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नागोर्नो काराबाख़ के पतन से कॉकेशस ही नहीं उसके आगे के के इलाक़ों में भी एक नई भू-राजनीतिक व्यवस्था का उदय हो सकता है.
पिछले कम से कम तीन दशक से नागोर्नो काराबाख़ (आर्मेनिया में इसे अर्तसाख भी कहते हैं) क्षेत्र पर क़ब्ज़े को लेकर आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच विवाद चला आ रहा है. ऐतिहासिक रूप से जो सबूत मिलते हैं, वो इशारा करते हैं कि नागोर्नो काराबाख़ ऐतिहासिक आर्मेनिया का अटूट अंग रहा है. वहां की आबादी में आर्मेनियाई लोगों का बहुमत है, और वहां आर्मेनियाई सांस्कृतिक विरासत के भी विशाल भंडार मौजूद हैं. फिर भी, अजरबैजान इस विवादित इलाक़े पर अपना दावा करता रहा है, क्योंकि नागोर्नो काराबाख़ भौगोलिक रूप से अजरबैजान में पड़ता है. कम से कम पिछले साल सितंबर तक इस इलाक़े पर एक अलगाववादी हुकूमत का शासन था, जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई मान्यता नहीं हासिल थी. नागोर्नो काराबाख़ पर क़ब्ज़े को लेकर आर्मेनिया और अजरबैजान अब तक तीन ख़ूनी जंग लड़ चुके हैं. पिछले साल सितंबर में नागोर्नो काराबाख़ में लगभग 24 घंटे तक जो झड़प चली थी, उसमें जिस बात की कम पड़ताल की गई, वो उसके पतन के असर की है, जिससे शायद कॉकेशस और उसके आगे भी एक नई भू-राजनीतिक व्यवस्था का उदय हो सकता है.
पिछले साल सितंबर में नागोर्नो काराबाख़ में लगभग 24 घंटे तक जो झड़प चली थी, उसमें जिस बात की कम पड़ताल की गई, वो उसके पतन के असर की है, जिससे शायद कॉकेशस और उसके आगे भी एक नई भू-राजनीतिक व्यवस्था का उदय हो सकता है.
नागोर्नो काराबाख़ पर अज़रबैजान के क़ब्ज़े के बाद से अब दुनिया की निगाहें ज़ंगेज़ुर नाम के इलाक़े पर टिक गई हैं. दूर-दराज़ में स्थित जंगेज़ुर का इलाक़ा आर्मेनिया के क़ब्ज़े में है. जंगेज़ुर की लगभग 40 मील लंबी सीमा ईरान से मिलती है और ये सामरिक रूप से बेहद अहम है. इस इलाक़े में सोवियत संघ के ज़माने की एक रेलवे लाइन है, जो अब पुरानी पड़ चुकी है. अब ज़ंगेज़ुर गलियारे के रूप में विकसित करने को लेकर इसकी नई परिकल्पना की जा रही है, जो अज़रबैजान को नखशिवान से जोड़ेगा. चारों तरफ़ से ज़मीन से घिरा अज़रबैजान का ये क्षेत्र बाक़ी के देश से बिल्कुल कटा हुआ है, क्योंकि बीच में आर्मेनिया आबाद है. ये क्षेत्र अज़रबैजान और तुर्की दोनों के लिए अहम है. क्योंकि ज़ंगेज़ुर का गलियारा आगे चलकर परिवहन का एक रणनीतिक रूप से अहम रास्ता बन सकता है, जो आर्मेनिया से होते हुए बाकू को कार्स से जोड़ेगा. ये रास्ता येरेवन और तेहरान की सीमा के बेहद क़रीब से होकर गुज़रेगा. जहां तक तुर्की की बात है, तो वो नागोर्नो काराबाख़ पर अज़रबैजान के क़ब्ज़े को ज़ंगेज़ुर गलियारे पर दोबारा काम शुरू करने का रास्ता खुलने के तौर पर देखता है. वहीं, इस बदलाव के पूरे कॉकेशस क्षेत्र की भू-राजनीति पर दूरगामी परिणाम देखने को मिल सकते हैं. ईरान को डर है कि ज़ंगेज़ुर गलियारे की परियोजना, आर्मेनिया के साथ उसकी सीमा में बाधाएं खड़ी करेगी और यही वजह है कि ईरान ने साफ़ तौर पर संकेत दिया है कि अगर अज़रबैजान, ज़ंगेज़ुर के इलाक़े पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश करता है, तो तय है कि इसका जवाब सैन्य संघर्ष के तौर पर दिया जाएगा. ज़ाहिर है कि अगर जंग छिड़ी तो इसमें तुर्की भी कूद पड़ेगा, क्योंकि अज़रबैजान उसका सियासी साथी है.
अगर अज़रबैजान, ज़ंगेज़ुर के इलाक़े पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश करता है, तो तय है कि इसका जवाब सैन्य संघर्ष के तौर पर दिया जाएगा. ज़ाहिर है कि अगर जंग छिड़ी तो इसमें तुर्की भी कूद पड़ेगा, क्योंकि अज़रबैजान उसका सियासी साथी है.
ज़ंगेज़ुर तुर्की को एक ऐसा उपयोगी मौक़ा प्रदान करता है, जिससे वो अज़रबैजान के साथ अपनी ऊर्जा की कनेक्टिविटी को और मज़बूत कर सकता है. अर्तसाख पर क़ब्ज़ा करने के एक हफ़्ते के भीतर ही, अज़रबैजान और तुर्की ने नख़शिवन गैस पाइपलाइन का निर्माण शुरू कर दिया था. इस पाइपलाइन को तुर्की के इगदिर से अज़रबैजान और तुर्की के बीच 50 मील की सीमा तय करते हुए, 11 मील और आगे बढ़कर नख़शिवन तक बिछाया जाना है. इस वक़्त तो नख़शिवन अपनी तेल की ज़रूरतों के लिए ईरान पर निर्भर है. लेकिन, जब नख़शिवन की पाइपलाइन बिछ जाएगी, तो अज़रबैजान अपनी प्राकृतिक गैस वहां तक पहुंचा सकेगा. इस तरह से ज़ंगेज़ुर के गलियारे को ऊर्जा के परिवहन का एक महत्वाकांक्षी मार्ग बनाने की तुर्की और अज़रबैजान की कल्पना पूरी हो सकेगी. अगर ये गलियारा पूरा हो जाता है, तो ज़ाहिर है कि इससे नख़शिवन से होकर तुर्की और अज़रबैजान के बीच कारोबारी और कूटनीतिक रिश्ते और भी मज़बूत होंगे. अभी ये तो साफ़ नहीं है कि ज़ंगेज़ुर का रास्ता आर्मेनिया की सीमा के भीतर से पूर्ण गलियारे के रूप में गुज़रेगा या नहीं, क्योंकि वो इलाक़ा पूरी तरह से आर्मेनिया के क़ब्ज़े में नहीं है. मगर, इससे इस इलाक़े में एक नया संघर्ष छिड़ सकता है, और ऐसा हुआ तो यूरेशिया के ऊर्जा बाज़ार में उथल पुथल मच जाने की पूरी आशंका है.
दक्षिणी कॉकेशस में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की दिलचस्पी के तमाम कारणों में से एक अज़रबैजान में तेल के भंडारों का होना भी है. मिसाल के तौर पर, दक्षिणी कॉकेशस क्षेत्र में संघर्ष में किसी भी तरह का और इज़ाफ़ा हुआ तो ज़ाहिर है कि अज़रबैजान से यूरोप को तेल और गैस की आपूर्ति में खलल पड़ेगा. रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की वजह से ये बात और भी अहम हो जाती है. यही वजह है कि दक्षिणी कॉकेशस के संकट में अलग अलग सियासी हित दांव पर लगे हैं. जहां एक तरफ़ एक संधि (जिसे 2010 में विस्तारित रक्षा संधि के ज़रिए और बढ़ाया गया था) की वजह से संघर्ष आगे बढ़ने पर रूस, आर्मेनिया की हिफ़ाज़त के लिए आगे आने को बाध्य होगा. वहीं, तुर्की ऐतिहासिक रूप से अज़रबैजान के साथ खड़े होने का वादा करता रहा है. इससे पहले अमेरिका की सरकार को भी आपस में टकराने वाले हितों के बीच तालमेल बिठाना पड़ रहा था. एक तरफ़ तो अमेरिका, अपने यहां के आर्मेनिया समुदाय की ख़्वाहिशों का ख़याल रखना होता था, वहीं तेल की वैकल्पिक पाइपलाइनों के रास्ते सुरक्षित करने के घरेलू लक्ष्य भी थे, जिनके केंद्र में कैस्पियन सागर स्थित अज़रबैजान के तेल के भंडार थे. इसीलिए, दक्षिणी कॉकेशस में किसी भी तरह का संकट पैदा होने पर न केवल आर्मेनिया और अज़रबैजान आमने सामने होंगे, बल्कि इस संघर्ष में तुर्की, ईरान, रूस अमेरिका और यूरोपीय देश, विशेष रूप से फ्रांस भी शामिल होगा, जो इस क्षेत्र में पर्दे के पीछे से काफ़ी सक्रिय हैं.
सोवियत संघ टूटने के बाद के सियासी मंज़र में, कम से कम पिछले तीन दशकों से रूस का अंतिम लक्ष्य यही रहा है कि वो पूर्व सोवियत गणराज्यों को फिर से एकीकृत करके अपने साथ और कुछ नहीं तो सियासी तौर पर जोड़े रखे. हालांकि, रूस के भू-राजनीतिक हित इस बात में भी निहित रहे हैं कि वो तमाम क्षेत्रीय संघर्षों को और आगे बढ़ने से रोक कर रखे. वरना कॉकेशस क्षेत्र के और मोल्दोवा जैसे पूर्व सोवियत गणराज्यों के यूरोप और अमेरिका के ज़्यादा क़रीब आने की आशंका बनी रहेगी. मिसाल के तौर पर मोल्दोवा और ट्रांसनिस्ट्रिया के बीच संघर्ष में रूस की रणनीति मोल्दोवा को नैटो और यूरोपीय संघ में शामिल होने से रोकने की रही है. नागोर्नो काराबाख़ के संघर्ष में रूस की रणनीति यही थी कि इस क्षेत्र को अस्थिर रखते हुए अपने ऊपर निर्भर बनाए रखा जाए, और इस तरह से पश्चिमी देशों के साथ इनके रिश्ते और बेहतर न होने दिए जाएं. इसमें कोई शक नहीं है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही नागोर्नो काराबाख़ का इलाक़ा उन तमाम दबे हुए संघर्षों में से एक रहा है, जो क्षेत्रीय स्थिरता के लिए ख़तरा बने हुए हैं.
रूस बुनियादी तौर पर पहले नागोर्नो काराबाख़ और अब ज़ंगेज़ुर को लेकर विवाद को एक बड़े संकट के रूप में बढ़ने देने का अनिच्छुक रहा है. क्योंकि इससे न केवल कॉकेशस क्षेत्र में बल्कि पूरे पूर्व सोवियत संघ वाले इलाक़े में उसकी मज़बूत सियासी स्थिति और कमज़ोर होगी. बेलारूस के साथ रूस के रिश्ते और यूक्रेन के साथ युद्ध से ज़ाहिर है कि कॉकेशस समेत पूरे पूर्व सोवियत संघ में रूस का नेतृत्व बुरी तरह संकट में है. आर्मेनिया ने हाल ही में अमेरिका के साथ साझा युद्धाभ्यास किया था. इसके अलावा उसने इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट (ICC) के रोम संविधान को भी मंज़ूरी दे दी है. ये अदालत व्लादिमीर पुतिन की गिरफ़्तारी की मांग कर रही है. आर्मेनिया के इन क़दमों से ज़ाहिर है कि रूस की हैसियत कमज़ोर हो गई है. यही नहीं, यूक्रेन में युद्ध की वजह से सोवियत संघ के बाद के दौर में सुरक्षा देने वाले देश के तौर पर रूस की छवि को भी तगड़ा झटका लगा है. नागोर्नो काराबाख़ क्षेत्र का पतन और नैटो और यूरोपीय संघ में शामिल होने को लेकर आर्मेनिया और जॉर्जिया की बयानबाज़ियां, साफ़ तौर पर रूस की भू-राजनीतिक हार की तरफ़ इशारा कर रही हैं, जो उसकी सियासी छवि के लिए तगड़ा झटका है.
बेलारूस के साथ रूस के रिश्ते और यूक्रेन के साथ युद्ध से ज़ाहिर है कि कॉकेशस समेत पूरे पूर्व सोवियत संघ में रूस का नेतृत्व बुरी तरह संकट में है.
नागोर्नो काराबाख़ के अंत के बाद, इस इलाक़े के अज़रबैजान के साथ सामाजिक और आर्थिक एकीकरण की अंतरराष्ट्रीय वार्ताएं और ज़ंगेज़ुर गलियारे की स्थिति को लेकर बातचीत के बीच, दक्षिणी कॉकेशस के संकट में चीन साफ़ तौर पर सबसे बड़े सियासी विजेता के तौर पर उभरकर सामने आया है, ख़ास तौर से अपने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव के मामले में. BRI का एक रास्ता कज़ाख़िस्तान से कैस्पियन सागर होते हुए अज़रबैजान और फिर जॉर्जिया, तुर्की और अंत में यूरोप तक जाता है. नख़शिवन और अज़रबैजान के बीच गलियारा, चीन को दक्षिणी कॉकेशस होते हुए यूरोप पहुंचने का एक और रास्ता मुहैया कराता है: एक रास्ता जॉर्जिया से होकर जाता है और इसके साथ साथ दूसरा रास्ता दक्षिणी आर्मेनिया और नख़शिवन से होकर गुज़रता है. नख़शिवन के एक्सक्लेव को आर्मेनिया की सीमा से जोड़ने और किसी भी तरह के आर्थिक सहयोग कोई भी संभावना आख़िरकार चीन को अज़रबैजान और कैस्पियन सागर से होते हुए तुर्की और मध्य एशिया से जोड़ेगी. ये BRI को उपयोगी बनाने के लिए एक ज़रूरी संपर्क मार्ग है.
कैस्पियन सागर से संपर्क आख़िर में चीन को पाकिस्तान और भारत (उसके पुराने दुश्मन पड़ोसी देश) के लिए सीधा रास्ता मुहैया कराएगा. इसलिए, अगर ये संभावनाएं हक़ीक़त में तब्दील होती हैं, तो अर्तसाख पर अज़रबैजान के क़ब्ज़े से चीन को होने वाले सियासी फ़ायदों के भू-राजनीतिक प्रभाव भारत पर भी पड़ेंगे. रूस न केवल कॉकेशस पर अपना दबदबा गंवा रहा है, बल्कि शांति के मध्यस्थ के तौर पर उसकी भूमिका अन्य पूर्व सोवियत गणराज्यों में भी कमज़ोर (इसकी एक वजह यूक्रेन में चल रहा युद्ध भी है) हो रही है. वहीं ईरान, अज़रबैजान को सैन्य कार्रवाई की धमकी दे रहा है. ऐसे में नागोर्नो काराबाख़ के पतन का सबसे ज़्यादा लाभ चीन को मिलता दिख रहा है. वहीं, इस नई भू-राजनीतिक व्यवस्था के उभार के बीच पश्चिमी देश अभी भी इस सियासी दुविधा के शिकार हैं कि वो अज़रबैजान के साथ ऊर्जा संबंधों को साधने पर ज़ोर दें, या फिर पश्चिमी देशों में मौजूद आर्मेनियाई समुदाय की शिकायतें दूर करें.
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Sabine Ameer is a doctoral researcher in Politics and International Relations at the University of Glasgow, United Kingdom. Her research analyses whether there has been ...
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