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19 जून को थाईलैंड की निवर्तमान कार्यवाहक सरकार ने अपनी अगुवाई में म्यांमार से संवाद करने की बैठक की थी. इस बैठक में दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के संगठन (ASEAN) के सदस्य देशों के साथ साथ लाओस, कंबोडिया, भारत, ब्रुनेई, चीन और वियतनाम के अलावा म्यांमार के प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे. कई देशों ने इस बैठक की आलोचना की. लेकिन, थाईलैंड की पूर्व कार्यवाहक सरकार ने इस अनौपचारिक बैठक को बेहद कामयाब बताया था. इस बैठक में केवल थाईलैंड, लाओस और म्यांमार ने अपने विदेश मंत्री भेजे थे. इस बैठक के लिए थाईलैंड की तरफ़ से भेजे गए न्यौते में लिखा था कि, ‘आसियान को चाहिए कि वो नेताओं के स्तर पर म्यांमार से पूरी तरह संवाद करे.’ थाईलैंड के विदेश मंत्रालय की तरफ़ से जारी बयान में कहा गया कि, ‘ये अनौपचारिक संवाद किसी भी तरह से आसियान की औपचारिक बातचीत नहीं कही जा सकती. लेकिन, इससे आसियान को म्यांमार में हिंसा रोकने के प्रयासों में मदद ज़रूर मिलेगी.’ ये बातचीत, थाईलैंड के पट्टाया में हुई थी. इंडोनेशिया (आसियान का वर्तमान अध्यक्ष), मलेशिया और सिंगापुर जैसे इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण देशों ने इस बैठक का बहिष्कार किया था, जिससे आसियान की एकता में दरार साफ़ तौर पर नज़र आई.
इंडोनेशिया ने इस बैठक में भाग नहीं लेने की वजह ये बताई कि आसियान के सदस्य देशों के बीच, म्यांमार के सैन्य शासकों से संपर्क बढ़ाने पर मतभेद हैं. वहीं, सिंगापुर ने कहा कि अभी म्यांमार की सत्ताधारी सैन्य सरकार के साथ शीर्ष स्तर पर संवाद का सही वक़्त नहीं आया है. थाईलैंड की अगुवाई में हुई इस बैठक की म्यांमार की समानांतर हुकूमत यानी राष्ट्रीय एकता सरकार और वहां के लगभग 300 नागरिक संगठनों और क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों ने कड़ी आलोचना की. उनकी नज़र में थाईलैंड की बुलाई ये बैठक, आसियान देशों के बीच बनी उस आम सहमति का खुला उल्लंघन है, जिसमें तय हुआ था कि सैन्य शासकों के प्रतिनिधियों को उच्च स्तरीय बैठकों से दूर रखा जाएगा.
ये बैठक थाईलैंड ने अपने हितों को प्राथमिकता देते हुए बुलाई है, ख़ास तौर से इसलिए क्योंकि म्यांमार में संकट का असर, व्यापार, शरणार्थियों के हालात और पूरे कारोबारी हालात पर पड़ रहा है.
थाईलैंड की कार्यवाहक सरकार ने इन बैठकों के आयोजन में जो पहल की, उससे इस इरादे की झलक मिलती है कि वो म्यांमार के सैन्य शासकों के प्रति रवैये को लेकर पूरी तरह, थाईलैंड में बनने वाली नई सरकार और आसियान के भरोसे नहीं रह सकती (हो सकता है कि थाईलैंड की नई सरकार, कार्यवाहक सरकार के उलट, लोकतंत्र समर्थक आसियान देशों के साथ तालमेल का फ़ैसला करे, और म्यांमार को लेकर मौजूदा सैन्य नीति को पलट दे). थाईलैंड के उप-प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री डॉन प्रमुदविनाई ने अनौपचारिक बैठक को वाजिब ठहराते हुए इस सोच पर ज़ोर दिया कि म्यांमार के संकट से निपटने के प्रयास सहज होने चाहिए, क्योंकि थाईलैंड की सबसे लंबी यानी लगभग 2416 किलोमीटर लंबी सीमा, म्यांमार से मिलती है. ये बैठक थाईलैंड ने अपने हितों को प्राथमिकता देते हुए बुलाई है, ख़ास तौर से इसलिए क्योंकि म्यांमार में संकट का असर, व्यापार, शरणार्थियों के हालात और पूरे कारोबारी हालात पर पड़ रहा है.
म्यांमार को लेकर थाईलैंड का ये रवैया आसियान द्वारा अपनाए गए रुख़ से बिल्कुल अलग है. नवंबर 2021 में थाईलैंड के उप-प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने अपने म्यांमार दौरे का सार्वजनिक रूप से ऐलान किया था. अपने दौरे में वो म्यांमार में तख़्तापलट करने वाले नेता मिन ऑन्ग हलाइंग से मिले थे. 22 दिसंबर 2022 को थाईलैंड ने मुख्य भूमि वाले दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों और म्यांमार के बीच बैठक की पहल की थी. इसमें कंबोडिया, लाओस, वियतनाम, और म्यांमार शामिल हुए थे. म्यांमार और थाईलैंड के भागीदारों के बीच एक और बैठक अप्रैल 2023 में भी हुई थी. उल्लेखनीय है कि बाद में हुई इन दोनों ही बैठकों में म्यांमार की सैन्य सरकार यानी स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन काउंसिल (SAC) के मंत्रियों ने शिरकत की थी. म्यांमार के साथ इस स्तर के संपर्क, आसियान देशों के पांच बिंदुओं वाली उस आम सहमति (5PC) के उलट हैं, जिन पर आसियान देश अप्रैल 2021 में सहमत हुए थे. थाईलैंड की इन कोशिशों से अपने प्रमुख पड़ोसी देश के प्रति उसके हितों, चिंताओं और ऐतिहासिक नज़रिए का पता चलता है, जिसके तहत थाईलैंड, म्यांमार के साथ आपसी संबंधों का समाधान करना चाह रहा है.
थाईलैंड का मानना है कि आसियान देशों में म्यांमार के हालात का सबसे ज़्यादा असर उसी पर पड़ा है. ख़बरों के मुताबिक़, थाईलैंड में म्यांमार से विस्थापित क़रीब 20 हज़ार लोग और अवैध अप्रवासी रह रहे हैं. दक्षिणी पूर्वी एशिया के अन्य देशों की तरह, थाईलैंड ने 1951 की शरणार्थी संधि या 1967 के इसके प्रोटोकॉल पर दस्तख़त नहीं किए हैं. इसका मतलब ये है कि थाईलैंड के पास इस बात के प्रावधान नहीं हैं कि वो अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुताबिक़, क़ानूनी तौर पर शरणार्थियों को मान्यता दे, या उनका संरक्षण करे.
इसके अलावा थाईलैंड, अंडमान सागर में स्थित म्यांमार के यडाना स्थित तेल के कुओं से तेल और मुख्य रूप से गैस के आयात पर बहुत अधिक निर्भर है. 2021 में तख़्तापलट के बाद, जब शेवरॉन और टोटल ने म्यांमार के तेल और गैस के कुओं में अपनी हिस्सेदारी बेची थी, तो थाईलैंड की सरकारी तेल और गैस कंपनी PTT एक्सप्लोरेशन एंड प्रोडक्शन ने, सक्रियता दिखाते हुए उनकी निवेश की हिस्सेदारी को ख़रीद लिया था.
म्यांमार पर थाईलैंड की ये निर्भरता, कामगारों के सेक्टर तक जाती है. थाईलैंड अपने यहां के तमाम तमाम उद्योगों जैसे कि खेती और मत्स्य पालन में म्यांमार के संगठित और असंगठित, दोनों ही क्षेत्रों के कामगारों पर काफ़ी निर्भर है.
म्यांमार पर थाईलैंड की ये निर्भरता, कामगारों के सेक्टर तक जाती है. थाईलैंड अपने यहां के तमाम तमाम उद्योगों जैसे कि खेती और मत्स्य पालन में म्यांमार के संगठित और असंगठित, दोनों ही क्षेत्रों के कामगारों पर काफ़ी निर्भर है. 2021 में थाईलैंड, म्यांमार का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार था, और, थाईलैंड के कारोबारियों ने म्यांमार में काफ़ी पैसे लगाए हैं, ख़ास तौर से खाद्य और बेवरेज और फार्मास्यूटिकल सेक्टर में.
हालांकि, 2021 में तख़्तापलट के बाद से म्यांमार और थाईलैंड के बीच सीमा के आर-पार व्यापार बहुत कम हो गया है. इसकी बड़ी वजह ये है कि म्यांमार के सैन्य शासक थाईलैंड से तस्करी के ज़रिए विद्रोही बलों तक हथियार पहुंचाने को लेकर आशंकित हैं, और उन्होंने दोनों देशों की सीमा के ज़रिए होने वाले व्यापार पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी हैं. म्यांमार के वाणिज्य मंत्रालय के मुताबिक़, सैन्य शासकों के राज में थाईलैंड के साथ जो सीमा व्यापार वित्त वर्ष 2019-20 में 4 अरब डॉलर का था, वो वित्त वर्ष 2022-23 में घटकर 3.6 अरब डॉलर रह गया है. सीमा पर चल रहे संघर्ष बार बार व्यापार में बाधा डालते हैं, उनसे देरी भी होती है और कारोबारियों पर टैक्स का बोझ भी बढ़ जाता है.
पिछले लगभग दो वर्षों से म्यांमार के सैन्य शासकों के आसियान की उच्च स्तरीय बैठकों में भाग लेने पर पाबंदी लगी हुई है, क्योंकि, म्यांमार के जनरलों ने सत्ता से हटाई गई असैन्य सरकार के साथ बातचीत शुरू करने के समझौते का पालन नहीं किया है. ये सरकार नोबेल पुरस्कार विजेता ऑन्ग सॉन सू की के नेतृत्व में चल रही थी, जिन्हें इस वक़्त क़ैद करके रखा गया है. इसी वजह से जब थाईलैंड की कार्यवाह सरकार ने ‘क्षेत्रीय अनौपचारिक शांति वार्ता’ के लिए म्यांमार की सत्ताधारी सैन्य सरकार के विदेश मंत्री की मेज़बानी करने का फ़ैसला किया, तो इस फ़ैसले के लिए न केवल थाईलैंड की आलोचना हुई, बल्कि, इससे आसियान देशों के आपसी मतभेद भी खुलकर सामने आ गए. आलोचकों ने इशारा किया है कि थाईलैंड के इस क़दम से ‘म्यांमार में चुनी हुई सरकार का तख़्तापलट करने वाले जनरलों की हुकूमत पर वैधानिकता की मुहर लग जाएगी और ये अनुचित है. क्योंकि, ये क़दम आसियान की ओर से शांति की उस आधिकारिक पहल के दायरे से बाहर है, जिसे पांच बिंदुओं वाली आम सहमति (5PC) कहा जाता है.’ लेकिन, सवाल ये है कि इन हालात में क्या सच में ऐसा है कि थाईलैंड के इस क़दम से आसियान की छवि एक बंटे हुए और दरारों वाले संगठन की बनी है? वैसे तो इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर जैसे ज़्यादातर आसियान देश इस बैठक में शामिल होने पर सहमत नहीं हुए. लेकिन, इसके लिए उन्होंने जो वजह बताई वो तो वही थी. ये सभी देश आसियान की बैठकों में आम सहमति से लिए गए उस फ़ैसले पर अडिग रहना चाहते थे कि जब तक, म्यांमार के सत्ताधारी जनरल आसियान द्वारा लगाई गई शर्तों को पूरा नहीं करते, तब तक आसियान देश म्यांमार से कोई बातचीत नहीं करेंगे. इन शर्तों में असैन्य विपक्षी सरकार के साथ बातचीत और हिंसा के मौजूदा दौर पर लगाम लगाने जैसी शर्तें शामिल हैं.
पांच बिंदुओं वाली आम सहमति (5PC) पर, म्यांमार में तख़्तापलट के दो महीने बाद यानी, अप्रैल 2021 में जकार्ता में हुई आपातकालीन बैठक में दस्तख़त किए गए थे. लेकिन, इनकी दिशा में आगे बढ़ने में कोई प्रगति न होने की वजह से बहुत से लोग ये कह रहे हैं कि आसियान (ASEAN) को अब इन बिंदुओं से आगे बढ़ने की ज़रूरत है. लेकिन, क्या इससे थाईलैंड (आसियान के साथी सदस्य देश) को इस बात का संकेत मिल गया है कि वो ऐसी अनौपचारिक बैठकों की मेज़बानी करने लगे और म्यांमार में सत्ताधारी सेना के शीर्ष जनरलों जैसे कि विदेश मंत्री को अपने यहां बातचीत के लिए बुलाने लगे? इससे आसियान की एकता और विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगते हैं. थाईलैंड की चुलांलोंगकोर्न यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर थिटिनान पोंगसुधिरक ने इस बारे में कहा है कि, ‘इंडोनेशिया के नेतृत्व को दरकिनार करके थाईलैंड, संगठन (ASEAN) के अध्यक्ष की भूमिका और आसियान के काम करने के तरीक़े को भी नुक़सान पहुंचा रहा है.’ भले ही ये बात सच है म्यांमार की उथल-पुथल का सबसे ज़्यादा असर थाईलैंड पर ही पड़ा है. लेकिन, चूंकि थाईलैंड में ख़ुद चुनाव हो रहे थे और नई सरकार आने वाली थी (अगर वाक़ई में नई सरकार बनती है,), और जिसने साफ़ कहा था कि वो म्यांमार के सैन्य शासकों मामले में आसियान के पांच बिंदुओं वाली आम सहमति को लेकर प्रतिबद्ध है. तो, ऐसे में कार्यवाहक सरकार द्वारा आनन-फ़ानन में म्यांमार के जनरलों से बातचीत की कोशिश, इस सरकार द्वारा अपनी उपलब्धियों में एक और कामयाबी जोड़ने की बेसब्र कोशिश भर है. वॉशिंगटन डीसी में नेशनल वॉर कॉलेज के विद्वान ज़ाचरी अबुज़ा ने कहा है कि, ‘ऐसा लगता है कि थाईलैंड की कार्यवाहक सरकार अपने देश की सेना और शाही परिवार के नज़दीकी कुलीन वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने को लेकर आमादा नज़र आ रही है.’
इस सरकार द्वारा अपनी उपलब्धियों में एक और कामयाबी जोड़ने की बेसब्र कोशिश भर है. वॉशिंगटन डीसी में नेशनल वॉर कॉलेज के विद्वान ज़ाचरी अबुज़ा ने कहा है कि, ‘ऐसा लगता है कि थाईलैंड की कार्यवाहक सरकार अपने देश की सेना और शाही परिवार के नज़दीकी कुलीन वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने को लेकर आमादा नज़र आ रही है.’
इस साल आसियान के अध्यक्ष इंडोनेशिया के पास पहले ही काफ़ी ज़िम्मेदारियां हैं, जैसे कि आसियान के सामुदायिक निर्माण की परियोजना, साउथ चाइना सी में तनाव, रूस-यूक्रेन युद्ध का असर, अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिद्वंदिता, हिंद प्रशांत को लेकर आसियान के नज़रिए को आगे बढ़ाना, और इस साल तिमोर लेस्ते को आसियान का 11वां सदस्य बनाने की योजना को अमली जामा पहनाना. लेकिन, इंडोनेशिया के विदेश मंत्रालय की तरफ़ से जारी बयान के मुताबिक़, वो ‘अभी भी म्यांमार के लिए आसियान के विशेष दूत के ज़रिए, इस संघर्ष में शामिल सभी पक्षों के साथ समावेशी बातचीत शुरू करने की कोशिश कर रहा है.’ इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि पांच बिंदुओं वाली सहमति जैसी व्यवस्थाएं और म्यांमार संकट को लेकर हुए तमाम शिखर सम्मेलन और बैठकों से कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है. लेकिन, ये भी ठीक नहीं लग रहा है कि संगठन का कोई एक देश आसियान के मंच को पूरी तरह किनारे लगाकर ऐसी अनौपचारिक बैठकें आयोजित करे.
इंडोनेशिया और सिंगापुर जैसे देश शायद ही ऐसी बैठकों का समर्थन करें, क्योंकि आसियान उनकी विदेश नीति का केंद्र बिंदु रहा है. अगर ऐसी बातचीत में आसियान के सभी सदस्य देश शामिल नहीं हैं, तो इससे एक बार फिर आसियान की एकता को लेकर सवाल उठने लाज़मी हैं. आज जब हिंद प्रशांत के उभरते आयामों में आसियान की केंद्रीय भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है. और, इंडोनेशिया व सिंगापुर जैसे देश ये सुनिश्चित करने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं कि इस क्षेत्र में उभर रहे तमाम छोटे बड़े बहुपक्षीय संगठनों के बीच आसियान की प्रासंगिकता बनी रहे. ऐसे में ऐसी ‘अनौपचारिक और गोपनीय बैठकें’ आसियान की एकता के धूमिल पड़ने की अटकलों को हवा ही देंगी.
आसियान के 5PC के आलोचक कहते हैं कि वैकल्पिक योजनाओं और कठोर उपाय किए जाने चाहिए. जैसे कि आसियान में म्यांमार की सदस्यता को निलंबित करना या फिर संयुक्त राष्ट्र को इस मसले से निपटने की छूट देना. हालांकि, ऐसे उपाय कुछ ज़्यादा ही कठोर नज़र आते हैं. लेकिन, अगर आसियान इनमें से कोई भी क़दम उठाना चाहता है, तो ये फ़ैसला आसियान के तरीक़े से और आसियान के मंच पर ही होना चाहिए, जिससे ‘आसियान की केंद्रीय भूमिका’ की विश्वसनीयता सुनिश्चित की जा सके.
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Premesha Saha was a Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. Her research focuses on Southeast Asia, East Asia, Oceania and the emerging dynamics of the ...
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Sreeparna Banerjee is an Associate Fellow in the Strategic Studies Programme. Her work focuses on the geopolitical and strategic affairs concerning two Southeast Asian countries, namely ...
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