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Published on Aug 13, 2024 Updated 0 Hours ago

ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार के गठन के बाद उम्मीद है कि भारत-यूके मुक्त व्यापार समझौता ज़ल्द परवान चढ़ सकता है.

भारत-यूके व्यापार वार्ता: क्या मुक्त व्यापार समझौता अब साकार हो पाएगा?

भारत और यूनाइटेड किंगडम (UK) में हाल ही में आम चुनाव संपन्न हुए हैं. इन चुनावों के बाद भारत-यूके मुक्त व्यापार समझौता (FTA) होने की संभावना पहले की तुलना में बहुत बढ़ गई है. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह ब्रिटेन में सत्ता परिवर्तन होना है, यानी लेबर पार्टी की सरकार बनने के बाद भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौते की उम्मीद बहुत प्रबल हो गई है. हालांकि, यह सब जितना आसान दिखाई दे रहा है, वास्तविकता में उतना है नहीं, यानी इसमें कई अड़चनें भी हैं. 



मोदी 3.O के 100 दिन के एजेंडे में एफटीए सबसे ऊपर

 

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने अप्रैल 2022 में वादा किया था कि भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते को "दिवाली तक अंतिम रूप" दे दिया जाएगा. वर्तमान में बोरिस जॉनसन का वादा पूरी तरह से खोखला प्रतीत होता है. हालांकि, एक बात ज़रूर है कि जॉनसन ने जिस आत्मविश्वास के साथ भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौता पूरा करने का वादा किया था, वह कहीं न कहीं यह दिखाता है कि ब्रेक्ज़िट के बाद कंज़र्वेटिव पार्टी की सरकार ब्रिटेन के वैश्विक व्यापार में सुधार लाकर उसे नए सिरे से ऊंचाई पर ले जाना चाहती थी. ज़ाहिर है कि ब्रिटेन की सरकार में तब से तीन प्रधानमंत्री बदल चुके हैं और भारत के साथ 14 दौर की द्विपक्षीय वार्ताएं आयोजित हो चुकी हैं, इसके बावज़ूद आज तक दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता नहीं हो पाया है. इतना सब होने के बाद भी भारत व ब्रिटेन की सरकारों में इस समझौते को लेकर बहुत उत्साह है, यहां तक कि भारत में आम चुनाव के बाद प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में तीसरी बार बनी केंद्र सरकार के शुरुआती 100 दिनों के एजेंडे में भारत-यूके एफटीए सबसे बड़ी प्राथमिकता है.

 भारत और यूके के बीच व्यापार समझौते में देरी के पीछे हाल ही में दोनों देशों में हुए आम चुनाव भी एक वजह हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि इस देरी के पीछे सिर्फ़ यही एक कारण है.

भारत और यूके के बीच व्यापार समझौते में देरी के पीछे हाल ही में दोनों देशों में हुए आम चुनाव भी एक वजह हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि इस देरी के पीछे सिर्फ़ यही एक कारण है. इसके लिए कई और कारण भी ज़िम्मेदार हैं. हालांकि, दोनों देशों के बीच इस समझौते को लेकर पिछले कुछ वर्षों के दौरान जो 14 द्विपक्षीय वार्ताएं हुई हैं, उनमें प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई वाली सरकार बराबर शामिल रही है, लेकिन ब्रिटेन में हाल के चुनाव परिणामों के बाद इन बातचीतों में शामिल होने वाले यूके सरकार के प्रतिनिधि ज़रूर बदल गए हैं. लेकिन, इसमें एक अच्छी बात यह है कि समझौते को लेकर होने वाली द्विपक्षीय वार्ताओं के मुद्दों में कोई बदलाव नहीं हुआ है.

 

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो व्यापार समझौतों को लेकर भारतीय सरकारों का रवैया सक्रियता वाला नहीं रहता है, यानी वे इसमें कोई उत्साह नहीं दिखाती हैं और ज़्यादातर मामलों में नपा-तुला नज़रिया अपनाती हैं, साथ ही वार्ता प्रक्रिया को लंबा खींचती हैं. इस तथ्य को इस बात से आसानी से समझा जा सकता है कि भारत ने यूरोपियन फ्री ट्रेड एसोसिएशन (EFTA) के साथ समझौते को 16 साल तक चली वार्ताओं के बाद अंतिम रूप दिया था. हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने व्यापार समझौतों में होने वाली देरी को कम किया है और ऐसे समझौतों को ज़ल्द से ज़ल्द मुकाम पर ले जाने का इरादा जताया है. हाल ही में भारत द्वारा संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और ऑस्ट्रेलिया के साथ किए गए व्यापार समझौतों से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि मोदी सरकार ऐसे समझौतों के लेकर कितनी तत्परता दिखाती है. लगता है कि नई दिल्ली दूसरे देशों के साथ व्यापार समझौते के ज़रिए कहीं न कहीं अपनी आयात विरोधी छवि से छुटकारा चाहती है और इसे व्यापार अनुकूल वातावरण बनाने वाली छवि में तब्दील करना चाहती है. ऐसा करके भारत एक तरफ वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं के साथ बेहतर तरीक़े से तालमेल बैठाने की कोशिश कर रहा है, वहीं दूसरी ओर वर्ष 2030 तक निर्यात को 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के आंकड़े के पार ले जाने के प्रयासों में भी जुटा हुआ है.

 

लेबर पार्टी की सरकार के लिए विशेष अवसर

 

जहां तक कंज़र्वेटिव पार्टी की बात है, तो यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के बाद यानी ब्रेक्ज़िट के बाद एफटीए को एक बड़ी क़ामयाबी के तौर पर माना गया था. कहने का मतलब है कि एफटीए को इस प्रकार माना गया था कि यूरोपीय संघ के दायरे से बाहर निकलने के बाद ब्रिटेन किसी भी देश के साथ अपनी ज़रूरतों और शर्तों के मुताबिक़ व्यापार समझौता करने की ताक़त रखता है. हालांकि, यह अलग बात है कि कंज़र्वेटिव पार्टी के शासन के दौरान एफटीए परवान नहीं चढ़ पाया है और बातचीत के दौर में ही फंसा रहा. ब्रिटेन में जुलाई की शुरुआत में लेबर पार्टी को चुनाव में ज़बरदस्त सफलता हासिल हुई है और प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर की अगुवाई में सरकार बनी है. ज़ाहिर है कि कीर स्टार्मर को भारत-यूके एफटीए के रूप में एक ऐसा व्यापार समझौता विरासत में मिला है, जो बिल्कुल अंतिम चरण में है और जिसके पूरा होने में कोई और बड़ी बाधा नहीं बची है.

 भारत के साथ होने वाला मुक्त व्यापार समझौता भी बेहद महत्वपूर्ण है और इससे ब्रिटेन के सामने बेहतरीन अवसर पैदा होने की पूरी संभावना है.

व्यापार और उद्योग जगत में यह माना जाता है कि ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर का झुकाव अटलांटिक-यूरोपीय समझौतों की ओर ज़्यादा है. इसके बावज़ूद, भारत के साथ होने वाला मुक्त व्यापार समझौता भी बेहद महत्वपूर्ण है और इससे ब्रिटेन के सामने बेहतरीन अवसर पैदा होने की पूरी संभावना है. भारत व ब्रिटेन में हुए आम चुनावों से ठीक पहले फरवरी 2024 में यूके के वर्तमान बिजनेस एवं ट्रेड मिनिस्टर जोनाथन रेनॉल्ड्स ने लेबर शैडो सेक्रेटरी के तौर पर नई दिल्ली का दौरा किया था और भारत के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल के साथ बातचीत की थी. यूके की लेबर सरकार में विदेश मंत्री डेविड लैमी भी अपना पद संभालने के महज दो सप्ताह के बाद नई दिल्ली का दौरा कर चुके हैं. इससे साफ पता चलता है कि ब्रिटेन की नई लेबर सरकार भारत के साथ एफटीए को लेकर कितनी ज़्यादा उत्साहित है. ज़ाहिर है कि डेविड लैमी फरवरी 2024 में रेनाल्ड्स के दौरे के समय भी उनके साथ नई दिल्ली आए थे.

 

भारत और ब्रिटेन के बीच एफटीए को लेकर पूर्व में जो भी वार्ताएं हुई हैं, वो देखा जाए तो सकारात्मक रहीं हैं, लेकिन वर्तमान में इस समझौते पर जो बातचीत हो रही है और दोनों पक्षों के बीच जो माहौल बना है, वो बेहद अनुकूल दिखाई दे रहा है. भारत और यूके के बीच मौज़ूदा वक़्त में वार्षिक द्विपक्षीय व्यापार लगभग 39 बिलियन यूरो (49.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर) का है. अनुमान है कि अगर दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता हो जाता है, तो वर्ष 2030 तक भारत और यूके के बीच होने वाला द्विपक्षीय व्यापार दोगुना यानी 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच सकता है.

 

एफटीए में अवरोध पैदा करने वाले मुद्दे

 

भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौता प्रस्ताव में शामिल 26 चैप्टर में से ज़्यादातर पर दोनों पक्षों के बीच या तो सहमति बन चुकी है, या फिर सहमति बनने वाली है. हालांकि, कुछ ऐसे मसले भी हैं, जिन पर लंबे वक़्त से असहमति बनी हुई है.

 

भारत और ब्रिटेन के बीच एफटीए को लेकर हो रही बातचीत में प्रवासन, आवागमन और भारतीय कामगारों के लिए उदार वीज़ा जैसे मुद्दे बड़ा रोड़ा बनकर सामने आए हैं. यूके की पूर्व कंज़र्वेटिव सरकार के दौरान ये मुद्दे ख़ास तौर पर बड़ी रुकावट बने थे. यहां तक कि पिछले साल यूके की पूर्व गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन के बयानों की वजह से दोनों देशों के बीच चल रही व्यापार समझौता बातचीत भी पटरी से उतर गई थी. उन्होंने कहा था कि ब्रिटेन में ऐसे भारतीयों की संख्या बहुत अधिक है, जो वीज़ा अवधि समाप्त होने के बाद भी अपने देश नहीं लौटते हैं. हालांकि, ऐसा लगता है कि ब्रिटेन की वर्तमान लेबर सरकार द्वारा कंज़र्वेटिव पार्टी की ओर से पूर्व में उठाए गए प्रवासन के मुद्दे को अधिक तवज्जो नहीं दी जा रही है. इससे उम्मीद है कि दोनों पक्षों के बीच यह विवादित मुद्दा ज़ल्द सुलझ सकता है.

 

व्यापार समझौता वार्ता में बाधा बने दूसरे मुद्दों में ब्रिटेन द्वारा व्हिस्की और कारों जैसी वस्तुओं पर भारत की ओर से शुल्क में कमी करने की मांग भी शामिल है. भारत द्वारा वर्तमान में इन वस्तुओं पर 100 से 150 प्रतिशत शुल्क वसूला जाता है. इसके अलावा, ब्रिटेन भारतीय बाज़ारों में अपनी वित्तीय, क़ानूनी और दूसरे सेवाओं के लिए अधिक अवसर उपलब्ध कराने की भी मांग कर रहा है. गौरतलब है कि वित्तीय और क़ानूनी सेवाओं समेत अन्य सर्विसेज़ की ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में 80 प्रतिशत हिस्सेदारी है. भारत के लिए यूके की यह मांग एक चुनौती बनी हुई है, क्योंकि इससे भारत में इन सेवाओं के क्षेत्र में विदेशी होड़ बढ़ने की संभावना है.

 ऐसा लगता है कि ब्रिटेन की वर्तमान लेबर सरकार द्वारा कंज़र्वेटिव पार्टी की ओर से पूर्व में उठाए गए प्रवासन के मुद्दे को अधिक तवज्जो नहीं दी जा रही है. इससे उम्मीद है कि दोनों पक्षों के बीच यह विवादित मुद्दा ज़ल्द सुलझ सकता है.

ब्रिटेन में अस्थाई रूप काम करने वाले भारतीय कामगारों की सामाजिक सुरक्षा का मुद्दा भी हाल-फिलहाल में तेज़ी से उभर कर सामने आया है. ब्रिटेन इस मुद्दे पर सहमत नहीं है, जबकि नई दिल्ली भारतीय कामगारों के पक्ष में सामाजिक सुरक्षा समझौता करने की कोशिश में जुटी है. यह समझौता नहीं होने से ब्रिटेन में अस्थाई भारतीय पेशेवरों को दोहरा कर कटने जैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है क्योंकि उन्हें भारत और ब्रिटेन दोनों देशों में सामाजिक सुरक्षा के लिए अंशदान करना होता है. इससे भारतीय कामगारों पर वित्तीय दबाव पड़ना लाज़िमी है. गौरतलब है कि ऐसे मुद्दे कहीं न कहीं वैश्विक व्यापार बढ़ाने के प्रयासों के साथ घरेलू नीतियों का तालमेल बैठाने के दौरान आने वाली चुनौतियों को भी सामने लाने का काम करते हैं.

 

आगे का रास्ता

 

तमाम सहमतियों और असहमतियों के बीच भारत और ब्रिटेन में मुक्त व्यापार समझौते को लेकर बातचीत आगे बढ़ रही है और यह कब तक अंतिम चरण में पहुंचेगी इसके बारे में फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता है. लेकिन जब तक एफटीए नहीं होता है, तब तक दोनों देश न केवल रोडमैप 2030 के मुताबिक़ अपने व्यापारिक रिश्तों को मज़बूत कर सकते हैं, बल्कि एक-दूसरे के यहां निवेश भी बढ़ा सकते हैं. वर्ष 2021 के आंकड़ों के मुताबिक़ यूके द्वारा भारत में 19.1 बिलियन यूरो (24.4 बिलियन अमेरिकी डालर) का एफडीआई किया गया था, जबकि भारत द्वारा ब्रिटेन में 9.3 बिलियन यूरो (11.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर) का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश किया गया था. ऐसे में साफ है कि अगर दोनों देशों में निवेश बढ़ता है, तो आने वाले दिनों में द्विपक्षीय व्यापार में भी बढ़ोतरी होगी.

 

भारत और ब्रिटेन के बीच एफटीए वार्ता अंतिम चरण पर पहुंच चुकी है. ब्रिटेन में अपने 14 साल के शासन के अंतिम दिनों में कंज़र्वेटिव पार्टी के नेताओं ने तमाम क्षेत्रों में भले ही चुनौतियां झेली हों, लेकिन भारत के साथ व्यापार समझौते पर बातचीत को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाना जारी रखा. इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले महीनों के दौरान दोनों देशों में हुए आम चुनावों के बाद सत्ता पर बैठने वाली सरकारों ने इस समझौता वार्ता को नए सिरे से आगे बढ़ाया है, लेकिन देखा जाए तो इस समझौते को यहां तक पहुंचाने का श्रेय पूर्व की सरकारों, ख़ास तौर पर ब्रिटेन की पूर्व कंज़र्वेटिव सरकार को जाता है. ज़ाहिर है कि पिछली सरकारों द्वारा तय गई रणनीतियों और रखी गई मज़बूत बुनियाद के बल पर ही भारत-यूके एफटीए आज अंतिम दौर में पहुंच पाया है. मौज़ूदा परिस्थितियों में ब्रिटेन की लेबर सरकार अगर इस समझौते में आने वाली बाधाओं का दृढ़ इरादे, पुख्ता तैयारी एवं व्यावहारिक नज़रिए से समाधान तलाशती है, तो यह एफटीए बहुत ज़ल्द अपने अंतिम मुकाम पर पहुंच सकता है. इतना ही नहीं, यह समझौता भारत और ब्रिटेन के पारस्परिक रिश्तों को सशक्त करने की दिशा में भी एक मील का पत्थर साबित होगा.

 

ब्रेक्ज़िट के पश्चात यूके द्वारा दूसरे देशों के साथ अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए लगातार कोशिश की जाती रही हैं. हालांकि, इसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन को फिलहाल ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूज़ीलैंड के साथ ही मुक्त व्यापार समझौता करने में क़ामयाबी हासिल हो पाई है. इन दोनों देशों के साथ एफटीए के बाद यूके को घरेलू मोर्चे पर विवादों का सामना करना पड़ा है. ख़ास तौर पर ब्रिटेन के किसानों ने इन समझौतों का विरोध किया है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनका कामकाज प्रभावित होगा और यह उनके हित में नहीं है. इसके अलावा, यूके और कनाडा के बीच भी एफटीए को लेकर बातचीत चल रही थी, लेकिन खाद्य सुरक्षा मानकों से जुड़े मुद्दों पर कोई रज़ामंदी नहीं बनने के बाद इस साल की शुरुआत में इसमें पेंच फंस गया. इस सभी घटनाक्रमों से साबित होता है कि ब्रिटेन के सामने भारत के साथ एक बेहतर मुक्त व्यापार समझौता करने की चुनौती है. इसी वजह से भारत और यूके के बीच चल रही समझौता वार्ताएं बेहद अहम हैं और ब्रिटेन द्वारा बेहद एहतियात के साथ क़दम आगे बढ़ाए जा रहे हैं. कहने का मतलब है कि भारत और ब्रिटेन दोनों के लिए यह एफटीए महज एक द्विपक्षीय व्यापार समझौता नहीं है, बल्कि दोनों देशों के लिए यह समझौता कहीं न कहीं आदर्श मापदंडों को स्थापित करने वाला है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि दोनों देश आने वाले दिनों में अन्य देशों के साथ इसी प्रकार के मुक्त व्यापार समझौते करने की तैयारी में जुटे हैं, इनमें यूरोपीय संघ के साथ होने वाला एफटीए ख़ास तौर पर शामिल है.

 

यूके में ब्रेक्ज़िट के दौरान हुए मतदान में देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता के लिए वोट देने वाले लीव वोटर्स यानी ब्रेक्ज़िट के पक्ष में वोट देने वाले मतदाताओं को लगता था कि इससे सब कुछ आसान हो जाएगा. लेकिन ब्रेक्ज़िट के बाद यूके द्वारा विभिन्न देशों के साथ किए जा रहे व्यापार समझौतों के दौरान आने वाले मुश्किलें बताती हैं कि वैश्विक स्तर पर बहुत सी चीज़ें गहनता से जुड़ी हैं और यह इतना सरल नहीं है, जितना लगता है. ऐसे में अगर यूके की लेबर सरकार भारत के साथ एफटीए में क़ामयाब हो जाती है, तो यह न केवल आर्थिक मुद्दों पर उसके व्यावहारिक नज़रिए को प्रकट करेगा, बल्कि देश की आर्थिक प्रगति के लिए उसके संकल्प को भी ज़ाहिर करेगा. इसके अलावा, अगर ब्रिटेन गैर-ईयू देशों यानी भारत के साथ व्यापार समझौता करने में सफल हो जाता है, तो इससे उसके लिए यूरोपियन यूनियन के साथ अधिक व्यापक और लाभदायक व्यापार समझौते का रास्ता भी साफ हो सकता है.

 

इसके बारे में पक्के तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कि भारत और यूके के बीच इस दिवाली तक एफटीए हो जाएगा, या फिर अगली दिवाली का इंतज़ार करना पड़ेगा. लेकिन यह ज़रूर तय है कि भारत और यूके के बीच आर्थिक साझेदारी के नए युग की शुरुआत के लिए सभी क़दम उठाए जा रहे हैं. इस बीच, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रेक्ज़िट के बाद कंज़र्वेटिव पार्टी की सरकार का भारत के साथ एफटीए करने का सपना, आठ वर्षों के वादों और दो वर्षों तक चली वार्ताओं के बाद भी साकार नहीं हो पाया. अब लगता है कि कंज़र्वेटिव पार्टी का यह सपना ब्रिटेन में लेबर पार्टी के शासन में अगले कुछ महीनों में पूरा हो सकता है. कुल मिलाकर भारत-यूके मुक्त व्यापार समझौता कहीं न कहीं ब्रिटेन की आर्थिक प्रगति और वैश्विक स्तर पर व्यापारिक साझेदारियां स्थापित करने को लेकर लेबर सरकार की प्रतिबद्धता को साबित करेगा. ज़ाहिर है कि आर्थिक विकास और अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी जैसे मुद्दे ब्रिटेन में सत्तासीन लेबर सरकार की विदेश नीति का अहम हिस्सा हैं.


नोआ चैम्बरलेन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च इंटर्न हैं, साथ ही कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के क्वींस कॉलेज में फाउंडेशन स्कॉलर हैं.

शायरी मल्होत्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के रणनीतिक अध्ययन प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं.

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