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प्रवासियों पर डोनाल्ड ट्रंप के सख्त रवैये से पहले ही एच1 बी वीजा हासिल करना बहुत मुश्किल हो चुका था।
दफ्तर के काम से जी चुरा कर बस अमेरिकी दूतावास से एच1बी वीजा इंटरव्यू के बुलावे की आस में खोए रहना। यहां की तकनीकी कंपनियों में काम करने वाले 21वीं सदी के हिंदुस्तानियों के लिए अब यह आसान नहीं रहने वाला। उन्हें पहले यहां भारत में बेहतर प्रदर्शन कर के दिखाना होगा।
एच1बी वीजा को ले कर डोनाल्ड ट्रंप के सख्त रवैये से पहले ही एच1बी वीजा हिसाल करना बहुत मुश्किल हो चुका था। भारत की तकनीकी कंपनियां अब एच1बी वीजा के लिए अपने कर्मचारियों का चयन और ज्यादा ध्यान से कर रही हैं। “इनके लिए अत्यंत कुशल का मतलब वास्तव में अत्यंत कुशल हो गया है ना कि पहले की तरह कोई भी टीम लीड या प्रोजेक्ट मैनेजर।”
उदाहरण के तौर पर एक्सेंचर को लीजिए। इस कंपनी का मुख्यालय अमेरिका में है और भारत में इसमें एक लाख लोग कार्यरत हैं, जो दुनिया के किसी भी देश में इस कंपनी के कर्मचारियों की सबसे अधिक संख्या है। प्रवासियों को ले कर ट्रंप के सख्त रवैये के बाद एच1बी के जरिए भारत से होने वाले पलायन में आने जा रही कमी के साथ टीम लीडर को एक सुखद अनुभव भी मिल रहा है। एक्सेंचर की 100 से ज्यादा लोगों की एक अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा (हेल्थकेयर) टीम के प्रमुख कहते हैं, “इंजीनियरिंग कॉलेज के फ्रेशर्स और तीन-चार साल के अनुभव वाले लोग जो पहले काम से जी चुराते थे, अब उन्हें बेहतर प्रदर्शन करना होगा। क्योंकि जब तक अमेरिका में इस सख्ती में कमी नहीं आती, उन्हें अपना कैरियर यहीं बनाना होगा।”
25 साल के आस-पास की उम्र के कर्मी दिखाते थे कि वे बेहद मेहनती हैं और वास्तव में ई-मेल को इस तरह शेड्यूल कर देते थे कि सुबह चार बजे मैनेजर को पहुंचे और जिनके मैनेजरों को शिकायत रहती थी कि वे बेवकूफ बनाने वाली ऐसी तमाम दूसरी तकनीक अपनाते हैं। लेकिन अब ऐसे कर्मियों को सबक मिल गया है।
भारतीय आईटी कंपनियों के वरिष्ठ प्रबंधन के लोग इस बदलाव से बहुत खुश हैं। ट्रंप ने इन लोगों के लिए वह मुमकिन बना दिया है जो वे वर्षों से नहीं कर सके थे। अब 30 से कम उम्र वालों को कैरियर के शुरुआती दिनों में जम कर काम करने के लिए प्रेरित करने में ज्यादा दिक्कत नहीं हो रही।
विदेशी धरती पर चली राष्ट्रवाद की इस मुहिम ने भारतीय आईटी कंपनियों को एक शानदार हथियार मुहैया करवा दिया है।
नहीं, फिलहाल तो नहीं। यह एक आकर्षक शीर्षक जरूर लगता है क्योंकि इस संबंध में जो प्रस्तावित विधेयक कांग्रेस में लटका हुआ है, उसमें जिन प्रमुख बिदुंओं की चर्चा की गई थी, उनमें न्यूनतम भुगतान भी था। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस में हर वर्ष हजारों बिल प्रस्तावित होते हैं और उनमें से बहुत कम संख्या में ही बिल वास्तव में कानून बन पाते हैं। इस पृष्ठभूमि के बावजूद अमेरिकी लोग ऊंची दर के लिए दबाव बना रहे हैं तो इसके पर्याप्त कारण हैं। यह गुणवत्ता को बेहतर करने का एक तरीका हो सकता है और साथ ही यह नियमों की जिन कमियों का इस्तेमाल कर अमेरिका में एच1बी की दुकानों में शोषण हो रहा है, उन्हें दूर करने का तरीका भी हो सकता है।
अमेरिका में कांग्रेस की ओर से एच1बी वीजा पर सालाना 65 हजार नए आवेदकों की सीमा लगाई गई है और इस सीमा के तहत सबसे ज्यादा लाभ पाने वाला समूह भारतीय नागरिकों का ही है। इस सीमा के अलावा 20 हजार उन लोगों के आवेदन भी लिए जा सकते हैं जिन्होंने अमेरिका से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की है।
अमेरिका में एच1बी वीजा के तहत काम कर रहे भारतीय नागरिकों की संख्या काफी ज्यादा है, क्योंकि आम तौर पर यह वीजा तीन साल जोड़ तीन साल के चक्र में चलता है।
प्राइम टाइम टेलीवीजन पर हो रही बहसों से लग रहा है कि ट्रंप के आने के बाद एच1बी वीजा मिलने में खतरे बहुत बढ़ गए हैं, जबकि तथ्य कुछ और ही इशारा कर रहे हैं। ट्रंप के सत्ता में आने से पहले ही अपर्याप्त दस्तावेजों के आधार पर एच1बी वीजा आवेदन अस्वीकार होने की दर बढ़ती जा रही थी। इनमें 221 (जी) का तकनीकी पेंच फंसया जा रहा है।
अमेरिकी वीजा के लिए आवेदन करने पर कुल तीन तरह के नतीजे हो सकते हैं — मंजूरी, नामंजूरी और प्रवास व नागरिकता कानून (आईएनए) की धारा 221 (जी) के तहत इनकार। इस तीसरे विकल्प की वजह से ही अमेरिका में बॉडी शॉपिंग कंपनियों का धंधा धड़ल्ले से चल रहा है।
अगर 221 (जी) में इनकार किया गया है तो फिर आपका अंतिम फैसला आने में महीनों और वर्षों का समय लग सकता है। आईटी कंसल्टिंग के कर्मचारियों के लिए इस तरह का इनकार बहुत पुरानी बात है और इसका ट्रंप से कोई लेना-देना नहीं है। एच1बी वीजा का काम संभालने वाले श्रम विभाग को मिली शिकायत के आधार पर गहरी पड़ताल तो किसी भी प्रशासन में मुमकिन है।
हालांकि इस तरह की मनाही ऐसे एच1बी वीजा आवेदनों में ज्यादा होने की आशंका होती है जिसमें ऑफसाइट कर्मचारी शामिल हों, वैसे ऑनसाइट कर्मचारी और कंसल्टेंट भी जांच के दायरे में हैं।
ऐसा क्यों होता है? श्रम विभाग की ओर से तैयार की गई काली सूची पर एक नजर डालिए और आपको इसका जवाब आसानी से मिल जाएगा। अमेरिकी शहरों में एच1बी के खोके चलाने वाले भरे पड़े हैं और इनके मालिक उस समय बिल्कुल ध्यान नहीं देते जब उनके एच1बी कर्मी अमेरिका में अपनी स्थिति बेहतर बनाने के लिए नियमों का उल्लंघन करते हैं। श्रम विभाग के एच1बी खंड में काम करने वाले एक कर्मचारी जो अपनी पहचान सार्वजनिक नहीं करना चाहते, एक कहानी सुनाते हैं:
आंध्र प्रदेश के गंटूर के जावा प्रोग्रामर रमेश जो न्यूयॉर्क के रेगो पार्क के बदनाम हिस्से में रहते हैं, उनकी मैनहट्टन के एक इनवेस्टमेंट बैंक की नौकरी छूट गई। वह मैनहट्टन में काम के लिए गया। लेकिन वह ‘कंपनी से कंपनी’ व्यवस्था का हिस्सा था जो आईटी कर्मियों के बीच अब काफी सामान्य हो गई है। यहां रमेश का एच1बी वीजा एक बॉडी शॉपर के पास है जो रमेश को दूसरे क्लाइंट को लीज पर देता है। बैंक से भुगतान बॉडी शॉपर को मिलता है जो इसका बड़ा हिस्सा अपने पास रख लेता है और बाकी रमेश को दे देता है। वैसे यह जरूरी नहीं है कि ‘कंपनी से कंपनी’ के इस लेन-देन में एक ही कड़ी हो, लेकिन यह कड़ियां जितनी कम हो निचले पक्षों को उतनी ज्यादा मदद मिलती है।
रमेश को जब चार हफ्तों के लिए काम नहीं मिला तो उसकी चिंता बढ़ी, क्योंकि उसे बिलों का भुगतान करना था और ऐसे में उसके दिमाग में कुछ खतरनाक विचार आया। उसने अपने रेज्यूमे को बदल कर खुद को पीएमपी यानी प्रोजेक्ट मैनेजमेंट प्रोफेशनल के तौर पर पेश कर दिया। इसके बाद उसने ऐसे दोस्तों और रिश्तेदारों की तलाश शुरू की जो उसका इंटरव्यू कॉल अपने फोन पर कर सकें। इन इंटरव्यू के पहले चरण में आम तौर पर उम्मीदवार को दफ्तर आ कर इंटरव्यू नहीं देना होता है। रमेश को आखिरकार ऐसी एक कंपनी मिल गई और वह सोच रहा था कि जब तक शुरुआती बाधाएं दूर हो रही हैं और कंपनी अपनी औपचारिकता पूरी करती है, वह पीएमपी परीक्षा के लिए तैयारी कर लेगा और इसे पास भी कर लेगा। लेकिन जिसने फोन पर इंटरव्यू दिया था उसने रमेश का खेल बिगाड़ दिया, श्रम विभाग को जानकारी मिल गई और रमेश का एच1बी वीजा लेने वाली कंपनी को जल्दी ही काली सूची में डाला जा सकता है।
पिछले एक दशक के करीब से फलने-फूलने लगे कई गंदे धंधों में यह भी एक बन गया है। खबरों में जिस बात के लिए इसकी अक्सर आलोचना होती है, वह है आउटसोर्स करने वालों को सस्ते में भारतीय कर्मी मिल जाते हैं, इसलिए वे अमेरिका में योग्य व्यक्तियों को तलाशने की मशक्क्त ही नहीं करते। जिन तरीकों से यह होता है, यह उनमें से एक था। कई बार एच1बी वीजा धारक सीधे नौकरी पर रखने वाली कंपनी से नई नौकरी हासिल कर लेता है और तब जा कर इसके बारे में बॉडी शॉपिंग करने वाली कंपनी को बताता है जो आधिकारिक तौर पर उसकी नियोक्ता होती है। इसके बाद वह कंपनी किसी स्थानीय छोटे-मोटे अखबार के किसी कोने में उस पद के लिए छोटा सा विज्ञापन छपवा लेती है ताकि कोई उसे पढ़ नहीं सके या फिर उसके लिए दर इतनी कम रखी जाती है कि कोई अमेरिकी आवेदन ही नहीं करे और फिर पहले से तय भूमिका के आधार पर दर बढ़ा दी जाती है।
सिर्फ जनवरी, 2017 के दौरान ही अमेरिकी कांग्रेस में तीन बिल पेश किए गए हैं, जिनमें एच1बी वीजा के नियमों में संशोधन कर धोखाधड़ी को और मुश्किल बनाने के प्रावधान शामिल करने के प्रस्ताव हैं। इन बिल को तैयार करने में श्रम विभाग और सामाजिक संगठनों की मदद ली गई है और व्यवस्था को चकमा देने वाले रमेश जैसे मामलों का ध्यान रखा गया है।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, नई दिल्ली के सीनियर फेलो श्रीनाथ राघवन लिखते हैं, “प्रवासियों से संबंधित व्यवस्था की तकनीकी जटिलताओं के साथ ही हमें ट्रंप प्रशासन के दौरान नीति संबंधी चिंतन में फिर से ऐसे (नस्ली या घृणा आधारित) उभार को ले कर भी चिंतित होना चाहिए। गोरी चमड़ी के लोगों को बेहतर मानने वाले स्टीवन बैनन जैसे लोग जब सार्वजनिक तौर पर इस बात पर एतराज दर्ज कर रहे हैं कि सिलिकन वैली की कंपनियों की अगुवाई दक्षिण एशियाई लोग करें तो चर्च की गूंज साफ सुनाई देती है।”
वह भी यह भी।
ट्रंप के राष्ट्रपति काल के दौरान अमेरिकी न्यायपालिका अपेक्षाकृत व्यापक भूमिका निभाने वाली है और विदेश संबंधी मामलों में राष्ट्रपति की दखलंदाजी पर नजर रखने वाली है। इस संबंध में ज्यादातर संघर्ष प्रवासियों से जुड़ी नीतियों को ले कर होने वाला है।
यह देखते हुए कि ट्रंप पीछे नहीं हटने वाले और सुप्रीम कोर्ट में चार-चार का मत विभाजन है, यात्रा संबंधी नियमों को ले कर अभी उहापोह कायम रहने वाला है। इससे भारत के एच1बी वीजा पर काम करने वाले कर्मियों की चिंता बढ़ेंगी।
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Nikhila Natarajan is Senior Programme Manager for Media and Digital Content with ORF America. Her work focuses on the future of jobs current research in ...
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