Author : Agatha Kratz

Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 09, 2025 Updated 0 Hours ago

मौजूदा विविधीकरण की लहर पर सवारी करने की भारत की क्षमता उसकी अपने यहां घरेलू सुधारों को लागू करने पर ही नहीं, बल्कि US की टैरिफ तथा टेक नीतियों पर भी तय होगी.

यूरोपीय संघ (EU) और चीन के संबंधों की रूपरेखा व भारत पर पड़ने वाला प्रभाव

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दुनिया इस वक़्त यूनाइटेड स्टेट्‌स (US) में होने वाले चीनी निर्यातों पर ट्रंप प्रशासन की ओर से 10-प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ लागू होते हुए देख रही है. ट्रंप प्रशासन ने चीनी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर अंकुश लगाने और उसकी तकनीकी उन्नति को रोकने के लिए और कड़े कदम उठाने की चेतावनी भी दी है. इन सब बातों के बीच यह बात आसानी से भूला दी गई है कि पिछले एक दशक में यूरोपियन यूनियन (EU)-चीन संबंधों में भी व्यापक परिवर्तन देखा गया है. ब्रसेल्स समेत अन्य यूरोपीय राजधानियों में चीन को लेकर धारणा में परिवर्तन आया है. यह परिवर्तन चीन की ओर से अपनाई जाने वाली अनुचित व्यापार प्रैक्टिसेस अर्थात तरीकों को लेकर बढ़ती चिंताओं और दबंग होती जा रही चीनी विदेश नीति और चीन तथा उसके पड़ोसियों के बीच बढ़ रहे तनाव की वजह से आया है. यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के आक्रमण के बावजूद और चल रहे युद्ध के दौरान चीन और रूस के बीच “नो लिमिट्‌स” पार्टनरशिप के कारण ही अपने मुख़्य एशियाई आर्थिक सहयोगी की ओर देखने के यूरोपियंस के नज़रिए में एक बदलाव आया है. यही कारण है कि अब इन संबंधों में अर्थव्यवस्था को प्राथमिकता देने की कोशिश पटरी से उतरती दिखाई दे रही है. हाल ही में चीन की ओवरकैपेसिटिज्‌ और उसकी ग्लोबल ट्रेड स्पीलओवर्स यानी अतिक्षमता और वैश्विक व्यापार में हो रहे उसके दबदबे में वृद्धि को लेकर भी चिंताएं बढ़ी है. इन्हीं कारणों से चीन के व्यावधान पैदा करने वाले आर्थिक तौर-तरीकों को लेकर यूरोप की दीर्घावधि से चली आ रही चिंताएं अब तेजी से अस्तित्व संबंधी चिंताओं में परिवर्तित हो रही है.[1]

यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के आक्रमण के बावजूद और चल रहे युद्ध के दौरान चीन और रूस के बीच “नो लिमिट्‌स” पार्टनरशिप के कारण ही अपने मुख़्य एशियाई आर्थिक सहयोगी की ओर देखने के यूरोपियंस के नज़रिए में एक बदलाव आया है.

पिछले आठ वर्षों के दौरान US की संपूर्ण सरकार की ओर से चीन के ख़िलाफ़ की जा रही बहुआयामी कार्रवाईयों ने ही वैश्विक हेडलाइंस पर कब्ज़ा कर रखा है. इससे ऐसा लगता है कि केवल US ही बीजिंग के ख़िलाफ़ वैश्विक स्तर पर डटकर खड़ा है. लेकिन इसी अवधि में EU की ओर से भी चीनी चुनौती को करारा जवाब देने के लिए उठाए जाने वाले कदमों में तेजी देखी गई है. ब्रसेल्स तथा कुछ सदस्य देशों ने अपने पूर्व के भोलेपन की चादर से बाहर निकलते हुए न केवल अपने डिफेंसिव टूलबॉक्स यानी रक्षात्मक रवैये को चमकाया है, बल्कि अब इसका पूर्णत: उपयोग भी शुरू कर दिया गया है. पिछले दो वर्षों के दौरान यूरोपियन कमीशन (आयोग) ने चीन के ख़िलाफ़ रिकॉर्ड संख्या (2024 में दायर कुल 32 मामलों में से कम से कम 20 मामले चीनी फर्म्स और प्रैक्टिसेस को टार्गेट करते हैं) में ट्रेड डिफेंस केसेस दायर किए हैं.[2] इसमें सीधे आयोग (“एक्सऑफिशियो” अर्थात पदेन) की पहल पर आरंभ की गई जांच भी शामिल है. इसमें सबसे प्रमुख चीन-निर्मित इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (EV) के ख़िलाफ़ शुरू की गई एंटी-सब्सिडी जांच है. इसकी वजह से ही पिछले अक्टूबर में टैरिफ्स लागू किए गए थे.

पिछले दो वर्षों में ब्रसेल्स ने अपने नए डिफेंसिव टूल्स अर्थात रक्षात्मक साधन-द इंटरनेशनल प्रोक्योरमेंट इंस्ट्रुमेंट एंड द फॉरेन सब्सिडिज्‌ रेग्युलेशना (अंतरराष्ट्रीय ख़रीद उपकरण और विदेशी सब्सिडी विनियमन)- का उपयोग करते हुए विंड एनर्जी अर्थात पवन ऊर्जा, सिक्योरिटी इक्वीपमेंट यानी रक्षा उपकरण और मेडिकल डिवाइसेस सेक्टर्स मतलब मेडिकल उपकरणों जैसे कुछ क्षेत्रों में चीनी आर्थिक तौर-तरीकों पर निशाना साधा था. ब्रसेल्स के बाहर भी सदस्य देशों ने अपने देश में आने वाले निवेश संबंधी नियमों को कड़ा किया है. इन सदस्य देशों की ओर से कड़े किए गए नियमों का उद्देश्य बाहर से आने वाले निवेश (विशेषत: चीनी) को यूरोपियन टेक कंपनी और महत्वपूर्ण बुनियादी सुविधाओं का अधिग्रहण करने से रोकना है. कुछ सदस्य देशों ने ऊर्जा निर्माण परियोजनाओं में चुनिंदा चीनी आपूर्तिकर्ताओं पर रोक लगाना शुरू कर दिया है. यह रोक लगाने के पीछे इन देशों की साइबरसुरक्षा संबंधी चिंताएं प्रमुख कारण है.[3] अंतत: इस वक़्त भी EU के आर्थिक सुरक्षा एजेंडे, डी-रिस्किंग ऑब्जेक्टिव्स अर्थात ख़तरों को कम करने के उद्देश्यों और यूरोपियन प्रतिस्पर्धात्मकता को पुन: जागृत करने को लेकर विचार-विमर्श जारी है. 

EU के नए सक्रियतावाद के प्रभाव का मूल्यांकन

इसके बावजूद यूरोप में चीन को लेकर देखे जा रहे नए सक्रियतावाद का EU-चीन आर्थिक संबंधों पर सीमित असर ही दिखाई देता है. यहां हम यूरोप के सक्रियतावाद की तुलना US की ओर से की जा रही कार्रवाईयों से कर रहे हैं. 2018 में पहले ट्रेड वॉर के आरंभ होने के बाद से ही US की चीनी निर्यातों पर निर्भरता में उल्लेखनीय कमी देखी गई है. a लेकिन EU की चीनी सामग्री/वस्तुओं और इनपुट्‌स पर निर्भरता में वृद्धि हुई है. (देखें चित्र 1) चीन में होने वाले कुल US FDI पर नज़र डाले तो चीन में होने वाले US के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की हिस्सेदारी में कमी दिखाई देती है और US में भी चीनी FDI अपने ऑल-टाइम लो अर्थात सर्वकालीन न्यूनतम पर है. 2023 के मुकाबले चीनी फर्म्स ने 2024 में यूरोप में 48 प्रतिशत अधिक निवेश किया है, जबकि चीन में यूरोपियन ग्रीनफील्ड FDI अपनी ऐतिहासिक ऊंचाई पर है. (b) ऐसे में चीन की आर्थिक और रणनीतिक पसंद अथवा विकल्पों की दृष्टि से US के मुकाबले यूरोप ज़्यादा ख़तरा मोल ले रहा है. महत्वपूर्ण खनिजों और ग्रीन-टेक इनपुट्‌स पर यूरोप की निर्भरता पहले ही काफ़ी उच्च थी. अब इसमें और इज़ाफ़ा हो रहा है. इसके साथ ही चीन की अतिक्षमता को लेकर भी यूरोप काफ़ी संवेदनशील दिखाई देता है. यह जानकारी ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक एनालिसिस तथा रोडियम्स क्रॉस-बॉर्डर मॉनिटर के डाटा से साफ़ हो जाती है.

चित्र 1. पार्टनर इंर्पोट्‌स यानी साझेदार आयात में चीन की हिस्सेदारी, तेल और गैस को छोड़कर (2014-2023, प्रतिशत में)

The Outlook For E U China Relations And The Implications For India

स्रोत: इंटरनेशनल ट्रेड सेंटर/अंतरराष्ट्रीय व्यापार केंद्र[4]

इस कमी का कारण विभिन्न नीतियों का मिश्रण है : यूरोप जहां लागू होने में बेहद कड़े और लागू करने में बेहद सुस्त और अक्सर संकुचित विश्व व्यापार संगठन (WTO) पर अधिक ध्यान देता है. ऐसे में यूरोप WTO के अनुरूप व्यापार करते हुए उसके रक्षात्मक आर्थिक साधनों का पालन करता है. यूरोप चीनी ग्रीन-टेन अर्थात हरित-तकनीक आयात और इनपुट्‌स को लेकर ख़ुला रवैया अपनाता हैं, वहीं वह अपने यहां की प्रमुख यूरोपियन उद्योगों को सीमित वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाता है. ये दोनों बातें EU तथा US को मिलने वाले परिणामों में फ़र्क का अहम कारण हैं. डी-रिस्किंग अर्थात ख़तरा कम करने (अक्सर व्यापक और आमतौर पर अवास्तविक उद्देश्यों से परे-जैसा कि नेट जीरो इंडस्ट्री एक्ट में देखा गया है) को लेकर EU की ओर से उच्च स्तर पर कोई संदेश अथवा संकेतों का भी स्पष्ट अभाव दिखाई देता है. इसके अलावा यूरोपियन फर्म्स को पर्यायी उत्पादन करने या सोर्सिंग बेस यानी कच्चा माल मंगवाने के ठिकानों में विविधता लाने को लेकर प्रोत्साहन की कोशिशें भी कम है. इसी वजह से यूरोपियन फर्म्स में चीन को छोड़कर अन्य कंपनियों को स्वीकार करते हुए विविधता लाने को लेकर अनुत्सुकता देखी जाती है. इसके बजाय, आज बिजनेस सर्कल्स अर्थात कारोबारी हलकों में “डायवर्सिफिकेशन फटिग” मतलब “विविधिकरण थकान” का नैरेटिव बन गया है. अंतत: यूरोपियन संदर्भ में चीन को लेकर अधिक रक्षात्मक नीतिगत कार्रवाईयों को EU सदस्य देशों का सार्वभौमिक समर्थन नहीं मिला है. इसका एक उदाहरण है EV ड्यूटी अर्थात शुल्क का जर्मनी की ओर से किया गया विरोध और हंगरी की ओर से चीनी FDI को दिया जाने वाला समर्थन इसका दूसरा उदाहरण है.[5] इसके विपरीत चीन को लेकर US में गहरी द्विदलीय आमसहमति दिखाई देती है.

किस दिशा में आगे बढ़ा जाए?

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए आगे चलते हुए क्या उम्मीद की जानी चाहिए? 2024 में EU तथा चीन के बीच व्यापार एवं निर्यात नियंत्रण मोर्चों पर ‘जस-को-तस’ रूप से तनावपूर्ण स्थितियां देखी गई थी. लेकिन अब इन दोनों के बीच संबंधों में सस्पेंडेड एनीमेशन अर्थात निलंबित सजीवता की स्थिति देखी जा रही है. इसका कारण यह है कि ब्रसेल्स तथा बीजिंग दोनों ही ट्रंप प्रशासन और भूराजनीति पर उसके पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करने और उसे समझने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं.

US की ओर से व्यापार एवं रक्षा ख़र्च को लेकर की जा रही मांगों के दायरे में विस्तार हो गया है. ट्रंप ने ग्रीनलैंड पर बल या ताकत के दम पर कब्ज़ा करने की चेतावनी दी है. इसे यूरोप के उदार लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले और बिग टेक की ज़्यादतियों पर अंकुश लगाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है

ट्रंप की वजह से पैदा हुई असुरक्षितता की वजह से EU के नेता अब अपने दांव सोच-समझकर चलने पर मजबूर हो गए हैं. हाल में ही US ट्रेड एक्शंस यानी अमेरिकी व्यापार कार्रवाईयों (बाइडेन प्रशासन के दौरान स्टील तथा एल्युमीनियम पर लगाए जाने वाले शुल्कों में देखी गई बहु-वर्षीय शांति के बाद अब इसे ट्रंप द्वारा दोबारा लागू करना शामिल है) को लेकर काफ़ी गहरा रोष है. यह चिंता भी बनी हुई है कि अभी US की ओर से और कार्रवाई की जाएगी. हालांकि ट्रांसअटलांटिक परेशानी अब और बढ़ गई है. US की ओर से व्यापार एवं रक्षा ख़र्च को लेकर की जा रही मांगों के दायरे में विस्तार हो गया है. ट्रंप ने ग्रीनलैंड पर बल या ताकत के दम पर कब्ज़ा करने की चेतावनी दी है. इसे यूरोप के उदार लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले और बिग टेक की ज़्यादतियों पर अंकुश लगाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है. रूस के साथ US की शांति वार्ता से यूक्रेन और यूरोप को बाहर रखा गया है. इसके अलावा US के उपराष्ट्रपति जे. डी. वेंस की ओर से फरवरी में हुई म्युनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में यूरोपियन राजनीति के साथ छेड़छाड़ करने या दख़ल देने की कोशिशों को देखते हुए यूरोप में इस बात की चिंता है कि एक नए युग का आरंभ हो रहा है. इस युग में US की ओर से यूरोप को रणनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक मोर्चों पर कम आंकते हुए उसे कमज़ोर करने की कोशिश की जाएगी. यह बात यूरोप की चिंता बढ़ाने वाली साबित हो रही है.

इन कार्रवाईयों की वजह से संपूर्ण समूह असुरक्षित स्थिति में आ गया है. संभवत: इसी वजह से चीन को लेकर यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन तथा अन्य वरिष्ठ EU अधिकारियों के रुख़ में जोर-शोर से परिवर्तन देखा जा रहा है. दावोस में जनवरी में हुए वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक के दौरान वॉन डेर लेयेन ने सुझाया कि चीन को लेकर EU की चिंताएं बनी हुई है, लेकिन यह समूह भविष्य में अपने व्यापार तथा निवेश संबंधी संबंधों को मजबूत करने का भी विचार कर सकता है.[6] वॉन डेर लेयेन ने फरवरी के आरंभ में हुई EU एंबेसेडर्स की वार्षिक बैठक में अपने इसी सुझाव पर दोबारा बल दिया था.[7]

हालांकि इस सॉफ्ट पीवट अर्थात हल्के बदलाव के साथ ठोस कार्रवाई नहीं दिखाई दे रही है अर्थात यूरोपियंस ने चीन को लेकर अपनी नीति में कोई बदलाव नहीं किया है और न ही बीजिंग के साथ सर्वोच्च स्तर पर बातचीत को लेकर नई योजनाओं का ख़ुलासा ही किया गया है. लेकिन अगर ब्रसेल्स को लगा कि US उसे बहुमोर्चों पर घेरते हुए आक्रमण कर रहा है तो वह बीजिंग के साथ अपने तनाव को कम करने की कोशिश करेगा. ऐसा हुआ तो दोनों ही पक्ष ऐसी बातचीत करेंगे जो उनके बीच मुख़्य व्यापार विवादों को हल करने वाली होगी. उदाहरण के रूप में चीन निर्मित EVs पर न्यूनतम आयात मूल्य लगाने संबंधी समझौता. इसके बदले में चीन के ब्रांडी, डेयरी तथा पोर्क के ख़िलाफ़ चल रहे व्यापार रक्षा मामलों को वापस ले लिया जाएगा. इसी वर्ष यूरोप तथा चीन के बीच जलवायु और हरित प्रौद्योगिकी को लेकर द्विपक्षीय बातचीत को नई ऊर्जा मिलती दिखाई दे सकती है. ऐसा उसी वक़्त संभव है जब बीजिंग यूरोप में अपने निवेश में तेजी लाने की तैयारी को दर्शाएगा.

इसके बावजूद EU-चीन संबंधों में अर्थपूर्ण सुधार की राह में काफ़ी रोड़े हैं. चीन को लेकर EU की चिंताओं में कमी नहीं आयी है. इसमें 2025 के दौरान वृद्धि होने की ही संभावना ज़्यादा है. चीन से आयात किए जाने वाले सामान की वजह से EU के औद्योगिक स्तर तथा रोज़गार बाज़ार पर दबाव बढ़ने की संभावना है. उधर चीन की अर्थव्यवस्था में ढांचागत असंतुलन बना हुआ है और US ने अपने बाज़ारों को चीनी उत्पादों के लिए बंद कर दिया है. यूक्रेन को लेकर शांति समझौता हो भी गया तो भी रूस के साथ चीन के गहराते आर्थिक संबंध चिंता का कारण बने रहेंगे. चीन के ख़िलाफ़ यूरोप की ओर से शुरू किए गए व्यापार और समान-अवसर मुहैया करवाने संबंधी मामले आगे बढ़ेंगे और कुछ पर 2025 में सफ़लता देखने को मिलेगी. ऐसे में चीन की ओर से अहम खनिजों और अन्य इनपुट्‌स को लेकर प्रतिरोधी कार्रवाई की जाएगी. इससे निर्भरता पर ध्यानाकर्षण होगा तथा चिंताओं में भी इज़ाफ़ा देखा जाएगा.

US की ओर से दशकों पुरानी ट्रांसअटलांटिक साझेदारी पर सवालिया निशान लगा दिया गया है. इसे देखते हुए बीजिंग को लगता है कि EU इस वक़्त बेहद कमज़ोर है. अत: वह यूरोप की चिंताओं को गंभीरता से लेकर यूरोप को छूट देने के लिए उचित रूप से प्रोत्साहित नहीं दिखाई देता.

फिलहाल इस बात का कोई संकेत दिखाई नहीं देता कि अतिक्षमता और रूस के साथ अपने संबंधों को लेकर EU की चिंताओं का कोई हल चीन की ओर से निकाला जाएगा. US की ओर से दशकों पुरानी ट्रांसअटलांटिक साझेदारी पर सवालिया निशान लगा दिया गया है. इसे देखते हुए बीजिंग को लगता है कि EU इस वक़्त बेहद कमज़ोर है. अत: वह यूरोप की चिंताओं को गंभीरता से लेकर यूरोप को छूट देने के लिए उचित रूप से प्रोत्साहित नहीं दिखाई देता. ऐसे में पूर्ण रूप से सुलह करने की बजाय दोनों ही पक्ष यह कोशिश करेंगे कि उनके संबंधों में आए उबाल के तापमान को कुछ कम किया जाएं.

भारत पर पड़ने वाला संभावित प्रभाव

पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न देशों के लिए भारत “अल्ट-चाइना” गंतव्य स्थल के रूप में उभरा है. इसमें US सबसे पहले और सबसे अहम है. इस सूची में यूरोप भी शामिल है. (देखें चित्र 2) यह बात विशेष रूप से मोबाइल फोन और सोलर PVs जैसे क्षेत्रों पर लागू होती है. यह बात भी सच है कि भारत को अभी भी मैक्सिको या वियतनाम[8] के स्तर की रुचि जगाने में सफ़लता नहीं मिली है. इसका कारण व्यापार और निवेश संबंधी व्यवधान, नियामक एवं प्रशासकीय जटिलताएं हैं. लेकिन वियतनाम और मैक्सिको की आपूर्ति श्रृंखलाओं पर अत्यधिक निर्भरता अब घातक साबित होती जा रही है. ऐसे में भारत ही आकार और स्तर के हिसाब में वह एकमात्र देश है जो चीन की विनिर्माण कुशलताओं की बराबरी करने अथवा उसे दोहराने की क्षमता रखता है.

चित्र 2. तेल एवं गैस को छोड़कर EU आयात में अपनी हिस्सेदारी में सबसे बड़ा सकारात्मक बदलाव लाने वाले व्यापार साझेदार. (2017 तथा 2023)

The Outlook For E U China Relations And The Implications For India

स्रोत: इंटरनेशनल ट्रेड सेंटर/अंतरराष्ट्रीय व्यापार केंद्र[9]

(नोट : इस ग्राफ में केवल अतिरिक्त EU ट्रेड शामिल है. HS प्रॉडक्ट कोड् 2709, 2710 तथा 2711 (तेल एवं गैस) को शामिल नहीं किया गया है.)

यूरोप के लिए अल्पावधि, US टैरिफ्‌स के संदर्भ में और विविधता लाना चुनौतीपूर्ण साबित होगा. लेकिन भूराजनीतिक दौर में नीति और व्यापार उद्देश्य के दृष्टिकोण से चीन से जुड़े ज़ोख़िम को कम करने की कोशिशें कम होने की ज़्यादा संभावना नहीं है. भारतीय मानव संसाधन और बाज़ार की शक्ति तथा उसके तेजी से होते विकास को देखते हुए इस बात की संभावना कम ही है कि विनिर्माण, सोर्सिंग और बाज़ार विविधता के गंतव्य स्थल के रूप में उसकी अनदेखी की जाएगी. इसी वजह से दोनों ओर से व्यापार और निवेश संबंधों को बढ़ाने के महत्वपूर्ण अवसर उपलब्ध होंगे.

भारत “डिप्लोमैटिक डायवर्सिफिकेशन” अर्थात राजनयिक विविधीकरण का भी एक श्रेष्ठ विकल्प है. यह बात नए कमीशन की ओर से भारत को ही अपनी पहली विदेश यात्रा के गंतव्य के रूप में चुने जाने से साबित हो जाती है. EU-भारत के बीच नज़दीकी सहयोग के अनेक अवसर मौजूद है.

भारत “डिप्लोमैटिक डायवर्सिफिकेशन” अर्थात राजनयिक विविधीकरण का भी एक श्रेष्ठ विकल्प है. यह बात नए कमीशन की ओर से भारत को ही अपनी पहली विदेश यात्रा के गंतव्य के रूप में चुने जाने से साबित हो जाती है. EU-भारत के बीच नज़दीकी सहयोग के अनेक अवसर मौजूद है. इसमें कनेक्टिविटी (इसमें वाया भारत-मध्यपूर्व-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर का भी समावेश है) संबंधी साझेदारी और हरित प्रौद्योगिकियों जैसे हाइड्रोजन पर तकनीकी तथा औद्योगिक सहयोग, जलवायु वित्त सहयोग के साथ पीपल-टू-पीपल फ्लो में इज़ाफ़ा और आपूर्ति श्रृंखलाओं में ज़ोख़िम कम करने संबंधी पहल का समावेश है.

ट्रंप के फ़ैसले यहां भी काफ़ी असरदार साबित होंगे या उनका यहां भी प्रभाव पड़ेगा. मौजूदा विविधीकरण की लहर पर सवारी करने की भारत की क्षमता उसकी अपने यहां घरेलू सुधारों को लागू करने पर ही नहीं, बल्कि US की टैरिफ तथा टेक नीतियों पर भी तय होगी. इसका कारण यह है कि US की टैरिफ तथा टेक नीतियां ही वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं के पुनर्गठन को प्रभावित करेंगी. यह इस बात पर भी निर्भर होगा कि क्या वाशिंगटन भारत को दीर्घावधि में एक सुरक्षित और स्थायी रणनीतिक तथा आर्थिक साझेदार के रूप में पेश करना पसंद करेगा अथवा ऐसा करने से परहेज करेगा. हाल में हुए US-भारत शिखर सम्मेलन ने इस बात का तगड़ा संकेत दिया है. ऐसे में EU तथा उसके मुख़्य व्यापार साझेदारों के बीच बढ़े हुए व्यापार संबंधी तनावों के संदर्भ में, ब्रसेल्स निश्चित रूप से ही विकल्पों का विचार करेगा. यही बात भारत के लिए लाभदायक साबित होगी.


[1]  Camille Boullenois, Agatha Kratz, and Daniel H. Rosen, “Overcapacity at the Gate,” Rhodium Group, March 26, 2025, https://rhg.com/research/overcapacity-at-the-gate/; Camille Boullenois and Charles Austin Jordan, “How China’s Overcapacity Holds Back Emerging Economies,” Rhodium Group, June 18, 2024, https://rhg.com/research/how-chinas-overcapacity-holds-back-emerging-economies/ Júlia Palik, Siri Aas Rustad, and Fredrik Methi, “Conflict Trends in Africa, 1989–2019,” PRIO Paper (2020).

[2] “Trade Defence Investigations,” European Commission, https://tron.trade.ec.europa.eu/investigations/ ongoing

[3] https://www.pv-tech.org/lithuania-to-block-chinese-inverters-with-cybersecurity-legislation

[4]  “Trade Map,” https://www.trademap.org/Index.aspx

[5] Jens Kastner, “German Vote Against EV Tariffs Undercuts EU’s Tougher China Stance,” Nikkei Asia, October 4, 2024, https://asia.nikkei.com/Economy/Trade-war/German-vote-against-EV-tariffs-undercuts-EU-stougher- China-stance; Agatha Kratz et al., “Dwindling Investments Become More Concentrated - Chinese FDI in Europe: 2023 Update,” Rhodium Group and MERICS, June 6, 2024, https://merics.org/en/report/ dwindling-investments-become-more-concentrated-chinese-fdi-europe-2023-update

[6] World Economic Forum, “Davos 2025: Special Address by Ursula von der Leyen, President of the European Commission,” January 21, 2025, https://www.weforum.org/stories/2025/01/davos-2025- special-address-by-ursela-von-der-leyen-president-of-the-european-commission/

[7] European Commission, “Speech by President von der Leyen at the EU Ambassadors Conference 2025,” February 4, 2025, https://ec.europa.eu/commission/presscorner/detail/en/speech_25_404

[8] Agatha Kratz et al., China Diversification Framework Report, Rhodium Group, 2024, https://rhg. com/wp-content/uploads/2024/08/Rhodium-China-Diversification-Framework-Report-BRT-Final- Draft_21Jun2024.pdf

[9] “Trade Map”

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Agatha Kratz

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Agatha Kratz is a Partner at Rhodium Group, leading the firm’s corporate advisory work and research on EU-China relations. ...

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