरकार ने हानिकारक और विलासिता की वस्तुओं पर जीएसटी बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया है. सरकार का यह क़दम न केवल न्यायसंगत है, बल्कि आर्थिक रूप से उचित भी है. विलासिता की वस्तुओं पर ज़्यादा जीएसटी लगाकर अपने राजस्व में बढ़ोतरी करने का सरकार का फैसला किसी भी लिहाज़ से अनुचित नहीं है. इस निर्णय से मध्यमवर्ग और निम्न मध्यमवर्ग के लोगों की क्रय शक्ति में इज़ाफा होगा है. ज़ाहिर है कि यह वो वर्ग है जो भारत के विकास की धुरी है और इसके सशक्तिकरण से ही भारत को आर्थिक तरक्की के मार्ग पर और तेज़ी से आगे बढ़ा सकता है.

आर्थिक वृद्धि और लोगों तक कर सुधार का लाभ

भारत में सरकार की ओर से व्यापक अर्थव्यवस्था से जुड़ी अहम चीज़ों यानी राष्ट्रीय उत्पादकता को बढ़ाने और लोगों पर पड़ने वाले करों का बोझ कम करने पर लगातार ध्यान दिया गया है. इन्हीं प्रयासों के तहत सरकार द्वारा पेश किए गए बजटों में निरंतर पूंजीगत व्यय को बढ़ाने की कोशिश की गई है. इस रणनीति का मकसद निजी निवेश को प्रोत्साहित करना है. वहीं दूसरा जो अहम प्रयास किया गया वो है खपत को बढ़ाना और ख़ास तौर पर भारत के तेज़ी से उभरते मध्यमवर्ग के बीच वस्तुओं के संतुलित उपभोग को बढ़ावा देना.

भारत के विकास की बात की जाए, तो इसको गहराई से समझने की ज़रूरत है कि पिछले तीन दशकों में भारत की वृद्धि मुख्य रूप से उपभोग आधारित रही है, यानी इस पर निर्भर रही है कि वस्तुओं का कितना ज़्यादा उपयोग किया जा रहा है. भारत का निजी अंतिम उपभोग व्यय यानी भोजन, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी ज़रूरी और बुनियादी सेवाओं व वस्तुओं पर किया गया कुल ख़र्च अभी भी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग 58 प्रतिशत है. यह आंकड़ा चीन (38 प्रतिशत) या कई दूसरी विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बहुत अधिक है. इससे भी ज़्यादा अहम बात यह है कि भारत के मध्यमवर्गीय परिवारों की सीमांत उपभोग प्रवृत्ति यानी बचत की तुलना में वस्तुओं और सेवाओं पर ख़र्च करने की प्रवृति अमीरों की तुलना में बहुत ज़्यादा है. इसे आसान शब्दों में ऐसे समझा जा सकता है कि एक मध्यमवर्गीय परिवार को अगर टैक्स से राहत मिलती है, तो जो भी पैसा बचता है उसके उपभोग की वस्तुओं पर ख़र्च करने की संभावना बहुत अधिक होती है. ज़ाहिर है कि इससे बाज़ार में पैसे का प्रवाह बढ़ता है और ज़ाहिर तौर पर अर्थव्यवस्था को हर लिहाज़ से बढ़ावा मिलता है.

जीएसटी काउंसिल ने बीमा प्रीमियम पर लगने वाले कर को समाप्त करके कहीं न कहीं लोगों को बड़ी आर्थिक राहत प्रदान की है.

यही वजह है कि सरकार की ओर से जीएसटी स्लैब में जो बदलाव किया गया है और वस्तुओं पर लगने वाले कर को कम किया गया है, वो सिर्फ टैक्स का सरलीकरण नहीं है, बल्कि इसका असर इससे कहीं ज़्यादा है. जीएसटी में कमी से लोगों के पास जो पैसा बचेगा, ज़ाहिर तौर पर उससे परिवारों की घरेलू ख़र्च योग्य आय में बढ़ोतरी होगी. इससे लोग अधिक ख़र्च करने के लिए प्रोत्साहित होंगे और कहीं न कहीं इससे भारत के उपभोग-आधारित विकास मॉडल को मज़बूत करने में मदद मिलेगी. जीएसटी का सरलीकरण ग़रीबी कम करने में भी योगदान देता है, क्योंकि भारत के ग़रीबी के पैमाने उपभोग करने की क्षमता से निर्धारित होते हैं. सरकार के इस फैसले से ग़रीबों की खाने-पीने की वस्तुओं से लेकर दवाओं तक सभी ज़रूरी चीज़ों को ख़रीदने की ताक़त में इज़ाफा होगा और कुल मिलाकर देश के सबसे ग़रीब तबके को बड़ी आर्थिक राहत मिलेगी.

कारोबार से जुड़ी गतिविधियों में वृद्धि

जीएसटी स्लैब में बदलाव से आम लोगों को तो फायदा होगा ही, इससे कारोबार भी बढ़ेगा और बिजनेस जगत को भी काफ़ी लाभ होगा. भारत की पिछली जीएसटी प्रणाली पर नज़र डालें, तो वो दुनिया की सबसे पेचीदा कर प्रणाली थी. जीएसटी की अलग-अलग दरों ने भ्रम पैदा किया, अनुपालन लागत को बढ़ाने का काम किया और तमाम विवादों को भी जन्म दिया. उलझी हुई जीएसटी दरों की वजह से पूरी कर प्रणाली में चार प्रमुख कमियां थी, जिनको लेकर लगातार सवाल खड़े हो रहे थे. पहली कमी तो यह थी कि जिस प्रकार से जीएसटी के कर ढांचे को अलग-अलग श्रेणियों यानी 0 प्रतिशत, 5 प्रतिशत, 12 प्रतिशत, 18 प्रतिशत और 28 प्रतिशत (उपकर अलग से) में बांटा गया था और इससे बहुत भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी. कारोबारियों और उद्योगपतियों को अक्सर समझ में ही नहीं आ पाता था कि उनके उत्पादों को किस टैक्स स्लैब में रखा जाएगा और क्यों रखा जाएगा. साथ ही उचित टैक्स स्लैब में अपना उत्पाद शामिल करने के लिए भी उन्हें काफ़ी संघर्ष करना पड़ता था. जैसे कि खान-पान से जुड़े उत्पादों के प्रसंस्करण से संबंधित प्रक्रिया या फिर उनकी पैकेजिंग में थोड़ा सा भी बदलाव, उस उत्पाद को उच्च या निम्न जीएसटी स्लैब में स्थानांतरित कर सकता था. उदाहरण के तौर पर फ्रेश फूड और फ्रोज़न फूड का जीएसटी स्लैब अलग था, एक की चीज़ के ब्रांडेड और अनब्रांडेड उत्पाद पर अलग टैक्स था. इसकी वजह से अक्सर टैक्स अनुपालन को लेकर विवाद पैदा होते थे, साथ ही कोर्ट-कचहरी में भी मामले फंसे रहते थे. दूसरी कमी यह थी कि जीएसटी के पांच स्लैब होने की वजह से उत्पाद बनाने वाली कंपनियों की अनुपालन लागत बहुत बढ़ गई. कंपनियों और फर्मों को प्रत्येक उत्पाद और सेवा के लिए उचित जीएसटी स्लैब का निर्धारण करने के दौरान अकाउंटिंग, बिलिंग और आईटी सिस्टम में काफ़ी कुछ बदलाव करने पड़े. छोटी कंपनियों और छोटे मैन्युफैक्चरर्स को इससे बहुत परेशानी होती थी और पेचीदा नियम-क़ानूनों व शर्तों के मुताबिक़ काम करने में बेतहाशा ख़र्च करना पड़ता था. पेचीदा जीएसटी स्लैब से तीसरी बड़ी दिक़्क़त यह थी कि इससे उपभोक्ता बाज़ार प्रभावित हो गया था. एक ही तरह के उत्पाद अलग-अलग जीएसटी स्लैब में आ गए थे, यानी कि एक कंपनी जिस खाद्य वस्तु को बनाती है, मान लीजिए उस पर 5 प्रतिशत जीएसटी था, तो दूसरी कंपनी के उसी तरह के उत्पाद पर 12 प्रतिशत जीएसटी लगता था. इससे उत्पादों में कृत्रिम अंतर पैदा हो गया. यह कराधान के समान वस्तुओं पर समान कर के पारंपरिक सिद्धांत के ख़िलाफ़ था. चौथी कमी यह थी कि इसने राजस्व में बढ़ोतरी और बिजनेस में वृद्धि की बीच असमंजस पैदा करने का काम किया. दरअसल, उच्च जीएसटी स्लैब (28 प्रतिशत जीएसटी और उस पर उपकर अलग से) ने कुछ वस्तुओं के उपभोग में कमी लाने का काम किया, यानी लोग चाहकर भी टैक्स की वजह से महंगी वस्तुओं को ख़रीद नहीं पाते थे, हालांकि इससे सरकार को बहुत अधिक राजस्व की प्राप्ति होती थी, इसलिए उच्च टैक्स स्लैब उसके लिए अहम थे. कुल मिलाकर, इसकी वजह से पुराने जीएसटी ढांचे ने दक्षता और राजस्व की ज़रूरतों को बीच खींचतान बढ़ाने का काम किया.

जीएसटी परिषद ने अब टैक्स स्लैब को घटाकर पांच की जगह तीन कर दिया है. ज़ाहिर तौर पर ऐसा करके कंपनियों, उत्पादकों, सेवा प्रदाताओं और कर प्रशासकों समेत सभी हितधारकों की परेशानियों को कम किया गया है. निश्चित रूप से जब कर अनुपालन की लागत कम होगी.

इन सबके अलावा, जीएसटी में कई सारे स्लैब होना वैश्विक स्तर पर स्वीकृत टैक्स मापदंड़ों के भी मुताबिक़ नहीं था. इसने कहीं न कहीं टैक्स दक्षता और कर सरलीकरण के मामले में भारत को पूरी दुनिया में एक कमज़ोर देश बना दिया था. दुनिया के ज़्यादातर देशों में अमूमन जीएसटी और वैट की एक या दो दरें ही प्रचलित हैं. जैसे कि ऑस्ट्रेलिया में जीएसटी की 10 प्रतिशत की एक ही दर है, न्यूजीलैंड में उत्पादों पर 15 प्रतिशत जीएसटी लिया जाता है, तो सिंगापुर में 9 प्रतिशत जीएसटी लिया जाता है. इसी तरह से यूरोपीय संघ में आमतौर पर आवश्यक वस्तुओं पर 17 से 25 प्रतिशत का स्टैंडर्ड वैट और एक रियायती दर (5-10 प्रतिशत) लागू है. इस लिहाज़ से देखा जाए तो भारत में जीएसटी की पांच दरों और उपकर ने इसे एक अपवाद बना दिया था. इतने पेचीदा और उलझाऊ जीएसटी स्लैब्स की वजह से निसंदेह तौर पर ईज ऑफ डूइंग बिजनेस पर असर पड़ा और कारोबारियों को तमाम परेशानियों से जूझना पड़ा.

जीएसटी परिषद ने अब टैक्स स्लैब को घटाकर पांच की जगह तीन कर दिया है. ज़ाहिर तौर पर ऐसा करके कंपनियों, उत्पादकों, सेवा प्रदाताओं और कर प्रशासकों समेत सभी हितधारकों की परेशानियों को कम किया गया है. निश्चित रूप से जब कर अनुपालन की लागत कम होगी, तो इससे सीधे तौर पर उत्पादों की क़ीमतों पर असर पड़ेगा और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा में इज़ाफा होगा. यानी टैक्स स्लैब कम करने से उत्पादकों और उपभोक्ताओं, दोनों को फायदा होगा. इसके अलावा, अपने अप्रत्यक्ष कर ढांचे में बदलाव करने और जीएसटी स्लैब घटाने से वैश्विक स्तर पर न केवल भारत की कर प्रणाली की विश्वसनीयता में वृद्धि हुई है, बल्कि इससे यह भी संकेत मिला है कि भारत कर सुधारों को लेकर बेहद संज़ीदा है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य टैक्स ढांचे के मुताबिक़ अपनी कर प्रणाली को विकसित कर रहा है. ज़रूरी वस्तुओं पर टैक्स कम करते हुए विलासिता की चीज़ों पर टैक्स बढ़ाकर, समता और दक्षता के बीच संतुलन स्थापित किया जाता है. जीएसटी काउंसिल ने अपने ताज़ा निर्णय में इसे बखूबी अंज़ाम दिया है और कराधान के दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों यानी क्षैतिज समता, जिसका मतलब है कि समान संसाधनों वाले लोगों को समान कर देना चाहिए और ऊर्ध्वाधर समता, जिसका मतलब है कि असमान संसाधनों वाले लोगों को अलग-अलग कर देना चाहिए, का भी बेहतर तरीक़े से अनुपालन किया है. इतना ही नहीं, एक युक्तिसंगत जीएसटी प्रणाली भारत को दुनिया का एक ऐसा देश भी बनाने वाली साबित होगी, जहां दूसरे देश निवेश करने के लिए आकर्षित होंगे. मौज़ूदा समय में जब वैश्विक निवेश में कोई बाधा नहीं है यानी कोई भी देश जहां चाहे पूंजी निवेश कर सकता है, साथ ही ऐसे दौर में जब भू-राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई है और जिसके चलते आपूर्ति श्रृंखलाएं भी प्रभावित हो रही हैं, तब भारत की ओर से किया गया यह व्यापक कर सुधार निश्चित तौर पर बेहद कारगर साबित हो सकता है. 

जीएसटी सुधार यानी सही दिशा में उठाया गया क़दम

जीएसटी स्लैब कम करने का यह फैसला हालांकि ऐसा नहीं है, जिससे कर प्रणाली की सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. राज्यों के लिए राजस्व तटस्थता यानी ऐसे बदलाव जिनसे राज्य सरकारों के खजाने में आने वाले राजस्व में कोई बदलाव न हो, राज्यों को होने वाले नुक़सान की भरपाई के लिए तंत्र विकसित करना और कर आधार को व्यापक बनाना यानी ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को कर के दायरे में लाना, जैसे कई सवाल आज भी क़ायम है, जिन पर गंभीरता से काम करने की ज़रूरत है. हालांकि, इसमें कोई शक नहीं है कि जीएसटी काउंसिल का यह निर्णय संरचनात्मक सुधार के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है और लोगों को ज़्यादा जीएसटी से राहत प्रदान करने के साथ ही सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी करने के बीच संतुलन स्थापित करने वाला है. 

जीएसटी स्लैब में किया गया यह सुधार न केवल आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं पर टैक्स का बोझ कम करता है, बल्कि कारोबारियों के लिए कर अनुपालन की प्रक्रिया को भी आसान बनाता है, साथ ही यह भारत के विकास इंजन यानी घरेलू खपत को भी बढ़ाता है. जीएसटी सुधार के दौरान सरकार ने जिस प्रकार से स्वास्थ्य बीमा और जीवन रक्षक दवाओं पर लगने वाले टैक्स को कम किया है, उससे साफ ज़ाहिर होता है कि सरकार नागरिकों के जीवन में आने वाली मुश्किलों को समझती भी है और उनके प्रति संवेदनशील भी है. इतना ही नहीं, जिस तरह से विलासिता की वस्तुओं पर अधिक जीएसटी लगाने का ऐलान किया गया है, वो सरकार के व्यावहारिक पक्ष को उजागर करता है, यानी यह दिखाता है कि जो टैक्स देने में सक्षम हैं, उनसे ज़्यादा टैक्स लिया जाएगा.

इसके अलावा, वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता के वर्तमान महौल में अगर भारत अपनी विकास की गति को बरक़रार रखना चाहता है, तो उसके लिए यह बढ़ता हुआ पूंजीगत व्यय और मज़बूत खपत का तालमेल बेहद अहम साबित होगा. जीएसटी काउंसिल की 56वीं बैठक में कर दक्षता और कर समता के बीच बेहतर संतुलन स्थापित करने का काम किया गया है. यानी एक तरफ जटिल कराधान से पैदा होने वाली आर्थिक दिक़्क़तों और लागत को कम किया गया है, वहीं दूसरी ओर आम लोगों को अधिक टैक्स के बोझ से निजात दिलाई गई है. कुल मिलाकर, जीएसटी काउंसिल ने कर सुधार के इस महत्वपूर्ण क़दम से भारत की आर्थिक यात्रा के अगले चरण की दिशा तय कर दी है.


निलांजन घोष ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डेवलपमेंट स्टडीज़ के वाइस प्रेसिडेंट हैं.

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