Author : Vijay Gokhale

Published on Mar 01, 2021 Updated 0 Hours ago

20वीं सदी के आखिर में जिन सवालों की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, जैसे कि क्या लोकतंत्र शासन का सर्वश्रेष्ठ तरीका है और क्या लिबरल वर्ल्ड ऑर्डर सुरक्षा और समृद्धि के लिए सबसे अच्छी वैश्विक पहल है, आज वे सवाल हकीकत बन चुके हैं

बदलता ग्लोबल ऑर्डर – चीनी नेतृत्व में समानांतर व्यवस्था के उभार से पहले ही धराशायी हुआ दुनिया का लिबरल ऑर्डर?
Sutiporn Somnam — Getty

21वीं सदी के स्टैंडर्ड्स के लिहाज़ से भी 2020 अप्रत्याशित वर्ष रहा. एक वैश्विक महामारी ने इंसानी वजूद पर इतना अधिक असर डाला, जिसका अहसास हमें 9/11 के आतंकवादी हमलों और वैश्विक वित्तीय संकट के बाद नहीं हुआ था. दुनिया के सबसे महान लोकतंत्र में राष्ट्रपति चुनाव लड़खड़ा गया और यह अमेरिका में पूरी तरह से आस्था बहाल करने में नाकाम रहा. ना ही यह अमेरिका की ग्लोबल लीडरशिप को लेकर दुनिया को आश्वस्त कर पाया. ऐसे में जब प्रशांत महासागर के एक तरफ गवर्नेंस तितर-बितर और उसकी ताकत कमज़ोर हो रही थी, वहीं इस महासागर के दूसरी ओर एक नेता हैरतंगेज ढंग से ताकतवर हो रहा था. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के हाथों में साल 2020 में इतनी ताकत थी, जितनी चेयरमैन माओ के दौर के बाद वहां के किसी नेता के हाथों में नहीं आई थी. राष्ट्रपति शी आज पार्टी की बुनियाद हैं और सरकार भी वही हैं. उन्हें देखकर लुई 14वें की याद आ जाती है, जो कहते थे कि मैं ही सरकार हूं. 21वीं सदी में शी ठीक वैसा ही कर रहे हैं.

अभी तक कोरोना महामारी पर काबू नहीं पाया जा सका है और कई देशों में इसकी नई लहर शुरू हो गई है. पश्चिमी देश संघर्ष करते दिख रहे हैं और वे दुनिया का नेतृत्व करने में नाकाम रहे हैं. ये वही पश्चिमी देश हैं, जिन्होंने लिबरल ऑर्डर की कल्पना की और उसे आकार दिया. लेकिन आज जहां वे 21वीं सदी की चुनौतियों से निपटने में नाकाम दिख रहे हैं, वहीं दूसरी ओर चीन की इकॉनमी बाकी दुनिया के मुकाबले मज़बूत बनी हुई है. इतना ही नहीं, चीन आज दूसरे देशों की मदद को तैयार दिख रहा है.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के हाथों में साल 2020 में इतनी ताकत थी, जितनी चेयरमैन माओ के दौर के बाद वहां के किसी नेता के हाथों में नहीं आई थी. 

यांग जीची चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं. दूसरे देशों के साथ रिश्तों की देखरेख के वही प्रभारी हैं. हाल में उन्होंने ‘पीपल्स डेली’ में लिखा कि दुनिया की इकॉनमिक रिकवरी में चीन की निर्णायक भूमिका रहेगी. इस तरह की सोच का मतलब यह भी है कि चीन में सरकार में शीर्ष पर बैठे लोगों को अपनी राजनीतिक व्यवस्था के भी सर्वश्रेष्ठ होने का मुगालता हो गया होगा, जिस पर उन्हें पहले से ही यकीन था. जब 21वीं सदी शुरू हो रही थी, तब यह सवाल किसी के ज़ेहन में भी नहीं आया होगा कि गवर्नेंस के लिए लोकतंत्र से बेहतर कोई तरीका हो सकता है? और क्या लिबरल वर्ल्ड ऑर्डर दुनिया की समृद्धि और सुरक्षा का सर्वश्रेष्ठ रास्ता नहीं है? लेकिन आज ये सवाल उठने लगे हैं.

लोकतांत्रिक देशों की व्यवस्था में बदलाव

ऐसा नहीं है कि सिर्फ चीन के उभार के कारण लिबरल ऑर्डर को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं. रूस ने नई सदी का सबसे बड़ा ऐलान करते हुए कहा कि वह हिंद महासागर में वापसी करेगा. उसने सूडान पोर्ट पर इसकी ख़ातिर नई फैसिलिटी बनाने की बात कही है. तुर्की भी ऑट्टोमन साम्राज्य के अपने इतिहास से प्रेरित होकर वैसी ही विस्तारवादी हरकतों के संकेत दे रहा है. वह तानाशाही व्यवस्था की तरफ भी बढ़ रहा है. आज रूस, चीन, तुर्की और ईरान के साथ आने की संभावना दिख रही है. अगर ऐसा हुआ तो इसका यूरेशिया और भारत-प्रशांत के समुद्री क्षेत्र पर असर पड़ेगा. इन हालात में दुनिया की उदारवादी ताकतों को इस पर गौर करना चाहिए कि कौन सी चीज उनके बनाए वर्ल्ड ऑर्डर को कमजोर कर रही है, जिसे वे करीब 70 वर्षों से सींचते आए हैं.

पहली नज़र में लगता है कि लिबरल वर्ल्ड ऑर्डर अपना स्वर्णिम दौर शायद ही हासिल कर पाए, लेकिन बारीक नज़र डालें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अमेरिका को फ्री-वर्ल्ड की लीडरशिप उसकी राजनीतिक व्यवस्था और आदर्शों को पसंद किए जाने के साथ उसकी आर्थिक सफलता के कारण मिली थी. तब हर कोई अमेरिकी होना चाहता था. दुनिया में कहीं भी मैकडॉनल्ड्स में जाने का मतलब खुद को अमेरिका के साथ जोड़ना और उस लिबरल ऑर्डर के साथ कनेक्ट करना था, जिसका नेतृत्व वह करता आया है. आज वह जज्बा भले ही कमजोर हो गया है, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ चीन के उभार के कारण लिबरल ऑर्डर को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं. रूस ने नई सदी का सबसे बड़ा ऐलान करते हुए कहा कि वह हिंद महासागर में वापसी करेगा. उसने सूडान पोर्ट पर इसकी ख़ातिर नई फैसिलिटी बनाने की बात कही है. 

इसमें भी दो राय नहीं कि चीन के कामयाब आर्थिक मॉडल के मुरीदों की संख्या बढ़ी है और उसे दुनिया में नए दोस्त भी मिले हैं. इसके बावजूद उसके केंद्र में आने की गारंटी नहीं दी जा सकती. अगर वह पश्चिम के लिबरल ऑर्डर का विकल्प पेश करना चाहता है तो उसे उतना ही आकर्षक और टिकाऊ मॉडल पेश करना होगा. दिक्कत यह है कि ‘चीनी खूबियों वाला समाजवाद’ नाम से ही बता देता है कि यह सिर्फ चीन के लिए है. वैश्विक मानक के रूप में इसे अपनाना मुश्किल होगा क्योंकि चीन जैसे हालात किसी अन्य मुल्क में पैदा करना संभव नहीं है. सांस्कृतिक तौर पर भी, वैश्विक पहचान के तौर पर मैकडॉनल्ड्स की जगह पीकिंग डक नहीं ले सकता. ऐसे में चीन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह लोकतंत्र और उदारवाद को ओछा बताए ताकि उसका मॉडल सुपीरियर साबित हो.

दूसरी तरफ, लिबरल ऑर्डर दोतरफा चुनौतियों का सामना कर रहा है. एक तो लोकतांत्रिक देशों में इसकी बुनियाद हिल रही है, दूसरे इस पर तानाशाही व्यवस्था वाले मुल्कों की ओर से हमले हो रहे हैं. चीन दिखाना चाहता है कि अमेरिकी नेतृत्व दुनिया को बांटने की कोशिश कर रहा है. इस तरह से इंसान के साझे भविष्य की ख़ातिर वह समुदायों को एक करने के अपने मॉडल को बेहतर बताने की फ़िराक में है.

लेकिन दुनिया के लोकतांत्रिक मुल्कों को मज़बूती से टिके रहना होगा. वहीं, अमेरिका को वैश्विक लीडर का अपना रुतबा फिर से हासिल करना होगा. उसे दुनिया भर में लोकतंत्र को मजबूत बनाने की पहल भी करनी होगी. भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. हमने यह साबित किया है कि एक बड़े और अधिक आबादी वाले विकासशील देश में भी लोकतंत्र कितने बेहतर ढंग से काम कर सकता है. भारत की तरह दूसरे देश भी हैं. अगर पश्चिम 20वीं सदी के आइडिया से बाहर निकलता है तो लोकतंत्र एक विकल्प के रूप में दुनिया का ध्यान आकर्षित कर सकता है. इस तरह से यह चीन के एक समानांतर व्यवस्था के लिए चुनौती पेश कर सकता है.

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