Published on May 19, 2023 Updated 0 Hours ago
पोखरण II टेस्ट के 25 साल: ऐतिहासिक घटना के अलग-अलग मायने

ये लेख पोखरण-II के 25 साल: भारत की परमाणु यात्रा की समीक्षा सीरीज़ का हिस्सा है.


कभी कभार ही ऐसे फ़ैसले लिए जाते हैं जो आंतरिक और बाहरी- दोनों मामलों में किसी देश के इतिहास की आगे की राह में गहरा बदलाव लाते हैं. भारत का समकालीन इतिहास भी 25 साल पहले ऐसे ही एक फ़ैसले का गवाह बना. 11 मई 1998 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बेहद संक्षिप्त, जल्दबाज़ी में और वास्तव में नाटकीय घोषणा करते हुए कहा कि भारत ने पोखरण टेस्ट रेंज में तीन परमाणु परीक्षण किए हैं. इस एलान ने ज़्यादातर भारतीयों और दुनिया के छोटे-बड़े देशों को हैरान कर दिया. भारत ने परमाणु परीक्षण करके एक ऐसी सीमा पार कर ली जिससे वापस नहीं लौटा जा सकता है, ये भारत के द्वारा ख़ुद को परमाणु हथियार से संपन्न देश घोषित करने का क़दम था. 

11 मई को तीन परीक्षणों के दो दिन बाद दो और परमाणु परीक्षण हुए. इन परमाणु परीक्षणों को शक्ति सीरीज़ नाम दिया गया, बाद में इन्हें पोखरण II परीक्षण के नाम से जाना जाने लगा क्योंकि पोखरण में ही 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया गया था.

11 मई को तीन परीक्षणों के दो दिन बाद दो और परमाणु परीक्षण हुए. इन परमाणु परीक्षणों को शक्ति सीरीज़ नाम दिया गया, बाद में इन्हें पोखरण II परीक्षण के नाम से जाना जाने लगा क्योंकि पोखरण में ही 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया गया था. कुछ हफ़्तों के बाद संसद में बोलते हुए वाजपेयी ने एलान किया कि, “भारत अब एक परमाणु हथियार संपन्न देश है. ये ऐसी वास्तविकता है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता. ये ऐसी उपाधि नहीं है जो हम चाहते हैं; न ही ये ऐसा दर्जा है जो दूसरे दे सकते हैं.” उम्मीदों के मुताबिक़ इन परीक्षणों का नतीजा दुनिया भर में भारत की निंदा और अमेरिका के नेतृत्व में कई प्रकार के आर्थिक प्रतिबंधों के रूप में निकला. लेकिन 1998 का परमाणु परीक्षण भारत के लिए ख़ुद को बदलने का पल बना क्योंकि भारत ने स्पष्ट रूप से सामरिक विकल्प बनाए जिसका अंत 2008 में सफलतापूर्वक भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के रूप में और अगले दशक में वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था में भारत के शामिल होने से हुआ. भारत के मौजूदा विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने 1998 के परीक्षणों की भारत के समकालीन इतिहास में “सामरिक सुधार की कवायदों” में से एक के रूप में सही पहचान की है. 

पड़ोसी देशों से चुनौती

वैसे तो कई विश्लेषणों में परीक्षण के बाद अमेरिका के साथ-साथ भारत के परमाणु शक्ति संपन्न विरोधियों चीन एवं पाकिस्तान के विषय में चुनौतियों और पिछले 25 वर्षों की परमाणु अप्रसार व्यवस्था एवं इसको लेकर भारत के बहुआयामी जवाब का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया गया है लेकिन पोखरण II परीक्षणों पर एक बार नये ढंग से देखने की ज़रूरत है. इन परीक्षणों के कई मतलब- आंतरिक के साथ-साथ बाहरी- देखे जा सकते हैं जो उस समय के मुक़ाबले अब पूरी तरह साफ़ हैं. 

पहला और सबसे ज़रूरी मतलब, परमाणु परीक्षणों ने उस वक्त की उभरती वैश्विक परमाणु सर्वसम्मति यानी परमाणु युग के अंत को लेकर भारत की खुले तौर पर अवहेलना का संकेत दिया. 1945 के म्युचुअली एश्योर्ड डिस्ट्रक्शन (MAD यानी ऐसा सिद्धांत जो परमाणु हथियारों से संपन्न दो देशों के द्वारा एक दूसरे के ख़िलाफ़ परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की स्थिति में विनाश की बात करता है) वाली दुनिया 1990-91 में सोवियत संघ के विघटन के साथ अचानक ख़त्म हो गई. इसके नतीजतन 1990 के आसपास एक ध्रुवीय दुनिया की स्थिति उभर कर सामने आई यानी वो दौर जब परमाणु हथियारों को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका के द्वारा प्रेरित द्विपक्षीय और बहुपक्षीय कोशिशों का इस्तेमाल किया गया. इसके लिए 1995 में परमाणु अप्रसार संधि (NPT) को अनिश्चित समय के लिए और बिना किसी शर्त के विस्तार किया गया. साथ ही व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (कॉम्प्रीहेन्सिव टेस्ट बैन ट्रीटी यानी CTBT) और फिसाइल मैटेरियल कट-ऑफ ट्रीटी (FMCT) पर बातचीत को तय करने के लिए मज़बूत कोशिश की गई. वास्तव में कई लोगों को CTBT में एंट्री इनटू फोर्स क्लॉज़ यानी लागू होने की शर्त याद होगी जिसकी वजह से इस संधि को अमल में लाने के लिए भारत समेत 44 देशों के दस्तख़त की ज़रूरत पड़ी. भारत के परीक्षणों ने इस परमाणु सर्वसम्मति को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया क्योंकि भारत ने अपने परीक्षणों को “परमाणु रंगभेद के ख़िलाफ़” और भारत की “समान और वाजिब सुरक्षा” के लिए बताया था. भारत के पक्ष को वाजपेयी सरकार में विदेश, वित्त और रक्षा मंत्री रहे जसवंत सिंह ने पेश किया था. 

दूसरा मतलब, परमाणु परीक्षणों ने एक और उभरती वैश्विक सर्वसम्मति को चुनौती दी. ये सर्वसम्मति 1945 से महाशक्ति बनने के परंपरागत रास्ते को लेकर थी. कहा जाता था कि परमाणु हथियार हासिल करने से महाशक्ति बनने की बात अब इतिहास हो चुकी है और महाशक्ति बनने के लिए आर्थिक ताक़त मायने रखती है. इसके लिए जापान और पूर्वी एशिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं का उदाहरण दिया जाता था. इन देशों को नई ताक़त कहा जाता था जो क्षेत्रीय और वैश्विक असर रखते हैं. लेकिन भारत ने परमाणु परीक्षण करके ऊंची आवाज़ में और सही एलान किया कि भारत को वैश्विक मंचों पर तब तक गंभीरता से नहीं लिया जाएगा जब तक कि उसके पास महाशक्ति बनने का परंपरागत साजो-सामान यानी परमाणु हथियार न हो. विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने ठीक ही कहा है कि “1998 के परमाणु परीक्षण और हथियार से संपन्न होने की घोषणा ने भी बाद में एक बड़ी ताक़त की ख़ासियत मुहैया कराई.” 

भारत के परीक्षणों ने इस परमाणु सर्वसम्मति को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया क्योंकि भारत ने अपने परीक्षणों को “परमाणु रंगभेद के ख़िलाफ़” और भारत की “समान और वाजिब सुरक्षा” के लिए बताया था.

तीसरा मतलब, परमाणु परीक्षणों ने महत्वपूर्ण ढंग से उन विचारों और हितों की नुमाइंदगी की जिन्हें लेखक इत्ति अब्राहम ‘स्ट्रैटजिक एन्क्लेव या सामरिक तौर पर बाहरी क्षेत्र’ कहते हैं. अब्राहम के मुताबिक़ इस एन्क्लेव को “भारतीय सैन्य और सुरक्षा कॉम्प्लेक्स, ख़ास तौर पर रिसर्च संस्थानों और उत्पादन के केंद्रों, के एक बड़े हिस्से के रूप में” परिभाषित किया जा सकता है. उन्होंने इस मामले में परमाणु ऊर्जा आयोग और उससे जुड़े संस्थानों का हवाला दिया. इस एन्क्लेव से जुड़े बड़े लोगों ने मज़बूत ढंग से और बार-बार अपने स्वदेशी तौर पर विकसित परमाणु तकनीकों के परीक्षण के लिए ज़ोर लगाया ताकि सबके सामने अपने संस्थानों की तकनीकी सफलता दिखाई जा सके. इन बड़े वैज्ञानिकों की शानदार कामयाबी को सम्मान देते हुए वाजपेयी ने परमाणु परीक्षणों के फ़ौरन बाद “जय जवान, जय किसान” के नारे में “जय विज्ञान” को जोड़ दिया. अब हर साल 11 मई को “राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस यानी नेशनल टेक्नोलॉजी डे” के रूप में मनाया जाता है. 

चौथा मतलब, देश के भीतर सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने परमाणु परीक्षणों के ज़रिए घरेलू राष्ट्रवाद के विचार पर बोलबाला स्थापित करने की कोशिश की. परमाणु परीक्षण वास्तव में BJP के घोषणापत्र का हिस्सा था जिसमें ये एलान किया गया था कि “हम देश की परमाणु नीति की फिर से समीक्षा करेंगे और परमाणु हथियारों को शामिल करने के विकल्प का इस्तेमाल करेंगे.” परमाणु परीक्षणों ने असरदार ढंग से उस समय की सामरिक सर्वसम्मति को चुनौती दी. परमाणु परीक्षण ने, ख़ास तौर पर भारत की स्वतंत्रता के 50 साल पूरे होने पर और अल्पमत एवं कमज़ोर गठबंधन सरकारों के शासन के लगभग एक दशक के बाद, BJP के द्वारा राष्ट्रीय राजनीतिक अखाड़े में ख़ुद को एक और छोर के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर साफ़ नज़रिए के साथ राष्ट्रवाद की एक अलग ताक़त के रूप में पेश करने के मक़सद को पूरा किया. 

मज़बूत राजनीतिक नेतृत्व

अंत में, पोखरण II के परीक्षणों ने ग़ैर-कांग्रेसी नेता प्रधानमंत्री वाजपेयी को एक नये, मज़बूत राजनीतिक नेतृत्व के तौर पर पेश करने की कोशिश की जिसने परमाणु बम को लेकर दशकों पुराने भारत के अनिर्णय को ख़त्म किया. प्रधानमंत्री मोदी ने 11 मई 2020 को अपने मन की बात के दौरान दृढ़तापूर्वक इस बात की गवाही ये कहकर दी कि, “1998 में पोखरण के परीक्षणों ने ये भी दिखाया कि एक मज़बूत राजनीतिक नेतृत्व क्या बदलाव ला सकता है.” 1974 के ‘शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण’ के बाद भी भारत की अलग-अलग सरकारें ‘अस्पष्ट’ परमाणु यथास्थिति को लेकर अनिश्चितता की स्थिति में दिख रही थीं और उन्होंने परीक्षण के ज़रिए परमाणु दहलीज़ को लांघने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई. चीन के बढ़ते ख़तरे, जिसकी शुरुआत 1962 में हुई थी और 1964 में चीन ने परमाणु परीक्षण किया था, के बावजूद जवाब के तौर पर सामरिक कार्रवाई के बदले सिर्फ़ राजनीतिक शोरगुल सुनाई दिया. राज्यसभा सदस्य के रूप में वाजपेयी ने 1964 में चीन के परमाणु परीक्षणों के बाद ज़ोर देकर कहा था कि “परमाणु बम का जवाब परमाणु बम है, कुछ और नहीं.” परीक्षण के अपने फ़ैसले के बारे में बताते हुए वाजपेयी ने इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाया कि परीक्षणों को रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की तरफ़ एक क़दम के तौर पर देखा जाना चाहिए. उन्होंने ये भी कहा कि परमाणु हथियार के रूप में एक न्यूनतम, भरोसेमंद बचाव का उपाय युद्ध को रोकने के लिए एक ज़रूरत है. साथ ही, वाजपेयी ने हज़ारों साल पुरानी भारत की समृद्ध सभ्यता के इतिहास की वजह से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही हमेशा एक महाशक्ति के रूप में भारत के भविष्य का समर्थन किया था. परमाणु परीक्षणों ने पूरी तरह वाजपेयी के विचारों को अमल में ला दिया और भारत के राजनीतिक इतिहास में उनकी जगह एक ऐसे नेता के तौर पर सुरक्षित कर दिया जिसने भारत को परमाणु कोठरी से बाहर निकाला. 

इस तरह पोखरण II परमाणु परीक्षण के बाहरी और आंतरिक तौर पर कई मतलब थे. बाहरी तौर पर इस परीक्षण ने भारत को उभरते वैश्विक सामरिक परिदृश्य में अपने बारे में एक नई धारणा बनाते, महाशक्ति बनने के एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य का पीछा करते देखा. आंतरिक तौर पर इस परीक्षण ने अतीत की सामरिक, वैचारिक सर्वसम्मति को चुनौती और भू-राजनीतिक व्यवस्था में भारत का रुतबा कायम करने के लिए नये राजनीतिक मॉडल की स्थापना करते हुए BJP के उदय को देखा.


मनीष दाभाडे जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं और दिल्ली स्थित थिंक टैंक दी इंडियन फ्यूचर्स के संस्थापक हैं. 

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