यदि दो अक्तूबर को ब्राजील में हुए चुनाव के विश्लेषणों को माना जाए तो इसके दो मतलब निकाले जा सकते हैं. पहला यह कि निवर्तमान राष्ट्रपति जाएर बोलसोनारो के नेतृत्व वाला बेहद कमजोर अभियान बोल्सोनारिस्मो बोल्सोनारिस्मोसबसे बड़ा विजेता बनकर उभरा है. लेकिन उसे मिली बढ़त के बावजूद पूर्व राष्ट्रपति लुइज इंसियो ‘लूला’ डीसिल्वा को 30 अक्तूबर को होने वाले चुनाव के दूसरे दौर में बढ़त मिलने की काफी संभावनाएं दिखाई दे रही हैं.
इससे एक सवाल यह उठता है कि क्या सच में, बोल्सोनारिस्मो इन चुनावों का सबसे बड़ा विजेता बनकर उभरा है? कुछ मायनों में यह सच है, क्योंकि बोलसोनारो के सहयोगियों ने ब्राजील कांग्रेस में काफी सीटें जीती, जबकि उनके कुछ गर्वनर भी चुने गए. चेंबर ऑफ डेप्यूटीज में सबसे ज्यादा वोटों के साथ जीत दर्ज कर अपना स्थान बनाने वाले उम्मीदवार 26 वर्षीय निकोलास फेरीरा, बोलसोनारो के ही सहयोगी हैं. इसके बावजूद बोलसोनारो के सहयोगी ब्राजील की कांग्रेस के किसी भी सदन पर नियंत्रण हासिल नहीं कर सके. यह श्रेय मिला है सेंट्राओ को, जिसकी बड़ी छत तले एकत्रित दलों का न तो दक्षिणपंथ और न ही वामपंथी राजनीति से कोई लेना-देना है.[1]
क्या सच में, बोल्सोनारिस्मो इन चुनावों का सबसे बड़ा विजेता बनकर उभरा है? कुछ मायनों में यह सच है, क्योंकि बोलसोनारो के सहयोगियों ने ब्राजील कांग्रेस में काफी सीटें जीती, जबकि उनके कुछ गर्वनर भी चुने गए.
यह तर्क दिया जा सकता है कि ब्राजील के इस चुनाव में सबसे बड़ा विजेता वहां का रुढ़ीवादी राजनीतिक आंदोलन है, जो ‘‘बीफ, बाइबल और बुलेट्स’’ के त्रिकोण की वजह से दब गया था.[2] बोलसोनारो को समर्थन देने वाले बोल्सोनारिस्मो, को एक अस्थिर आंदोलन ही कहा जा सकता है. लेकिन ब्राजील का रूढ़ीवादी राजनीतिक आंदोलन काफी सुलझा हुआ है, जिसने विगत कुछ वर्षो में काफी गति हासिल की है. इसकी शुरुआत पीटी विरोधी (पार्टिडो डॉस ट्राबालहाडोरेस अथवा वर्कर्स पार्टी) लहर के रूप में हुई थी जो आगे चलकर एक गंभीर राष्ट्रीय राजनीतिक शक्ति में बदल गई. लेकिन जब बोलसोनारो ही ब्राजील के राष्ट्रपति नहीं रहेंगे तो फिर बोल्सोनारिस्मो का क्या होगा? क्या बोलसोनारो के सहयोगी उनके प्रति वफादार रहंगे या फिर तटस्थ हो जाएंगे. या फिर वे अपने स्वतंत्र निर्णय लेंगे अथवा अपना पाला बदल लेंगे? ब्राजील, आखिरकार दलबदल के लिए कुख्यात रहा है और इस प्रवृत्ति में फिलहाल, तत्काल कोई परिवर्तन आता दिखाई नहीं देता.
यह बात हमें दूसरे मुद्दे पर ले आती है : क्या लूला चुनाव के दूसरे दौर में जीत पाएंगे?
हां, लूला के जीत की संभावनाएं काफी ज्यादा दिखाई दे रही हैं. लूला को ब्राजील की कुछ बड़ी हस्तियों ने अपना समर्थन देने की घोषणा कर दी है. इसमें दो ऐसे उम्मीदवार भी शामिल हैं, सिमोन टेबेट और सीरो गोम्स (दोनों को कुल मिलाकर 7.2 प्रतिशत वोट मिले थे), जो चुनाव के अगले दौर में पहुंच पाने में सफल नहीं हुए हैं. इसी प्रकार पूर्व राष्ट्रपति फर्नाडो हेनरिक काडरेसो (रूढ़ीवादी, दक्षिणपंथी दल के सदस्य) तथा पेड्रो मलन एवं एडमर बाचा जिन्हें 1990 के दशक में ब्राजील की आर्थिक संकट से उबारने तथा प्लानो रियल के जनक के रूप में पहचाना जाता है, वे भी लूला को समर्थन देने वालों में शामिल है. इसके अलावा ब्रिटिश पत्रिका, द इकोनॉमिस्ट ने भी लूला का यह कहते हुए समर्थन किया है कि अगर उन्हें जीतना है तो उनके सामने केवल एक ही विकल्प है कि वे ‘‘केंद्र के करीब’’ खिसक जाए.
क्या बोलसोनारो के सहयोगी उनके प्रति वफादार रहंगे या फिर तटस्थ हो जाएंगे. या फिर वे अपने स्वतंत्र निर्णय लेंगे अथवा अपना पाला बदल लेंगे? ब्राजील, आखिरकार दलबदल के लिए कुख्यात रहा है और इस प्रवृत्ति में फिलहाल, तत्काल कोई परिवर्तन आता दिखाई नहीं देता.
क्या ब्राजील में सैन्य तख्तापलट या संस्थागत संकट होगा?
चुनावों के पहले दौर के बाद, अनिश्चितता के कुछ सवाल अभी भी अधर में हैं: क्या हम दूसरे दौर के बाद हिंसक विरोध देखेंगे? क्या हारने पर बोलसोनारो, राष्ट्रपति पद छोड़ने से इंकार कर देंगे? क्या सैन्य तख्तापलट होगा? क्या देश एक संस्थागत संकट का सामना करेगा?
इस तरह की निराशाजनक भविष्यवाणी जो अक्सर बढ़ा चढ़ाकर की जाती है एक सामान्य बात है, विशेषत: पश्चिमी मीडिया की दृष्टि से. लेकिन चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से निपट गए. न तो हिंसा का कोई संकेत मिला और न ही किसी तरह के फर्जीवाड़े का ही कोई दावा ही किया गया. सैन्य तख्तापलट की तो किसी ने कोई बात तक नहीं की. लूला को 48.43 प्रतिशत वोट मिले, जो पहले दौर में जीत दर्ज करने के लिए तय 50 प्रतिशत की न्यूनतम सीमा से कुछ ही कम थे, जबकि बोलसोनारो 43.20 प्रतिशत वोट लेकर उनके काफी करीब रहे.
कभी-कभी सिविल सोसायटी यानी नागरी समाज के पात्र भी इस बात का सटीक चित्रण करते हैं कि राजनीति से क्या उम्मीद की जाएं. एक सैन्य तख्तापलट की संभावना की चर्चा के बीच ब्राजील में देश के सबसे प्रसिद्ध रचनात्मक समूह, पोर्टा डॉस फंडोस,[3] ने दो छोटे हास्य नाटक प्रकाशित किए, जिसमें सैन्य अधिकारियों को तख्तापलट की योजना बनाते दिखाया गया हैं. इसमें से एक ब्रासीलिया में बनी योजना दर्शाता है, जबकि दूसरा रियो डी जनेरियो में बनाई जा रही योजना की बात करता है. दोनों ही मामलों में तख्तापलट पूर्णत: विफल हो जाता है. ब्रासीलिया में सैन्य अधिकारी तय करते है कि तख्तापलट से ज्यादा महत्वपूर्ण, स्वतंत्रता दिवस की छुट्टियों में अपने परिवार के साथ वक्त गुजारना या ब्राजील के मशहूर कार्निवल और संगीत समारोहों का आनंद उठाना है. इस प्रकार रियो में सैन्य अधिकारी रियो में मौजूद माफिया और उग्रवादियों का मुकाबला करने की धारणा से ही हतोत्साहित हो जाते हैं और इसके बदले में वे स्थानीय क्लब में सैन्य अधिकारियों के लिए बीयर और बर्फ के साथ बारबेक्यू पार्टी का आयोजन करना बेहतर मानते हैं.
लूला को 48.43 प्रतिशत वोट मिले, जो पहले दौर में जीत दर्ज करने के लिए तय 50 प्रतिशत की न्यूनतम सीमा से कुछ ही कम थे, जबकि बोलसोनारो 43.20 प्रतिशत वोट लेकर उनके काफी करीब रहे.
यह हास्य नाटक एकदम सटीक चित्र दर्शाते हुए देश की भावनाओं को प्रतिबिंबित कर रहे थे. रायटर से बात करते हुए ब्राजीली सेना के उच्चाधिकारियों ने एक बार पुन: यह आश्वासन दिया कि तख्तापलट का तो सवाल ही नहीं उठता. इन अधिकारियों के अनुसार, ‘‘सेना के कमांडर्स इस तरह का कोई भी जोखिम उठाने और उसमें शामिल होने का दुस्साहस करने की सोच भी नहीं सकते.’’
सच तो यह है कि 2013 से ही लगातार होने वाले राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संकटों के दुष्चक्र का मुकाबला करते-करते अब ब्राजील की जनता भी त्रस्त हो गई है. ब्राजील के सामान्य नागरिकों के साथ-साथ वहां की सरकारी संस्थाओं ने भी विगत एक दशक के अधिकांश समय में आर्थिक मंदी, कोविड-19, नौकरियां गंवाने, महंगाई, मुद्रा का अवमूल्यन और बढ़ती हुई हिंसा का सामना किया है. बोलसोनारो यदि राष्ट्रपति का पद छोड़ने से इंकार भी करते हैं, तो ब्राजील के नागरिक चाहेंगे कि सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण तरीके से हो. वहां का सर्वोच्च न्यायालय, ब्राजील का चुनाव प्राधिकरण, राजनीतिक नेता और सेना भी इस धारणा से सहमति जता चुकी है.
बोल्सोनारिस्मो का अनिश्चित भविष्य और संभावित लूला सरकार
भले ही बोल्सोनारिस्मो की फिलहाल सभी जगह चर्चा हो रही हो, लेकिन इसका भविष्य अनिश्चित ही लग रहा है. हाल के चुनावों ने बोल्सोनारिस्मो को संस्थागत होने में सहायता की है, लेकिन ब्राजील की कांग्रेस और गवर्नरों पर बोलसोनारो के सहयोगियों का ही वर्चस्व है. 2018 के चुनाव के बाद ऐसी स्थिति नहीं थी. अभी यह देखा जाना बाकी है कि क्या सहयोगियों का यह कमजोर समूह, बंदूक-नियंत्रण,
अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और ‘‘बीफ, बाइबल और बुलेट्स’’ लॉबी के अधिक तुष्टिकरण से संबंधित सुधारों और कानूनों को पारित करने के मुद्दे पर एकजुट होगा या नहीं. एक और चुनौती नेतृत्व को लेकर भी है : यदि बोलसोनारो इस रूढ़ीवादी राजनीतिक आंदोलन का चेहरा बने नहीं रह सकते तो क्या कोई अन्य राजनीतिक नेता यह चुनौती स्वीकार करेगा? इसमें संभवत: बोलसोनारो के पुत्र एडुआडरे, फ्लेवियो अथवा कालरेस के नाम शामिल हैं.
अगर लूला राष्ट्रपति चुने भी जाते हैं, तो भी वे उस तरह शासन नहीं कर सकेंगे, जिस प्रभावशाली तरीके से उन्होंने 2003 से 2011 के बीच शासन किया था. पहली बात तो यह है कि उनके पास कांग्रेस के दोनों सदनों का बहुमत नहीं होगा.
हमें यह याद रखना होगा कि ब्राजील का रूढ़ीवादी राजनीतिक आंदोलन, बोल्सोनारिस्मो से कहीं ज्यादा बड़ा है. इसकी शुरुआत बोलसोनारो के चर्चा में आने से पहले हुई थी और यह बोलसोनारो की राजनीतिक पारी समाप्त होने के बाद भी यह जारी रहेगा.
अगर लूला राष्ट्रपति चुने भी जाते हैं, तो भी वे उस तरह शासन नहीं कर सकेंगे, जिस प्रभावशाली तरीके से उन्होंने 2003 से 2011 के बीच शासन किया था. पहली बात तो यह है कि उनके पास कांग्रेस के दोनों सदनों का बहुमत नहीं होगा. और फिर उन्हें विपक्षी गर्वनरों और प्रतिद्वंद्वियों मसलन सीनेटर सजिर्यो मोरो, जिन्होंने 2018 में लूला की गिरफ्तारी में अहम भूमिका अदा की थी, से भी काम चलाना होगा. लूला को आम सहमति बनाने के लिए मध्यमार्गी और रूढ़ीवादियों को अधिक खुश रखना होगा. उन्हें संभवत: बड़े व्यवसायियों को खुश करने के लिए उदारवादी या रूढ़ीवादी अर्थशास्त्रियों को नियुक्त भी करना पड़ेगा.
लूला की लोकप्रियता ने काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं. 2000 की शुरुआत में ब्राजील को आर्थिक सफलता दिलवाकर वे ब्राजील का चेहरा बनकर उभरे थे, जबकि 2018 में देश ने उनको एक भ्रष्टाचारी और दागी नेता के रूप में गिरफ्तार होते हुए भी देखा है. 2022 में बोलसोनारो के विकल्प के रूप में उनकी छवि पुनर्जीवित हुई है. इसी वजह से वे निवर्तमान राष्ट्रपति के मुकाबले अधिक वोट हासिल करने वाले उम्मीदवार के रूप में उभरे हैं.
30 अक्टूबर को अगले दौर का चुनाव, राष्ट्रपति पद की दौड़ नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक विरासत को मजबूत करने की एक लड़ाई है. जहां लूला खुद को ब्राजील के इतिहास में सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए लड़ रहे हैं, वहीं बोलसोनारो ब्राजील की ‘बीफ, बाइबल और बुलेट्स’ के रूढ़ीवादी आंदोलन के चेहरे के रूप में अपनी जगह सुरक्षित करने की कोशिश में हैं.
[1] Although the Centrão does not subscribe to any ideology, they do tend to swerve more to the center-right.
[2] ‘Beef’ here refers to the influential agricultural lobby in Brazil; ‘bible’ denotes the large conservative Christian movement that brings together conservative Evangelicals, Protestants, and Catholics; and ‘bullets’ refers to the pro-gun lobby and those who support a more aggressive state approach to combat violence and drug trafficking.
[3] Porta dos Fundos is highly popular in Brazil, and has a YouTube channel with more than 6 billion views, as well as an international comedy Emmy and has produced content for Netflix, HBO, and Comedy Central.
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