Author : Harsh V. Pant

Published on Feb 08, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत विदेश नीति के मामलों में अतीत की अपनी झिझक को छोड़ रहा है और एक नियम-आधारित, लोकतांत्रिक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए साझेदारियां बनाने में साहसिक क़दम उठा रहा है. 

साझेदारियों का भारतीय युग: गुट-निरपेक्षता से एक ‘नये संतुलन’ की रचना तक

जब हिंद-प्रशांत में एक नयी व्यवस्था आकार ले रही है और भारत इस उभरते रणनीतिक भूगोल के केंद्र में है, उसी समय अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम, ख़ुद दक्षिण एशिया के विकसित हो रहे राजनीतिक मानचित्र को नयी दिल्ली के लिए रेखांकित करने में कामयाब रहे. 2021 में अफ़ग़ानिस्तान में चंद घटों के अंदर ही पुरानी व्यवस्था धराशायी हो गयी और बीते दो दशकों के खंडहर ही बाकी रह गये. नयी व्यवस्था का अब भी पूरी तरह उभरना बाक़ी है, लेकिन उस व्यवस्था की रूपरेखा का अंदाज़ा अफ़ग़ान राष्ट्र और क्षेत्र के पिछले अनुभवों के आधार पर लगाया जा सकता है. वैसे भी पश्चिम हड़बड़ा कर भाग ही रहा था, लेकिन तालिबान के आगे बढ़ने की रफ़्तार ने अमेरिका को एक बार फिर ‘साइगॉन लम्हे’ से गुज़रने को मजबूर कर दिया और उसे राजनयिकों को हेलीकॉप्टर से निकालना पड़ा व संवदेनशील दस्तावेज नष्ट करने पड़े.

तालिबान के आगे बढ़ने की रफ़्तार ने अमेरिका को एक बार फिर ‘साइगॉन लम्हे’ से गुज़रने को मजबूर कर दिया और उसे राजनयिकों को हेलीकॉप्टर से निकालना पड़ा व संवदेनशील दस्तावेज नष्ट करने पड़े.

यहां तक कि जब अफ़ग़ानिस्तान ढह रहा था, बाइडन उन सुझावों को मानने को राज़ी नहीं थे कि तालिबान तेज़ी से अफ़ग़ानिस्तान को फ़तेह कर सकता है. उनका कहना था, ‘तालिबान हर चीज़ पर क़ाबिज़ हो जाए और पूरे देश को अपने अधिकार में ले ले, ऐसी संभावना बहुत कम है.’ और एक महीने से भी कम वक़्त में, यह मानते हुए कि अफ़ग़ानिस्तान में एक नयी सरकार होगी, पश्चिमी राष्ट्र अपने नागरिकों और राजनयिक कर्मचारियों को निकालने के लिए जूझ रहे थे. दो दशकों तक स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मानवाधिकारों की बातें करने के बाद, पश्चिम किसी न किसी रूप में तालिबान शासन को जगह देने की ओर तेज़ी से बढ़ गया.

पश्चिमी सरकारें अब अपने लोगों से कह रही हैं कि तालिबान से किसी न किसी रूप में समझौता, चाहे वह आकार ले पाया हो या नहीं, अफ़ग़ान लोगों के व्यापक भले के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका मतलब होगा कि अफ़ग़ान अपने भविष्य का मालिक ख़ुद बन रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान में घटित हो रही मानवीय तबाही को दरकिनार कर दिया जायेगा, लेकिन तालिबान के दोबारा उभार के रणनीतिक नतीजों का हिसाब-किताब पश्चिम को लंबे समय तक जोड़ना पड़ेगा. अगर, जैसीकि कुछ हल्क़ों में चर्चा है, अमेरिका के लिए अफ़ग़ानिस्तान से सेनाएं हटाने की वजह सीधे-सीधे चीन से प्रतिस्पर्धा पर ध्यान केंद्रित करना है, तो अफ़ग़ान विफलता के बाद एक सुरक्षा गारंटर के रूप में पश्चिमी आश्वासनों की विश्वसनीयता अब जांच के अधीन डाल दी गयी है. चीन के उदय से निपटने के लिए साझेदारों का जो गठबंधन बनाने का प्रयास पश्चिम कर रहा है, उसे शायद ज़्यादा दरारों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि पश्चिमी गठबंधन-सहयोगी अफ़ग़ानिस्तान हादसे को किसी न किसी हद तक अनिष्ट की आशंका के साथ देख रहे हैं. 

आज अमेरिकी ताक़त की सीमाएं कुछ ज्यादा ही स्पष्ट हैं और अफ़ग़ानिस्तान की शर्मिंदगी पश्चिमी रणनीतिक सोच को संभवत: अभी दशकों तक घेरे रहेगी. अमेरिका, शायद, अफ़ग़ानिस्तान में एक राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकता था, लेकिन जिस ढंग से उसकी वहां से वापसी हुई वह उभरती, अत्यधिक अस्थिर वैश्विक व्यवस्था को संभालने की वाशिंगटन की क्षमता पर लंबे समय तक काली छाया डालती रहेगी.

आज अमेरिकी ताक़त की सीमाएं कुछ ज्यादा ही स्पष्ट हैं और अफ़ग़ानिस्तान की शर्मिंदगी पश्चिमी रणनीतिक सोच को संभवत: अभी दशकों तक घेरे रहेगी.

अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में भारत की भूमिका

भारत के लिए, क्षेत्रीय राजनीतिक विकास में यह एक महत्वपूर्ण क्षण है. अपनी आज़ादी के 75वें साल में, बड़े हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसकी केंद्रीयता आज सुस्थापित है. नयी दिल्ली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में ‘अग्रणी भूमिका’ निभाना चाहती है, ताकि वह वैश्विक परिणामों को आकार दे सके, न कि दूसरों द्वारा निर्धारित फ्रेमवर्क में महज़ एक प्राप्तकर्ता बनकर रह जाए. हिंद-प्रशांत में, आज उसकी विदेश नीति का एक बड़ा हिस्सा वैश्विक परिणामों को आकार देने के लिए चुनौतीपूर्ण माहौल में मौक़े तलाशना है. इसके लिए भारत ने दूसरों के साथ मिलकर जो एक रास्ता अपनाया है, वह हमख़याल राष्ट्रों के बीच मुद्दा आधारित गठबंधनों के दायरे का विस्तार करना है. जब संस्थाबद्धता की बात आती है, तो हिंद-प्रशांत में ढेर सारे मिनीलेटरल (लघु-बहुपक्षीय मंच) आज इस विशाल भूगोल में स्पष्ट ख़ालीपन को रेखांकित करते हैं. और बड़ी शक्तियों में आम सहमति की ग़ैरहाज़िरी में, भारत जैसी मंझोली शक्तियों ने बड़ी ग्राह्यता हासिल की है.

हिंद-प्रशांत चतुष्पक्षीय सुरक्षा संवाद या क्वॉड, जिसमें अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं, इस संबंध में सबसे चर्चित मंच रहा है. 2017 से इसके नाटकीय पुनरुत्थान और बढ़ते कद ने बड़े क्षेत्र को एक नयी सार्थकता का एहसास कराया है, कुछ को भरोसा दिलाया है और चीन के लिए बेचैनी पैदा की है. 2021 में छह महीने के अंदर दो शिखर स्तरीय बैठकों (एक वर्चुअल और एक सशरीर) के साथ, इस नवजात मंच का एजेंडा हमारे समय के कुछ सबसे अहम मुद्दों जैसे टीका, उभरती रणनीतिक तकनीकों, इंफ्रास्ट्रक्चर कनेक्टिविटी और समुद्री सुरक्षा तक विस्तृत हो चुका है. लेकिन यह भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया की प्रतिबद्धता है जिसने आख़िरकार अमेरिका को इस पहल में निवेश करने के लिए राज़ी किया.

नयी दिल्ली क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति संतुलन में रूस की बेहद अहम भूमिका को बख़ूबी समझती है. भारत ने नवंबर 2021 में अफ़ग़ानिस्तान पर क्षेत्रीय संवाद का आयोजन किया, जिसमें ईरान और मध्य एशियाई गणराज्यों के साथ रूस की भी भागीदारी रही. 

भले ही भारत व्यापक हिंद-प्रशांत में आपसी संलग्नता के लिए नयी शर्तें स्थापित कर रहा है, पर दक्षिण एशिया के नये विकसित हो रहे परिदृश्य का मतलब है रूस जैसे पुराने साझेदारों के साथ स्थिर संबंध बनाये रखना. नयी दिल्ली क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति संतुलन में रूस की बेहद अहम भूमिका को बख़ूबी समझती है. भारत ने नवंबर 2021 में अफ़ग़ानिस्तान पर क्षेत्रीय संवाद का आयोजन किया, जिसमें ईरान और मध्य एशियाई गणराज्यों के साथ रूस की भी भागीदारी रही. यह देखते हुए कि मॉस्को शुरुआती दिनों में तालिबान के प्रति काफ़ी समर्थन दिखा रहा था, अफ़ग़ानिस्तान और वहां से उपज रहे ख़तरों पर उसका साथ आना उल्लेखनीय है. अमेरिकियों को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर देखने की चाहत से तालिबान के क़ब्ज़े से उपजी नकरात्मक बाह्यताओं (अनायास होनेवाले नुकसान) को संभालने तक पहुंचना, एक लंबी दूरी है. और कोई ताज्जुब नहीं कि रूस क्षेत्रीय सुरक्षा पर भारत के आकलन के क़रीब आया है. 

भारत-रूस और चीन का त्रिकोण

चीन के उदय और अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की उसकी दृढ़ता भरी कोशिशों के साथ, जैसे-जैसे वैश्विक ढांचागत वास्तविकताएं एक आमूल-चूल परिवर्तन से गुज़र रही हैं, मॉस्को और नयी दिल्ली दोनों ही यह ढूंढ़ने का प्रयास कर रहे हैं कि उनका जवाब क्या हो. शीत युद्ध की ऐतिहासिक विरासत के बावजूद, रूस तेज़ी से चीन के साथ रिश्ते मजबूत करने के लिए बढ़ा है. जब बात अमेरिका और व्यापक पश्चिम की आती है, तो भारत भी ‘इतिहास की हिचकिचाहटों’ के मिटने का गवाह रह चुका है. अतीत से उलट, वैश्विक व्यवस्था में भारत का बढ़ता वज़न यह सुनिश्चित करता है कि महाशक्ति राजनीति के मार्गनिर्देशन की उसकी क्षमता अब कहीं ज़्यादा मज़बूत है.

भारत-रूस की मौजूदा आपसी संलग्नता आज की भू-राजनीतिक अनिवार्यताओं का जवाब दे रही है, न कि अतीत की. बीते वर्षों के भावुकतावाद से मुक्त, यह रिश्ता व्यावहारिकता पर टिका हुआ है.

भारत जहां चीन के उदय को संतुलित करता है और अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी बनाता है, तो वहीं रूस के साथ स्थिर रिश्ते में निवेश को भी उत्सुक रहता है. भारत-रूस की मौजूदा आपसी संलग्नता आज की भू-राजनीतिक अनिवार्यताओं का जवाब दे रही है, न कि अतीत की. बीते वर्षों के भावुकतावाद से मुक्त, यह रिश्ता व्यावहारिकता पर टिका हुआ है, जो सुनिश्चत करता है कि नयी दिल्ली मॉस्को के बीजिंग की ओर खिंचाव को लेकर तो ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती, लेकिन अमेरिका के साथ अपने फलते-फूलते रिश्तों को रूस की दंभ भरी मौजूदगी से सुरक्षित रख सकती है.

विदेश नीति संबंधी अपने कुछ ख़ास चुनावों को लेकर भारत की अतीत की झिझक जा रही है, और बाह्य साझेदारियों का लाभ उठाते हुए आंतरिक क्षमता बढ़ाने को लेकर सोच में क्रांतिकारी बदलाव की ज़रूरत को स्वीकार करने के लिए ज़्यादा तत्परता का रास्ता तेज़ी से बन रहा है. महत्वपूर्ण भारतीय हितों के लिए फ़ायदेमंद हो सकने वाली साझेदारियां बनाने में, गुट-निरपेक्षता आख़िरकार एक ‘नये संतुलन’ के लिए रास्ता छोड़ रही है.

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