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Published on Sep 21, 2024 Updated 0 Hours ago

भारतीय वायु सेना (IAF) वर्तमान में अपने बुरे दौर से गुजर रही है और उसकी लड़ने की क्षमता में भी काफ़ी कमी आई है. जिस प्रकार से लड़ाकू विमान लगातार दुर्घटनाग्रस्त हो रहे हैं, आपूर्ति श्रृंखला से जुड़ी दिक़्क़तें बढ़ रही हैं और इंजनों के लिए जनरल इलेक्ट्रिक (GE) पर निर्भरता क़ायम है, उसने भी भारतीय वायु सेना की ताक़त और युद्ध के लिए तैयार रहने के प्रयासों को प्रभावित किया है.

भारतीय वायुसेना की चुनौतियाँ: लड़ाकू विमानों की संख्या में गिरावट पर संकट

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भारतीय वायुसेना (IAF) की परेशानी थमने का नाम नहीं ले रही हैं. भारतीय वायुसेना की स्वीकृत स्क्वाइड्रननों की संख्या 42 है, लेकिन मौज़ूदा वक़्त में वो केवल 30 स्क्वाड्रनों से ही काम चला रही है. इतना ही नहीं, वायुसेना के लड़ाकू विमानों की संख्या भी लगातार घटती जा रही है और हालात ऐसे बन चुके हैं, जिन्हें ठीक करना बेहद मुश्किल लग रहा है. भारतीय वायुसेना की फिलहाल जो सबसे बड़ी परेशानी है, वो है लड़ाकू विमानों का लगातार दुर्घटनाग्रस्त होना. विमान दुर्घटना की सबसे ताज़ा घटना राजस्थान के बाड़मेर में हुई थी, जहां रूस निर्मित मिग-29 लड़ाकू जेट दुर्घटनाग्रस्त हो गया था. इस घटना के बाद भारतीय वायु सेना ने अपने आधिकारिक बयान में कहा था कि यह दुर्घटना बेहद "गंभीर तकनीक़ी ख़राबी" की वजह से हुई थी. ज़ाहिर है कि इसी साल जून की शुरुआत में महाराष्ट्र में वायुसेना का एक सुखोई-20 एमकेआई लड़ाकू विमान जब नियमित प्रशिक्षण उड़ान पर था, तब तकनीक़ी ख़राबी की वजह से दुर्घटनाग्रस्त हो गया था. पिछले डेढ़ दशक में भारतीय वायुसेना और भारतीय नौसेना के प्रमुख लड़ाकू विमानों के दुर्घटनाग्रस्त होने का जो सिलसिला चल रहा है, ये ताज़ा दुर्घटनाएं भी उसी को आगे बढ़ाती हैं.

भारतीय वायुसेना में स्क्वाड्रन की संख्या लगातार घटती जा रही है और इसकी वजह से तीन प्रमुख चुनौतियां मुंह बाए खड़ी है.

लड़ाकू विमानों की संख्या में कमी 

भारतीय वायुसेना में स्क्वाड्रन की संख्या लगातार घटती जा रही है और इसकी वजह से तीन प्रमुख चुनौतियां मुंह बाए खड़ी है. सबसे पहली चुनौती है आईएएफ के सबसे बेहतरीन लड़ाकू विमान लगातार दुर्घटनाग्रस्त होते जा रहे हैं और इस वजह से उसे अपने तमाम मिग -21 लड़ाकू विमानों को खोना पड़ा है. हालांकि, यह अलग बात है कि वायुसेना द्वारा इन विमानों को चरणबद्ध तरीक़े से अपने बेड़े से बाहर किया जा रहा है. वास्तविकता यह है कि वर्ष 2025 के आख़िर तक मिग -21 फाइटर जेट के बाक़ी बचे स्क्वाइड्रन, जिनकी संख्या अब दो ही रह गई है, समाप्त हो जाएंगे. ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर वायुसेना के जिन अड्डों से इन स्क्वाड्रन को संचालित किया जा रहा था, वे खाली हो जाएंगे. गौरतलब है कि मिग-21 की स्क्वाड्रन की जगह पर तेजस लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट मार्क -1A (LCA Mk-1A) को वायुसेना के बेड़े में शामिल किया जाना था. लेकिन, दिक़्क़त यह है कि हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) इन तेजस लड़ाकू विमानों की आपूर्ति नहीं कर पा रही है. एचएएल पर भारतीय वायुसेना की ज़रूरत के मुताबिक़ लड़ाकू विमानों की आपूर्ति करने ज़िम्मेदारी है, लेकिन इसे पूरा करना तो दूर, एचएएल हर साल 16 तेजस लड़ाकू विमानों का उत्पादन करने का लक्ष्य भी पूरा नहीं कर पा रही है. एक और बात है कि तेजस विमान के उत्पादन में हुई देरी को दूर करने के लिए HAL चाहकर कर भी कुछ नहीं कर सकती है. दरअसल, LCA Mk-1A लड़ाकू विमानों में जिन F-404IN20 इंजन का उपयोग किया जाता है, उन इंजनों का निर्माण जनरल इलेक्ट्रिक (GE) कंपनी द्वारा किया जाता है और जीई को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में आई रुकावटों से जूझना पड़ रहा है. जीई की तरफ से स्पष्ट किया गया है कि वो सितंबर 2024 के अंत तक 16 इंजनों की आपूर्ति करने में अक्षम है, अगर वो इस समय तक दो F-404IN20 इंजनों की डिलीवरी कर देती है, तो यह भी बहुत बड़ी बात होगी. तेजस के लिए ज़रूरी इंजनों की आपूर्ति करने को लेकर जीई द्वारा हाथ खड़े करने देने से भारतीय वायुसेना के अधिकारी बेहद परेशानी में पड़ गए हैं.

 

भारतीय वायुसेना की दूसरी बड़ी चुनौती के पीछे तेजस फाइटर विमान की आपूर्ति में रही यही रुकावट है. तेजस के दो वेरिएंट हैं. पहला वेरिएंट है Mk-1A और दूसरा है इसके बाद आने वाला Mk-2 वेरिएंट. तेजस के इन दोनों ही वेरिएंट के लिए इंजन की आपूर्ति जीई कंपनी द्वारा की जाती है. ऐसे में भारतीय वायुसेना को विमानों की आपूर्ति के लिए आने वाले दिनों में दिक़्क़तों का सामना करना पड़ेगा. हालांकि, हाल ही में भारत और अमेरिका के बीच सिक्योरिटी ऑफ सप्लाई अरेंजमेंट (SOSA) समझौता हुआ है. लेकिन भारत को फिलहाल इस समझौता से कोई लाभ मिलने की संभावना नज़र नहीं आती है, क्योंकि समझौते में इसको लेकर स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा गया है कि भारत को ज़रूरी उपकरणों की आपूर्ति कब की जाएगी. कुल मिलाकर SOSA समझौता निकट भविष्य में एचएएल द्वारा तेजस के निर्माण में इंजनों की आपूर्ति की कमी को दूर करने के मामले में कुछ भी मदद नहीं कर सकता है.

 यह उन्नत रडार सुखोई-30 एमकेआई लड़ाकू विमानों की अधिक सटीक तरीक़े से लक्ष्यों का पता लगाने और ख़तरों को भांपने की क्षमता को बढ़ा देगा.

इन्हीं सब वजहों से भारतीय वायुसेना के सामने तीसरी चुनौती खड़ी हो गई है. वो चुनौती यह है कि वायुसेना को केवल आने वाले समय में लड़ाकू विमानों की कमी से जूझना पड़ेगा, बल्कि जो हालात बन रहे हैं, उनमें और भी बुरे दौर का सामना करना पड़ सकता है. उदाहरण के तौर पर भारतीय वायुसेना के बेड़े में शामिल मिग-21 काफ़ी पुराने हो चुके हैं, इसके अलावा इसके दो स्क्वॉड्रन ही बचे हुए हैं, अगले एक साल के भीतर उन्हें भी समाप्त कर दिया जाएगा. इसी मज़बूरी के चलते, भारतीय वायुसेना को सुखोई-30 MKI जैसे अपने फ्रंटलाइन लड़ाकू विमानों को अधिक से अधिक इस्तेमाल करना पड़ रहा है. ज़ाहिर है कि वर्तमान में सुखोई-30 MKI लड़ाकू विमानों को अधिक उड़ान भरनी पड़ रही है. इसके अलावा, चूंकि इन लड़ाकू विमानों की उड़ान की रेंज मिग-21 विमानों की तुलना में अधिक होती है, इसलिए इन्हें बड़े क्षेत्र को कवर करने के लिए उड़ाया जा रहा है. लेकिन इससे कहीं कहीं सुखोई-30 MKI लड़ाकू विमानों पर भी असर पड़ रहा है, क्योंकि अधिक उड़ान भरने से इन विमानों की मशीनरी प्रभावित होती है. मिग-21 के स्थान पर तेजस Mk-1A को अपने बेड़े में शामिल करने में देरी के कारण भारतीय वायुसेना को अब दो मोर्चों पर ज़बरदस्त मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. एक तरफ जहां अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी ने भारत के स्वदेश निर्मित तेजस लड़ाकू विमानों के लिए इंजन की आपूर्ति करने में अपनी असमर्थता ज़ाहिर कर दी है, वहीं दूसरी तरफ रूस की रोसोबोरोनएक्सपोर्ट ने सुखोई-30 MKI के लिए ज़रूरी अपग्रेड उपलब्ध कराने में अपने हाथ खड़े कर दिए हैं. हालांकि, भारत के लिए सुखोई-30 MKI के इंजन का अपग्रेड हो पाना उतना गंभीर मसला नहीं है, जितना कि तेजस के निर्माण के लिए इंजन की आपूर्ति नहीं होना है. इसका कारण यह है कि वर्ष 2023 में एचएएल ने रोसोबोरोनएक्सपोर्ट पर दबाव बनाकर उसे भारत में किए गए सुखोई-30 MKI के इंजन के अपग्रेड को अनुकूल बनाने के लिए राज़ी किया है. रूसी निर्यात कंपनी रोसोबोरोनएक्सपोर्ट ने माना है कि यूक्रेन में चल रहे रूसी युद्ध की वजह से वो चाहकर भी सुखोई-30 MKI विमानों के लिए व्यापक तकनीक़ी अपग्रेड उपलब्ध कराने में विफल रही है. हक़ीक़त यह है कि हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड पहले से ही सुखोई-30 MKI लड़ाकू विमानों के इंजन के उन्नयन की कोशिशों में जुटा हुआ है. गौरतलब है कि सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी (CCS) ने 2 सितंबर, 2024 को रक्षा खरीद प्रक्रिया (DPP) की आत्मनिर्भर पहल को बढ़ावा देते हुए भारतीय वायुसेना के सुखोई-30 एमकेआई लड़ाकू विमानों के लिए नए इंजन की आपूर्ति के लिए रक्षा मंत्रालय और हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के बीच 26,000 करोड़ रुपये के समझौते को मंज़ूरी दी है. इस समझौते के अंतर्गत HAL को 240 नए AL-31P इंजन बनाने का काम सौंपा गया है. वायुसेना द्वारा ये इंजन एचएएल से लिए जाएंगे और उनमें 54 प्रतिशत उपकरण स्वदेशी होंगे. इस समझौते के तहत एचएएल एक साल में एयरो-इंजन की आपूर्ति शुरू कर देगा और आठ साल में सभी 240 इंजनों की डिलीवरी पूरी की जाएगी. ज़ाहिर है कि HAL द्वारा AL-31P विमान इंजनों की डिलीवरी अगले कई वर्षों तक सुखोई-30 MKI लड़ाकू विमानों को ज़रुरत के मुताबिक़ अपग्रेड करने में सहायक सिद्ध होगी. इतना ही नहीं, इससे रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से आपूर्ति श्रृंखलाओं में आई फौरी अड़चन भी समाप्त हो जाएगी. एचएएल द्वारा सुखोई-30 MKI के लिए एयरो-इंजन के अलावा दूसरे अपग्रेडेशन भी भारत में ही करने की उम्मीद है, जिसमें उन्नत श्रेणी का "विरुपाक्ष" एक्टिव इलेक्ट्रॉनिकली स्कैन्ड एरे (AESA) रडार शामिल है. यह उन्नत रडार सुखोई-30 एमकेआई लड़ाकू विमानों की अधिक सटीक तरीक़े से लक्ष्यों का पता लगाने और ख़तरों को भांपने की क्षमता को बढ़ा देगा. सुखोई-30 MKI विमानों में वर्तमान में जो रूसी रडार लगे हुए हैं, उनकी तुलना में यह रडार विमान की क्षमता में 1.5 से 1.7 गुना तक इज़ाफा कर देगा. स्वदेशी विरुपाक्ष रडार का विकास रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) द्वारा किया गया है. विरुपाक्ष रडार की मदद से, सुखोई-30 MKI लड़ाकू विमान लक्ष्य पर हवा से हवा में 100 किलोमीटर रेंज की अस्त्र-1 मिसाइलें दाग सकते हैं. यानी, इस रडार के लगने के बाद सुखोई-30 एमकेआई विमान द्वारा चीन और पाकिस्तान के हवाई लक्ष्यों पर अधिक प्रभावशाली तरीक़े से निशाना साधा जा सकेगा, साथ ही उनके हवाई हमलों को आसानी से रोका जा सकेगा. अस्त्र-1 मिसाइल का विकास डीआरडीओ द्वारा किया गया है. डीआरडीओ द्वारा अस्त्र-1 मिसाइल के लंबी दूरी के संस्करण जैसे कि 160 किलोमीटर की रेंज वाली अस्त्र-2 मिसाइल एवं सॉलिड फ्यूल रैमजेट से संचालित होने वाली अस्त्र-3 मिसाइल का भी विकास किया जा रहा है. इन मिसाइलों की वजह से सुखोई-30 एमकेआई लड़ाकू विमान की मारक क्षमता में ज़बरदस्त वृद्धि होगी और यह दुश्मन के लिए काफ़ी घातक सिद्ध होगा.

कुल मिलाकर संक्षेप में यह कहना उचित होगा कि लड़ाकू विमानों की कमी से जूझ रही भारतीय वायु सेना के सामने कुछ उम्मीद की किरणें ज़रूर दिखाई देती हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यही है कि आईएएफ के सामने व्यापक चुनौतियां बनी हुई हैं और फिलहाल इनका कोई समाधान भी नज़र नहीं आ रहा है.

आगे की राह 

वहीं अगर तेजस लड़ाकू विमान की बात की जाए, तो इसके निर्माण के लिए एचएएल एवं भारतीय वायुसेना के पास केवल जीई से ही इंजन ख़रीदने का विकल्प बचा हुआ है. इसकी वजह यह है कि स्वदेशी हल्के तेजस लड़ाकू विमान में कारगर जिस स्वदेशी कावेरी इंजन को विकसित किया जा रहा, उसमें अभी समय लगेगा. हाल-फिलहाल की बात की जाए, तो एलसीए तेजस के एमके-1 दो सीटों वाले विमान के लिए जिस ड्राई इंजन का उपयोग किया जाता है, अगर उसका परीक्षण किया जाता है, तो इसे तेजस लड़ाकू विमान में ज़रूर इस्तेमाल किया जा सकता है. हालांकि, एलसीए एमके-1 विमान में लगा ड्राई इंजन अधिक से अधिक 73-75 किलोन्यूटन (kN) का थ्रस्ट पैदा करता है, जो कि जीई द्वारा बनाए गए F-404 इंजन के 85kN थ्रस्ट से कम है. कहने का मतलब यह है कि इस ड्राई इंजन को तेजस Mk-1A में इस्तेमाल किए जाने वाले F-404 इंजन की जगह पर उपयोग नहीं किया जा सकता है. भारतीय वायुसेना लड़ाकू विमानों की इस कमी को दूर करने के लिए कतर वायु सेना (QAF) से 11 से 12 मिराज-2000 लड़ाकू विमान ख़रीदने की कोशिश में भी लगी हुई है. कतर के मिराज-2000 विमानों को चलाने की तकनीक़ थोड़ा अलग है और भारतीय वायुसेना द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे मिराज-2000 की तरह उन्नत नहीं है. इस वजह से भारतीय वायुसेना के पायलटों को कतर से ख़रीदे जाने वाले मिराज-2000 लड़ाकू विमानों को उड़ाने के लिए अलग से प्रशिक्षण हासिल करना होगा. कुल मिलाकर संक्षेप में यह कहना उचित होगा कि लड़ाकू विमानों की कमी से जूझ रही भारतीय वायु सेना के सामने कुछ उम्मीद की किरणें ज़रूर दिखाई देती हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यही है कि आईएएफ के सामने व्यापक चुनौतियां बनी हुई हैं और फिलहाल इनका कोई समाधान भी नज़र नहीं रहा है.


कार्तिक बोमाकांति ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम में सीनियर फेलो हैं.

 

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