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रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण अहम वस्तुओं की आपूर्ति में पड़ी बाधा ने भौगोलिक रूप से दूर स्थित दक्षिणी पूर्वी एशिया की अर्थव्यवस्थाओं को भी प्रभावित किया है.
यूक्रेन की जंग ने नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था, अन्य देशों की क्षेत्रीय संप्रभुता के सम्मान, और स्वतंत्र एवं खुले हिंद प्रशांत क्षेत्र के केंद्रीयसिद्धांत पर ही सवालिया निशान खड़ा कर दिया है. पिछले एक साल से जारी इस युद्ध का दक्षिणी पूर्वी एशिया जैसे क्षेत्रों पर भी असर पड़ा है, जो‘भौगोलिक रूप से दूरस्थ’ इलाक़े है.
युद्ध से मुख्य रूप से इस क्षेत्र के देशों को आर्थिक दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ा है, जो अमेरिका, यूरोप, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अन्य देशों द्वारा रूसपर लगाए गए प्रतिबंधों का नतीजा है. वैसे तो दक्षिणी पूर्वी एशिया में रूस और यूक्रेन, दोनों ही देशों की बहुत अधिक आर्थिक उपस्थिति नहीं रही है. येबात व्यापारिक आंकड़े से भी ज़ाहिर हो जाती है. इस क्षेत्र के वैश्विक व्यापार में रूस का हिस्सा 0.64 प्रतिशत है, तो यूक्रेन का योगदान महज़ 0.11 फ़ीसद है. फिर भी कुछ विश्लेषकों ने सावधान किया है कि ‘लंबे समय तक चलने वाले इस युद्ध पर जितना अधिक असर यूरोपीय संघ पर पड़ेगा, उसकाअसर फिर दक्षिणी पूर्वी एशिया के व्यापार से लेकर पर्यटन उद्योग तक देखने को मिलेगा.’ मलेशिया के मेबैंक ने एक बयान जारी करके बताया कि, ‘यूरोप की अर्थव्यवस्था में व्यापक गिरावट का आसियान के निर्यात, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विकास पर असर पड़ेगा.’ आसियान के निर्यात मेंयूरोपीय संघ की हिस्सेदारी 9 प्रतिशत है. वहीं, वियतनाम और फिलीपींस के कुल निर्यात में EU का हिस्सा 11 प्रतिशत से अधिक है. मेबैंक ने कहा किआसियान देशों में कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में से ‘11 प्रतिशत यूरोपीय संघ से’ आता है.
दक्षिणी पूर्वी एशिया पर यूक्रेन युद्ध का सबसे प्रत्यक्ष प्रभाव महंगाई के रूप में देखा जा सकता है, जो युद्ध शुरू होने के फ़ौरन बाद तेल और गैस की क़ीमतों में आए उछाल का नतीजा है. इसके अलावा, रूस और यूक्रेन इस क्षेत्र को कृषि उत्पादों, खाद्यान्न और सेमीकंडक्टर बनाने में लगने वाले अहम खनिजों का निर्यात करते हैं.
दक्षिणी पूर्वी एशिया पर यूक्रेन युद्ध का सबसे प्रत्यक्ष प्रभाव महंगाई के रूप में देखा जा सकता है, जो युद्ध शुरू होने के फ़ौरन बाद तेल और गैस की क़ीमतों में आए उछाल का नतीजा है. इसके अलावा, रूस और यूक्रेन इस क्षेत्र को कृषि उत्पादों, खाद्यान्न और सेमीकंडक्टर बनाने में लगने वाले अहम खनिजों का निर्यात करते हैं. कुछ विश्लेषकों ने बताया है कि ‘गेहूं के मुख्य निर्यातकों के रूप में रूस और यूक्रेन की भूमिका और मक्के के बड़े उत्पादक के रूप में यूक्रेन की स्थिति को देखते हुए, इंडोनेशिया और फिलीपींस को गेहूं के निर्यात के झटके झेलने पड़ सकते है और वियतनाम को मक्के के आयात में दिक़्क़तें आ सकती है.’ मिसाल के तौर पर, हाल के वर्षों में वियतनाम ने रूस और यूक्रेन से लगभग 1.5 अरब डॉलर के उर्वरक, लोहा और इस्पात, कोयला और कृषि उत्पादों का आयात किया है. इसी वजह से दक्षिणी पूर्वी एशिया के कुछ बैंकों, जैसे कि DBS सिंगापुर ने चेतावनी कि, ‘कुछ ख़ास उत्पादों के मामले में निर्भरता के सीधे जोखिम है.’ इसी तरह, थाईलैंड में वस्तुओं के दाम में वृद्धि के कारण उत्पादक और ग्राहक दोनों की महंगाई दर लगातार बढ़ रही है. वियतनाम में तेल की क़िल्लत जैसी समस्या पैदा हो गई है और पेट्रोल की जमाख़ोरी की घटनाओं की भी ख़बरें आई है, जिसके कारण दाम और बढ़ गए है.
इस क्षेत्र और विशेष रूप से वियतनाम को हथियारों के निर्यात के मामले में रूस काफ़ी आगे रहा है. लेकिन इन देशों में हथियारों की ख़रीद में विविधता लाने और अपनी ज़रूरतें भारत, अमेरिका और इज़राइल जैसे देशों से हथियार ख़रीदकर पूरी करने की इच्छा साफ़ दिखाई देती है. इसकी वजह केवल मौजूदा युद्ध ही नहीं है. बल्कि, अमेरिका द्वारा CAATSA जैसे क़ानूनों के ज़रिए रूस से हथियार ख़रीदने वाले देशों पर पाबंदी लगाने की चेतावनी देना भी है. लेकिन, कुछ विद्वानों के अनुसार, रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस के हथियारों के ख़राब प्रदर्शन के कारण वियतनाम जैसे देशों की चिंता भी बढ़ रहीहै. दक्षिणी पूर्वी एशिया के बहुत से देशों ने रूस से हथियारों की ख़रीद के सौदे रद्द कर दिए हैं. मिसाल के तौर पर, इंडोनेशिया ने 1.14 अरब डॉलर के SU-35 लड़ाकू विमान ख़रीदने के सौदे को रद्द कर दिया है. वहीं, फिलीपींस, MI-171 हेलीकॉप्टर ख़रीदने के 25 करोड़ डॉलर के सौदे से पीछे हट गयाहै. वहीं, वियतनाम ने फिलहाल रूस से नए हथियार ख़रीदने पर रोक लगा दी है. इसकी एक वजह तो अपने यहां भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अभियान है ही. लेकिन एक कारण ये भी है कि वियतनाम इस बात को लेकर आशंकित है कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के चलते रूस पुराने सौदे के तहत हथियार दे भी पाएगा या नहीं. फिर भी कई विद्वान, जैसे कि एस. राजरत्नम स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ (RSIS) के इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिफेंस ऐंड स्ट्रीटजिक स्टडीज़ (IDSS) में मिलिट्री ट्रांसफ़ॉर्मेशंस प्रोग्राम के विज़िटिंग सीनियर फेलो रिचर्ड ए. बिटज़िंगर की राय है कि, ‘दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के लिए रूस से हथियार ख़रीदने की दिलचस्पी ख़ारिज कर पाना मुश्किल होगा, क्योंकि उनके साथ कोई राजनीतिक शर्त नहीं जुड़ी होती और भुगतान के भी नए नए तरीक़े रहते है.’
युद्ध के कारण, सिंगापुर को छोड़कर दक्षिणी पूर्वी एशिया के ज़्यादातर देशों ने संकट के प्रति बेहद सख़्त प्रतिक्रिया नहीं दी थी. यहां तक कि 26 फरवरी 2022 को आसियान ने एक बयान जारी किया, जिसमें रूस की आलोचना करना तो दूर उसका नाम तक नहीं लिया गया था. इस बयान में बस यही कहा गया था कि, ‘सभी संबंधित पक्ष अधिक से अधिक संयम से काम लें.’ हालांकि, चूंकि ये लड़ाई एक साल से भी ज़्यादा वक़्त तक खिंच गई है, तो कुछ घटनाओं से लग रहा है कि आसियान देश भी केवल कूटनीतिक रुख़ अपनाने के बजाय मज़बूत रुख़ अपना रहे है. इसका पहला उदाहरण 10 से 13 नवंबर 2022 को नॉम पेन्ह में हुआ आसियान का 40वां और 41वां शिखर सम्मेलन था. जिसमें यूक्रेन, दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के साथ दोस्ती और सहयोग के समझौते (TAC) का हिस्सा बना था. सिंगापुर के ISEAS-यूसुफ इसहाक़ इंस्टीट्यूट के रीजनल स्ट्रेटेजिक ऐंड पॉलिटिकल स्टडीज़ प्रोग्राम के सीनियर फेलो और संयोजक होआंग थी हा और ISEAS-यूसुफ इसहाक़ इंस्टीट्यूट के सीनियर फेलो विलियम चूंग की राय ये है कि, ‘नवंबर 2022 के आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान इस समझौते पर यूक्रेन के दस्तख़त करने के गहरे प्रतीकात्मक मायने है क्योंकि TAC-जिसका रूस भी एक सदस्य है- क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय संप्रभुता के साथ साथ बल प्रयोग न करने के सिद्धांत को बेहद पवित्र मानता है.’ इसी तरह 2022 में अपनी G20 अध्यक्षता के दौरान इंडोनेशिया ने बाली G20 शिखर सम्मेलन के दौरान यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर ज़ेलेंस्की को वर्चुअल संबोधन के लिए आमंत्रित किया था और शिखर सम्मेलन के अंत में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव का उल्लेख करते हुए एक कठोर बयान जारी करते हुए कहा था कि, ‘यूक्रेन पर रूस के हमले की कड़े शब्दों में निंदा करते है और मांग करते हैं कि रूस की सेनाएं यूक्रेन के इलाक़ों से पूरी तरह बिना शर्त वापस जाएं.’ ये एक बड़ा क़दम था, क्योंकि चीन और रूस दोनों ही G20 के सदस्य हैं. ये घटनाएं इस बात का प्रतीक हैं कि दक्षिणी पूर्वी एशिया की सोच में बदलाव आ रहा है. हालांकि, आधिकारिक रूप से यूक्रेन युद्ध को लेकर आसियान का रवैया पुराना ही है.
अब रूस और यूक्रेन के युद्ध को ‘किसी दूर लड़े जा रहे संघर्ष’ के रूप में नहीं देखा जा रहा है, जिसका असर भौगोलिक रूप से दूर स्थित दक्षिणी एशिया पर नहीं पड़ेगा. ऊर्जा और खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में वृद्धि, जिसने लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर असर डाला है.
रूस और यूक्रेन के युद्ध ने इस हक़ीक़त को सामने रखा है कि किसी भी देश की संप्रभुता क्षेत्र पर हमले की आशंका वास्तविक है. इसी वजह से दक्षिणी चीन सागर पर चीन और अन्य देशों के दावे के कारण क्षेत्रीय संघर्ष छिड़ने या ताइवान पर चीन के आक्रमण का असर इस इलाक़े पर पड़ने की आशंकाएं बढ़ गई है. ये आशंकाएं सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सिएन लूंग के बयान कि, ‘अगर हम जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली दुनिया की तरफ़ बढ़ चले तो छोटे देशों के लिए अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा’, और जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा के बयान कि, ‘यूक्रेन में यथास्थिति के हनन से पूर्वी एशिया में भी यथास्थिति बदलने का ख़तरा पैदा हो सकता है. फिर चाहे वो दक्षिणी चीन सागर हो, ताइवान हो या फिर सेनकाकू/डियाओयू द्वीप हों’, में झलकती है.
अब रूस और यूक्रेन के युद्ध को ‘किसी दूर लड़े जा रहे संघर्ष’ के रूप में नहीं देखा जा रहा है, जिसका असर भौगोलिक रूप से दूर स्थित दक्षिणी एशिया पर नहीं पड़ेगा. ऊर्जा और खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में वृद्धि, जिसने लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर असर डाला है, ने इस क्षेत्र की जनता के बीच आशंकाएं बढ़ा दी है. ऐसे में भारत, अमेरिका और इज़राइल जैसे देशों के हथियार आयात करके विविधता लाने, हथियार ख़रीदने के तय सौदे रद्द करने और आसियान एवं G20 देशों द्वारा कड़ा रुख़ अपनाने और सख़्त क़दम उठाने से ज़ाहिर है कि दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के बीच ये एहसास बढ़ता जा रहा है कि शुरुआती दिनों में युद्ध को लेकर अपनाए गए नरम रुख़ में बदलाव की ज़रूरत है.
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Premesha Saha is a Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. Her research focuses on Southeast Asia, East Asia, Oceania and the emerging dynamics of the ...
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