Author : Kabir Taneja

Published on Aug 29, 2022 Updated 0 Hours ago

खाड़ी देशों के द्वारा ईरान के साथ संबंधों को नया रूप देने की उम्मीदों के साथ अब एक सामूहिक कूटनीति के प्रस्ताव का असर हुआ है.

#MiddleEast: डांवाडोल परमाणु समझौते के बीच ईरान को खाड़ी देशों का संदेश

ईरान परमाणु समझौता, जिस पर 2015 में दस्तख़त किया गया था और जो अमेरिका के द्वारा समझौते से पीछे हटने के बाद 2018 में ख़त्म हो गया था, इन दिनों बातचीत के एक और दौर से गुज़र रहा है ताकि इसे फिर से अमल में लाया जाए. ये पश्चिमी देशों के लिए ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर परिस्थितियों से लाभ उठाने की आख़िरी कोशिश है. लेकिन इस पर फिर से दस्तख़त होने के बाद भी ये शुरुआती समझौते की केवल एक परछाई बन कर रह जाएगा. 

आज की दुनिया और भू-राजनीति सात साल पहले की तुलना में बहुत ज़्यादा आगे बढ़ चुकी है जब ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में ईरान और पी5+1 देशों (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांचों देश और जर्मनी) के बीच परमाणु समझौते (जिसे ज्वाइंट कंप्रीहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन यानी जेसीपीओए के नाम से भी जाना जाता है) पर हस्ताक्षर हुआ था. सात साल के बाद एक बार फिर सभी पक्ष वियना में मौजूद हैं और उस समझौते को ज़िंदा करने की कोशिश कर रहे हैं. 

ईरान परमाणु समझौता, जिस पर 2015 में दस्तख़त किया गया था और जो अमेरिका के द्वारा समझौते से पीछे हटने के बाद 2018 में ख़त्म हो गया था, इन दिनों बातचीत के एक और दौर से गुज़र रहा है ताकि इसे फिर से अमल में लाया जाए.

लेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में ईरान की संभावित वापसी और सख़्त आर्थिक पाबंदी की व्यवस्था से उसके हटने की उम्मीद ने मध्य-पूर्व (पश्चिम एशिया) में कई देशों को सावधान कर दिया है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सामरिक रूप से ईरान इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने में काफ़ी हद तक कामयाब रहा है क्योंकि सीरिया में ईरान की मज़बूत मौजूदगी है; यमन में ईरान हूती विद्रोहियों का समर्थन करता है; लेबनान में ईरान हिज़्बुल्लाह के साथ हैं और इसी तरह की कई और चीज़े हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी दूसरे संगठन के साथ ईरान के जुड़ने की वजह से खाड़ी के देश और इज़रायल एक साथ दबाव में हैं. इसके कारण अमेरिकी सुरक्षा के दायरे से अलग हटकर स्थानीय स्तर पर जवाब की ज़रूरत के पक्ष में दलीलें मज़बूत होती जा रही हैं. 

सामूहिक कूटनीति 

खाड़ी के देशों को ये बात अच्छी तरह मालूम है कि ईरान के साथ सैन्य संघर्ष उनकी अर्थव्यवस्था (जो कई देशों में डंवाडोल है) के लिए विनाशकारी होगा. यही वजह है कि खाड़ी के देश भी अब ईरान के साथ कूटनीतिक संबंधों को फिर से शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि ईरान के नेतृत्व के साथ इस क्षेत्र के सबसे ज़्यादा विवादित मुद्दों, जो फिलहाल परमाणु समझौते के दायरे से बाहर हैं, पर भागीदारी के नये रास्तों को खोला जा सके. इसी महीने कुवैत की तरफ़ से बयान आया कि उसने 6 वर्षों के अंतराल के बाद ईरान में अपने दूतावास को फिर से खोला है. संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने भी एलान किया है कि वो ‘कुछ दिनों के भीतर’ ईरान में अपने राजदूत की फिर से तैनाती करेगा. खाड़ी के कई देशों ने 2016 में सऊदी अरब के द्वारा प्रतिष्ठित शिया धार्मिक नेता निम्र अल-निम्र को मौत की सज़ा देने के जवाब में ईरानी प्रदर्शनकारियों की तरफ़ से सऊदी अरब के दूतावास पर हमले के बाद या तो ईरान से अपने राजदूत को वापस बुला लिया था या फिर राजनयिक नुमाइंदगी का स्तर कम कर दिया था. 

यमन में ईरान हूती विद्रोहियों का समर्थन करता है; लेबनान में ईरान हिज़्बुल्लाह के साथ हैं और इसी तरह की कई और चीज़े हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी दूसरे संगठन के साथ ईरान के जुड़ने की वजह से खाड़ी के देश और इज़रायल एक साथ दबाव में हैं.

लेकिन तब से लेकर अब तक समय बदल गया है और ईरान के साथ संपर्क के लिए ज़्यादा क्षेत्रीय नज़रिया अपनाने की मांग की गई है. यूएई ने कहा है कि बदले हुए अवतार में परमाणु समझौते पर दस्तख़त होने के बाद भी खाड़ी देशों को ईरान के साथ संपर्क के लिए “सामूहिक कूटनीति” में शामिल होना चाहिए. ईरान के मुख्य वैचारिक विरोधी सऊदी अरब ने भी क्षेत्रीय संघर्षों को लेकर ईरान के साथ कूटनीतिक रास्ते को खोला है जिसकी मेज़बानी इराक़ ने की. ये स्थिति उस वक़्त है जब यमन में सऊदी अरब ईरान के साथ एक अप्रत्यक्ष युद्ध लड़ रहा है और अपने तेल प्रतिष्ठानों पर ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों के हमले का सामना कर रहा है. 

शायद “सामूहिक कूटनीति” के ढांचे की तरफ़ खाड़ी के देशों के द्वारा सबसे बड़ा क़दम 2020 में अब्राहम संधि पर दस्तख़त था. इस संधि ने यूएई के नेतृत्व वाले खाड़ी के कुछ देशों और इज़रायल के बीच संबंधों को सामान्य कर दिया. ईरान को परमाणु ताक़त बनने से रोकने में इज़रायल का रवैया काफ़ी ज़्यादा आक्रामक रहा है. अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के आगे इज़रायल ने योजनाबद्ध ढंग से भी ईरान का विरोध किया है. इसकी वजह से ईरान और इज़रायल की खुफ़िया एजेंसियों के बीच  पूरी दुनिया में गुपचुप ढंग से युद्ध छिड़ा हुआ है. भारत में इज़रायल के दूतावास पर हुए दो आईईडी हमलों के पीछे ईरान को ज़िम्मेदार ठहराया गया है जिसकी वजह से भारत-ईरान संबंधों पर भी असर पड़ा है. 

लेकिन आख़िर में ईरान भी ये चाहेगा कि परमाणु मुद्दे को लेकर किसी तरह के समझौते पर दस्तख़त हो जाए. ऐसा होने पर वो अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्षेत्र में फिर से लौट सकेगा. ये विचार पश्चिमी देशों का भी है क्योंकि ईरान के तेल बाज़ार में आने पर यूक्रेन संकट की वजह से जो  वैश्विक आर्थिक दबाव महसूस हो रहा है, उससे निपटने में मदद मिलेगी. इसके अलावा, अमेरिकी दृष्टिकोण से देखें तो विकासशील देशों के द्वारा रूस के ख़िलाफ़ व्यापक आर्थिक प्रतिबंधों में शामिल होने या रूस को अलग-थलग करने की अनिच्छा ने इस तथ्य को स्पष्ट किया कि अमेरिका को ये सुनिश्चित करने के लिए काम करना होगा कि विकासशील देशों के बीच रूस का प्रभाव यूरोप में इन दिनों जो घटनाएं हो रही हैं, उसके आगे अमेरिकी हितों को पीछे नहीं छोड़े. 

ईरान का नज़रिया 

ईरान का अपना हित भी परमाणु समझौते की तरफ़ वापसी के ज़रिए संबंधों के सामान्य होने से सधेगा. ख़बरों के मुताबिक़ इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (आईआरजीसी) को अमेरिका के द्वारा आतंकी संगठनों की सूची से बाहर करने की अपनी पुरानी मांग से ईरान थोड़ा पीछे हट गया है और ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी को अपने पड़ोसी खाड़ी के देशों के साथ कूटनीतिक संबंध बहाल करने की कोशिश की अगुवाई करने का श्रेय भी दिया जा रहा है. ये लंबे समय से सोचा गया है कि जिस तरह के लोगों की नुमाइंदगी- कट्टरपंथी और अमेरिका विरोधी सोच रखने वाले विचारक, ख़ास तौर पर 2020 में आईआरजीसी के पूर्व प्रमुख क़ासिम सुलेमानी की अमेरिका के द्वारा हत्या के बाद- रईसी करते हैं वो अमेरिका के साथ किसी भी तरह के समझौते के ख़िलाफ़ हैं. ऐसे में रईसी के द्वारा किया गया परमाणु समझौता पूर्व राष्ट्रपति हसन रूहानी की अगुवाई में उदारवादियों के द्वारा किए गए समझौते से ज़्यादा स्वीकार्य होगा. इस बिंदु पर ईरान को भी शायद ये एहसास होगा कि यूरोप की घटनाओं के कारण पश्चिमी देशों को ईरान के साथ समझौता करने की ज़रूरत है ताकि तेल एवं गैस की क़ीमत कम हो सके और ये सुनिश्चित किया जा सके कि ईरान का मुद्दा एक और संघर्ष में बदल नहीं जाए.

यूएई ने कहा है कि बदले हुए अवतार में परमाणु समझौते पर दस्तख़त होने के बाद भी खाड़ी देशों को ईरान के साथ संपर्क के लिए “सामूहिक कूटनीति” में शामिल होना चाहिए.

 हालांकि ईरान के मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का रुख़ ये है कि वो ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए ताक़त का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं. खाड़ी के देशों में परमाणु समझौते की वापसी को इस क्षेत्र में अमेरिका की घटती ताक़त के एक और उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. ऐसा ख़ास तौर पर इसलिए क्योंकि रूस और चीन- दोनों के साथ ईरान आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को और बढ़ावा देने में लगा हुआ है. लेकिन अमेरिका और ईरान के लिए अब ये प्राथमिक रूप से एक बार फिर केवल परमाणु हथियारों के लिए है जो कि परमाणु समझौते का मूल दायरा था जब 2013 में बातचीत की शुरुआत हुई थी. इस मोर्चे पर सफलता महत्वपूर्ण हो सकती है क्योंकि उत्तर कोरिया के बाद यदि ईरान भी सफलतापूर्वक परमाणु हथियार हासिल कर लेता है तो इससे ये धारणा मज़बूत होगी कि अगर कोई देश किसी भी क़ीमत पर परमाणु हथियार हासिल करने की ठान ले तो इसे सच्चाई में तब्दील किया जा सकता है. 

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