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114 मल्टीरोल फाइटर एयरक्राफ्ट के लिए भारत की तत्काल तलाश और पांचवीं पीढ़ी के विकास कार्यक्रम की आकांक्षा और भी पेचीदा हो गई है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जहां हैरान करते हुए F-35 ज्वाइंट स्ट्राइक फाइटर (JSF) की पेशकश की है वहीं रूस ने अपने S-57 E फेलन के निर्माण के लिए इसी साल हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के साथ साझेदारी करने का प्रस्ताव दिया है. इन प्रस्तावों ने मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया का ध्यान खींचा है जिससे व्यापक चर्चा और अटकलें तेज़ हो गई हैं. अमेरिका की तरफ से भारत को सैन्य बिक्री बढ़ाने के साथ व्यापार शुल्क लगाकर सक्रिय रूप से फायदा उठाने के कारण उसकी पेशकश अधिक जटिलताओं के साथ आती है. ऐसे में दो सवाल तुरंत सामने आते हैं: भारतीय वायु सेना (IAF) के कम होते फाइटर स्क्वॉड्रन के साथ क्या अमेरिकी पेशकश उसकी परिचालन से जुड़ी आवश्यकताओं को पूरा करती है? क्या ये सौदा भारत की भू-राजनीतिक गतिशीलता के लिए रणनीतिक तौर पर ठीक है?
भारतीय वायु सेना (IAF) के कम होते फाइटर स्क्वॉड्रन के साथ क्या अमेरिकी पेशकश उसकी परिचालन से जुड़ी आवश्यकताओं को पूरा करती है?
F-35 की पेशकश: अवसर या चुनौती?
किसी फाइटर एयरक्राफ्ट का विश्लेषण मौजूदा समय में दिखाए जा रहे कुछ हद तक आसान संख्या की गिनती की तुलना की भरमार से बहुत अधिक है. F-35 एक समस्याओं से भरा कार्यक्रम रहा है जिसे विश्वसनीयता, उपलब्धता और रख-रखाव से जुड़े गंभीर मुद्दों का सामना करना पड़ा है क्योंकि ये परीक्षण के दिशानिर्देशों और मिशन की तैयारी के लक्ष्यों को पूरा करने में जूझता रहा है. इसकी स्टील्थ (रडार से छिपने) विशेषताओं को बनाए रखना कठिन है और पूरी तरह से इसका परीक्षण नहीं किया गया है. साथ ही इसकी लॉजिस्टिक ट्रेन इतनी लंबी है कि इसे तैनात करना मुश्किल है. ये कुछ प्रमुख समस्याएं हैं जो जनवरी 2025 के अंत में प्रकाशित अमेरिका की ‘वित्तीय वर्ष 2024 वार्षिक परिचालन परीक्षण एवं समीक्षा रिपोर्ट’ में बताई गई है. लागत में बढ़ोतरी एक और चुनौती है क्योंकि लगभग 3,000 F-35 को विकसित करने और ख़रीदने पर 200 अरब अमेरिकी डॉलर का मूल अनुमान था जो आज के समय में 2,456 प्लैटफॉर्म के बेड़े के लिए दोगुना होकर 412 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया है. JSF को ‘ट्रिलियन डॉलर का मलबा’ बताया गया है जिसने ‘अमेरिकी वायु सेना को खोखला’ कर दिया है. ये परियोजना इलॉन मस्क के निशाने पर भी आ गई है जो सरकारी खर्च में कटौती के लिए अनाधिकारिक अमेरिकी सरकारी दक्षता विभाग का नेतृत्व कर रहे हैं.
अत्यधिक खर्चीले F-35 विमानों के कारण ख़रीदे जा सकने वाले स्क्वॉड्रन की संख्या गंभीर रूप से सीमित हो जाएगी जबकि भारत की परंपरागत प्रतिरोधी क्षमता को बनाए रखने के लिए संख्या महत्वपूर्ण है. विशेष रख-रखाव और मरम्मत के बुनियादी ढांचे, केंद्रों और उपकरणों के लिए भी इस पर बहुत ज़्यादा छिपी हुई लागत होगी जैसा कि भारतीय वायु सेना को अमेरिका के C-17, C-130 और अपाचे के बेड़े पर खर्च करना पड़ा है. इसके बाद एनवायरमेंट-कंट्रोल्ड स्टोरेज और टेस्टिंग फैसिलिटी एवं ऑपरेशनल मिशन सपोर्ट सिस्टम के साथ हथियारों की लागत आती है. भारतीय वायु सेना सीमित संख्या में स्क्वॉड्रन की लागत का बोझ उठा सकती है. इसका अर्थ ये है कि वो अपने पहले से अलग-अलग रूसी और फ्रांसीसी प्लैटफॉर्म के बेड़े में किसी रख-रखाव, मरम्मत और ओवरहॉल इंटरऑपरेबिलिटी (अंतरसंचालनीयता का सुधार) के बिना प्रभावी रूप से एक और देश का वेरिएंट जोड़ देगी. इससे बेड़े के प्रबंधन की चुनौती और बढ़ जाती है.
तकनीकी और परिचालन चुनौतियां
अमेरिका की सख्त विदेशी सैन्य बिक्री की नीतियों और प्रोटोकॉल का मतलब है कि फाइटर रडार के लिए कंट्रोल सोर्स कोड, रडार वॉर्निंग रिसीवर, इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर (EW) इक्विपमेंट और सेल्फ-प्रोटेक्शन सूट, जो कि ऑपरेशनल मिशन प्रोग्रामिंग के लिए महत्वपूर्ण हैं, अमेरिकी मूल के सभी एयरक्राफ्ट के साथ उपलब्ध नहीं होंगे. भारतीय वायु सेना के दृष्टिकोण से ये शायद परिचालन से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बाधा है. अमेरिकी प्लैटफॉर्म परिचालन के मामले में भी अकेला होगा क्योंकि वो भारतीय वायु सेना के SU-30 मुख्य बेड़े, एयरबोर्न वॉर्निंग एंड कमांड सिस्टम, एयरबोर्न अर्ली वॉर्निंग कंट्रोल एयरक्राफ्ट, देसी रडार और एक्टिव डिनायल सिस्टम (ADS) के डेटा-लिंक और नेटवर्किंग प्रोटोकॉल के रूप में उसके नेट-सेंट्रिक ऑपरेशन से नहीं जुड़ेगा. इसका ये भी मतलब है कि अमेरिकी प्लैटफॉर्म किसी कंपोज़िट मल्टी-प्लैटफॉर्म पैकेज का हिस्सा नहीं हो सकता है जो कि भारतीय वायु सेना के आक्रामक जवाबी हवाई मिशन और रणनीतिक डीप स्ट्राइक मिशन में विरोधी एयर डिफेंस सिस्टम को भेदने, हमला करने और ख़ुद को बचाने के लिए ज़रूरी है. ये भविष्य में भारतीय वायु सेना के एकीकृत हवाई अभियानों का हिस्सा नहीं बन सकता है. साथ ही साझा ऑपरेशन, जहां थल सेना और नौसेना के हवाई और सतही सेंसर और शूटर भी जुड़े होते हैं, में भी शामिल नहीं हो सकता है कि जो कि भविष्य में साझा युद्ध लड़ने की ज़रूरत के हिसाब से महत्वपूर्ण है. इसका सिंगल इंजन युद्ध में बचने की इसकी क्षमता को प्रभावित करेगा और एयरक्राफ्ट की बहुत ज़्यादा लागत पक्षियों से भरे माहौल में शांति काल की ट्रेनिंग के दौरान सुरक्षा से जुड़ी एक गंभीर चिंता है.
ये भविष्य में भारतीय वायु सेना के एकीकृत हवाई अभियानों का हिस्सा नहीं बन सकता है. साथ ही साझा ऑपरेशन, जहां थल सेना और नौसेना के हवाई और सतही सेंसर और शूटर भी जुड़े होते हैं, में भी शामिल नहीं हो सकता है
पाकिस्तान के साथ अमेरिका के नज़दीकी संबंध और सैन्य सहायता का लंबा इतिहास- जो अमेरिका और उसकी सेना के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीतिक क्षमता है- पाकिस्तानी वायु सेना के मुख्य F-16 के बेड़े के ख़िलाफ़ युद्ध के दौरान F-35 की तैनाती में एक अतिरिक्त गतिशीलता लाएगा. इसी तरह भारतीय वायु सेना के रूसी मूल के लड़ाकू विमानों के साथ दैनिक आधार पर काम करने वाले इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर (EW) उपकरण और एरिया डिनायल (AD) वेपन सिस्टम अमेरिका के लिए एक समस्या होगी. साथ ही शांति काल के दौरान भारत की उत्तरी सीमा के नज़दीक, जहां चीन का इलेक्ट्रॉनिक और सिग्नल इंटेलिजेंस कलेक्शन सेंसर है, अमेरिकी प्लैटफॉर्म के संचालन पर प्रतिबंध होगा जो भारतीय वायु सेना की परिचालन से जुड़ी आज़ादी पर और असर डालेगा.
रणनीतिक स्वायत्तता बनाम विदेशी निर्भरता
रणनीतिक दृष्टिकोण से इस बात पर भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता होगी कि पहली बार अमेरिकी लड़ाकू विमानों की ख़रीद भारत-रूस के पुराने संबंधों पर किस तरह प्रभाव डालेगी. ये समझौता निश्चित रूप से भारत के अपने पांचवीं पीढ़ी के एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट के विकास, उसके भविष्य के कॉम्बैट एयर टीमिंग सिस्टम प्रोग्राम और भविष्य के AD सिस्टम पर असर डालेगा क्योंकि ये बहुत महत्वपूर्ण है कि वो भारतीय वायु सेना के सभी 'गैर-अमेरिकी' मूल के मुख्य कॉम्बैट प्लैटफॉर्म और सेंसर के साथ परिचालन के स्तर पर जुड़ें. भारत के द्वारा तेजस लड़ाकू विमान का आगे विकास, जो अमेरिका के द्वारा सप्लाई किए जाने वाले इंजन का बंधक बना हुआ है और जिसमें पहले से ही काफी देर हो चुकी है, एक बड़ी चेतावनी को उजागर करता है. रूस और फ्रांस के साथ पुराने, स्थिर और अपेक्षाकृत रूप से अधिक विश्वसनीय रणनीतिक संबंधों को देखते हुए अमेरिकी पेशकश का बारीकी से मूल्यांकन करना होगा ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि भारत की सामरिक स्वायत्तता बरकरार रहे. अंतिम फैसला लेते समय ये ध्यान रखना चाहिए कि रफाल और सुखोई Su-57 'ठोस अपग्रेड कार्यक्रमों' के साथ 'अच्छी तरह से संतुलित प्लैटफॉर्म' हैं. साथ ही ये 'अमेरिकी कंटेंट से पूरी तरह से मुक्त' हैं और लंबे समय में इनका परिचालन अधिक किफायती होगा.
रूस और फ्रांस के साथ पुराने, स्थिर और अपेक्षाकृत रूप से अधिक विश्वसनीय रणनीतिक संबंधों को देखते हुए अमेरिकी पेशकश का बारीकी से मूल्यांकन करना होगा ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि भारत की सामरिक स्वायत्तता बरकरार रहे.
पिछले दो दशकों से ज़्यादा समय से भारतीय वायु सेना की कम होती लड़ाई की क्षमता को थामने की आवश्यकता, जो लगातार कम होती जा रही है विशेष रूप से 114 मल्टीरोल फाइटर एयरक्राफ्ट (MFRA) की ख़रीद के साथ, भी अनिर्णय, उदासीनता, ‘ध्वस्त’ ख़रीद की प्रणाली और दीर्घकालिक परिणामों को समझने में व्यवस्थागत विफलता के बीच स्थिर है. भारत की MFRA आवश्यकता स्वदेशी पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान के निर्माण की आकांक्षाओं से पूरी तरह अलग है. ये अंतर पहले से जटिल स्थिति को और उलझाव बनाने से रोकने के लिए अनिवार्य है. MFRA की ख़रीदारी में जल्दी देश की परंपरागत रक्षा प्रतिरोध क्षमता में हवाई ताकत के योगदान के और कमज़ोर होने से रोकने के लिए एक गंभीर आवश्यकता है क्योंकि हवाई, ज़मीन और समुद्री क्षेत्रों में हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा पर इसका सीधा प्रभाव पड़ेगा. भारतीय सेना हवाई ताकत को नज़रअंदाज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकती क्योंकि हमारे दो प्रमुख शत्रुओं के पास मज़बूत वायु सेना है. दूसरी तरफ पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमानों की आवश्यकता प्लैटफॉर्म, सिस्टम और हथियारों की क्षमता में लगातार सुधार की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे अगर सुनिश्चित नहीं किया गया तो भारतीय वायु सेना की हवाई शक्ति जल्द ही बेकार हो जाएगी. भारत के शत्रुओं के हथियारों के भंडार में हर हाल में पांचवीं और छठी पीढ़ी के लड़ाकू विमानों की तेज़ी से बढ़ोतरी को देखते हुए देश की परंपरागत प्रतिरोध क्षमता को मज़बूत करने के लिए विकल्प हर हाल में सैन्य प्रेरित होनी चाहिए जो भविष्य में उसके विकास, भू-राजनीतिक राह और सामरिक स्वायत्तता के साथ संतुलित हो.
एयर मार्शल (डॉ.) दीप्तेंदु चौधरी नई दिल्ली स्थित नेशनल डिफेंस कॉलेज के पूर्व कमांडेंट हैं.
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