मॉस्को में 8-9 जुलाई को आयोजित भारत-रूस शिखर सम्मेलन में कोई महत्वपूर्ण समझौता नहीं हुआ. मीटिंग के बाद जो दस्तावेज़ रिलीज़ किया गया, उसमें रक्षा समेत सहयोग के प्रमुख क्षेत्रों पर पर्याप्त जानकारी का अभाव है, जबकि इस तरह का विवरण देना परंपरागत रूप से भारत-रूस साझेदारी का मुख्य स्तंभ रहा है. सबसे खास बात ये है कि शिखर सम्मेलन में प्रतिनिधिमंडल स्तर की कोई पूर्ण बातचीत नहीं हुई. कई बड़े अधिकारियों के अलावा रक्षा मंत्री भी इस सम्मेलन में नहीं आए. मौजूदा दौर में भारत और रूस के संबंध ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग से संचालित हो रहा है. ऐसे में इस बात का परीक्षण करना ज़रूरी है कि द्विपक्षीय रक्षा सहयोग किस तरह के परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा है.
रक्षा सहयोग में दुविधा क्यों?
हाल-फिलहाल दोनों देशों के बीच कोई बड़े रक्षा सौदे नहीं हुए हैं. ऐसे में भारत चाहता है कि रूस पहले अपने उन अनुबंधों को पूरा करे, जिन पर अतीत में समझौते हुए थे. रूस-यूक्रेन युद्ध के अलावा भुगतान-संबंधी और कुछ तकनीकी मुद्दों के कारण पिछले कुछ साल में भारत को रूस में बने रक्षा उपकरणों की पूर्ति में देरी हुई है. उदाहरण के लिए एस-400 वायु रक्षा प्रणालियों की बाकी बची दो रेजिमेंटों की डिलीवरी कथित तौर पर मार्च और अक्टूबर 2026 तक के लिए स्थगित कर दी गई है. एक और प्रोजेक्ट में देरी हुई है. ये परियोजना है कलिनिनग्राद क्षेत्र में यंतर शिपयार्ड में 11356-आर प्रोजेक्ट फ्रिगेट्स के निर्माण की. हालांकि हाल ही में इस सौदे में कुछ प्रगति हुई है. 'तुशिल' युद्धपोत पर स्वीकृति की मुहर लग चुकी है. सितंबर 2024 तक इसकी डिलीवरी हो सकती है. 'तमल' नाम का दूसरा युद्धपोत भी अगले साल तक तैयार होने उम्मीद है.
मौजूदा दौर में भारत और रूस के संबंध ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग से संचालित हो रहा है. ऐसे में इस बात का परीक्षण करना ज़रूरी है कि द्विपक्षीय रक्षा सहयोग किस तरह के परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा है.
भारत के लिए एक और महत्वपूर्ण मुद्दा सोवियत/रूसी मूल के उपकरणों के लिए स्पेयर पार्ट्स की बेरोकटोक आपूर्ति का भी है. इसका एक संभावित समाधान ये हो सकता है कि इनके निर्माण की उत्पादन सुविधाएं भारत में ही स्थापित की जाए. माना जा रहा है कि निकट भविष्य में दोनों देशों में इस मुद्दे पर सहयोग आगे बढ़ सकता है. भारत और रूस ने एके-203 कलाश्निकोव राइफल्स, टी-72 और टी-90 टैंकों के लिए 125 मिमी 'मैंगो' राउंड और मिग-29 जेट बेड़े के लिए आरडी-33 इंजन को बनाने वाली यूनिट पहले ही स्थापित कर ली हैं. एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम के रखरखाव और इनकी मरम्मत के क्षेत्र में भी इसी तरीके को अपनाया जा सकता है.
यहां पर ये बात रखनी ज़रूरी है कि भारत और रूस के बीच इन सभी सुविधाओं की स्थापना के मुद्दों पर सहमति यूक्रेन युद्ध शुरू होने से पहले ही बन चुकी थी. फिलहाल ये स्पष्ट नहीं है कि क्या आने वाले दिनों में इनसे तुलना योग्य किसी परियोजना को साकार किया जा सकता है या नहीं? रूस के साथ अपने महत्वपूर्ण रक्षा सौदों को आगे बढ़ाने से पहले भारत अब तक अमेरिका की आपत्तियों पर विवेकपूर्ण नज़रिया अपनाता रहा है और अपने राष्ट्रीय हितों के हिसाब से फैसला लेता रहा है. हालांकि अभी भारत और रूस के संबंधों के व्यापक संदर्भ में कुछ गतिरोध बने हुए हैं, इसके बावजूद ये स्पष्ट है कि रूस से भारत को होने वाली हथियारों और प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण की निगरानी अमेरिका ज़रूर करेगा.
एक गैरज़रूरी समझौता
रूस की सरकार ने रेसिप्रोकल एक्सचेंज ऑफ लॉजिस्टिक्स एग्रीमेंट (RELOS) को लेकर एक मसौदा दस्तावेज जारी किया. इसके बाद इस समझौते को लेकर चल रही चर्चाओं ने दिलचस्प मोड़ ले लिया है. ये एग्रीमेंट संयुक्त सैनिक अभ्यास और प्रशिक्षण के दौरान सैन्य संरचनाओं, युद्धपोतों और सैन्य विमानों के लिए रसद समर्थन के तौर-तरीकों के नियम बताता है. मानवीय सहायता और आपदा राहत मिशन के दौरान भी ये नियम लागू होंगे. भारत पहले ही कई देशों के साथ इस तरह के समझौते कर चुका है. इसमें क्वॉड में साझेदार देशों, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के अलावा फ्रांस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, वियतनाम और ब्रिटेन भी शामिल हैं.
RELOS को लेकर भारत और रूस के बीच 2018 से ही रुक-रुककर बातचीत चल रही है. 2021 में दिल्ली में हुए पिछले शिखर सम्मेलन से पहले ये बताया गया था कि दोनों देश इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के करीब थे. हालांकि दोनों ही पक्षों ने "सशस्त्र बलों के लिए रसद समर्थन और सेवाओं के पारस्परिक प्रावधान के लिए एक संस्थागत व्यवस्था की ज़रूरत को स्वीकार किया था". लेकिन "कुछ तकनीकी मुद्दों के कारण समझौते को टाल दिया गया". सूत्रों के मुताबिक दोनों देशों में समझौते के ट्रांस्लेटेड वर्ज़न यानी "अनुवादित संस्करण पर मतभेद" थे.
भारत और रूस की सेना के बीच पिछले कई दशकों में सैनिक अभ्यास या फिर दूसरी तरह का जो आदान-प्रदान होता था, वो भी अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है. 2022 और 2023 दोनों देशों के सेनाओं के बीच होने वाले इंद्र अभ्यास को स्थगित कर दिया गया. पिछले कुछ साल में सिर्फ़ एक द्विपक्षीय अभ्यास हुआ है.
हालांकि, इस बात पर विश्वास करना मुश्किल है कि कुछ शब्दों के अंतर की वजह से ही RELOS को अंतिम रूप देने में ये देरी हो रही है. ये तर्क गले नहीं उतरता है. यहां पर भारत का ये रुख़ सराहना करने योग्य है कि वो अभी रूस के साथ रसद विनिमय समझौते में प्रवेश करने के लिए अनिच्छुक है. रूस अभी यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझा हुआ है और उसे अपने ज़्यादातर संसाधन उस मोर्चे पर झोंकने पड़ रहे हैं. वैसे इस बात के संकेत तो पिछले कुछ वक्त से मिल रहे हैं कि पिछले दो साल में भारत और रूस के बीच मिलिट्री-टू-मिलिट्री संपर्क में कमी आई है. भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 2020 के बाद से रूस का दौरा नहीं किया है. मई 2024 में एंड्री बेलौसोव को रूसी रक्षा मंत्रालय के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया था, लेकिन राजनाथ सिंह ने अब तक रूस के रक्षा मंत्री से बातचीत नहीं की है. इसके अलावा भारत और रूस की सेना के बीच पिछले कई दशकों में सैनिक अभ्यास या फिर दूसरी तरह का जो आदान-प्रदान होता था, वो भी अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है. 2022 और 2023 दोनों देशों के सेनाओं के बीच होने वाले इंद्र अभ्यास को स्थगित कर दिया गया. पिछले कुछ साल में सिर्फ़ एक द्विपक्षीय अभ्यास हुआ है. नवंबर 2023 में बंगाल की खाड़ी में दोनों देशों ने नौसैनिक अभ्यास किया था. इसके अलावा दो और अभ्यास 'वोस्तोक 2022' और 'मिलन 2024' हुए थे लेकिन ये बहुपक्षीय अभ्यास थे. भारत और रूस के अलावा इसमें कुछ और दूसरे देशों की सेनाएं भी शामिल हुईं.
अगर इस सीमित सैन्य आदान-प्रदान के संदर्भ में देखें तो दोनों पक्षों द्वारा RELOS पर बातचीत फिर से शुरू करने का औचित्य स्पष्ट नहीं हो रहा है. ऐसा महसूस होता है कि इस वक्त दोनों देशों के सशस्त्र बलों के बीच रसद सहायता प्रावधानों की विस्तृत जानकारी देना असामयिक और अनावश्यक है.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत-रूस की सोच अलग
भारत और रूस के बीच सैन्य संपर्क में कमी के लिए केवल यूक्रेन युद्ध को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. ऐसा लगता है कि दोनों देशों के भू-राजनीतिक दृष्टिकोण में अंतर बढ़ने लगा है. चीन के साथ रूस के संबंध जिस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, उससे अगर तुलना करें तो कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं.
यूक्रेन युद्ध के बावजूद रूस और चीन के बीच उच्च-स्तरीय मिलिट्री-टू-मिलिट्री संपर्क बना हुआ है. दोनों देशों ने प्रशांत महासागर क्षेत्र में नियमित संयुक्त वायु और नौसैनिक गश्त बनाए रखी है. इतना ही नहीं 25 जुलाई को रूसी और चीनी रणनीतिक बमवर्षक विमानों टीयू-95 एमएस और ज़ियान एच-6K ने अलास्का के पास गश्त की. अमेरिका और कनाडाई लड़ाकू विमानों ने पहली बार एक साथ संचालन करते हुए इस गश्त को रोक दिया गया. रूस और चीन ने अपनी सबसे नई पेट्रोलिंग जुलाई की शुरुआत में पश्चिमी और उत्तरी प्रशांत क्षेत्र में आयोजित की. जबकि उनका अलग-अलग नौसैनिक लाइव-फायर अभ्यास, 'समुद्री सहयोग-2024' दक्षिण चीन सागर में संयुक्त युद्धाभ्यास पर केंद्रित था.
यह अभी ये स्पष्ट नहीं है कि ये संयुक्त अभ्यास किस हद तक रूसी और चीनी नौसेनाओं के बीच और ज़्यादा आदान-प्रदान को बढ़ाएंगे, लेकिन इन दोनों देशों के बीच जिस तरह बार-बार युद्धाभ्यास हो रहे हैं, वो ये साफ दिखाता है कि रूस और चीन के बीच समन्वय गहरा होता जा रहा है.
यह अभी ये स्पष्ट नहीं है कि ये संयुक्त अभ्यास किस हद तक रूसी और चीनी नौसेनाओं के बीच और ज़्यादा आदान-प्रदान को बढ़ाएंगे, लेकिन इन दोनों देशों के बीच जिस तरह बार-बार युद्धाभ्यास हो रहे हैं, वो ये साफ दिखाता है कि रूस और चीन के बीच समन्वय गहरा होता जा रहा है. इसके अलावा ये सैन्य अभ्यास और संयुक्त गश्त जिन जगहों पर हो रही हैं, उससे ये संकेत मिलता है कि रूस और चीन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और उसके सहयोगियों के ख़िलाफ मिलकर काम करने का मन रखते हैं. सैन्य स्तर पर रूस और चीन फिलहाल एक-दूसरे पर पूरी तरह भरोसा नहीं करते, इसके बावजूद हिंद-प्रशांत क्षेत्र में ये दोनों मिलकर काम करने की योजना बना रहे हैं तो इसकी वजह इन दोनों के अधिकारियों की वो सोच है जिसमें वो तथाकथित "बंद सैन्य-राजनीतिक गठबंधनों" को अपने लिए ख़तरे के रूप में देखते हैं. इसके विपरीत रूस और भारत के बीच इस तरह के तालमेल की कमी दिखती है. इसकी वजह ये है कि क्षेत्रीय विकास को लेकर दोनों देशों की सोच अलग है. इसके अलावा क्वाड और AUKUS (भारत, ब्रिटेन, अमेरिका) जैसे समूहों की भूमिका पर भी दोनों की राय अलग है.
हालांकि रूस के साथ रक्षा संबंध भारत के लिए अब भी प्राथमिकता बने हुए हैं. इसका सबसे बड़ा कारण उन रक्षा उपकरणों का रखरखाव सुनिश्चित करना है, जो हम रूस से खरीद चुके हैं. लेकिन यूक्रेन के साथ चल रहे युद्ध ने इस साझेदारी के पुनर्मूल्यांकन की ज़रूरत पैदा कर दी है. भारत के साथ कोई बड़े रक्षा सौदे नहीं होने और युद्ध के बाद के हालात पर नज़र रखते हुए रूस अब भारतीय रक्षा बाजार में अपनी उपस्थिति बनाए रखने की महत्वपूर्ण रणनीति के रूप में तकनीकी विशेषज्ञता के हस्तांतरण की संभावना तलाश कर रहा है. लेकिन अगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रूस और चीन के बीच बढ़ती नजदीकियां नई दिल्ली और मॉस्को के बीच बेहतर सुरक्षा संबंधों की राह में रोड़े डाल सकती हैं. इतना ही नहीं इससे भारत और रूस के समग्र संबंध भी प्रभावित हो सकते हैं.
(अलकेसाई ज़खारोव रूस की नेशनल रिसर्च यूनिवर्सिटी के हायर स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से जुड़े हैं. वो वर्ल्ड इकोनॉमी और इंटरनेशनल अफेयर्स की इंटरनेशनल लेबॉरट्री ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर स्टडीज़ में फैलो हैं.)
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