Author : Saaransh Mishra

Published on Aug 09, 2021 Updated 0 Hours ago

कट्टर दक्षिणपंथियों को अप्रवासियों से जुड़ी बयानबाज़ी और नीतियों से दूर रखने के लिए, यूरोप को एक ऐसे  वैकल्पिक नेतृत्व की ज़रूरत है, जो उदारवादी विचारों के प्रति मज़बूत इरादे रखता हो.

उभरते कट्टर दक्षिणपंथी और वामपंथियों की घटती लोकप्रियता बीच यूरोप में शरणार्थियों का भविष्य?

हाल ही में फ्रांस की सरकार ने कट्टर दक्षिणपंथी और अप्रवासी विरोधी संगठन, ‘जेनरेशन आइडेंटिटेयर पर प्रतिबंध लगा दिया. सरकार ने प्रतिबंध का फ़रमान इसलिए जारी किया क्योंकि, ये संगठन भेदभाव, नफ़रत और हिंसा को बढ़ावा दे रहा था और एक निजी हथियारबंद सेना बन गया था. फ्रांस की सरकार के इस क़दम के एक दिन बाद जर्मनी की घरेलू ख़ुफ़िया एजेंसी,  फेडरल ऑफ़िस फॉर  प्रोटेक्शन ऑफ़  कॉन्स्टीट्यूशन ने, देश के सबसे बड़े विपक्षी दल आल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (AfD) पर इसलिए निगरानी शुरू कर दी, क्योंकि ये पार्टी लोकतंत्र के लिए ख़तरा बन रही थी और इसका ताल्लुक़ कट्टर दक्षिणपंथियों के साथ होने की आशंका थी. हालांकि, कोलोन शहर की अदालत ने पार्टी की निगरानी करने के आदेश पर फ़ौरन रोक लगा दी, क्योंकि अदालत के मुताबिक़, इससे सभी राजनीतिक दलों को समान अवसर देने की प्रक्रिया में ग़ैरवाजिब दख़लंदाज़ी हो रही थी.

फ्रांस और जर्मनी के इन दोनों संगठनों में एक समानता है. दोनों ही बड़े पैमाने पर अप्रवासियों के यूरोप आने और उसके सांस्कृतिक उदारीकरण का विरोध करते हैं. हालांकि उनकी बेहद भड़काऊ बयानबाज़ी और नस्लवादी आदर्श यूरोपीय संघ के सूत्र वाक्य विविधता में एकता के बिल्कुल उलट हैं, और इन संगठनों को रोका जाना चाहिए. लेकिन, अफ़सोस की बात ये है कि इन दोनों पर की गई हालिया कार्रवाई, बहुत देर से उठाया गया एक मामूली क़दम भर है. वैसे तो फ्रांस के जेनरेशन आइडेंटिटी को एक मामूली सा संगठन कहा जा सकता है, लेकिन जर्मनी की एएफडी (AfD) पार्टी तो हाल के वर्षों में राजनीति की मुख्यधारा में  गई है. चिंता की बात ये है कि एएफडी की ही तरह के दूसरे दक्षिणपंथी जनवादी संगठन अब यूरोपी राजनीति के हाशिए पर नहीं रह गए हैं. अब वो काफ़ी लोकप्रिय हो रहे हैं. दक्षिणपंथी जनवादी राजनीति की बढ़ती लोकप्रियता के लिए केवल अप्रवासियों की बाढ़ को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. लेकिन, हाल के वर्षों में जिस तरह पूरे यूरोप में कट्टर दक्षिणपंथी दल चुनाव जीत रहे हैं, उसमें अप्रवासियों के मुद्दे ने निश्चित रूप से एक बड़ा योगदान दिया है. ऐसे में इस बात पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इन दलों ने अपने प्रचार अभियान को मुख्य रूप से अप्रवासियों के ख़िलाफ़ केंद्रित रखा है. इसके अलावा, यूरोप भर में अपनी बार बार हार से यहां के मध्यमार्गी वामपंथी दलों ने अप्रवासियों को लेकर लंबे समय से चले  रहे अपने नज़रिए में बदलाव किया है. अब यूरोप के वामपंथियों में भी अप्रवास के मसले पर दक्षिणपंथी झुकाव देखने को मिल रहा है. वहीं, कट्टर दक्षिणपंथी विचारों की बढ़ती लोकप्रियता अब मुख्यधारा का हिस्सा बन चुकी है. ऐसे में यूरोप में अप्रवासियों के ख़िलाफ़ ये माहौल तो अब बना रहने वाला है. अप्रवासियों से जुड़ी यूरोप की अपर्याप्त और अधिकारों का हनन करने वाली नीतियों में सुधार की फौरी ज़रूरत है. लेकिन, तत्काल इन सुधारों की उम्मीद कम ही है. क्योंकि उन्हें आगे बढ़ाने वाले नेतृत्व का अभाव दिख रहा है.

अप्रवासियों से जुड़ी यूरोप की अपर्याप्त और अधिकारों का हनन करने वाली नीतियों में सुधार की फौरी ज़रूरत है. लेकिन, तत्काल इन सुधारों की उम्मीद कम ही है. क्योंकि उन्हें आगे बढ़ाने वाले नेतृत्व का अभाव दिख रहा है.

दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में अप्रवासियों के आने की सबसे बड़ी लहर 2015 में उठी थी, जब भूमध्य सागर के उस पार से क़रीब दस लाख अप्रवासी,अपनी जान को जोखिम में डालने वाला सफर तय करके यूरोपीय देश पहुंचे थे. इनमें से ज़्यादातर वो लोग थे जो मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीकी देशों में अपने ऊपर हो रहे ज़ुल्मसितम से बचने के लिए भागे थे. इन इलाक़ों में लंबे समय से संघर्ष छिड़ा हुआ था. दुनिया के सबसे अमीर और एक दूसरे से नज़दीक से जुड़ा हुआ समूह होने के बावजूद, यूरोपीय संघ इन अप्रवासियों ने कुशलता से निपटने में नाकाम रहा था. इसका नतीजा ये हुआ कि यूरोपीय मतदाताओं ने हाल के कई चुनावों को अप्रवासियों पर एक तरह से जनमत संग्रह बना दिया, और इन चुनावों के नतीजों ने यूरोप की जनता की पसंद को एकदम उजागर कर दिया है ज़्यादातर लोग चाहते हैं कि अप्रवासी उनके यहां से बाहर जाएं.

सुरक्षा और संस्कृति संबंधी चिंता

बड़े पैमाने पर अप्रवासियों की आमद ने सुरक्षा और संस्कृति संबंधी चिंताओं को बढ़ा दिया है. इसके अलावा यूरोपीय नागरिक अपने आर्थिक विस्थापन की आशंका से भी चिंतित हैं. आम जनता के बीच इन अप्रवासी विरोधी जज़्बात का फ़ायदा उठाते हुए, पूरे यूरोप में कट्टर दक्षिणपंथी पार्टियों ने अभूतपूर्व चुनावी जीत हासिल की है. इससे यूरोप में राजनीतिक संतुलन का पलड़ा उनकी तरफ़ झुक गया है. अप्रवासी संकट के क़रीब दो साल बाद, यानी अक्टूबर 2017 तक 24 यूरोपीय देशों की संसद में दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों का प्रवेश हो चुका था. मई 2017 में फ्रांस में हुए राष्ट्रपति चुनाव में राष्ट्रपति पद की कट्टर दक्षिणपंथी उम्मीदवार मरीन ली पेन को 34 प्रतिशत वोट मिले थे, जो उनकी पार्टी फ्रंट नेशनल का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन रहा था. अक्टूबर 2017 में ऑस्ट्रिया की अप्रवासी विरोधी फ्रीडम पार्टी (FPO) को 26 फ़ीसद (जो पिछले चुनावों के 20.5 प्रतिशत वोटों से अधिक) वोट मिले थे और ये पार्टी गठबंधन सरकार का हिस्सा बनी थी. चेक गणराज्य में अप्रवासियों के कट्टर विरोधी मिलोस ज़ेमान को वोटों का बहुमत (52 प्रतिशत वोट) हासिल हुआ था. इसकी बदौलत मिलोस ज़ेमान अपने प्रतिद्वंदी को हराकर लगातार दूसरी बार पांच साल के लिए सत्ता में आए थे. बुल्गारिया में 2017 के चुनाव में वोल्या मूवमेंट के रूप में एक कट्टर दक्षिणपंथी दल भी चुनाव मैदान में उतरा था और पहली बार (12) सीट जीती थीं. हंगरी की कट्टर दक्षिणपंथी फिडेस्ज़ पार्टी के लोकप्रिय नेता विक्टर ओर्बान, 2018 में लगातार तीसरी बार चुनाव जीतकर सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखी थी. स्लोवेनिया फर्स्ट (ट्रंप के अमेरिका फर्स्ट की तर्ज़ पर) मंच पर अपना प्रचार अभियान चलाते हुए जैनेज़ जांसा के दक्षिणपंथी विपक्षी संगठन ने स्लोवेनिया में 25 प्रतिशत वोट हासिल किए और सरकार बनाई थी. यहां तक कि यूरोप के सबसे उदारवादी देशों में से एक स्वीडन में भी कट्टर दक्षिणपंथी, श्वेत नस्लवादी और नवनाज़ी विचार वाले स्वीडन डेमोक्रेट की लोकप्रियता में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ, और ये दल 2018 के चुनाव में 17.6 प्रतिशत वोट हासिल करके स्वीडन की संसद में तीसरी सबसे पार्टी बन गया.

सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों को चुनावी नतीजों से झटका क्यों? 

अप्रवासियों के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी और कट्टर नीतियों पर लगाम लगाने के कलिए, यूरोप को एक ऐसे वैकल्पिक नेतृत्व की ज़रूरत है, जो उदारवादी आदर्शों को लेकर मज़बूत इरादे रखता हो. आम तौर पर ये ज़िम्मेदारी मध्यमार्गी-वामपंथी और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियां निभाती आई हैं. लेकिन जिस चालाकी से कट्टर दक्षिणपंथियों ने वोट हासिल किए हैं, उससे सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों को चुनावी नतीजों से सदमा लगा है. फ्रांस में बेनोय हैमन की अगुवाई वाले समाजवादियों को 2017 के चुनाव में केवल 6.2 फ़ीसद वोट मिले थे, जो पांच साल पहले उनके पक्ष में चली लहर के ठीक उलट थे. नीदरलैंड्स में लेबर पार्टी का वोट प्रतिशत 2012 में 25 फ़ीसद से घटकर केवल 5.7 प्रतिशत रह गया. इसी तरह जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी को सितंबर के चुनावों में केवल 20.5 प्रतिशत वोट हासिल हुए, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद उसका सबसे ख़राब प्रदर्शन था. वहीं, चेक गणराज्य के सोशल डेमोक्रेटिक दल ने 2006 में जहां 33 फ़ीसद वोट हासिल किए थे. वहीं, 2017 के चुनाव में उसे केवल 7 प्रतिशत वोट ही मिले.

जब से अप्रवासियों का संकट शुरू हुआ है, तब से पनाह मांगने वालों और शरणार्थियों को यूरोपीय संघ में एक सुरक्षित और व्यवस्थित ज़रिया मुहैया कराने के बजाय, संघ के सदस्य देशों ने ऐसी नीतियों को आगे बढ़ाया है, जो अप्रवासियों की आमद को सीमित करती हैं

चुनाव के ये नतीजे पूरे यूरोप में अप्रवासियों के ख़िलाफ़ बढ़ रहे जज़्बात की नुमाइंदगी करते हैं. इसके चलते, चुनावी हितों के लिए समाजवादी लोकतंत्रवादियों ने भी अप्रवासियों को लेकर ऐसा रुख़ अपनाया है, जिसकी उम्मीद नहीं की जाती थी. जर्मनी में सोशल डेमोक्रेट्स की पहली महिला नेता चुनी गईं एंड्रिया नाहल्स ने अपने इस बयान से गठबंधन के भीतर हलचल मचा दी कि, जर्मनी सबको तो नहीं अपना सकता है’. ये सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के उन घोषित उद्देश्यों के बिल्कुल ख़िलाफ़ था, जिसके तहत पार्टी एक यूरोपीय समाधान चाहती है और सीमाएं सील करने के ख़िलाफ़ है. मेटे फ्रेडरिक्सन की अगुवाई में डेनमार्क के सोशल डेमोक्रेटिक दल ने अप्रवासियों के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाया और 2019 का चुनाव जीत लिया. स्वीडन की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रधानमंत्री स्टेफन लोफवेन ने बयान दिया कि, ‘मेरा यूरोप दीवारें नहीं बनाता. मेरा यूरोप शरणार्थियों को अपनाता है.’ मगर, इसके ठीक दो महीने बाद उन्होंने आम तौर पर उदारवादी मानी जाने वाली स्वीडन की अप्रवासी नीति के बारे में ये कहा कि इस पर अब और नहीं चला जा सकता है. इसके अलावा, दबाव में आकर अब मध्यमार्गी दक्षिणपंथी दल भी हाल के वर्षों में कट्टरपंथी बयानबाज़ी पर उतर आए हैं. एक ख़ुले ख़त में नीदरलैंड के प्रधानमंत्री मार्क रुट ने अप्रवासियों पर ज़बरदस्त हमला किया और कहा कि, ‘जो लोग हमारे मूल्यों को स्वीकार नहीं करते और उनकी आलोचना नहीं करते, उन्हें या तो अपना बर्ताव सुधारना चाहिए, या फिर यहां से चले जाना चाहिए’; इसके बाद यूरोप की अप्रवासियों का समर्थन करने वाली पार्टियों और नेताओं के लिए तो कोई गुंजाइश बचती ही नहीं.

अप्रवासियों को लेकर यूरोप की नीतियों में ख़ामियां 

अप्रवासियों को लेकर यूरोप की नीतियों में बहुत सी ख़ामियां हैं और इनमें बड़े पैमाने पर सुधार की ज़रूरत है. जब से अप्रवासियों का संकट शुरू हुआ है, तब से पनाह मांगने वालों और शरणार्थियों को यूरोपीय संघ में एक सुरक्षित और व्यवस्थित ज़रिया मुहैया कराने के बजाय, संघ के सदस्य देशों ने ऐसी नीतियों को आगे बढ़ाया है, जो अप्रवासियों की आमद को सीमित करती हैं और अपनी ज़िम्मेदारियों को यूरोपीय संघ के बाहर अस्थिर क्षेत्रों जैसे कि तुर्की पर थोपने की विवादित कोशिश करती हैं. यूरोपीय संघ की इन नीतियों की भारी मानवीय क़ीमत भी चुकानी पड़ी है. अप्रवासियों के लिए सुरक्षित और वैधानिक तरीक़ों और रास्तों से यूरोप पहुंचने के विकल्प तैयार करने के बजाय उन्हें रोकने की नीतियों के चलते मानव तस्करी के नेटवर्क विकसित हो गए हैं, जो लोगों को असुरक्षित तरीक़े से यूरोप पहुंचने के लिए बाध्य करते हैं. इससे अप्रवासियों की जान जाने का भी जोखिम होता है. यूरोपीय संघ के तमाम अध्यक्षों ने भी विवादित डब्लिन नियमों को सुधारने की कोशिश की है, जिससे इनके भीतर छुपी नाइंसाफ़ी को ख़त्म किया जा सके. लेकिन, वो नाकाम रहे हैं, क्योंकि संघ के सदस्य देश इस बात पर एकमत नहीं हैं. चूंकि, अप्रवासियों के लिए सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला पैमाना यही है कि उसे शरण लेने वाले पहले देश में ही अपनाया जाए. इसकी वजह से शरणार्थियों का सबसे ज़्यादा बोझ यूरोप के सीमावर्ती देशों जैसे ग्रीस और स्पेन पर पड़ रहा है. यूरोपीय संघ के सदस्य देशों द्वारा ज़िम्मेदारी साझा करने से इनकार करने से ग्रीस में नाराज़गी बढ़ रही है. इसके चलते अप्रवासियों के मानव अधिकारों का भी हनन हो रहा है. इसी तरह, स्पेन में जहां अब तक तानाशाह फ्रैंको के इतिहास के चलते कट्टर दक्षिणपंथियों के लिए गुंजाइश नहीं दिखती थी, वहां भी जनवादी वॉक्स पार्टी तेज़ी से लोकप्रिय हो रही है. 2019 के संसदीय चुनावों में वॉक्स पार्टी स्पेन की संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, उसने 52 सीटें जीती थीं. वॉक्स पार्टी की लोकप्रियता, अफ्रीका से भारी संख्या में अप्रवासियों के स्पेन पहुंचने के बाद बढ़नी शुरू हुई थी, क्योंकि तब इसने अप्रवासियों को रोकने के लिए सख़्त पाबंदियां लगाने का प्रचार अभियान चलाया था.

यूरोप में अप्रवासियों का भविष्य अनिश्चित

जिस राष्ट्रवादी लहर ने यूरोप को अपनी चपेट में ले लिया है, उसमें कोई सुधार होने की उम्मीद नहीं है. उल्टे हालात और ख़राब होने की ही आशंका है. अब बहुत से कट्टर दक्षिणपंथी नेता यूरोपीय संसद के लिए चुने जा रहे हैं. वहीं उनका मुक़ाबला करने के लिए मध्यमार्गी वामपंथी दल भी धीरे धीरे ही सही, मगर निश्चित रूप से अप्रवासियों के ख़िलाफ़ होते जा रहे हैं. इस वजह से आगे चलकर नीतिगत मसलों पर भी ऐसी एकजुटता देखने को मिल सकती है, जैसी पहले नहीं रही. हालांकि, ये एकजुटता ऐसी नीतियां बनाने को लेकर ही होगी, जो अप्रवासियों के संकट को मानव अधिकारों के सिद्धांत के आधार पर उचित ढंग से हल करने के बजाय, उन्हें रोकने की होंगी.

जेनरेशन आइडेंटिटी पर प्रतिबंध और ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (AfD) की निगरानी, भले ही महत्वपूर्ण हो, लेकिन ये क़दम, यूरोप में गहरी जड़ें जमा चुकी समस्या का बमुश्किल ही कोई समाधान निकाल सकेंगे. भेदभाव भरी और नस्लवादी नीतियों और बयानबाज़ी पर असरदार तरीक़े से क़ाबू पाने के लिए, यूरोपीय नेताओं को सबको स्वीकार करने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धांतों को दिल की गहराइयों से मंज़ूर करना होगा. हालांकि, अगर हम मौजूदा हालात को देखें तो यूरोप में अप्रवासियों का भविष्य अनिश्चित ही दिखता है.  

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