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पूरे देश में मुद्रास्फीति की बढ़ती दर की एक मुख्य वजह स्वास्थ्य क्षेत्र में ख़र्च भी है. हालांकि इस उप-घटक की मुद्रास्फीति की प्रवृति पूरी तरह से टिकाऊ नहीं लगती है. हालांकि यह प्रवृति अर्थव्यवस्था में बनी रहती है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले महीनों में कोविड के वैक्सीनेशन और कोरोना संक्रमण की रफ़्तार क्या रहती है.
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लगातार दूसरे महीने सुर्ख़ियों में बनी रही मुद्रास्फीति दर, सीपीआई (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक-संयुक्त), केंद्रीय बैंक की 6 प्रतिशत सीमा से ऊपर रही है. इसे लेकर जून 2021 के लिए साल-दर-साल प्रतिशत परिवर्तन (YoY%) का जो आंकड़ा सामने आया है उसके मुताबिक़ मई 2021 में यह 6.30 दर्ज़ किया गया था जबकि जून 2021 में इसमें मामूली गिरावट दर्ज़ की गई और यह 6.26 फ़ीसदी दर्ज़ किया गया. यह मुख्य रूप से क्रमबद्ध गति को जून 2021 में 0.6 फ़ीसदी तक कम करने के कारण है जबकि मई 2021 में यह आंकड़ा 1.6 फ़ीसदी था.
दूसरे महीने भी मुद्रास्फीति की दर का स्वीकार्य स्तर से ऊंचे जाने की वजह से औसत उपभोक्ता मूल्य सूचकांक वित्तीय वर्ष 21-22 की पहली तिमाही में 5.6 फ़ीसदी दर्ज़ की गई. यह आंकड़ा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के मौद्रिक नीति पर बनी कमेटी(एमपीसी) की पिछली बैठक में तय किए गए 5.2 फ़ीसदी के लक्ष्य से भी ज़्यादा था. बढ़ती मुद्रास्फीति की दर के चलते अब यह बहस छिड़ गई है कि क्या वाक़ई ऐसी स्थिति लंबी अवधि के लिए बनी रहेगी या फिर यह कुछ वक़्त के लिए है. बढ़ती मुद्रास्फीति की दर को कम करने के लिए नीतियों का निर्धारण इस बात पर निर्भर करता है कि इस विवाद का आकलन कौन किस ओर से करता है. अप्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का विश्लेषण इसके स्वरूप की ओर इशारा करता है.\
बढ़ती मुद्रास्फीति की दर के चलते अब यह बहस छिड़ गई है कि क्या वाक़ई ऐसी स्थिति लंबी अवधि के लिए बनी रहेगी या फिर यह कुछ वक़्त के लिए है.
सीपीआई के स्थानिक विश्लेषण के लिए हमने साल दर साल जून 2021 की 33 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश की मुद्रास्फीति दर को जोड़ा है. जिसके बाद जो साल दर साल सीपीआई के आंकड़े सामने आए उसमें मई 2021 के 6.5 फ़ीसदी के मुक़ाबले इसमें जून 2021 में थोड़ी गिरावट दर्ज़ की गई और यह आंकड़ा 6.2 फ़ीसदी तक पहुंच गया. इसी दौरान शहरी क्षेत्र में सीपीआई 5.9 फ़ीसदी के मुकाबले 6.4 फ़ीसदी तक पहुंच गई.
हालांकि जून 2021 में ग्रामीण क्षेत्र में सीपीआई के आंकड़ों में गिरावट देखी गई बावज़ूद इसके ग्रामीण क्षेत्रों में मुद्रास्फीति की बढ़ती दर चिंता का विषय बनी हुई है. देश भर के स्थानिक मानचित्र के विश्लेषण के आंकड़े अगर देखें तो इससे पता चलता है कि ज़्यादा आबादी वाले राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में मुद्रास्फीति की दर ना सिर्फ 6 फ़ीसदी के स्तर से ऊपर है बल्कि यह शहरी क्षेत्रों के मुकाबले भी ज़्यादा है.\
शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में तेजी आने की मुख्य वजह खाने (अंडा, तेल और फैट), फ्यूल, स्वास्थ्य और यातायात के साधनों की कीमतों में बढ़ोतरी है. हालांकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सीपीआई इंडेक्स के बढ़ने के वही कारण हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसका असर ज़्यादा हुआ.
शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में तेजी आने की मुख्य वजह खाने (अंडा, तेल और फैट), फ्यूल, स्वास्थ्य और यातायात के साधनों की कीमतों में बढ़ोतरी है. हालांकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सीपीआई इंडेक्स के बढ़ने के वही कारण हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसका असर ज़्यादा हुआ. इसकी वजह यह है कि सीपीआई की गणना में शहरी क्षेत्र के मुकाबले ग्रामीण इलाक़ों की हिस्सेदारी ज़्यादा होती है.
ऐसा लगता है कि मुद्रास्फीति क्षणिक और स्थायी कारकों के संयुक्त असर का नतीजा होता है. आपूर्ति की ओर से बने दबाव का नतीजा होता है कि खाने पीने की चीज़ों की क़ीमतें बढ़ जाती है और फिर दक्षिण पश्चिम मॉनसून के सामान्य होते ही इसमें गिरावट दर्ज़ की जाती है. इसके साथ ही सरकार द्वारा दालों के बफर स्टॉक के प्रबंधन में हस्तक्षेप करने से भी इनकी कीमतों में कमी दर्ज़ होती है. हालांकि खाद्य तेलों की क़ीमतों में बढ़ोतरी चिंता का विषय बनी हुई है जो कि अंतर्राष्ट्रीय क़ीमतों की ओर इशारा करती है. इसलिए खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में आई तेजी एक क्षणिक पहलू है.
हालांकि क्रूड और बेस मटेरियल की अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी प्राइस के लगातार बढ़ने से कुछ जोख़िम जरूर पैदा हो रहे हैं. ख़ास कर भारत जैसे देश जो ज़्यादातर आयात पर आधारित हैं इस वजह से यहां प्रणालीगत जोख़िम ज़्यादा बढ़ जाता है. लगातार पूर्ति में कटौती का नतीजा है कि क्रूड तेल की क़ीमतों में तेजी देखी जा रही है तो कोरोना के बाद पाबंदियां हटने से दुनिया की अर्थव्यवस्था में धातु की कीमतों में भी बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है. इसमें दो राय नहीं कि इन दोनों के चलते दीर्घकालीन मुद्रास्फीति दर बढ़ने का ख़तरा बढ़ गया. तेल बाज़ार भी तब तक परिवर्तनशील बनी रहेगी जब तक तेल उत्पादक देशों की तेल उत्पादन को लेकर रणनीति साफ नहीं हो जाती है. और जब तक यह साफ नहीं हो जाता है तब तक घरेलू मुद्रास्फीति के दर के बारे में कुछ साफ नहीं कहा जा सकेगा.
अगर सरकार इस साल के अंत तक हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से का वैक्सीनेशन करवा लेती है तो वित्तीय वर्ष 2021-22 की चौथी तिमाही में इस उप घटक का दबाव घट सकता है.
इसके अलावा पूरे देश में मुद्रास्फीति की बढ़ती दर की एक मुख्य वजह स्वास्थ्य क्षेत्र में ख़र्च भी है. हालांकि, इस उप-घटक की मुद्रास्फीति की प्रवृति पूरी तरह से टिकाऊ नहीं लगती है. हालांकि यह प्रवृति अर्थव्यवस्था में बनी रहती है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले महीनों में कोविड के वैक्सीनेशन और कोरोना संक्रमण की रफ़्तार क्या रहती है. अगर सरकार इस साल के अंत तक हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से का वैक्सीनेशन करवा लेती है तो वित्तीय वर्ष 2021-22 की चौथी तिमाही में इस उप घटक का दबाव घट सकता है.
आरबीआई की मौद्रिक नीति बनाने वाली कमेटी के सामने यह बेहद चुनौतीपूर्ण होगा कि वो कैसे पारंपरिक विकास बनाम मुद्रास्फीति के विवाद को सुलझा सकेंगे. इसमें दो राय नहीं कि आर्थिक विकास पहली प्राथमिकता होगी लेकिन मुद्रास्फीति की बढ़ती दर पर भी ध्यान देना ज़रूरी होगा. आरबीआई ने पॉलिसी रेट को 4 फ़ीसदी से कम रखा है और महामारी से अर्थव्यवस्था के उबरने के लिए एक उदार रूख़ अपनाया हुआ है. आगे बढ़ते हुए आरबीआई एक उदार रूख़ बनाए रखने का विकल्प चुन सकती है जिससे परिवार की मुद्रास्फीति दर को कम करने की अपेक्षाओं को पूरा किया जा सके और क़ीमतों में स्थिरता देखने के लिए इंतज़ार कर सके.
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