यूरोपियन यूनियन (EU) की आर्थिक धुरी के तौर पर, इसकी जियोग्राफी के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का एक चौथाई हिस्सा बेल्जियम से लेकर माल्टा तक फैले 27 सदस्य देशों में से 20 देशों के आकार का है. इनमें से जर्मनी अपने हितों को लेकर चीन के साथ एक नया संतुलन बनाने में जुटा है. EU के इस क्षेत्र की कुल GDP 4.1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है. निसंदेह तौर पर बर्लिन-बीजिंग संतुलन लगातर बदलती भू-राजनीति से प्रभावित है. लेकिन यह भी सच्चाई है कि ये संतुलन घरेलू राजनीति से भी उतना ही ज़्यादा प्रभावित है. ज़ाहिर है कि जब परेशानी का दौर सामने आता है, तो सत्ता में बने रहना सर्वोपरि हो जाता है. ऐसे में कुछ संस्थाओं व कंपनियों और जोख़िम में घिरी उनकी आपूर्ति श्रृंखलाओं का बचाव ज़्यादा मायने नहीं रखता है.
निसंदेह तौर पर बर्लिन-बीजिंग संतुलन लगातर बदलती भू-राजनीति से प्रभावित है. लेकिन यह भी सच्चाई है कि ये संतुलन घरेलू राजनीति से भी उतना ही ज़्यादा प्रभावित है.
जर्मनी की विदेश मंत्री एनालेना बेयरबॉक के मुताबिक़ चीन की पश्चिम के साथ होड़ और विरोधी मानसिकता जर्मनी में व्यापक चर्चा का मुद्दा है. बेयरबॉक ने 13 जुलाई 2023 को दिए अपने भाषण में कहा था कि बीजिंग, “अपने देश में लोगों को बल पूर्वक नियंत्रित करेगा और विदेश में मुखरता व तत्परता के साथ कार्य करेगा.” उन्होंने आगे कहा कि जैसे कि अब चीन बदल चुका है, ऐसे में बर्लिन की चीन नीति भी पहले जैसी नहीं रहेगी और उसमें भी बदलाव होगा और यही जर्मनी के लिए उचित भी होगा. जर्मनी की विदेश मंत्री का भाषण सभी समसामयिक और ज़रूरी मुद्दों पर प्रकाश डालता है. इस सबके बावज़ूद जर्मनी द्वारा आगे कोई पुख्ता क़दम नहीं उठाया जाना, हमें यह सोचने पर मज़बूर कर देता है कि कहीं बर्लिन को यह तो नहीं लगता है कि चीन के बड़े कद को देखते हुए बीजिंग का मुक़ाबला करना बेहद कठिन है.
बर्लिन की चाइना पॉलिसी के तीन स्तंभ
आर्थिक मोर्चे पर चीन से जुड़ाव वाला बर्लिन का लुभावना मॉडल सुरक्षा के लिहाज़ से सख़्त होता दिख रहा है, यह मॉडल मई 2021 में EU-चीन के बीच निवेश पर हुए व्यापक समझौते के इर्दगिर्द यूरोपीय संघ की चीन से नज़दीकी को प्रदर्शित करता है. हालांकि, यह मॉडल अब समाप्त होता दिखाई दे रहा है. स्ट्रैटजी ऑन चाइना ऑफ दि गवर्नमेंट ऑफ दि फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी शीर्षक के अंतर्गत जुलाई 2023 में जारी की गई जर्मनी की नई चाइना पॉलिसी, स्वाभाविक रूप से उसकी सोच में आए बदलाव को दर्शाती है. इनकार से इक़रार की दिशा में उसका यह पहला क़दम है. बेयरबॉक द्वारा जिस परिवर्तन की बात की गई है और बर्लिन की चीन के बारे में जो नई रणनीति है, वो तीन स्तंभों पर आधारित है. इनमें से हर स्तंभ की अपनी कुछ न कुछ कमज़ोरी है, हर स्तंभ पश्चिम की अयोग्यता के लिए अपनी छवि बचाने का मौक़ा देता है और चीन को अपने मनमुताबिक़ तरीक़े से कार्य करने की इजाज़त देता है.
पहला, ‘अलगाव’ की जगह पर ‘डी-रिस्क’ यानी ‘ख़तरा कम करने’ के नए नैरेटिव को स्वीकारते हुए बेयरबॉक कहती हैं कि “हमारा मकसद चीन से अलग होना नहीं है, बल्कि जहां तक संभव हो उसकी तरफ से आने वाले ख़तरों को कम करना है.” ज़ाहिर है कि उनका यह बयान जहां एक ओर भू-राजनीति की आड़ में अपने क़दम को उचित ठहराने की कोशिश है, वहीं महाशक्ति से डर को भी प्रकट करता है. इसकी ज़रूरत भी है, लेकिन यह कोई ऐसा बयान नहीं है, जो “जर्मनी द्वारा दिया गया” है, बल्कि यह एक ऐसा बयान है, जिसे “अमेरिका में तैयार किया गया है.” इसका पहला नतीज़ा होगा सॉफ्ट लैंडिंग, जबकि आख़िरी नतीज़ा होगा हार्ड लैंडिंग.
हिरोशिमा में हुई G7 समिट के बाद 20 मई 2023 को जो आधिकारिक प्रेस रिलीज जारी की गई थी, उसमें ‘अलगाव’ शब्द को ‘डी-रिस्क’ से बदला गया था. इससे साफ ज़ाहिर होता है कि चीन को लेकर पश्चिम की सोच धुंधली है, उसमें कोई स्पष्टता नहीं है.
हिरोशिमा में हुई G7 समिट के बाद 20 मई 2023 को जो आधिकारिक प्रेस रिलीज जारी की गई थी, उसमें ‘अलगाव’ शब्द को ‘डी-रिस्क’ से बदला गया था. इससे साफ ज़ाहिर होता है कि चीन को लेकर पश्चिम की सोच धुंधली है, उसमें कोई स्पष्टता नहीं है. ऐसा लगता है कि पश्चिमी देशों का सिर्फ़ एक ही मकसद है, समय को खींचना और मक्कार एवं धूर्त चीन को अपनी मक्कारी से बाज आने का समय देना. हालांकि, ऐसा किसी भी सूरत में कभी होने वाला नहीं है. इसके अतिरिक्त G7 के साथ-साथ नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (NATO) के भागीदार के रूप में बर्लिन की चाइना पॉलिसी आधे-अधूरे मन से वाशिंगटन डी.सी. द्वारा स्थापित रणनीतिक मार्गदर्शन का अनुसरण कर रही है.
जिस प्रकार से अमेरिका हमेशा ही किसी कार्य को पूरे मनोयोग के साथ करता है, उसी तरह से आर्थिक अवसरों के बिजनेस में पूरी दृढ़ता के साथ उतर रहा है. अमेरिका सुरक्षा ख़तरों से जुड़े क्षेत्र में भी ऐसा कर रहा है, जैसे कि 5जी का इस्तेमाल करके तकनीक़ी हमले और बाधाएं पैदा करने वाले जोख़िमों के क्षेत्र में. लेकिन भारत, अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम (UK), स्वीडन, इटली, बुल्गारिया, कोसोवो, नॉर्थ मैसेडोनिया और ऑस्ट्रेलिया के उलट जर्मनी ने अभी भी अपनी 5G तकनीक़ की शुरूआत करने की योजनाओं से चीनी कंपनियों पर पाबंदी नहीं लगाई है. ज़ाहिर है कि अगर जर्मनी के दूरसंचार नेटवर्क द्वारा चीनी कंपनियों एवं उनकी जबरन सिस्टम में घुसपैठ करने वाली प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल किया जाता है, तो वहां की सरकार, संस्थानों, विश्वविद्यालयों और नागरिकों को सुरक्षा व गोपनीयता के ख़तरों से दो-चार होना पड़ेगा.
लेकिन बड़े परिदृश्य की तुलना में यह सब मसले बहुत छोटे हैं. सच्चाई यह है कि न तो अमेरिका, न ही यूरोपीय संघ और ज़ाहिर तौर पर न ही जर्मनी में चीन की आलोचना करने या फिर उसे सबक सिखाने की कुव्वत है. पश्चिम तीन दशकों से एक व्यापक बाज़ार बनने, साथ ही चीन द्वारा लोकतंत्र को अपनाए जाने एवं मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं करने जैसे सपनों को पाले हुए है. इन्हीं सब बातों के चलते पश्चिम आज एक देश के शिकंजे में फंस चुका है, जिसके सुरक्षा हित उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे समान विचारधारा वाले कपटी देशों के साथ जुड़े हुए हैं. चीन की सत्ता पर काबिज चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) पहले ही हांगकांग पर अपना अधिपत्य जमा चुकी है, जबकि ताइवान पर भी उसकी नज़रें हैं और उस पर भी कब्ज़ा करने की धमकी दी गई है.
जर्मनी की विदेश मंत्री बेयरबॉक को उम्मीद है कि उनका देश “अपनी उदार एवं स्वार्थहीन लोकतांत्रिक व्यवस्था, अपनी संपन्नता, क़ामयाबी और दूसरे देशों के साथ अपने संबंधों को संकट में डाले बग़ैर चीन के साथ मिलजुल कर कार्य करेगा.”
दूसरा, चीन की तरफ से पैदा होने वाले ख़तरे को कम करने का मतलब है कि दुनिया के दूसरे देशों की ओर देखना और उनके साथ व्यापारिक संबंधों की संभावनाओं को तलाशना. अर्थात नई-नई आपूर्ति श्रृंखलाएं बनाना और उन्हें सशक्त करना. चीन के ऊपर जर्मनी की निर्भरता इतनी अधिक है कि बर्लिन को अब अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिका से रेयर अर्थ मेटल्स और दूसरी आवश्यक वस्तुओं को ख़रीदने के लिए विकल्प तलाशने हेतु मजबूर होना पड़ रहा है. चीन से दूरी बनाने की प्रक्रिया के तहत ही जर्मनी द्वारा EU पर विभिन्न समझौतों के ज़रिए MERCOSUR में शामिल होने का दबाव डाला जा रहा है. MERCOSUR लैटिन अमेरिका का एक व्यापारिक ब्लॉक है, इसे दक्षिणी कॉमन मार्केट भी कहा जाता है, जिसमें पांच देश (अर्जेंटीना, ब्राज़ील, पैराग्वे, उरुग्वे और वेनेज़ुएला) और दक्षिण अमेरिका में सात संबंधित राष्ट्र शामिल हैं.
इसके अतिरिक्त, कच्चे माल की सोर्सिंग के साथ-साथ निवेश के लिए नए ठिकाने की तलाश भी एक बढ़ा सवाल बना हुआ है. चीन में निवेश करने वाली जर्मनी की कंपनियां अगर वहां से अपना बिजनेस समेटना चाहती हैं, तो तीन ऐसे देश हैं जहां वे आसानी से अपने धंधे को प्रतिस्थापित कर सकती हैं. ये देश हैं भारत, थाईलैंड और इंडोनेशिया. ये तीनों ही देश अपने यहां आने वाली विदेशी कंपनियों को बिजनेस और मैन्युफैक्चरिंग के लिए समाम सहूलियतें प्रदान करते हैं. लेकिन जब तेज़ गति से बढ़ते बाज़ार में चल रही प्रतिस्पर्धा का फायदा उठाने की बात आती है, तो निवेश के लिए सबसे सटीक देश भारत ही है. (इसके बारे में अधिक जानकारी नीचे दी गई है).
तीसरा, जर्मनी बहुत असमंजस्य की स्थिति में दिखाई दे रहा है. एक ओर वह चीन पर अपनी निर्भरता को कम करते हुए दूसरे बाज़ारों से संबंध बढ़ाने की संभावनाओं को तलाश रहा है, वहीं चीन के साथ अपने पुराने संबंधों को बनाए भी रखना चाहता है और “चीन के साथ सहयोग का विस्तार” करना चाहता है. कहने का मतलब है कि जर्मनी के नेताओं द्वारा चीन से छुटकारा पाने के लिए जो बयानबाज़ी की जा रही है, उसे हक़ीक़त में तब्दील करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है. यही वजह है कि चीन का नाम लेकर उसे भला-बुरा कहने और निशाना साधने के बाद जब ज़मीनी स्तर पर कार्रवाई की बात आती है, तो यह सिर्फ कागज़ों में सिमट कर रह जाती है, इसलिए इसका कोई मतलब नहीं रह जाता है. जिस हौव्वे को यानी काल्पनिक डर को दिखाया जा रहा है, वो जलवायु संकट है, साथ ही इस संकट को पैदा करने के साथ-साथ उस पर काबू पाने में चीन की भूमिका है. इसके साथ ही बर्लिन ने बड़ी चालाकी के साथ ऐसा माहौल बनाया है कि राष्ट्रीय हित के लिए टेक्नोलॉजी से लेकर व्यापर तक चीन के साथ मज़बूत संबंध ज़रूरी हैं. बीजिंग ने इसे ही अपना हथियार बना लिया है और जलवायु संकट के मुद्दे पर भी वो बर्लिन के इस लचर रवैये का फायदा उठाएगा.
जर्मनी की विदेश मंत्री बेयरबॉक को उम्मीद है कि उनका देश “अपनी उदार एवं स्वार्थहीन लोकतांत्रिक व्यवस्था, अपनी संपन्नता, क़ामयाबी और दूसरे देशों के साथ अपने संबंधों को संकट में डाले बग़ैर चीन के साथ मिलजुल कर कार्य करेगा.” ज़ाहिर है कि उनके इस तरह के विचारों में साफ तौर पर वैश्विक परिदृश्य के बारे में जानकारी का आभाव नज़र आता है. इससे लगता है कि उन्हें न तो यह पता है कि भू-राजनीति किस करवट बैठ रही है और न उन्हें यह मालूम है कि चीन जैसी तानाशाही वाली सरकारें किस प्रकार से कार्य करती हैं. CCP अपनी हरकतों के ज़रिए पहले ही सभी सीमाओं को पार चुकी है. उदाहरण के तौर पर चीन अब अपने तानाशाही शासन वाले मॉडल को तंज़ानिया में लागू करने में जुटा हुआ है.
बेयरबॉक का कहना है कि चीन के साथ यह सहयोग जर्मनी के विश्वविद्यालयों में भी दिखाई देता है. उन्होंने कहा, कि “सैक्सोनी में स्थित विश्वविद्यालय में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर रिसर्च प्रोजेक्ट संचालित किया जाता है, उन्हें अब इस पर विचार करना होगा कि चीन से आने वाले एप्लीकेशन्स को किस प्रकार से संभाला जाए.” हालांकि, इसको लेकर भ्रम की स्थिति है कि इसे चीन के लिए चेतावनी समझा जाए या फिर विश्वविद्यालय के लिए. अगर बेयरबॉक अपनी आंखें खोलकर देखेंगी और ब्रिटेन में इसी तरह से मामलों के बारे में जानकारी हासिल करेंगी, तो उन्हें पता चलेगा कि चीन ने किस प्रकार से यूनिवर्सिटियों को और अकादमिक क्षेत्र से जुड़े लोगों को अपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है. साथ ही यह भी पता चलेगा कि चीन ने कैसे ब्रिटेन के ‘उपयोगी मूर्खों’ (useful idiots) यानी उसके अपने उद्देश्य के लिए कार्य करने वालों को अपनी साज़िशों को अंज़ाम देने वाले ‘सतर्क साज़िशकर्ताओं’ के रूप में बदल दिया है.
चीन की नीति में कंपनियों का सेना के रूप में इस्तेमाल
विदेश मंत्री बेयरबॉक ने अपने भाषण में सबसे अहम बात जर्मन कंपनियों के बारे में कही थी, यानी वो कंपनीयां जो चीन पर अत्यधिक निर्भर हैं. इससे साफ संकेत मिलता है कि उन्होंने जर्मन कंपनियों के आत्मनिर्भर बनने पर बल दिया है. बेयरबॉक ने कहा, “जो भी कंपनियां चीन के मार्केट पर अत्यधिक निर्भर हैं और ऐसा करना जारी रखती है, आने वाले दिनों में उन्हें सबसे ज़्यादा वित्तीय संकटों का सामना करना पड़ेगा और नुक़सान झेलना पड़ेगा.” इसके अतिरिक्त, उन्होंने अपने देश की कंपनियों को एक नए रेगुलेशन से भी अवगत कराते हुए कहा, “कंपनियों की आर्थिक सुरक्षा एवं स्थिरता से उनका तात्पर्य यह है कि वे यह भी सुनिश्चित करें कि उनकी आपूर्ति श्रृंखलाओं में किसी भी स्तर पर मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं हो रहा है.” ज़ाहिर है कि यह कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिनका समाधान सरकारें भी नहीं कर पाती हैं, ऐसे में कंपनियों से इसकी उम्मीद करना ही बेमानी है. इसलिए, जर्मनी द्वारा नीतियों में इस तरह के बदलाव को लेकर चाहे जितनी भी बयानबाज़ी की जाए, लेकिन इसे कंपनियों और कॉर्पोरेट्स पर लागू करना मुश्किल है, यानी यह भी सिर्फ़ दिखावा ही साबित होगा.
तमाम देशों की बड़ी कंपनियां पहले ही चीन पर कम से कम निर्भरता वाले या फिर चाइना से छुटकारे वाले भविष्य के बारे में सोच रही हैं. देखा जाए तो कंपनियों के अपने हित एकदम स्पष्ट हैं, कि वे शेयर बाज़ारों के प्रति अधिक उत्तरदायी है. इसे अच्छी तरह से समझने के लिए भारत को देखा जा सकता है. भारत में एक ओर चीनी कंपनियों को 5जी टेक्नोलॉजी से पूरी तरह से बाहर कर दिया गया है, वहीं दूसरी ओर स्टील, ट्रेडिंग या वाहनों का निर्माण जैसे कम रणनीतिक उद्योगों ने भी चीन से दूरी बनानी शुरू कर दी है.
इसमें अब कोई दोराय नहीं है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में आपे से बाहर हो चुका अनियंत्रित बीजिंग पूरी दुनिया के लोगों के लिए एक सबसे बड़ा ख़तरा बन गया है. अपनी आर्थिक क़ामयाबी के चलते चीन की सरकार फिलहाल मदहोशी की हालत में है.
भारत की ही बात को आगे बढ़ाएं, तो एप्पल एवं सैमसंग जैसी तमाम कंपनियां भारत में ही मैन्युफैक्चरिंग यूनिट स्थापित कर रही है, तकनीक़ी विकास कर रही हैं और नई आपूर्ति श्रृंखलाओं का निर्माण कर रही हैं. भारत के बारे में भले ही तमाम तरह के नकारात्मक नैरेटिव्स फैलाए जा रहे हों, लेकिन बावज़ूद इसके सच्चाई यह है कि भारत दुनिया का एक समृद्ध और पुराना लोकतांत्रिक देश है. नियम-क़ानूनों से संचालित होने वाले इस देश में दुनियाभर की कंपनियां बिजनेस करने के लिए आ रही हैं, क्योंकि यहां उन्हें ख़तरों की गुंजाइश बहुत कम दिखती है. भारत के पक्ष में कई सकारात्मक बातें हैं, जैसे कि यह एक युवा राष्ट्र है, विश्व में तीव्र गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, देश में एक सुधार लाने वाला रेगुलेटरी इंफ्रास्ट्रक्चर है. ये सभी चीज़ें भारत की विश्वसनीयता को बढ़ाती हैं, जिससे विदेशी कंपनियां यहां आना चाहती हैं. ज़हिर है कि जर्मनी की जो भी कंपनियां चीन से अपना बिजनेस समेटने के बारे में सोच रही हैं, वे निसंदेह अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन की अपनी जैसी तमाम कंपनियों के पदचिन्हों पर चलते हुए भारत का रुख़ करेंगी.
इसमें अब कोई दोराय नहीं है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में आपे से बाहर हो चुका अनियंत्रित बीजिंग पूरी दुनिया के लोगों के लिए एक सबसे बड़ा ख़तरा बन गया है. अपनी आर्थिक क़ामयाबी के चलते चीन की सरकार फिलहाल मदहोशी की हालत में है. हालांकि, चीन की आर्थिक सफलता में जर्मनी समेत अमेरिका और पश्चिम का भी बड़ा योगदान है. उल्लेखनीय है कि अगले दो दशकों में चीन पर काबू पाना एक प्रमुख चुनौती बनने वाला है. पिछले नौ सालों में चीन में लागू किए गए पांच क़ानूनों – जासूसी रोधी क़ानून (2014), नेशनल सिक्योरिटी लॉ (2015), नेशनल साइबर सिक्योरिटी लॉ (2016), नेशनल इंटेलिजेंस लॉ (2017) और पर्सनल इन्फॉर्मेशन प्रोटेक्शन लॉ ( 2021) ने यह पक्का कर दिया है कि कंपनियों से लेकर नागरिकों तक हर कोई जासूसी के हालात में क़ानूनी तौर पर ज़िम्मेदार है. ऐसे में अब बातचीत या समझौते की कोई गुंजाइश ही कहां बचती है?
लोकतांत्रिक देशों के लिए एकदम विरोधाभाषी मुद्दों का हल निकालना और हमेशा पारस्परिक टकराव वाले हितों को संभालना आसान काम नहीं है. ऐसे में व्यापार से जुड़े आपसी विवादों का हल निकालते हुए बीच का रास्ता निकालना चाहिए, निवेशों पर छूट और सुविधाएं दी जानी चाहिए, सुरक्षा के मसले पर ज़रूरी आपसी सहयोग बनाना चाहिए और रोज़गार से जुड़ी चिंताओं का समाधान तलाशा जाना चाहिए. इन सब से बढ़कर देशों को अपनी घरेलू राजनीति पर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्योंकि घरेलू मोर्चे पर राजनीतिक उठापटक से इन सभी ज़रूरी मुद्दों में रुकावटें आ सकती हैं. निस्संदेह, जब बात चीन की आती है, तो ‘संतुलन’ का शब्द बेमानी हो जाता है और एक दूर की कौड़ी सा प्रतीत होता है. पश्चिम के ज़्यादातर देश इस वास्तविकता को जान चुके हैं, साथ ही लगता है कि EU भी इस सच्चाई को भांपने लगा है (लिथुआनिया इसका एक सटीक उदाहरण है) और बर्लिन भी इससे वाक़िफ़ हो रहा है. ऐसे में चीन के साथ किसी भी तरह का संतुलन बनाने के बजाए, कपटी और धूर्त नेताओं की पार्टी (CCP) द्वारा चलाई जाने वाली चीन की तानाशाही और अहंकार में डूबी सरकार को असंतुलित करने एवं उसके सभी रणनीतिक दांवपेचों को खत्म किए जाने की सख़्त ज़रूरत है.
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