हाल के वर्षों में बलूचिस्तान में कुछ बहुत ही असाधारण घटना घट रही है. ऐसी घटना जिसके बारे में न तो पूरी तरह से ख़बर आई है, न ही इसकी तरफ पूरा ध्यान दिया गया है. इसकी वजह ये है कि ये प्रांत मीडिया और सूचना के मामले में एक काल कोठरी है और इस घटना के पीछे ऐसे लोग शामिल हैं जो उन देशों के लिए कभी प्राथमिकता नहीं रहे हैं जो लोकतंत्र, मानवाधिकार, कानून के शासन और दूसरे ऐसे ही भारी-भरकम शब्दों की अच्छाई को बढ़ावा देते हैं. लंबे समय तक बलोच राष्ट्रवाद को कुचला गया, दमन किया गया और उस पर ज़ुल्म ढाया गया लेकिन अब ये जाग रहा है. बेहद पारंपरिक, रूढ़िवादी, कट्टर और आदिवासी समाज एवं संस्कृति, जो कि सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष- दोनों है, उसको युवा महिलाओं के द्वारा अपने बुनियादी राजनीतिक और मानवाधिकार के लिए उठ खड़े होने के मक़सद से प्रेरित किया जा रहा है. शायद पहली बार एक व्यापक उद्देश्य के तहत बिखरी हुई राजनीति एकजुट हो रही है. ताकतवर पाकिस्तान सेना और उसके मददगार बलूचिस्तान में लोगों के इस आंदोलन से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर असमंजस में हैं. शायर हबीब जलीब ने लिखा है “डरते हैं बंदूकों वाले एक निहत्थी लड़की से”. इसका इस्तेमाल मलाला यूसुफ़ज़ई पर हमले के बाद तहरीक-ए-तालिबान को शर्मसार करने के लिए शानदार तरीके से किया गया था. लेकिन ये शब्द बलूचिस्तान पर और अधिक लागू होता है जहां मुखर, साहसी और कभी न थकने वाली डॉक्टर महरंग बलोच यहां के लोगों की जागरूकता का चेहरा बन गई हैं.
बेहद पारंपरिक, रूढ़िवादी, कट्टर और आदिवासी समाज एवं संस्कृति, जो कि सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष- दोनों है, उसको युवा महिलाओं के द्वारा अपने बुनियादी राजनीतिक और मानवाधिकार के लिए उठ खड़े होने के मक़सद से प्रेरित किया जा रहा है.
1948 में पाकिस्तान के द्वारा ज़बरन कब्ज़ा किए जाने के बाद से बलूचिस्तान अपने पांचवें विद्रोह के दौर से गुज़र रहा है. ताज़ा विद्रोह की शुरुआत 2000-01 के आसपास हुई जब बलोच लड़ाकों (मिलिटेंट) ने नज़दीक की पहाड़ियों से पाकिस्तानी सेना की क्वेटा छावनी पर निशाना साधना शुरू किया. लेकिन पूरी तरह से बग़ावत की शुरुआत 2006 में हुई जब पाकिस्तानी सेना ने बुजुर्ग बलोच आदिवासी प्रमुख नवाब अकबर बुगती की हत्या की. उस समय से विद्रोह कभी कम होता है तो कभी आगे बढ़ता है. सैकड़ों लोगों की हत्या हुई है और उससे भी ज़्यादा लोगों को ज़ुल्म और यातना का शिकार होना पड़ा और उन्हें ज़बरन गायब कर दिया गया है. लेकिन बलोच प्रतिरोध को ख़त्म करना तो दूर, पाकिस्तानी सेना के द्वारा इस्तेमाल की गई बेढब रणनीतियों और बेरहम ताकत (जिसमें सरकार के द्वारा प्रायोजित हत्यारों के दस्तों का इस्तेमाल शामिल है) ने बलोचों के असंतोष और संकल्प को और बढ़ाया है. वास्तव में, महरंग बलोच समेत बलूचिस्तान में जन आंदोलन का नेतृत्व करने वाले कई नेता उन बलोच स्वतंत्रता सेनानियों के खानदान से जुड़े हुए हैं जिनकी या तो पाकिस्तान के हुकूमत ने हत्या कर दी या जो ‘लापता’ हो गए. वो ज़ुल्म के शिकार हैं जो सरकार के द्वारा बड़े पैमाने पर किए जा रहे आक्रमण का विरोध कर रहे हैं.
उग्रवादी आंदोलन
2021-22 के बाद से बलूचिस्तान के आंदोलन ने अपना नज़रिया बदल लिया है. लड़ाकू और राजनीतिक आंदोलन एक साथ आगे बढ़े हैं और दोनों को काफी लोकप्रियता मिल रही है. पाकिस्तानी हुकूमत के ख़िलाफ़ दुस्साहस के साथ-साथ उग्रवादी आंदोलन के हमलों का पैमाना काफी बढ़ गया है. घात लगाकर किए गए हमलों और IED विस्फोटों के अलावा बलोच लड़ाकों ने सैन्य चौकियों, छावनियों और यहां तक कि एक नौसैनिक अड्डे पर भी हमला किया है. पाकिस्तानी हुकूमत के ख़िलाफ़ आत्मघाती हमले भी किए गए हैं. आत्मघाती हमलों के लिए बहुत ज़्यादा पढ़ी-लिखी महिलाओं का भी इस्तेमाल किया गया है. बलूचिस्तान के सूत्रों के मुताबिक बलोच लड़ाके हथियारों से अच्छी तरह लैस और काफी प्रशिक्षित हैं. उनके निशान और प्रभाव का बहुत ज़्यादा विस्तार हुआ है और कुछ इलाके तो ऐसे हैं जहां पाकिस्तानी सेना जाने से बचती है. बलोच लड़ाके इलाके के भूगोल का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं और लोगों से जो समर्थन उन्हें मिलता है, उससे उनकी ताकत कई गुना बढ़ जाती है. पाकिस्तानी सेना जिस क्रूरता से कार्रवाई करती है उससे बलोच लड़ाकों के समर्थन का आधार और बढ़ता है और डॉ. अल्लाह नज़र बलोच जैसे उनके कुछ नेता तो जीते-जागते किवदंती (लेजेंड) बन गए हैं.
इसके साथ-साथ राजनीतिक आंदोलन को भी लोगों का बहुत ज़्यादा समर्थन मिला है. वैसे तो मामा क़दीर जैसे बलोच आंदोलनकारियों ने अतीत में लॉन्ग मार्च निकाला था- हालांकि ये रावलपिंडी से इस्लामाबाद या लाहौर से इस्लामाबाद, वो भी लैंड क्रूज़र या दूसरी पसंदीदा SUV की सुविधा के साथ, के सामान्य पंजाबी स्टाइल वाले लॉन्ग मार्च की तरह नहीं थे- लेकिन वो महरंग बलोच और बलोच यकजेहटी कमेटी (BYC) के समान बलोच लोगों के दिलो-दिमाग पर छाने में कामयाब नहीं रहे थे.
बलोच लड़ाके इलाके के भूगोल का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं और लोगों से जो समर्थन उन्हें मिलता है, उससे उनकी ताकत कई गुना बढ़ जाती है.
BYC का लॉन्ग मार्च 2023 के आख़िर में उस समय परिदृश्य में आया जब एक युवा बलोच आंदोलनकारी की गैर-कानूनी हत्या के ख़िलाफ़ बड़ा प्रदर्शन चल रहा था और ये इस्लामाबाद तक लॉन्ग मार्च में बदल गया. पाकिस्तान की राजधानी तक के पूरे रास्ते में मार्च में शामिल लोगों को पाकिस्तान की सरकार के द्वारा परेशान किया गया, गिरफ़्तार किया गया और उनके रास्ते में अड़चन डाली गई. पाकिस्तान की मुख्यधारा के मीडिया ने मार्च के आयोजकों के ख़िलाफ़ बेहद फूहड़ ख़बरें छापीं लेकिन कोई भी रुकावट उन्हें रोक नहीं पाई. इस्लामाबाद में धरने के दौरान उन्हें मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मुहैया कराई गई. जवाबी प्रदर्शन के लिए लाए गए भाड़े के गुंडों का इस्तेमाल करके और उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह का केस दायर करके उन्हें धमकाने की कोशिश भी की गई. जिस समय धरना ख़त्म हुआ और मार्च में शामिल लोग बलूचिस्तान लौटे तब तक महरंग बलोच एक योद्धा की तरह बन गई थीं, लगभग किसी लेजेंड की तरह, इतनी बड़ी कि पाकिस्तान की हुकूमत को भी लगा कि उन्हें शारीरिक रूप से ख़त्म करना मुश्किल है. पाकिस्तान की सरकार के लिए इससे भी ख़राब बात ये थी कि बलोच राष्ट्रवाद की अगुवाई करने वाली महिला की प्रतिष्ठा को धूमिल करने की पाकिस्तानी सेना की सभी कोशिशें नाकाम हो गईं और किसी ने भी इसका समर्थन नहीं किया.
आख़िरकार जून में BYC ने मूलभूत राजनीतिक, नागरिक और यहां तक कि मानवाधिकार को नकारे जाने के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने के लिए ग्वादर में बलूचिस्तान प्रांत के अलग-अलग हिस्सों के लोगों को साथ लाकर एक ‘बलोच राजी मुची’ (बलोच राष्ट्रीय सभा) आयोजित करने का फ़ैसला किया. इससे भी महत्वपूर्ण बात है कि ये साझा मक़सद के लिए सभी बलोच लोगों को एकजुट करने का प्रयास था. इसके कारण बलूचिस्तान में इतने बड़े पैमाने पर लोग इकट्ठा हुए जो कभी नहीं देखा गया था. हर तरह की रुकावट के बावजूद लोगों ने मुश्किल हालात का डटकर सामना किया और ग्वादर तक पहुंचने के लिए ज़ुल्मी ताकतों को ललकारा. ग्वादर एक बंदरगाह शहर है जो कई मायनों में बलूचिस्तान की जनता के शोषण और दमन का प्रतीक है. ग्वादर एक ऐसा शहर है जहां चीन की ख़ूब चलती है और जिसे 17वीं शताब्दी में यूरोपीय उपनिवेशवादियों के द्वारा स्थापित ‘फैक्ट्री’ के 21वीं शताब्दी के समकक्ष देखा जाता है. राष्ट्रीय सभा की इतनी गूंज सुनाई दी कि जो लोग ग्वादर तक नहीं पहुंच पाए उन्होंने अपने-अपने शहरों और कस्बों में असरदार प्रदर्शन का आयोजन किया. राष्ट्रीय सभा को मिली प्रतिक्रिया देखकर पाकिस्तान की परेशान सरकार और उसके स्थानीय सहयोगी जैसे कि मुख्यमंत्री सरफ़राज़ बुगती हैरान रह गए.
बलोच राजी मुची कई मायनों में पाकिस्तान की सरकार के द्वारा बलूचिस्तान के लोगों को बांटने और उन पर शासन करने की सभी चालों को उजागर करने का संकेत देती है. क्षेत्रीय और आदिवासी समाज के बंटवारे, यहां तक कि राजनीतिक संबंध भी, को तोड़कर बलूचिस्तान के लोग बलोच राष्ट्रवाद के उद्देश्य के लिए एक साथ आते नज़र आए. सरफ़राज़ बुगती या सीनेट के पूर्व अध्यक्ष सादिक़ संजरानी जैसे राजनीतिक कारोबारी, जिन्हें पाकिस्तान की सरकार ने आगे बढ़ाया, प्रायोजित किया और पैसा दिया, बहुत ख़राब तस्वीर पेश करते हैं और पाकिस्तान के लोगों के साथ उनके संपर्क की कमी साफ तौर पर दिखती है. यहां तक कि स्थापित राजनेता और आदिवासी मुखिया भी पूरी तरह से महत्वहीन हो गए हैं. मजबूर होकर वो BYC और महरंग बलोच का साथ दे रहे हैं ताकि बलोच आबादी के बीच वो कुछ हद तक प्रासंगिक बने रहें. जमात-ए-इस्लामी के मौलाना हिदायत उर रहमान जैसे नेता, जिन्होंने ग्वादर में हक़ दो तहरीक का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया था, बलूचिस्तान में हिंसा की वजह से सरकार के साथ अपना संपर्क तोड़ने और राष्ट्रीय सभा का साथ देने के लिए मजबूर हो गए. जब राष्ट्रीय सभा की जगह ग्वादर से बदलकर तुरबत हुई तो महरंग बलोच और उनके साथियों का पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ नारे लगाकर ज़ोरदार स्वागत किया गया.
बलोच राजी मुची कई मायनों में पाकिस्तान की सरकार के द्वारा बलूचिस्तान के लोगों को बांटने और उन पर शासन करने की सभी चालों को उजागर करने का संकेत देती है. क्षेत्रीय और आदिवासी समाज के बंटवारे, यहां तक कि राजनीतिक संबंध भी, को तोड़कर बलूचिस्तान के लोग बलोच राष्ट्रवाद के उद्देश्य के लिए एक साथ आते नज़र आए.
इसको लेकर कोई विवाद नहीं है कि महिलाओं और युवा आंदोलनकारियों ने पाकिस्तानी हूकूमत को हिला दिया है और बलोच राष्ट्रवाद को सक्रिय किया है. ताकतवर पाकिस्तानी सेना की हालत ये हो गई है कि सेना के मुख्य प्रवक्ता कहते हैं कि “बलोच यकजेहटी कमेटी आतंकवादियों और आपराधिक माफिया की प्रतिनिधि (प्रॉक्सी)” है. ये विडंबनापूर्ण है क्योंकि वास्तव में बलूचिस्तान के लोग पाकिस्तानी सेना पर ज़बरन वसूली और सुरक्षा का रैकेट चलाने, मानव एवं नशीले पदार्थों की तस्करी के नेटवर्क को संरक्षण देने और ईरान से तस्करी के ज़रिए लाए गए तेल, जो कि अधिकारियों की मिलीभगत के बिना संभव नहीं है, से फायदा उठाने का आरोप लगाते हैं. स्थिति चाहे कुछ भी हो लेकिन BYC के ख़िलाफ़ सेना के नैरेटिव का कोई असर नहीं है और BYC ऐसे कई कदम उठाने में कामयाब रही है जिसमें पहले के आंदोलन नाकाम साबित हुए हैं.
बलोच महिलाओं का आंदोलन
BYC ने बलूचिस्तान के मध्य वर्ग के लोगों के बीच से एक नया नेतृत्व पेश किया है. अब ट्राइबल नेताओं का दबदबा नहीं है. नए नेता पढ़े-लिखे, मक़सद को लेकर ईमानदार और मुखर हैं. वो प्रतिरोध और लामबंदी का मतलब जानते हैं जिसे वो न केवल बलूचिस्तान के भीतर बल्कि बाकी दुनिया तक भी प्रभावशाली ढंग से पहुंचाते हैं. वो लोगों और दुनिया तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए आधुनिक संचार के उपकरणों का शानदार इस्तेमाल करते हैं. साथ ही मीडिया पर सभी पाबंदियों और इंटरनेट पर रोक को दरकिनार कर देते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि बलोच आंदोलनकारियों ने राजनीतिक, संवैधानिक और आर्थिक मुद्दों पर अपने लक्षित लोगों (टारगेट ऑडिएंस) के साथ आंदोलन किया है और उनके साथ जुड़े हैं. इसके लिए उन्होंने उग्रवादी गतिविधि या हिंसा या फिर अलगाववाद का खुलकर सहारा नहीं लिया है. ये देखते हुए कि बलूचिस्तान के लोगों का रोज़ का अनुभव पाकिस्तान की सरकार या उसके गुर्गों के द्वारा संरक्षण देने के दुष्प्रचार के दावों से पूरी तरह अलग है, ऐसे में उसका कोई समर्थक नहीं है. पाकिस्तान की सरकार पर जब संविधान में बताए गए अधिकारों के उल्लंघन या इनकार का आरोप लगता है तो उसके पास चेहरा छिपाने के लिए जगह नहीं बचती है. उस पर पंजाब एवं सिंध में यूनिवर्सिटी के छात्रों समेत राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गैर-कानूनी हत्या और ज़बरन गायब करने में शामिल होकर कानून तोड़ने के आरोप लगते हैं. उस पर खुलेआम चुनाव के नतीजों में हेराफेरी करने और राजनीतिक दलबदल के ज़रिए कठपुतली सरकार बनाने का आरोप लगाया जाता है. आसान शब्दों में कहें तो पाकिस्तानी हुकूमत के अत्याचार ने बलोच आंदोलनकारियों को अधिक नैतिक आधार मुहैया कराया है जिसका उन्होंने काफी असरदार इस्तेमाल किया है.
BYC और महरंग बलोच ने एक मायने में असंभव को संभव कर दिखाया है. इतना ही उल्लेखनीय ये तथ्य है कि पद के लिए खींचतान या किसी एक व्यक्ति को ताकत सौंपने की कोशिश नहीं है. BYC ने दूसरी पंक्ति का नेतृत्व काफी मज़बूत बनाया है जिसमें पुरुष और सम्मी दीन बलोच जैसी महिलाएं शामिल हैं.
राजनीतिक चतुराई के अलावा ये तथ्य कि बलोच महिलाएं आंदोलन का नेतृत्व कर रही हैं, किसी क्रांति से कम नहीं है. ये सिर्फ बलूचिस्तान, जहां सार्वजनिक जीवन में कभी भी महिलाओं की बहुत ज़्यादा भूमिका नहीं रही, के लिए ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के लिए भी एक क्रांति है जहां महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर भी आम तौर पर भाई-भतीजावाद के आधार पर चयन होता है. BYC के द्वारा एक राष्ट्रीय सभा आयोजित करना एक उल्लेखनीय सफलता है. लंबे समय से बलूचिस्तान में मुक्ति संग्राम का नेतृत्व करने के लिए एक राष्ट्रीय पार्टी की आवश्यकता को लेकर चर्चा चल रही है. लेकिन समाज की बंटवारे वाली प्रवृत्ति, पारंपरिक नेताओं के अहंकार, आदिवासियों में विभाजन और सरकार के दखल के कारण बलूचिस्तान से ये हमेशा दूर रही. BYC और महरंग बलोच ने एक मायने में असंभव को संभव कर दिखाया है. इतना ही उल्लेखनीय ये तथ्य है कि पद के लिए खींचतान या किसी एक व्यक्ति को ताकत सौंपने की कोशिश नहीं है. BYC ने दूसरी पंक्ति का नेतृत्व काफी मज़बूत बनाया है जिसमें पुरुष और सम्मी दीन बलोच जैसी महिलाएं शामिल हैं.
बलोच राष्ट्रवादियों ने हाल के वर्षों में काफी तरक्की की है लेकिन उन्हें अभी लंबी दूरी तय करनी है. उनका काम सिर्फ राष्ट्रीय सभा को एक ठोस और संगठित राष्ट्रीय आंदोलन में तब्दील करना नहीं है बल्कि अपनी मांगों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक, कूटनीतिक और नैतिक समर्थन हासिल करना भी है. उन्हें पंजाब के दबदबे वाली पाकिस्तानी सरकार और ‘डीप स्टेट’ (सेना) से बड़े स्तर के जवाबी हमले का सामना करने के लिए भी ख़ुद को तैयार रखना होगा. बलूचिस्तान में आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए एक असाधारण संघर्ष चल रहा है और इस महत्वपूर्ण भू-रणनीतिक क्षेत्र में जो कुछ चल रहा है, उसकी तरफ दुनिया को बहुत अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है.
सुशांत सरीन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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