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इतिहास के हर दौर में व्यापक नैरेटिव- यानी वो व्याख्यान जो किसी समाज की सामूहिक चिंताओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करते हैं और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अस्तित्व पर असर डालते हैं- वो राजनीतिक और वैचारिक दबदबा क़ायम करने के ताक़तवर हथियार बनते रहे हैं. इन वैचारिक आख्यानों (नैरेटिव) ने किसी समाज की अपनी पहचान और उनके अस्तित्व को परिभाषित करते हुए इतिहास का रुख़ भी बदला है. यूनान और फ़ारस के बीच जंगों के दौर (499 से 449 ईसापूर्व के बीच) ने दो सभ्यताओं के बीच एक स्थायी विभेद को जन्म दिया था, जहां हर सभ्यता अपने आपको बेहतर साबित करने की जद्दोजहद कर रही थी. इस संघर्ष ने आगे चलकर अगले ढाई हज़ार वर्षों तक जारी रहने वाले पूरब और पश्चिम के तनाव को जन्म दिया, जिसमें लगभग पांच सदियों की औपनिवेशिक सियासत भी शामिल है. पश्चिम की श्रेष्ठता का ये व्यापक नैरेटिव ही आज भी पूरब की सभ्यता के साथ उसके रिश्तों पर असर डालता आया है. इस नैरेटिव के ज़रिए पश्चिमी सभ्यता वक़्त के थपेड़ों से उबरकर अपनी ताक़त और स्थायित्व को गढ़ती आई है. अमेरिका का ‘तयशुदा नियति’ का दावा, फ्रांस का ‘आज़ादी, समानता, बंधुत्व’ सिद्धांत और पूर्व सोवियत संघ द्वारा कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल के कम्युनिस्ट घोषणापत्र से उपजे सूत्र वाक्य के अनुरूप ये कहना कि ‘दुनिया भर के सर्वहारा एक हो जाओ!’ इन सबने न केवल अपने दौर की राजनीति, शिनाख़्त और महत्वाकांक्षाओं को आकार दिया, बल्कि आज की राजनीतिक हैसियत पर भी इनकी छाप देखने को मिल रही है.
इस संघर्ष ने आगे चलकर अगले ढाई हज़ार वर्षों तक जारी रहने वाले पूरब और पश्चिम के तनाव को जन्म दिया, जिसमें लगभग पांच सदियों की औपनिवेशिक सियासत भी शामिल है. पश्चिम की श्रेष्ठता का ये व्यापक नैरेटिव ही आज भी पूरब की सभ्यता के साथ उसके रिश्तों पर असर डालता आया है.
‘तयशुदा नियति’ के विचार ने पश्चिम की ओर अमेरिका के विस्तार को न केवल दैवीय अधिकार के तौर पर पेश किया बल्कि राष्ट्रीय अनिवार्यता भी साबित किया. इस व्यापक नैरेटिव ने कई इलाक़ों पर अमेरिका के क़ब्ज़े को जायज़ ठहराने का काम किया. जैसे कि लूसियाना की ख़रीद (1803), टेक्सस को मेक्सिको से छीनना (1845), ओरेगन ट्रेल माइग्रेशन और अमेरिका व मेक्सिको के बीच युद्ध (1846-1848) और आख़िर में इस नैरेटिव की वजह से ही अमेरिका का विस्तार प्रशांत महासागर तट तक किया गया. अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (MAGA) की पहल के तहत आर्थिक राष्ट्रवाद से आगे बढ़ते हुए ग्रीनलैंड, कनाडा और पनाम नहर जैसे दूसरे देशों की संप्रभुता के दायरे में आने वाली संपत्तियों पर अमेरिका के हक़ की वाजिब दावेदारी में उसी ‘मैनिफेस्ट डेस्टिनी’ के ग्रैंड नैरेटिव की गूंज सुनाई देती है. इसी तरह, फ्रांस की क्रांति को ताक़त देने वाले तीन प्रमुख आदर्शों ‘आज़ादी, समानता और बंधुत्व’ के आदर्श आज भी लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की आधुनिक परिचर्चाओं का आधार बनते हैं. इस सूत्र ने न केवल पूरी दुनिया में राजनीतिक आंदोलनों को प्रेरणा दी है, बल्कि मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को तैयार करने पर भी असर डाला. इसी प्रकार से दुनिया भर के श्रमिक वर्ग की एकजुटता की वैश्विक अपील आज भले ही कमज़ोर पड़ गई हो, लेकिन आज भी श्रमिक संगठनों के आंदोलनों, सामाजिक न्याय के संघर्षों और साम्राज्यवाद विरोधी मुहिमों के पीछे इसी विचार की ताक़त दिखाई दे जाती है.
भावनात्मक अपील
ऐसे व्यापक आख्यानों/ग्रैंड नैरेटिव की अपील असल में अस्तित्व से जुड़ी तमाम चिंताओं को दूर करने में निहित है. फिर चाहे वो रोज़गार के तात्कालिक अवसरों की चिंता हो, अर्थव्यवस्था, अप्रवास, क्षेत्रीयता हो या राष्ट्रीय गौरव. ये ग्रैंट नैरेटिव इन सब चिंताओं को दूर करने के लिए जज़्बात को उभारते हैं और ऐसे विचारों को अभिव्यक्त करते हैं, जो जनता को पसंद आ जाती है. और फिर इससे ताक़तवर वैचारिक रूपरेखाओं का निर्माण किया जाता है. ऐसे नैरेटिव में लोगों को एकजुट करने वाला जो संदेश निहित होता है, वो अलग अलग लोगों को साझा मक़सद मुहैया कराता है और एकजुटता के बदले में बड़े इनाम का वादा करता है. जबकि ये दोनों ही ऐसी बातें हैं, जो नीतिगत परिचर्चाएं बमुश्किल ही हासिल कर पाती हैं. इस प्रक्रिया में ग्रैंड नैरेटिव की अपील लोगों के बीच वैचारिक खाइयों को पाट देती है और उनको एक ऐसा चश्मा पहना देती है, जिसके ज़रिये वो अपनी सामाजिक और नैतिक ज़रूरतों को पूरा होते देखते हैं और इस तरह नैरेटिव से प्रभावित लोगों का ये हुजूम लोगों को राज़ी करने का एक ताक़तवर हथियार बन जाता है.
1980 में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन का चुनावी चारा ‘लेट्स मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ था. इस नारे ने उस वक़्त अमेरिकी अर्थव्यवस्था में जारी महंगाई और आर्थिक सुस्ती के ख़तरनाक जोड़ से पैदा हुई चिंताओं का लाभ उठाने की कोशिश की.
1980 में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन का चुनावी चारा ‘लेट्स मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ था. इस नारे ने उस वक़्त अमेरिकी अर्थव्यवस्था में जारी महंगाई और आर्थिक सुस्ती के ख़तरनाक जोड़ से पैदा हुई चिंताओं का लाभ उठाने की कोशिश की. इसी तरह, प्रेसिडेंट डॉनल्ड ट्रंप ने 2016 और फिर 2024 के चुनाव अभियान में ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के नारे को भुनाया. आज के दौर की सांस्कृतिक और आर्थिक चिंताओं का लाभ उठाने वाले इस नारे ने ट्रंप को दो बार चुनाव जिता दिया. अमेरिका के ख़ास होने के इस ग्रैंड नैरेटिव की ऐसी अपील थी कि इसका दोहन डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं ने भी ख़ूब किया. मिसाल के तौर पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने 1992 में राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपने सफल प्रचार अभियान के दौरान कई बार ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के जुमले का इस्तेमाल किया था. इसी तरह, ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से अलग होने के लिए जब जनमत संग्रह कराया गया, तो इसके समर्थकों ने ‘टेक बैक कंट्रोल’ यानी कमान दोबारा अपने हाथों में लेने का नारा दिया. असल में ब्रेग़्जिट के समर्थक ऐसा करके लोगों की संप्रभुता और आत्मनिर्णय की जन्मजात ख़्वाहिश का दोहन कर रहे थे. ऐसा करके उन्होंने वो मक़सद हासिल कर लिया, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को यक़ीन था कि ऐसा भी हो सकता है. लेकिन, ब्रेग़्जिट के जनमत संग्रह में इस वर्ग ने जीत हासिल की और ब्रिटेन, यूरोपीय संघ से अलग हो गया.
इसी तरह की मिसाल, ‘चीनी राष्ट्र के महान पुनरुत्थान’ के लिए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा दिया गया नारा ‘चाइना ड्रीम’ है. इसके तहत शी जिनपिंग अपने देश को ‘चीन की ख़ूबियों वाले समाजवाद’ के ज़रिए सदियों के ‘अपमान’ से उबारना चाहते हैं. जिनपिंग के इस नारे का मक़सद जितना चीन केंद्रित विश्व व्यवस्था वाली परियोजना को आगे बढ़ाना था, उतना ही चीनी जनता के बीच राष्ट्रीय गौरव की अपील को बढ़ाना था. या फिर, इसकी एक और मिसाल रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के ‘रुसिकी मीर’ या ‘रूस की दुनिया’ है. इसके तहत पुतिन, रूस की राजनीतिक सरहदों के दायरे से आगे बढ़कर उस विशाल भौगोलिक क्षेत्र को एकजुट करना चाहते हैं, जो उनकी नज़र में रूसी सभ्यता और संस्कृति का ऐतिहासिक प्रभाव क्षेत्र रहा है. इसका एक और उदाहरण वेनेज़ुएला के दिवंगत राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज़ का ‘बोलिवरियनिज़्म’ था, जो साइमन बोलिवर के वेनेज़ुएला को स्पेन के साम्राज्यवादी शिकंजे से आज़ाद कराने के संघर्ष से प्रेरित था, और इसके तहत पूरे लैटिन अमेरिकी क्षेत्र की एकजुटता, समाजवादी और राष्ट्रवादी आदर्श को दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप पर अमेरिका के वैचारिक दबदबे के विकल्प के तौर पर पेश किया गया था. शावेज़ के इस नारे ने वेनेज़ुएला के अलावा कई अन्य देशों में भी राजनीतिक आंदोलनों को प्रेरणा दी थी.
सोशल मीडिया की ताकत
वैसे तो ग्रैंड नैरेटिव किसी भी राजनीतिक शक्ति का अभिन्न अंग हैं. लेकिन, सोशल मीडिया के उभार के साथ ही इन्होंने नई ताक़त अख़्तियार कर ली है. भावनात्मक रूप से मज़बूत और सीधे सपाट संदेशों वाले व्यापक नैरेटिव, सोशल मीडिया की चाल के साथ बड़ी आसानी से तालमेल बिठा लेते हैं. क्योंकि सोशल मीडिया लोगों के जज़्बात को उभारने वाले छोटे-छोटे संदेशों पर ख़ूब फलता फूलता है. एल्गोरिद्म ऐसे कंटेंट को प्राथमिकता देते हैं, जो ग्रैंड नैरेटिव्स को और बढ़ा चढ़ाकर पेश करते हैं. क्योंकि फिर इन पर और मज़बूती से भावनात्मक प्रतिक्रियाएं आती हैं. इससे सोशल मीडिया का प्रसार होता है, उसको और ताक़त मिलती है, जिससे उनका दायरा मूल राजनीतिक संदर्भों से भी आगे बढ़ जाता है. बड़े पैमाने पर अवैध अप्रवास, बेरोज़गारी, व्यापार के नाइंसाफ़ी भरे रिश्ते और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसले गहरे जज़्बाती उभार वाले कंटेंट होते हैं, जिनसे वैचारिक इको चैंबर और मज़बूत होते हैं और अलग अलग गुटों में बंटी जनता को एकजुट करने में मदद मिलती है.
मिसाल के तौर पर ब्रेग्ज़िट के अभियान के दौरान, ‘वोट लीव’ यानी यूरोपीय संघ को छोड़ने की वकालत करने वालों ने दावा किया था कि EU से अलग होने पर ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस (NHS) को हर हफ़्ते 350 मिलियन पाउंड तक की बचत होगी. ये संदेश ख़ूब वायरल हुआ. बहुत से विशेषज्ञों ने इस दावे को ग़लत बताया, फिर भी इसकी ख़ूब चर्चा हुई. इसी तरह, फिलीपींस में पूर्व राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते के ‘ड्रग्स के ख़िलाफ़ जंग’ अभियान को सोशल मीडिया ने लोगों की अपराध और अव्यवस्था संबंधी चिंताओं का दोहन करके ख़ूब लोकप्रिय बनाया. समर्थकों ने सोशल मीडिया के ज़रिए ऐसे कंटेंट को प्रचारित किया जिसने इस अभियान के तौर-तरीक़ों को वाजिब ठहराया और पुलिस के कारनामों को ऐसी साहसिक मुहिम के तौर पर पेश किया, जिससे समुदायों की ड्रग्स से संबंधित हिंसा से सुरक्षा की जा रही है. इस वजह से जनता की इस अभियान के प्रति सकारात्मक राय बनी.
इस मंज़र में जेनरेटिव आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) की आमद ने मसले को और उत्तेजक बना दिया है. AI से तैयार वास्तविकता के बेहद क़रीब लगने वाले कंटेंट जैसे कि डीपफेक ने असली और नक़ली कंटेंट के बीच फ़र्क़ करना लगभग नामुमकिन बना दिया है. आज ऐसे नक़ली कंटेंट को अक्सर यूज़र द्वारा तैयार कंटेंट के साथ मिलाकर पेश किया जा रहा है, जिससे लोगों के सामने बड़े स्तर पर ऐसा कंटेंट पेश किया जा रहा है, जो ऊपर से बिल्कुल असली लगता है. AI से संचालिन उन्नत क़िस्म के बॉट, सोशल मीडिया के एल्गोरिद्म की कमज़ोरियों का प्रभावी ढंग से लाभ उठाकर किसी भी संदेश या मेसेज के एंगेजमेंट की नक़ली संख्या पेश कर रहे हैं. इससे एल्गोरिद्म के साथ हेरा-फेरी करके एक ख़ास तरह के नैरेटिव को प्रमुखता से इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे इसी मसले पर लोगों की आम राय बन चुकी है. ऐसे फेक नैरेटिव का असर बहुत बड़ी संख्या में लोगों की राय तब्दील करने और सार्वजनिक नीति बनाने पर भी पड़ रहा है. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की ताक़त को देखते हुए इससे तैयार डीपफेक और सॉफ्टफेक आज दुनिया भर में राजनीतिक परियोजनाओं का मुख्य अंग बन चुके हैं.
ध्यान आकर्षित करने की नई अर्थव्यवस्था
एल्गोरिद्म के दांव-पेंचों से इतर, आज जब इंटरनेट से लैस संचार के उपकरण हर शख़्स के हाथ में पहुंच गए हैं, उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन गए हैं. नीतिगत मसलों पर खुलकर व्यापक बहस को लेकर जनता के कम होते धैर्य ने ग्रैंड नैरेटिव्स के प्रचार प्रसार को और प्रभावी बना दिया है. तकनीक की लत की वजह से लोगों का ध्यान बहुत आसानी से भंग हो जाता है. वो किसी एक चीज़ या बात पर बहुत कम वक़्त के लिए टिकते हैं. इस तब्दीली ने हालात को और नाज़ुक बना दिया है. डिजिटल मीडिया पर छोटे छोटे संदेशों की भरमार और लगातार आते नोटिफ़िकेशन की वजह से लोगों को स्क्रीन को लगातार स्क्रॉल करते रहने और ख़ास तौर से सोशल मीडिया की लत लग चुकी है. ऐसे में लोगों के ज़ेहन का ज्ञान संबंधी ढांचा लंबे वक़्त तक किसी विषय से जुड़े रहने के बजाय फ़ौरी लुत्फ़ लेने को ज़्यादा तवज्जो दे रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि किसी ख़ास मसले पर लोग लंबे समय तक ध्यान नहीं केंद्रित कर पा रहे हैं. क्योंकि वो तेज़ी से जानकारी के अलग अलग स्वरूपों के बीच अपना ध्यान बांटते रहते हैं. ये आकलन लगाया गया है कि आज की तारीख़ में मिलेनियल्स के किसी विषय पर ध्यान केंद्रित करने का समय सिमटकर केवल 12 सेकेंड रह गया है. वहीं जेन ज़ेड (Gen Z) के लिए ये समय डिजिटल मीडिया पर केवल आठ सेकेंड रह गया है. 10 से 44 साल आयु वाला ये तबक़ा, दुनिया की कुल आबादी का आधा, कुल कामगारों का 40 प्रतिशत, इस पृथ्वी पर राजनीतिक रूप से असरदार लोगों का सबसे बड़ा तबक़ा और सोशल मीडिया का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल करने वाला वर्ग है.
एल्गोरिद्म के साथ हेरा-फेरी करके एक ख़ास तरह के नैरेटिव को प्रमुखता से इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे इसी मसले पर लोगों की आम राय बन चुकी है. ऐसे फेक नैरेटिव का असर बहुत बड़ी संख्या में लोगों की राय तब्दील करने और सार्वजनिक नीति बनाने पर भी पड़ रहा है.
ज़ाहिर है कि आज की इस नई डिजिटल सच्चाई में छोटे, जज़्बाती तौर पर उभारने वाले और आसानी से जुड़ाव महसूस कराने वाले ऐसे कंटेंट की तुलना में पारंपरिक राजनीतिक परिचर्चा मुक़ाबला नहीं कर पा रही है. ग्रैंड नैरेटिव्स के लिए ज्ञान संबंधी एक न्यूनतम प्रयास तो करना ही पड़ता है, तभी उन्हें समझा जा सकता है और उनसे मज़बूत निजी और नैतिक जुड़ाव महसूस किया जा सकता है. प्रेसिडेंट डॉनल्ड ट्रंप द्वारा गढ़े गए छोटे और आसान नारों जैसे कि ‘बिल्ड दि वॉल’ उन्हें अप्रवासियों के प्रति कड़ा रुख़ रखने वाले नेता के तौर पर पेश करते हैं. ऐसे नारे आबादी के अलग अलग तबक़ों को पसंद आते हैं और लोगों की अंतरात्मा को प्रेरित करते हैं कि वो किसी नेता के इर्द गिर्द मज़बूती से खड़े हों. पूरी दुनिया में मुख्यधारा के संस्थानों पर लोगों के घटते भरोसे ने मामले को और पेचीदा बना दिया है. दशकों तक एक ख़ास वर्ग को पोसने वाले राजनीतिक एजेंडे की वजह से लोगों के बढ़ते विरोध और ग़ुस्से ने बहुत से नागरिकों का सत्ता के मौजूदा तंत्र से मोह भंग कर दिया है. सोशल मीडिया ने जिस तरह सूचना का लोकतांत्रीकरण किया है, और सूचना के पारंपरिक और कंजूसी बरतने वाले प्रहरियों को दरकिनार किया है, उससे वैकल्पिक नैरेटिव गढ़ने वालों को अभूतपूर्व ताक़त मिल गई है. शक्ति का वितरण जनता के व्यापक वर्ग में हुआ है और इससे तमाम खांचों में बंटे लोगों को किसी ऐसे बड़े नैरेटिव के समर्थन में एकजुट कर दिया है, जिसमें उन्हें उम्मीद और बेहतरी नज़र आती है.
सोशल मीडिया ने जिस तरह सूचना का लोकतांत्रीकरण किया है, और सूचना के पारंपरिक और कंजूसी बरतने वाले प्रहरियों को दरकिनार किया है, उससे वैकल्पिक नैरेटिव गढ़ने वालों को अभूतपूर्व ताक़त मिल गई है.
पारंपरिक मीडिया का प्रभाव
वैसे तो सोशल मीडिया ने निश्चित रूप से बड़े नैरेटिव के प्रचार प्रसार को तेज़ किया है. फिर भी पारंपरिक मीडिया अभी भी ऐसे नैरेटिव की वैधता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है. कारोबारी नफ़ा-नुक़सान को ध्यान में रखकर चलने वाले पारंपरिक मीडिया को अक्सर बड़े नैरेटिव को बढ़ावा देने से फ़ायदा होता है. इसकी वजह दर्शकों के बड़े वर्ग से जुड़ने के फ़ायदे के साथ साथ आर्थिक और राजनीतिक मौक़ापरस्ती तक हो सकती है. एक तरफ तो ग्रैंड नैरेटिव कार्रवाई की स्पष्ट मांग और सत्ता विरोधी भावनाओं की वजह से लोगों की छुपी हुई आशंकाओं का लाभ उठाते हुए पारंपरिक मीडिया की पहुंच और व्यूअरशिप को बढ़ाते हैं और उनकी विज्ञापन से होने वाली कमाई में भी इज़ाफ़ा करते हैं. वहीं दूसरी तरफ़, व्यापक राजनीतिक और कारोबारी हितों वाले बड़े मीडिया समूह ऐसे नैरेटिव से जुड़कर अपने साझीदारों के एजेंडे की पूर्ति करने की कोशिश करते हैं.
अपनी किताब, ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट: दि पॉलिटिकल इकॉनमी ऑफ दि मास मीडिया’ (1988) में एडवर्ड.एस. हर्मन और नोआम चोम्स्की बड़े तार्किक ढंगे से ये बताते हैं कि मीडिया किस तरह जानकारी को अपने वैचारिक और आर्थिक हितों की छन्नी से छानकर जनता के सामने पेश करता है और किसी भी मुद्दे पर बड़ी सक्रियता से लोगों की राय गढ़ता है. मीडिया संस्थानों और राजनीतिक वर्ग के बीच आपसी हित वाला ये संबंध सुनिश्चित करता है कि कुछ ख़ास तरह के बड़े नैरेटिव को लगातार मीडिया वाजिब ठहराता रहता है, उस पर सार्वजनिक परिचर्चा को आकार देते हुए उसे एक ख़ास वैचारिक दिशा में आगे बढ़ाता है. हालांकि, अब जबकि सूचना का मैदान छोटा होता जा रहा है और ज़्यादा से ज़्यादा दर्शक जुटाने के संघर्ष में पहले पेश करने की जल्दी, सटीक जानकारी देने पर हावी होती जा रही है, और पारंपरिक मीडिया, सोशल मीडिया का पिछलग्गू बनता जा रहा है. ऐसे में डिजिटल मीडिया के प्रदूषित और ध्रुवीकृत नैरेटिव के, पारंपरिक मीडिया को भी संक्रमित करने का डर और फिर इनसे सार्वजनिक परिचर्चाओं के दूषित होने का जोख़िम भी बढ़ता जा रहा है.
भविष्य की तस्वीर?
ग्रैंड नैरेटिव, ऐसे फौरी नुस्खे मुहैया कराते हैं जिनके माध्यम से आम लोग, नीतिगत जटिलताओं के चक्रव्यूह से निकलकर दुनिया और उसमें अपनी स्थिति को सहजता से समझते हैं. मीडिया, तकनीक और जनवादी संदेशों का ये मेल सुनिश्चित करता है कि ग्रैंड नैरेटिव सियासी नारों से आगे बढ़कर लोगों की पहचान निर्धारित करने वाली रूप-रेखाएं बन जाएं, जिनका बहुत व्यापक और स्थायी नतीजा निकले. आज जब डिजिटल मीडिया तेज़ी से विकसित हो रहा है तो ग्रैंड नैरेटिव और ताक़तवर होते जाएंगे, जिससे वो 21वीं सदी के राजनीतिक और सांस्कृतिक मंज़र की सबड़े बड़ी धुरी बनकर उभरेंगे. अब ताक़तवर नैरेटिव गढ़ने पर कुछ ख़ास लोगों का विशेषाधिकार नहीं रहा. सही औज़ारों और ग़लत प्रेरणाओं से लैस नए नए किरदार भी इस मंज़र में उभर रहे हैं. सूचना के पारंपरिक प्रहरी दरकिनार हो चुके हैं. वहीं आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से तैयार होने वाला अनियमित व अनियंत्रित कंटेंट अब सोशल मीडिया की राजनीतिक परिचर्चाओं पर हावी होता जा रहा है. ऐसे में बनावटी तरीक़े से गढ़े गए और यथास्थिति में खलल डालने वाले बड़े नैरेटिव का ख़तरा वास्तविक नज़र आने लगा है. सच्चे जज़्बात और नक़ली तरीक़ों से गढ़ी गई आम सहमति के बीच की लक़ीर पहले ही मिटती जा रही है, जिससे सोच-समझकर अपनाए जाने वाले विकल्पों को तगड़ी चुनौती मिल रही है.
सूचना के पारंपरिक प्रहरी दरकिनार हो चुके हैं. वहीं आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से तैयार होने वाला अनियमित व अनियंत्रित कंटेंट अब सोशल मीडिया की राजनीतिक परिचर्चाओं पर हावी होता जा रहा है. ऐसे में बनावटी तरीक़े से गढ़े गए और यथास्थिति में खलल डालने वाले बड़े नैरेटिव का ख़तरा वास्तविक नज़र आने लगा है
लोगों के ध्यान देने की लगातार घटती अवधि, सच्चाई से सामना कराने की किसी भी अर्थपूर्ण कोशिश के लिए प्रेरित नहीं कर पा रही. और, ऐसे में बनावटी तरीक़े से गढ़े गए नैरेटिव के ही इस दौर को परिभाषित तकने वाले संकट बनने का डर है. अपने अपने सच को लेकर तर्क वितर्क और आसानी से पहचान में न आने वाली हक़ीक़त के इस दौर में अब सवाल ये नहीं रहा कि ग्रैंड नैरेटिव ही भविष्य को गढ़ेंगे, बल्कि प्रश्न ये है कि इन पर किसका और किस हद तक नियंत्रण होगा.
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