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Published on Mar 05, 2024 Updated 0 Hours ago

बुर्किना फासो, माली और नाइजर द्वारा साहेल देशों का गठबंधन स्थापित करने और पश्चिमी अफ्रीकी देशों के आर्थिक समुदाय (ECOWAS) से अलग होने ने क्षेत्रीय एकीकरण के लिए की गई दशकों की मेहनत पर पानी फेर दिया है.

साहेल के देशों का गठबंधन: क्षेत्रीय उथल-पुथल के बीच पश्चिमी अफ्रीका

16 सितंबर 2023 को पश्चिमी अफ्रीका के सैन्य शासन वाले तीन देशों बुर्किना फासो, माली और नाइजर ने साहेल देशों का गठबंधन (AES) बनाने का ऐलान किया था. 28 जनवरी 2024 को तीनों देशों ने अपने समझौते को लेकर एक क़दम और आगे बढ़ाया, जब तीनों देशों के नेताओं ने एक साथ अपने राष्ट्रीय टेलीविज़न पर ये घोषणा की कि वो 15 सदस्यों वाले पश्चिमी अफ्रीकी क्षेत्रीय संगठन, इकोनॉमिक कम्युनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स (ECOWAS) से तुरंत अलग हो रहे हैं. इस क़दम ने क्षेत्रीय एकीकरण के उन प्रयासों पर पानी फेर दिया है जो पिछले कई दशकों से चले रहे थे और मौजूदा दौर में भी जारी थे. इन कोशिशों पर हाल ही में हुई तख़्तापलट की कई घटनाओं की वजह से भी ख़लल पड़ा है. चूंकि, तीनों देशों के इस फ़ैसले से इस इलाक़े के कारोबार और सेवाओं के प्रवाह पर असर पड़ेगा, जो लगभग 150 अरब डॉलर सालाना का है. ऐसे में कई जानकारों ने तीनों देशों के इस क़दम को पश्चिमी अफ्रीका का ब्रेक्जिट लम्हा क़रार दिया है.

हाल ही में हुई तख़्तापलट की कई घटनाओं की वजह से भी ख़लल पड़ा है. चूंकि, तीनों देशों के इस फ़ैसले से इस इलाक़े के कारोबार और सेवाओं के प्रवाह पर असर पड़ेगा, जो लगभग 150 अरब डॉलर सालाना का है. 

गठबंधन की पृष्ठभूमि

साहेल देशों के इस गठबंधन के तीनों देशों ने 2020 के बाद सैनिक तख़्तापलट का सामना किया है. इसकी शुरुआत तीन साल पहले माली से हुई थी, जब कर्नल असीमी गोइता के समर्थक सैनिकों ने पहले बग़ावत की और फिर तख़्तापलट करने की कोशिश की. मई 2021 में कर्नल गोइता ने देश की अंतरिम सरकार के ख़िलाफ़ एक और तख़्तापलट किया. 2022 में बुर्किना फासो ने सैन्य तख़्तापलट की दो घटनाओं का सामना किया, और वो नाकाम होती हुकूमतों के सिलसिले की एक और कड़ी बन गया. इसके बाद, 26 जुलाई 2023 को नाइजर में चुनाव के ज़रिए लोकतांत्रिक तरीक़े से सत्ता में आए राष्ट्रपति मुहम्मद बज़ूम को एक बार फिर राष्ट्रपति के सुरक्षाकर्मियों ने सत्ता से निकाल बाहर किया.

तख़्तापलट की इन सभी घटनाओं की जड़ में सरकार को लेकर इस बात की बढ़ती नाराज़गी है कि वो देश में उग्रवाद और बग़ावत करने वालों का ख़ात्मा नहीं कर पा रहे हैं. उग्रवादियों के हमले में बहुत से सैनिक मारे जा रहे हैं. क्योंकि सैनिकों के पास तो पर्याप्त संसाधन हैं और ही उनको ऐसे हमलों का मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी प्रशिक्षण ही दिया गया है. तीनों ही देशों में ग़रीबी, असमानता और भ्रष्टाचार अपने शिखर पर है.

तख़्तापलट की घटनाओं के बाद से फ्रांस के साथ तीनों ही देशों के रिश्ते और बिगड़ गए हैं; सैन्य सरकारों के साथ तनावपूर्ण टकराव के बाद फ्रांस को बुर्किना फासो और माली से अपने सैनिक वापस बुलाने को मजबूर होना पड़ा था. दिसंबर 2023 में जब फ्रांस के सैनिकों की आख़िरी टुकड़ी ने नाइजर को अलविदा कहा, तो पश्चिमी अफ्रीका में उसके सैन्य अभियान पर पूर्ण विराम लग गया. उसी महीने संयुक्त राष्ट्र के शांति स्थापना के मिशन MINUSMA ने भी माली में दस साल की अपनी निगरानी ख़त्म करके नाइजर से विदा ले ली. इन सभी देशों पर कभी फ्रांस का शासन हुआ करता था. फ्रांस पर अभी भी नव-उपनिवेशवाद का इल्ज़ाम लगाया जाता है, क्योंकि इन देशों के मुताबिक़ फ्रांस उनके क़ुदरती संसाधनों को लूट रहा है और बदले में कुछ दे भी नहीं रहा है.

पश्चिमी अफ्रीकी देशों का आर्थिक समुदाय (ECOWAS) और साहेल के देश

वैसे तो ECOWAS ने अंत में अपने रवैये में नरमी अख़्तियार कर ली. लेकिन, पहले नाइजर में तख़्तापलट के बाद उसकी तरफ़ से सैन्य कार्रवाई की धमकी दी गई थी. इस वजह से बाक़ी के दो देश मुश्किल में पड़ गए थे. जहां तक नाइजर की बात है, तो वहां यूरेनियम प्रचुर मात्रा में मिलता है. लेकिन माली और बुर्किना फासो इस मामले में अपवाद हैं क्योंकि वहां पर क़ुदरती संसाधन लगभग के बराबर मिलते हैं. एक तरफ़ से देखा जाए, तो ये माना जा रहा था कि नाइजर इन देशों की तरह नहीं है, और इस इलाक़े में अपने हितों की रक्षा को देखते हुए पश्चिमी देश नाइजर में इतनी आसानी से सरकार को नहीं गिरने देंगे.

उग्रवादियों के हमले में बहुत से सैनिक मारे जा रहे हैं. क्योंकि सैनिकों के पास न तो पर्याप्त संसाधन हैं और न ही उनको ऐसे हमलों का मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी प्रशिक्षण ही दिया गया है. तीनों ही देशों में ग़रीबी, असमानता और भ्रष्टाचार अपने शिखर पर है.

लेकिन, जैसे जैसे समय बीतता गया, तो बहुत जल्दी ही ये स्पष्ट हो गया कि नाइजर में तख़्तापलट के शिकार नेता मोहम्मद बज़ौम को दोबारा हुकूमत में बिठाने की ECOWAS की धमकियों में कोई दम नहीं है. केवल नाइजर की जनता किसी बाहरी फ़ौजी दख़लंदाज़ी के सख़्त ख़िलाफ़ है. बल्कि, बुर्किना फासो और माली ने भी किसी सैन्य कार्रवाई से नाइजर को बचाने का वादा किया है. तीनों देशों का ये गठबंधन उनके बीच इस आपसी एकजुटता का ही नतीजा है.

ये विडम्बना ही है कि ECOWAS द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों, संवाद, और सैन्य कार्रवाई की धमकियों के बावजूद तीनों देशों के सैन्य शासकों ने तख़्तापलट के बाद से अब तक संवैधानिक शासन लागू करने की कोई योजनाबद्ध समय सीमा पेश नहीं की है. इसके बजाय, तीनों देश इस संगठन के और भी विरोधी हो गए हैं और ECOWAS पर इल्ज़ाम लगाया है कि वो अपने बुनियादी सिद्धांतों से धोखा कर रहा है, और बाहरी ताक़तों के प्रभाव में आकर अपने सदस्य देशों के लिए ही ख़तरा बन चुका है.

एलायंस ऑफ साहेल स्टेट्स: क्षेत्रीय सुरक्षा का एक समझौता या वैधता हासिल करने का हथियार?

साहेल देशों के गठबंधन की स्थापना लिपटाको- गोउर्मा चार्टर पर दस्तख़त के साथ हुई थी. लिपटाको- गोउर्मा क्षेत्र वो जगह है, जहां बुर्किना फासो, माली और नाइजर की सीमाएं एक दूसरे से मिलती हैं. लगभग तीन लाख 70 हज़ार वर्ग किलोमीटर के इस विशाल इलाक़े में तीनों देशों की लगभग 45 प्रतिशत आबादी रहती है. इस इलाक़े में सक्रिय अलग अलग आतंकवादी संगठनों की वजह से यहां सुरक्षा का भयंकर संकट चल रहा है. फरवरी 2023 तक बुर्किना फासो और माली ने राजनीतिक हिंसा की वजह से लगातार बढ़ते मौत के आंकड़ों से जूझ रहे हैं, जिनमें क्रमश: 77 और 150 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. आतंकवाद के सबसे बड़े शिकार देश के तौर पर बुर्किना फ़ासो ने अफ़ग़ानिस्तान को भी पीछे छोड़ दिया है.

रक्षा सहयोग के इस आपसी समझौते के तहत, एलायंस ऑफ साहेल स्टेट्स के सदस्यों ने वादा किया है कि अगर किसी एक देश पर हमला होता है, तो बाक़ी दोनों देश उसकी मदद करेंगे. इस समझौते में सदस्य देशों की ये ज़िम्मेदारी भी बनती है कि वो हथियारबंद बग़ावतों से निपटने में भी एक दूसरे से सहयोग करेंगे. माली की अस्थायी सरकार के प्रमुख कर्नल असीमी गोइता ने एलान किया कि ये समझौतासमुदायों के आपसी लाभ वाले रक्षा और सहयोग का एक ढांचा खड़ा करेगा.’ इसके बावजूद, हमें एलायंस ऑफ साहेल स्टेट्स औरदि साहेल एलायंसके बीच के फ़र्क़ को समझना होगा, जो इस क्षेत्र में इसी नाम से गठित किया गया संगठन है, जिसकी स्थापना 2017 में की गई थी और उसमें 17 पूर्णकालिक सदस्य देश और 9 देश पर्यवेक्षक के तौर पर शामिल हैं.

क्षेत्र पर इस गठबंधन का असर

इस गठबंधन से इस इलाक़े में फ्रांस का दबदबा कम होना तय है. फ्रांस एक ज़माने में यहां की बेहद ताक़तवर शक्ति रहा था. पहले तो एक औपनिवेशिक ताक़त और फिर यहां सैनिकों की तैनाती के ज़रिए. लेकिन, अब फ्रांस साहेल और गिनी की खाड़ी इलाक़े में अपना फौजी और आर्थिक दबदबा गंवाता जा रहा है. आगे चलकर ये गठबंधन शायद फ्रांस के लिए ख़तरे की घंटी बनेगा और पश्चिमी अफ्रीका में उपनिवेशवाद के बाद के दौर की विरासत का ख़ात्मा कर देगा, जो वैसे भी विवादों से घिरी रही है.

ये नया गठबंधन, पश्चिमी अफ्रीकी देशों के आर्थिक समुदाय (ECOWAS) के लिए भी बुरी ख़बर लेकर आया है. क्योंकि, तीनों देशों ने उसी तरह ख़ुद को ECOWAS से अलग कर लिया है, जिस तरह मॉरीटेनिया ने इसकी सदस्यता छोड़ दी थी. ये बात, अफ्रीकी महाद्वीप के एकीकरण में मददगार साबित नहीं होगी. केवल ECOWAS आपस में बुरी तरह बंटा हुआ होगा; बल्कि इलाक़े के फ्रांसीसी बोलने वाले देश भी आपस में एक दूसरे के ख़िलाफ़ विभाजित हो जाएंगे. मिसाल के तौर पर नाइजर पर हमला करने के लिए बेनिन गणराज्य को ज़रिया बनाया जा रहा है. इस वजह से नाइजर ने बेनिन के साथ अपने सैन्य सहयोग को ख़त्म कर दिया था. इसी तरह, फ्रांस समर्थक देश भी उन देशों के साथ टकराव की स्थिति में पहुंच जाएंगे, जो फ्रांस के समर्थक नहीं हैं.

ECOWAS द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों, संवाद, और सैन्य कार्रवाई की धमकियों के बावजूद तीनों देशों के सैन्य शासकों ने तख़्तापलट के बाद से अब तक संवैधानिक शासन लागू करने की कोई योजनाबद्ध समय सीमा पेश नहीं की है.

आख़िर में, वैसे तो इस बात की अटकलें तेज़ हैं कि इससे ग़ैर पश्चिमी ताक़तें जैसे कि रूस, चीन और ईरान इन देशों के क़रीब आएंगे. लेकिन, इन बदलावों से रूस निश्चित रूप से विजेता बनकर उभरेगा. जनवरी 2024 में रूस ने नाइजर के साथ सैन्य सहयोग स्थापित करने पर रज़ामंदी जताई थी. हाल ही में बुर्किना फासो के सैन्य नेता की हिफ़ाज़त करने के लिए रूस के कई सैन्यकर्मी वहां पहुंचे थे. इस बीच, रूस की निजी सैन्य कंपनी वैगनर ग्रुप के मुखिया येवगेनी प्रिगोज़िन की मौत के बाद भी उसके लगभग एक हज़ार फ़ौजी माली में जंग लड़ रहे हैं. रूस की बढ़ती मौजूदगी और उसकी तुलना में फ्रांस के घटते दबदबे को देखें, तो ऐसा लगता है कि आख़िर में ये इलाक़ा पर्दे के पीछे से ताक़तों की जंग का अखाड़ा बन जाएगा.

आगे की राह

पश्चिम के कुछ जानकार ये दावा करते हैं कि फ्रांस की नव-उपनिवेशवादी नीतियों के प्रति बढ़ती नाराज़गी के साथ साथ, सैन्य क्रांति करने वाले नेता इस गठबंधन का इस्तेमाल सत्ता पर अपना शिकंजा और मज़बूत करने और अनिश्चितता को लेकर अपने डर को छिपाने के लिए कर रहे हैं. इस तर्क से हम हाल के दिनों में इन देशों के स्थानीय निवासियों के बीच फ्रांस विरोधी जज़्बात बढ़ने को भी समझ सकते हैं. क्योंकि तख़्तापलट करने वालों ने बड़े स्तर पर फैली उस सोच को बख़ूबी भुनाया है कि इस इलाक़े की लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकारें, फ्रांस की धुन पर नाचने वाली कठपुतलियों से ज़्यादा और कुछ नहीं हैं. इसके बावजूद, ये गठबंधन सिर्फ़ सुरक्षा या सैन्य समझौते से कहीं बढ़कर है. इस पर दस्तख़त करने के समारोह के दौरान, माली के रक्षा मंत्री अब्दुलाये डिओप ने पत्रकारों को बताया था कि ये गठबंधन तीनों देशों के बीच सैन्य और आर्थिक सहयोग को आगे बढ़ाएगा.

चारों तरफ़ से थलीय सीमा से घिरे तीनों ही देश दुनिया के सबसे ग़रीब मुल्कों में से हैं. इन घोषणाओं के बावजूद बिना वित्तीय और तकनीकी क्षमता के उनके लिए नए संस्थानों का निर्माण कर पाना आसान नहीं होगा. वैसे तो ये गठबंधन इस इलाक़े के उप-क्षेत्रीय एकीकरण के ढांचे में फिट बैठता है. लेकिन, इस गठबंधन की कामयाबी अंत में इस बात पर निर्भर करेगी कि तीनों देश एक ऐसे आर्थिक एजेंडे को तैयार करने में किस हद तक कामयाब रहते हैं, जो उनके नागरिकों के लिए फ़ायदेमंद हो.

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