Published on Jun 07, 2023 Updated 0 Hours ago
श्रीलंका: संकटग्रस्त राजनीति के बीच तेज़ी से बदलती परिस्थितियां!

श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के संकट में घिरने के साथ ही देश की आर्थिक नीति पर फिर से विचार करने का वक़्त आ गया है कि देश आगे किस तरह से कार्य कर सकता है. मौज़ूदा समय में श्रीलंका आवश्यक वस्तुओं जैसे कि भोजन और ईंधन की ज़बरदस्त महंगाई का सामना कर रहा है, साथ ही ज़रूरी चीज़ों की कमी और उपयोग एवं परिवहन जैसी आवश्यक सेवाओं और लगातार बढ़ती ग़रीबी दर का भी सामना कर रहा है. ये आर्थिक चुनौतियां नागरिकों और सरकार के बीच कमज़ोर संबंधों, अदूरदर्शी नीतिगत फैसलों एवं देश की सबसे प्रभावशाली राजनीतिक पार्टियों के बीच तीखे व कट्टर रिश्तों वाले राजनीतिक वातावरण में संचालित हो रही हैं. देश की वर्तमान परिस्थितियों के बीच श्रीलंका के विशिष्ट वर्ग और आम नागरिकों में बहस के तीन प्रमुख विषय हैं, जो सरकार में भरोसा, श्रीलंका के हालातों के मद्देनज़र एक दीर्घकालिक आर्थिक दृष्टिकोण और विदेशी संबंधों एवं घरेलू राजनीति को संभालने के लिए प्रभावशाली राजनीतिक नेतृत्व से संबंधित हैं. श्रीलंका के राजनीतिक गलियारों एवं आम विचार-विमर्श के भीतर इन विषयों को लेकर ज़बरदस्त मतभेद हैं और यही मतभेद 2024 के चुनावों के लिए राजनीतिक गठजोड़ एवं सार्वजनिक स्वीकार्यता को निर्धारित करने का काम कर रहे हैं. यह लेख बताता है कि किस प्रकार से श्रीलंका का लोकतंत्र एक विपरीत वामपंथी झुकाव वाले राजनीतिक प्रभाव के भीतर विशिष्ट वर्ग द्वारा संचालित मुक्त बाज़ार वाले नज़रिए के बीच एक संतुलन तलाशने के लिए संघर्ष कर रहा है. यह लेख इस संतुलन को तलाशने के लिए ऊपर उल्लेख किए जा चुके बहस के विषयों का विश्लेषण करता है.

विश्वास और वैद्यता

जनता के भरोसे और स्वीकार्यता की बात की जाए तो रानिल विक्रमसिंघे के शासन की साख या प्रतिष्ठा परस्पर विरोधी है और इसने श्रीलंका में कट्टर और पक्षपातपूर्ण राजनीति को सामने लाने का काम किया है. ज़ाहिर है कि रानिल विक्रमसिंघे चुनावों के माध्यम से नहीं, बल्कि राजपक्षे के समर्थन से राष्ट्रपति पद तक पहुंचे है और सच्चाई यह है कि उनके शासन को नागरिकों की स्वीकृति हासिल नहीं है, यानी उन्हें जनता ने चुनकर इस पद पर नहीं पहुंचाया है. इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि रानिल विक्रमसिंघे की पार्टी, यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) ने पिछले चुनावों में मात्र एक संसदीय सीट हासिल की थी, यह सीट भी उन्हें नेशनल रिज़र्व के माध्यम से मिली थी, चुनाव में मतदान के ज़रिए नहीं. हालांकि, श्रीलंका में आर्थिक संकट के हालात को देखते हुए, विक्रमसिंघे को एक अनुभवी और वरिष्ट राजनेता होने के नाते जनता का समर्थन मिला और उन्हें आर्थिक संकट को समाप्त करने का काम सौंपा गया. वह जनता के इस भरोसे पर खरे भी उतरे, क्योंकि उनके शासन ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से 2.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर का बेलआउट पैकेज हासिल किया, जिसे एक ऐतिहासिक सफलता के रूप में पेश किया गया. इसलिए, यह कहना उचित होगा कि रानिल विक्रमसिंघे एक विलक्षण शख़्सियत हैं, जिन्होंने ऐसे समय में जनता का समर्थन हासिल किया है, जब उन्हें श्रीलंका की राजनीति में गैरज़रूरी समझा जाने लगा था.

इसके विपरीत उनकी इस छवि को देश के दो मुख्य विपक्षी दलों साजिथ प्रेमदासा के नेतृत्व वाली समागी जाना बालवेगया (एसजेबी) पार्टी और जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) पार्टी के नेता ए के दिसानायके के नेतृत्व वाले वामपंथी गठबंधन नेशनल पीपुल्स पावर (एनपीपी) ने सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है. राष्ट्रपति विक्रमसिंघे की IMF डील के कार्यान्वयन का एसजेबी ने विरोध किया और इस मुद्दे पर संसद में चर्चा के दौरान मतदान करने से इनकार कर दिया, यहां तक कि अपना अविश्वास जताते हुए सदन से वॉकआउट भी किया. प्रेमदासा की पार्टी ने आतंकवाद विरोधी क़ानून और आर्थिक निर्णय लेने में संसद की मंजूरी नहीं लेने को लेकर सरकार के तानाशाही रवैये का विरोध किया है. एनपीपी ने इस पूरे माहौल को और अधिक ध्रुवीकृत कर दिया है. विशिष्ट वर्ग द्वारा श्रीलंकाई लोगों के 75-वर्ष के वर्चस्व के केंद्र बिंदु के रूप में विक्रमसिंघे की पहचान करने को लेकर एनपीपी ने अपने (लोकप्रिय आवाज़) और अन्य राजनीतिक दलों द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले विशिष्ट वर्ग के बीच एक जोड़ी बनाई है. एनपीपी वर्ष 2022 में अरागलाया संघर्ष के दौरान प्रदर्शन की सबसे प्रमुख जगह कोलंबो के गाले फेस ग्रीन में भीड़ जमा करने के केंद्र में थी, इसी आंदोलन ने गोटबाया राजपक्षे को अपने पद से हटने पर मज़बूर कर दिया था और उसके बाद से ही इस गठबंधन को जनता का समर्थन और स्वीकार्यता हासिल हुई है. वामपंथी गठबंधन नेशनल पीपुल्स पॉवर इस सच्चाई से पूरी तरह से वाकिफ़ है और तभी से विक्रमसिंघे के राष्ट्रपति बनने की वैद्यता पर सवाल उठाते हुए श्रीलंका में तत्काल चुनाव कराने की मांग करता रहा है.

अलग-अलग आर्थिक दृषिकोण

 

सार्वजनिक स्वीकार्यता और विश्वास की लड़ाई ठोस आर्थिक नीति के ढांचे पर आधारित होनी चाहिए, अगर श्रीलंका के पास स्थाई रूप से ठीक होने का अवसर है. आर्थिक नीति के मुद्दे पर विक्रमसिंघे की सरकार, एसजेबी और  एनपीपी तीनों के विचार बहुत अलग-अलग हैं. उद्योग को एक नई गति देने के लिए बुनियादी ढांचा विकास परियोजनाओं के लिए बड़े निवेश आकर्षित करने को लेकर उनके झुकाव, विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने और बाद में धीरे-धीरे विदेशी ऋण में कटौती करने के लिए उनके क़दमों को देखते हुए टिप्पणीकारों द्वारा विक्रमसिंघे को एक 'सैवेज कैपिटलिस्ट' यानी चालाक पूंजीवादी के रूप में वर्णित किया गया है. राष्ट्रपति विक्रमसिंघे का मुक्त-बाज़ार का नज़रिया IMF बेलआउट पर केंद्रित है. उनकी सरकार ने IMF की ख़र्चे कम करने की ज़रूरत के मद्देनज़र कई अलोकप्रिय फैसलों को लागू किया है, जैसे कि सरकार के स्वामित्व वाले उद्यमों (SOEs) की बिक्री और इनकम टैक्स एवं उपयोगिता दरों में बढ़ोतरी का फैसला. सरकार द्वारा उठाए गए इन क़दमों ने लगभग सभी सेक्टरों से जुड़े लोगों के बीच नाराज़गी पैदा करने और उन्हें एकजुट होकर विरोध करने के लिए प्रेरित करने का काम किया. विरोध करने वालों में डॉक्टर, बैंकर और हवाई यातायात नियंत्रक जैसी ज़रूरी सेवाओं से जुड़े लोग भी शामिल हैं. हालांकि, विक्रमसिंघे ने एक संशोधित आतंकी बिल यानी एंटी-टेररिज़्म एक्ट (ATA) के साथ जवाबी प्रहार किया है. आतंकवाद के ख़िलाफ़ लाए गए उनके इस बिल की ज़बरदस्त आलोचना की गई है और इसे आतंकवाद की परिभाषा को बेहद कठोर और ख़ास मकसद के लिए अस्पष्ट रखे जाने वाला बताया गया. यह भी कहा गया कि इस बिल को राष्ट्रीय स्तर पर किए जा रहे आर्थिक सुधारों का विरोध करने वालों पर कार्रवाई के लिए लाया गया है.

एसजेबी ने दूरदर्शिता और संवेदनशीलता की कमी के तौर पर सरकार के इस नज़रिए पर निशाना साधा है और राजकोषीय घाटे को कम करने कि लिए जनता पर कर लगाने के बजाए ख़र्चों में कमी नहीं करने को लेकर सरकार की आलोचना की है. एसजेबी ने टैक्स की असमान दरों एवं अमीरों समेत लोगों के एक बड़े वर्ग को कराधान व्यवस्था में लाने में असमर्थता को लेकर भी सरकार को कटघरे में खड़ा किया है. इसके साथ ही एसजेबी ने घरेलू ऋण पुनर्गठन नीति की भी आलोचना की है और फाइनेंशियल सेक्टर की अस्थिरता एवं कर्मचारी फंड्स पर बोझ के एक अनुचित बदलाव की आशंका जताई है. आम तौर पर एसजेबी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सख़्ती की वजह से होने वाले नुक़सान की भरपाई के लिए एक बड़े सुरक्षा तंत्र की वक़ालत करता रहा है. इसके लिए एसजेबी पार्टी घरेलू उत्पादन को बढ़ाने और इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी पहलों एवं विदेशी निवेश को संतुलित करने पर ध्यान केंद्रित करने में विश्वास करती है. एसजेबी के इस दृष्टिकोण को श्रीलंकाई कल्याणकारी स्टेट मॉडल के लिए ज़्यादा सटीक और श्रीलंका की परिस्थितियों के लिहाज़ से एक बेहतर विकल्प माना गया है.

जहां तक एनपीपी की बात है तो वो IMF के मुद्दे पर कुछ भी बोलने से बचती आई है. यहां तक कि आईएमएफ द्वारा ख़र्चों पर लगाम लगाने के मुद्दे पर संसदीय बहस के दौरान एनपीपी के प्रवक्ता हरीनी अमरासूर्या ने विक्रमसिंघे की आर्थिक व्यवस्था पर कोई टिप्पणी नहीं की. देखा जाए तो एनपीपी का फोकस लोकतांत्रिक अधिकार और जनता की वैद्यता पर रहता है, जो उसकी आर्थिक योजनाओं पर सवाल उठाने का काम करता है. एनपीपी की मार्क्सवादी जड़ें एक राष्ट्रीयकरण और अर्थव्यवस्था को मुक्त नहीं करने का संकेत देती हैं. हालांकि, ऐसा लगता है कि एनपीपी के नेतृत्व ने आईएमएफ डील के पक्ष में समझौता कर लिया है. संक्षेप में कहा जाए तो दो कट्टर सोचों के बीच, या कहा जाए कि दो ग़लत चीज़ों में से एसजेबी के केंद्र-लेफ्ट दृष्टिकोण को कम नुक़सानदायक नज़रिए के रूप में स्वीकार किया गया है.

उभरता राजनीतिक नेतृत्व

श्रीलंका के विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति विक्रमसिंघे की वैधता के साथ ही सरकार द्वारा राजनीतिक एवं आर्थिक निर्णय लेने पर भी सवाल उठाया है. इतना ही नहीं इस मामले में देश की जनता भी विपक्षी दलों के साथ खड़ी नज़र आ रही है. श्रीलंका ओपिनियन ट्रैकर सर्वे (SLOTS) के मुताबिक़, एसजेबी (37 प्रतिशत) और एनपीपी (48 प्रतिशत) दोनों ही पार्टियां विक्रमसिंघे के यूएनपी (11 प्रतिशत) से कहीं बेहतर स्थिति में हैं. हालांकि, गठबंधन बनाने के दौरान एसजेबी और यूएनपी के बीच काफ़ी खींच-तान देखी गई है. एसजेबी के नेता साजिथ प्रेमदासा अपनी पार्टी के सदस्यों के यूएनपी में जाने से चिंतित हैं और इस पर काबू पाने के लिए उन्होंने एक अनुशासन समिति का गठन किया है. प्रेमदासा की चिंता वाज़िब है, क्योंकि एसजेबी में बहुत सारे नेता ऐसे हैं, जो पहले यूएनपी में थे. इसके अलावा, एसजेबी के कई बड़े नेता विपक्षी सदस्यों को सरकार में शामिल होने के लिए राष्ट्रपति विक्रमसिंघे की खुली पेशकश को स्वीकार करते हुए एसजेबी और यूएनपी के बीच गठबंधन के लिए दबाव बना रहे हैं. हालांकि, प्रेमदासा सरकार में शामिल होने के पक्ष में नहीं है और उन्होंने इस संभावना को एक सिरे से ख़ारिज़ कर दिया है. जेवीपी की अगुवाई वाले एनपीपी को ज़बरदस्त जन समर्थन हासिल है और सरकार द्वारा जो अनाप-शनाप ख़र्च किया जा रहा है, ख़राब आर्थिक हालात के बावज़ूद बचत नहीं की जा रही है, उसे देखते हुए इस जन समर्थन के और बढ़ने की उम्मीद है. श्रीलंका में यह विचार भी तेज़ी से फैला हुआ है कि एसजेबी और एनपीपी मिलकर सरकार बनाएं, जिसमें राष्ट्रपति के रूप में प्रेमदासा और प्रधानमंत्री के रूप में दिसानायके शामिल हों.

अगर ऐसा होता है, तो यह न केवल सामाजिक लोकतंत्र सुनिश्चित करेगा, बल्कि सरकार में लोकप्रिय एनपीपी की मौज़ूदगी के साथ गति भी हासिल करेगा. देखा जाए तो श्रीलंका में जो भी संभावित गठबंधन हैं, उन सभी के बीच में एसजेबी को रखा गया है. ज़ाहिर है कि एसजेबी ऐसी पार्टी है, जो श्रीलंका के आम जनमानस के विचारों का प्रतिनिधित्व करने के लिए आई है. यह पार्टी यूएनपी की मुक्त बाज़ार व्यवस्था और एनपीपी के वामपंथी झुकाव पर एक व्यावहारिक और मज़बूत विकल्प उपलब्ध कराती है. हालांकि, साजिथ प्रेमदासा के नेतृत्व में एसजेबी में आंतरिक लोकतंत्र के लिए कोई जगह नहीं है, जो कि पार्टी की एकजुटता के लिए नुक़सानदायक साबित हो सकता है, ख़ास तौर पर विक्रमसिंघे द्वारा उनकी पार्टी में शामिल होने और सरकार में शामिल होने को लेकर दिए गए निमंत्रण के मद्देनज़र. एसजेबी का विलय श्रीलंका की राजनीतिक संभावनाओं के लिए नुक़सानदेह साबित हो सकता है, ऐसा होने पर देश की राजनीति में न केवल ध्रुवीकरण बढ़ सकता है, बल्कि सरकार में निरंकुशता भी बढ़ सकती है. ऐसे में यह ज़रूरी है कि श्रीलंका में सामाजिक-लोकतांत्रिक स्तर को बरक़रार रखने के लिए सत्ता पर काबिज़ नेतृत्व को किसी न किसी तरीक़े से एसजेबी को शामिल करना चाहिए.

निष्कर्ष

 

 

श्रीलंका का मौज़ूदा राजनीतिक वातावरण सत्ता समीकरणों, आर्थिक नीति और नागरिकों की भागीदारी जैसे मोर्चों पर बदलाव के दौर से गुज़र रहा है और कहीं न कहीं इसके लिए पूरी तरह से तैयार है. पिछले वर्ष अरागलाया विरोध, जिसकी वजह से गोटाबाया राजपक्षा की सत्ता से विदाई सुनिश्चित हुई और एनपीपी की लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई, उससे दो महत्त्वपूर्ण बातों के संकेत मिलते हैं:  लोकतांत्रिक देश में नागरिकों की भागीदारी बढ़ रही है एवं बड़ी आबादी का वामपंथी विचारधार की ओर झुकाव है, साथ ही देश आर्थिक संकट की सबसे बड़ी दिक़्क़तों से जूझ रहा है. रिकवरी की प्रक्रिया के साथ हालात पर काबू पाने के लिए यानी केवल स्थायित्व के लिए दो-तीन साल लगने का अनुमान है, देश में मुद्रास्फ़ीति की दर अभी भी बढ़ रही है (यद्यपि बढ़ोतरी की दर कम है), वाम-झुकाव वाले लोकतंत्रीकरण की यह प्रवृत्ति आगे भी जारी रहने की उम्मीद है. वर्तमान में विशिष्ट वर्ग द्वारा संचालित सरकार अब इस तरह के राजनीतिक प्रभाव में नहीं रह सकती है और एक बदलाव ज़रूरी है. साथ ही, एक वामपंथी झुकाव वाली व्यवस्था, जो ऋण संकट और वित्तीय बाज़ार में प्रतिस्पर्धा के मुद्दे पर अपनी आंखें मूंदे हुए है, अस्तित्व में नहीं रह सकती है, भले ही उसका वेलफेयर स्टेट कितना भी लोकतांत्रिक क्यों न हो. ऐसे में श्रीलंका में अगले कई महीनों के राजनीतिक दांव-पेंचों में एक संतुलन तलाशने की ज़रूरत है, यानी एक ऐसा संतुलन जो न सिर्फ़ दीर्घकालिक समाधानों की गारंटी देने वाला हो, बल्कि एक स्थाई विकासशील अर्थव्यवस्था का निर्माण भी करता हो.


पराग दास ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की फोरम टीम में इंटर्न हैं.

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