Published on Jun 20, 2023 Updated 0 Hours ago
शक्तिशाली डॉलर पर सवाल उठाना यानी उसके आर्थिक दबदबे को चुनौती देना!

अपने 70 साल के एकछत्र राज में अमेरिकी डॉलर ने अपने लिए एक ऐसी स्वीकार्यता और मज़बूत भूमिका हासिल की हैजो उसके अपने मूल राष्ट्र से भी कहीं अधिक बड़ी हैसंयुक्त राज्य अमेरिका (US) की वैश्विक व्यापार में हिस्सेदारी महज दसवें हिस्से से अधिक हैलेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था की जीडीपी में इसका योगदान लगभग 24 प्रतिशत हैइतना ही नहीं वैश्विक विदेशी मुद्रा लेनदेन का लगभग 90 प्रतिशत डॉलर में होता है और दुनिया भर की सेंट्रल बैंकों द्वारा अपने पास रखे गए विदेशी मुद्रा भंडार का 59 प्रतिशत हिस्सा डॉलर में हैसाथ ही विश्व व्यापार के लगभग 50 प्रतिशत बिलों के लिए पसंदीदा मुद्रा भी डॉलर ही हैइसमें कोई संदेह नहीं है कि ज़्यादातर वैश्वीकरण इसी डॉलर की पीठ पर सवार होकर हुआ हैइसके अलावा व्यापार एवं फाइनेंस में डॉलर के इस्तेमाल ने  केवल सुरक्षा और भरोसा क़ायम किया हैबल्कि सहूलियत भी सुनिश्चित की हैहालांकिएक तेज़ी से बहुध्रुवीय होती दुनिया में ग्लोबल साउथ के बढ़ते आर्थिक सामर्थ्य के साथएक प्रमुख करेंसी यानी डॉलर व्यवस्था की लागत और इसके फायदों का फिर से मूल्यांकन किया जाना चाहिए.

एक तेज़ी से बहुध्रुवीय होती दुनिया में ग्लोबल साउथ के बढ़ते आर्थिक सामर्थ्य के साथ, एक प्रमुख करेंसी यानी डॉलर व्यवस्था की लागत और इसके फायदों का फिर से मूल्यांकन किया जाना चाहिए.

छिपे हुए लाभ और बढ़ते ख़तरे

जबकि पिछले कुछ वर्षों में डॉलर की अगुवाई वाली अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली वैश्वीकरण की बदलती गतिशीलता के साथ तालमेल बैठाने के लिए काफ़ी कुछ बदल गई हैफिर भी यह प्रणाली देशों के बीच असमानता के चक्र का पालनपोषण करना जारी रखती हैसाथ ही विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में व्यापार चक्र के उतारचढ़ाव में भी इज़ाफ़ा करती हैख़ास तौर पर आर्थिक तंगी के वक़्त मुद्रा की क़ीमतें ग्रीनबैक यानी अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले गिर जाती हैं और पूंजी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास से दूर हो जाती हैजैसा कि एक देश की मुद्रा का अवमूल्यन होता हैतो एक बेहद आशावादी और मानक आर्थिक सोच यह संकेत देती है कि इससे आयात की लागत में बढ़ोतरी होती हैलेकिन अंतरराष्ट्रीय मार्केट में निर्यात अपेक्षाकृत सस्ता हो जाता है और इससे विदेशी ख़रीदारों की मांग में बढ़ोतरी दर्ज़ की जाती हैनतीज़तन घरेलू वृद्धि को बढ़ावा मिलता हैदुर्भाग्य सेयह निष्कर्ष इस धारणा पर आधारित है कि व्यापारी निर्यातक की मुद्रा में क़ीमतें निर्धारित करते हैंजबकिसच्चाई यह है कि आमतौर पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का अधिकांश भाग एक प्रमुख मुद्रा के माध्यम से संचालित किया जाता है और वो मुद्रा है– अमेरिकी डॉलर.

Source: The international role of the U.S. dollar“, Board of Governors of the Federal Reserve System, FEDS Notes, 2021

विकासशील अर्थव्यवस्थाओं और उभरते बाज़ारों के लिए यह विशेष रूप से एक सच्चाई हैजहां विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में डॉलर में मूल्य का निर्धारण अधिक प्रचलित है और मुद्रा का अवमूल्यन विदेशी ख़रीदारों के लिए निर्यात को सस्ता बनाने में नाक़ाम रहता है, नतीज़तन उन्हें मांग बढ़ाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता हैइसलिएछोटी अवधि में निर्यात को बढ़ावा नहीं मिलता है और घरेलू अर्थव्यवस्थाएं महंगे आयात की वजह से और ज़्यादा कमज़ोर हो जाती हैंफेडरल रिज़र्व द्वारा वर्ष 2022 में ब्याज दरों में बढ़ोतरी शुरू करने के बाद ग्लोबल साउथ के अधिकांश देशों द्वारा महसूस की जाने वाली यह एक आम परिघटना हैदरअसलयह लचीली विनिमय दर व्यवस्था के प्राथमिक लाभ को  केवल रोक देता हैबल्कि इससे मुद्रा अवमूल्यन के दौरान निर्यात पक्ष को होने वाले फायदे भी नहीं मिल पाते हैं.

विकासशील अर्थव्यवस्थाओं और उभरते बाज़ारों के लिए यह विशेष रूप से एक सच्चाई है, जहां विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में डॉलर में मूल्य का निर्धारण अधिक प्रचलित है और मुद्रा का अवमूल्यन विदेशी ख़रीदारों के लिए निर्यात को सस्ता बनाने में नाक़ाम रहता है

डॉलर के उपयोग पर प्रतिबंधों और पाबंदियों के रूप में अमेरिका के पास महत्वपूर्ण वित्तीय मारक क्षमता भी मौज़ूद हैउदाहरण के तौर पर रूस के विरुद्ध हालफिलहाल में लगाए गए तमाम प्रतिबंधों में अमेरिका और उसके सहयोगियों ने रूसी सेंट्रल बैंक के लगभग आधे विदेशी मुद्रा भंडार को फ्रीज़ कर दिया और रूस की प्रमुख बैंकों को सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशंस (SWIFT) यानी एक प्रकार के अंतरबैंकिंग मैसेजिंग सिस्टम का इस्तेमाल करने से रोक दियाजो कि सीमा पार विभिन्न देशों की बैंकों को बीच लेनदेन की सुविधा प्रदान करता हैइसकी वजह से पारस्परिक रूप से जुड़ी दुनिया में व्यापार करने की क्षमता समाप्त होने के ख़तरे ने विभिन्न देशों को डॉलर पर निर्भरता कम करने और उसकी जगह दूसरी मुद्रा के उपयोग पर विचार करने के लिए मज़बूर किया हैइसके साथ ही देशों को क्लियरिंग हाउस इंटरबैंक पेमेंट्स सिस्टम (CHIPS) एवं SWIFT जैसी अमेरिका द्वारा नियंत्रित समाशोधन एवं संचार प्रणालियों के विकल्प विकसित करने के लिए प्रेरित करने का भी काम किया है.

महाशक्ति बनने के साथ बड़ी ज़िम्मेदारी भी आती है 

जहां तक अमेरिका की बात हैतो उसके लिए दुनिया की रिज़र्व करेंसी को नियंत्रित करने का मतलब है कि वह आय से अधिक ख़र्च करने के लिए दुनिया भर से सस्ते में उधार ले सकता हैहालांकिअमेरिकियों के कुछ समूह ऐसे हैंजो ताक़तवर डॉलर के दबदबे का फायदा नहीं उठा रहे हैंदेखा जाए तो वॉल स्ट्रीट और सैन्य प्रतिष्ठानों को ग्रीनबैक यानी अमेरिका डॉलर के इस प्रभुत्व का लाभ हुआ होगालेकिन विनिर्माण और निर्यातसंचालित सेक्टरों ने इसकी क़ीमत चुकाई हैपूरी दुनिया में डॉलर की ज़बरदस्त मांगइसके मूल्य को बढ़ाती है और इस वजह से अमेरिकी निर्यात अपेक्षाकृत महंगा हो जाता हैज़ाहिर है कि बदले में यह अमेरिका के रस्ट बेल्ट जैसे क्षेत्रों में मैन्युफैक्चरिंग जैसे सेक्टरों को नुक़सान पहुंचाता हैजहां कामगारों की छंटनी कर दी गई है और नौकरियों को दूसरे देशों में ट्रांसफर कर दिया गया है.

असमानता को लेकर इस चिंता ने अमेरिकी राजनीति में विभाजन को और बढ़ा दिया हैइसी वजह से देश के दक्षिणपंथी राजनेताओं ने व्यापार घाटे में कमी लाने के साथ ही ऐसी नीतियों को अपनाने पर ज़ोर दिया हैजो घरेलू मोर्चे पर राहत देने वाली हों और घरेलू हालात को सुधारने वाली होंहालांकियह भी एक सच्चाई है कि अगर इस तरह की नीतियों को लेकर कोई बड़ा निर्णय लिया जाता हैतो इसका अर्थ यह होगाप्रमुख वित्तीय ताक़त की वजह से मिलने वाले फायदों के साथ समझौता करनादुनिया भर से पूंजी को आकर्षित करने के लाभ और वॉल स्ट्रीट के ज़रिए कमाए जाने वाले मुनाफ़े से समझौता करनाज़ाहिर है कि ऐसा करना गैरऔद्योगिकीकरण यानी औद्योगिक क्षमता के नुक़सान के विरुद्ध क़दम उठाना होगा. अमेरिका के लिएयह संभावना है कि पहले वाला क़दम बाद वाले से अधिक अहम सिद्ध होगा.  

बदलाव की बयार

हालफिलहाल में डॉलर की भूमिका में कुछ बदलाव देखा गया हैहालांकि यह बदलाव छोटा ही हैउदाहरण के लिएदुनिया भर के देशों में सेंट्रल बैंकों द्वारा अमेरिकी डॉलर के रूप में रखे गए विदेशी मुद्रा भंडार का हिस्सा वर्ष 1999 में 71 प्रतिशत थाजो कि वर्ष 2021 में गिरकर 59 प्रतिशत हो गयाविदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर की हिस्सेदारी में यह गिरावट दुनिया भर में गैरपारंपरिक रिजर्व करेंसियों की ओर सेंट्रल बैंकों के विदेशी मुद्रा पोर्टफोलियो के एक सक्रिय विविधीकरण के साथ दर्ज़ की गई हैजिसमें यूरोब्रिटिश पाउंड और जापानी येन जैसी ऐतिहासिक रूप से प्रमुख रिज़र्व करेंसी तुलनात्मक रूप से अमेरिकी डॉलर का स्थान ले रही हैंसेंट्रल बैंकों के लिए एक प्रमुख आकर्षण छोटी अर्थव्यवस्थाओं में बाज़ारों के स्तर और तरलता यानी नकदी में बढ़ोतरी रहा हैजो कि अस्थिरता के लिए समायोजित किए जाने की स्थिति में अपेक्षाकृत अधिक रिटर्न के साथ संबंधित है.

Source: IMF Currency Composition of Official Foreign Exchange Reserves (COFER)

* “अन्य” श्रेणी में ऑस्ट्रेलियाई डॉलरकैनेडियन डॉलरचीनी रेनमिनबीस्विस फ्रैंक और अन्य करेंसी शामिल हैंजिन्हें COFER सर्वे में अलग से पहचाना नहीं गया हैचीन 2017 से एक COFER रिपोर्टर है

विभिन्न देशों में गहरेतरल और खुले घरेलूमुद्रा परिसंपत्ति बाज़ारों के विकास ने इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म एवं स्वचालित मार्केट की स्थापना के साथ मिलकर घरेलू मुद्राओं में सीधे व्यापार की लागत को कम कर दिया हैदरअसलवैश्विक व्यापार एवं कैपिटल मार्केट के लेनदेन में उभरती अर्थव्यवस्थाओं का योगदान लगातार बढ़ा हैध्यान देने वाली बात है कि मौज़ूदा समय में उभरती बाज़ार मुद्राओं में लेनदेन वैश्विक विदेशी मुद्रा टर्नओवर का 25 प्रतिशत हैजो कि वर्ष 2001 में सिर्फ़ 7 प्रतिशत था.

एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के बीच लोकल करेंसी सेटलमेंट (LCS) व्यवस्थाओं का बढ़ता इस्तेमालदेशों को स्थानीय मुद्राओं में व्यापार और निवेश में अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन की सुविधा प्रदान करता है. इस व्यवस्था की वक़ालत वर्ष 2022 में G20 अध्यक्षता के दौरान इंडोनेशिया द्वारा की गई थी. LCS समझौतों में विकसित अर्थव्यवस्थाओं में मौद्रिक सख़्ती के स्पिल ओवर प्रभावों यानी किसी देश की अर्थव्यवस्था पर दूसरे देश में होने वाली अप्रत्याशित घटनाओं की वजह से पड़ने वाले प्रभावों को कम करने की क्षमता हैयानी कि LCS समझौतों में डॉलर की लालसा और उस पर निर्भरता कम करने के साथ ही वैश्विक उथलपुथल की वजह से होने वाली वित्तीय अस्थिरता की भेद्यता को सीमित करने की भी क्षमता हैहाल ही में भारत ने भी रुपये में व्यापार की इनवॉइस बनानेभुगतान करने और समाधान की अनुमति दी हैइसके अलावाभारत दक्षिण एशियाई देशों के साथ भी रुपयेरूबल समझौते के तर्ज़ पर द्विपक्षीय समझौतों की संभावनाओं को तलाश रहा है.

दुनिया भर से पूंजी को आकर्षित करने के लाभ और वॉल स्ट्रीट के ज़रिए कमाए जाने वाले मुनाफ़े से समझौता करना. ज़ाहिर है कि ऐसा करना गैर-औद्योगिकीकरण यानी औद्योगिक क्षमता के नुक़सान के विरुद्ध क़दम उठाना होगा.

इसके अलावा BRICS, जो कि बहुपक्षीय समूह है और जिसमें ब्राज़ीलरूसभारतचीन एवं दक्षिण अफ्रीका शामिल हैंने एक रिज़र्व करेंसी विकसित करने का ऐलान किया हैजिसमें सदस्य देशों की करेंसी की एक बास्केट शामिल हैहालांकिब्रिक्स के भीतर अंतर्निहित विविधताओंविषमताओं और रणनीतिक विवादों के मद्देनज़र BRICS रिज़र्व करेंसी का विचार कमज़ोर आधार पर टिका हैलेकिन इसके सदस्य देशों के बीच घरेलू मुद्राओं में बढ़ा हुआ द्विपक्षीय व्यापार डॉलर से अलग हटकर विविधीकरण का मार्ग प्रशस्त कर सकता हैइसके अतिरिक्तसऊदी अरब जैसे तेल निर्यातक देश उभरती हुईं और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के साथ प्रगाढ़ संबंध बनाने के इच्छुक हैंऐसे में इन देशों की घरेलू मुद्राएं भी ऑयल ट्रेड में धीरेधीरे अपना रास्ता बना सकती हैं.

एक बहुध्रुवीय भविष्य

ज़ाहिर है कि मौज़ूदा वैश्विक परिस्थितियों में भूराजनीतिक तेज़ी के साथ अपना रुख़ बदल रही है और ऐसे में डॉलर के खात्मे का ऐलान करना नादानी होगीऐतिहासिक रूप से देखा जाएतो कोई भी मुद्रा अमेरिकी डॉलर को विस्थापित करने में क़ामयाब नहीं रही हैआकार में अमेरिका के समतुल्य एक अर्थव्यवस्था द्वारा पेश किए जाने के बावज़ूद यूरो को नक़ामी का सामना करना पड़ा हैइसी प्रकार से नए दावेदार के रूप में उभरी चीन की रेनमिनबी मुद्राजो कि अपना दबदबा बनाने के लिए पर्याप्त रूप से लचीली और पारदर्शी हैलेकिन इसे भी बाज़ारों द्वारा समर्थन मिलने की संभावना नहीं है.

इस सबके चलते एक बहुध्रुवीय मुद्रा व्यवस्था की ओर एक धीमीलेकिन संतुलित गति से बढ़ने की संभावना हैअमेरिकी डॉलर के बड़े नेटवर्क का प्रभावइस पर ऐतिहासिक भरोसा और निर्भरता से जो लाभ मिलता हैउसका स्पष्ट मतलब है कि डॉलर से दूरी बनाने की प्रक्रिया बेहद धीमी गति से होगी और इसके लिए मज़बूत बहुपक्षीय सहयोग की ज़रूरत पड़ेगीइसमें कोई संदेह नहीं है कि डॉलर पर निर्भरता कम करने के लिए एक बेहद छोटा ही सहीलेकिन स्पष्ट बदलाव निश्चित रूप से चल रहा हैयानी एक ऐसा परिवर्तन जिसमें व्यापार और फाइनेंस की अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली को एक समान तरीक़े से फिर से संतुलित करने की क्षमता है और जिसमें उभरती एवं विकासशील दुनिया खुद को एक प्रभावी ताक़त के रूप में स्थापित करने की क़वायद में जुटी हुई है.


दीया दीक्षित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सेंटर फॉर इकोनॉमी एंड ग्रोथ में इंटर्न हैं.

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