तीनों सेनाओं के बीच तालमेल बढ़ाने और उनके संसाधनों के अधिकतम इस्तेमाल के लिए इस वक़्त जो सुधार किए जा रहे हैं, उनको लेकर जितने मुंह उतनी बातों का सिलसिला चल रहा है. मौजूदा जनरल हों या फिर रिटायर्ड ऑफिसर, इन सुधारों के फ़ायदों और नुक़सान को लेकर सबके अपने और अलग तर्क हैं. जब एक जनवरी 2020 को सरकार ने देश के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) को नियुक्त किया था और भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के तहत सैन्य मामलों का विभाग बनाकर CDS को उसका सचिव बनाया था, तब इस क़दम को दूरगामी, साहसिक और परिवर्तन की दिशा में बढ़ाया गया निर्णायक क़दम करार दिया गया था. तीनों सेनाओं के मामलों में रक्षा मंत्री का प्रमुख सलाहकार होने के अलावा, CDS के काम और ज़िम्मेदारियों में से एक ये भी था कि वो चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी के स्थायी अध्यक्ष के रूप में काम करेंगे. इस तरह से DMA की ज़िम्मेदारियों में, ‘’सैन्य कमानों के बीच तालमेल बढ़ाना और उनका पुनर्गठन करना भी था, जिससे साझा अभियान चलाकर संसाधनों का अधिक इस्तेमाल हो सके और इसके लिए साझा या थिएटर कमानों की स्थापना की जाए.’
संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल, सेना की ताक़त इस्तेमाल करने में एकजुटता लाकर किया जा सकता है. ऐसा तब अपने आप हो जाएगा, जब किसी भी संभावित स्थिति में सेनाओं को राष्ट्रीय शक्ति के तौर पर इस्तेमाल करने का लक्ष्य साधने के साथ साथ, जल, थल और वायुशक्ति को उनके सैद्धांतिक नियमों के हिसाब से समझा जाए.
संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल, सेना की ताक़त इस्तेमाल करने में एकजुटता लाकर किया जा सकता है. ऐसा तब अपने आप हो जाएगा, जब किसी भी संभावित स्थिति में सेनाओं को राष्ट्रीय शक्ति के तौर पर इस्तेमाल करने का लक्ष्य साधने के साथ साथ, जल, थल और वायुशक्ति को उनके सैद्धांतिक नियमों के हिसाब से समझा जाए. इस तरह से साझा अभियानों चलाने के लिए पहले, मिल-जुलकर योजना बनाने की शर्त पूरी करनी होगी. इस नज़रिए से देखें तो तीनों सेनाओं के साझा अभियान चलाने के लिए, साझा या थिएटर कमान की स्थापना की ज़रूरत ही नहीं लगती. ये तो ऐसे ही है कि घोड़े से पहले घोड़ागाड़ी को लगा दिया जाए.
CDS का संचालन
मिल-जुलकर योजनाएं बनाने के ढांचे हमारी सेनाओं के बीच दशकों से मौजूद हैं. अगर उन्होंने ठीक से अपना मक़सद पूरा नहीं किया है, तो या तो उन ढांचों को ख़त्म करने की ज़रूरत है, या फिर तार्किक सैन्य सोच और रणनीति के साथ उन्हें और मज़बूत बनाने की आवश्यकता है. DMA के सचिव के तौर पर काम करते हुए चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की भूमिका रक्षा मंत्री के सलाहकार की होती है, जो तीनों सेनाओं की तरफ़ से सरकार को सलाह देते हैं. वो चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी के स्थायी चेयरमैन के तौर पर भी काम करते हैं, जो तीनों सेनाओं के प्रमुखों के ऊपर का दर्जा है. इसका मतलब असल में ये है कि CDS का ओहदा कार्य संचालक का होता है, भले ही ये बात उनके दायित्वों में लिखित तौर पर न मौजूद हो. जब हम थिएटर या ज्वाइंट कमान के ढांचे को लेकर चर्चा कर रहे हैं, तो इस कमी को भी दूर किए जाने की ज़रूरत है. सेनाओं के पुनर्गठन और पुनर्संरचना के पीछे ठोस तर्क और विचारों की स्पष्टता होनी चाहिए; ये काम किसी एक सेना के संकीर्ण हितों की पूर्ति के लिहाज़ से नहीं होना चाहिए. इस बात को लेकर आत्मविश्वास और यक़ीन होना चाहिए कि सेनाओं का पुनर्गठन राष्ट्रीय हित में किया जा रहा है. और, ये तभी हो सकता है जब बड़ा लक्ष्य हासिल करने के लिए पूर्वाग्रह और किसी सेना के साथ पक्षपात को परे रखकर काम किया जाए.
CDS के चार्टर में ये भी कहा गया है कि, ‘मूलभूत ढांचे के अधिकतम उपयोग और सेवाओं के बीच एकजुटता लाकर इसको तार्किक बनाना’, और ‘तीनों सेनाओं के काम में इस तरह सुधार लाना जिससे बेकार के ख़र्च कम हों और सैन्य बलों के युद्ध लड़ने की क्षमता बढ़ाई जा सके.
CDS के चार्टर में ये भी कहा गया है कि, ‘मूलभूत ढांचे के अधिकतम उपयोग और सेवाओं के बीच एकजुटता लाकर इसको तार्किक बनाना’, और ‘तीनों सेनाओं के काम में इस तरह सुधार लाना जिससे बेकार के ख़र्च कम हों और सैन्य बलों के युद्ध लड़ने की क्षमता बढ़ाई जा सके.’ तीनों सेनाओं के ऐसे बहुत से स्थायी ठिकाने हैं, जो देश में एक ही जगह पर स्थित हैं. लेकिन, उनका प्रशासन और प्रबंधन अलग अलग सेनाएं करती हैं. इससे संसाधनों का और मानव संसाधनों का दुरुपयोग होता है, और इन ठिकानों की स्थापना और संचालन में बेवजह का ख़र्च भी होता है. मिसाल के तौर पर भारतीय थल सेना इन ठिकानों को सब-एरिया या फिर एरिया हेडक्वार्टर के ज़रिए संचालित करती है, जो मौजूदा क्षेत्रीय कमानों के अंतर्गत आते हैं. इसी तरह, भारतीय नौसेना के भी पूरे देश में क्षेत्रीय मुख्यालय हैं, जिन्हें क्षेत्रों के हिसाब से बांटा गया है, और जिनकी ज़िम्मेदारी फ्लैग ऑफिसर्स के पास होती है. तीनों सेनाएं अपने मौजूदा एरिया या सब-एरिया हेडक्वार्टर्स को आपस में मिलाकर इन सेना या नौसेना के ठिकानों का प्रबंधन मिलजुल कर कर सकते हैं और ग़ैर ज़रूरी मानव संसाधनों में कमी कर सकते हैं. इससे बेवजह का ख़र्च कम होगा और एक ही काम के लिए दो दो सेनाों के संसाधनों का दुरुपयोग भी नहीं होगा. इसी तरह सेनाओं का ख़र्च कम करने के लिए कुछ विभागों को तो या आपस में मिला दिया जाए या फिर उन्हें ख़त्म कर दिया जा सकता है. मिसाल के तौर पर ऑफिसर्स मेस, मेडिकेयर सेंटर, किसी यूनिट की कैंटीन वग़ैरह को आपस में मिलाकर एक ही इकाई का हिस्सा बनाया जा सकता है.
बेवजह की ऐसी परिचर्चाओं से बचने की आवश्यकता है, जिससे सेना और अकादमी सामरिक समुदाय के बीच कड़वाहट और एक दूसरे के प्रति नफ़रत पैदा हो.
भविष्य के युद्धों के लिए अंतरिक्ष और साइबर क्षेत्र में अधिक नियुक्तियां करनी होंगी. अपने दुश्मनों के साथ संघर्ष के दौरान सेनाओं के स्पेशल फोर्स की भूमिका भी बढ़ जाएगी. इसके लिए स्पेशल फोर्सेज़ को पूरी तरह से ज्वाइंट और एकीकृत कमान के तहत विकसित करने की ज़रूरत है, जो CDS के अंतर्गत काम करेंगी. मौजूदा अंडमान और निकोबार कमान और स्ट्रैटेजिक फोर्स कमांड के साथ मिलकर ये कमान, प्रस्तावित साझा युद्ध अभियान की संरचनाओं के परीक्षण का ज़रिया बन सकती हैं. सेनाओं के पुनर्गठन के पीछे सामरिक रूप से प्रभावी और लचीलापन होने का तर्क होना चाहिए न कि ऐसे अतिरिक्त ढांचे खड़े कर देना, जिनकी कमान संरचना बिल्कुल नई हो. जिनका पहले कभी परीक्षण न किया गया हो. हर वक़्त बने रहने वाले ख़तरे और सक्रिय दुश्मनों को देखते हुए, वाद-विवाद और ठोस तर्क के साथ साथ तीनों सेनाओं के बीच आम सहमति के आधार पर काम करना ज़्यादा सही होगा, न कि हड़बड़ी में कोई ऐसा क़दम उठाना, जिसके लिए बाद में पछताना पड़ जाए. हर देश की अपनी अलग चुनौतियां होती हैं, और इसीलिए ज़रूरत इस बात की है कि हम अपने ख़तरों, भौगोलिक स्थिति, संस्कृति और राजनीतिक ढांचे को ध्यान में रखकर अपनी सेनाओं को संगठित करें. तीनों सेनाओं को चाहिए कि वो आपस में मिलकर अपनी ‘समस्या को परिभाषित करने वाला बयान’ तैयार करें, ताकि उसकी छत्र-छाया में ज्वाइंट या थिएटर कमान का गठन किया जा सके, जो किसी हर सेना की अपनी चिंताओं को दूर कर सकें. अपनी चुनौतियों और अपेक्षित नतीजों को देखते हुए हमें अपेक्षा से कहीं कम स्वीकार्यता के स्तर पर हामी नहीं भरनी चाहिए. दुनिया में ऐसा कोई और देश नहीं है, जिसकी सीमाओं के दोनों छोर पर दुश्मन पड़ोसी हों और उनके साथ सीमा विवाद हो. इसीलिए सेनाओं को पुनर्गठित करते वक़्त इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि उनके मौजूदा ढांचे में कम से कम ख़लल पड़े, और कोई भी क़दम ख़ूब सोच-विचार कर उठाया जाए.
निष्कर्ष
आज के नेतृत्व के लिए बहुत ज़रूरी है कि उसके पास ये साहस और आत्मविश्वास हो कि वो किसी बदलाव को ये समझकर स्वीकार कर सके कि वो अच्छा है और व्यापक देशहित में है. वो न केवल बिना किसी पूर्वाग्रह और पुरानी धारणा के बग़ैर सोच सके, बल्कि यही बात स्पष्ट तौर पर तीनों सेनाओं के अधिकारियों और फौजियों को भी समझा सके. अच्छी बात ये है कि मौजूदा सैन्य नेतृत्व हड़बड़ी में कोई बयान जारी नहीं कर रहा है और किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए तीनों सेनाओं के प्रमुखों के बीच आम सहमति बनाने की कोशिश की जा रही है. सुधारों के लिए तीनों सेनाओं के बीच आपसी सहमति से ‘समस्यायें बताने वाला साझा बयान’ तैयार करने की ज़रूरत से बचा नहीं जा सकता है, वरना सुधारों की मौजूदा कोशिश का भी वही नतीजा निकलेगा, जो पहले के प्रयासों का हुआ है. हालांकि, इसके साथ साथ सेनाओं और उच्च रक्षा संगठन में सुधार की ज़रूरत लंबे समय से चली आ रही है. इसीलिए, बेवजह की ऐसी परिचर्चाओं से बचने की आवश्यकता है, जिससे सेना और अकादमी सामरिक समुदाय के बीच कड़वाहट और एक दूसरे के प्रति नफ़रत पैदा हो. इसके लिए भारतीय सेना के ‘अमृत काल’ के लिए विज़न और रूप-रेखा को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना चाहिए.
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