सेना में करियर बनाना किसी दूसरे पेशे की तरह नहीं है, जहां कुछ मामलों में मातृभूमि के लिए बलिदान की अपेक्षा रहती है और जिसका वित्तीय पारिश्रमिक के मुक़ाबले गरिमा और सम्मान जैसी अमूर्त बातों से अधिक लेना देना होता है. ऐसे में अग्निपथ योजना को केवल सेना द्वारा किए गए ख़र्च को कम करने का ज़रिया बताना बेहद अदूरदर्शी है. भारत के सामाजिक ताने-बाने और सेना के लोकाचार और कामकाज पर इसके व्यापक प्रभाव को देखते हुए इस योजना के नतीज़े हानिकारक हो सकते हैं. जैसा कि देश के नाजुक सुरक्षा माहौल और चीन के आक्रामक तेवर हैं, इस तरह के आमूलचूल सुधार को लागू करना विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता है. इतिहास ख़ुद को दोहरा सकता है, जैसा कि साल 1962 में देखा गया था, जब नेहरू और मेनन ने सुधार की पहल की थी, जिसके कारण भारत-चीन युद्ध के दौरान जनरल स्टाफ और लाइन यूनिट्स के बीच उच्च नेतृत्व और असंगति के कारण भारत को भारी उथल-पुथल देखना पड़ा था.
अग्निपथ की परिकल्पना में कमी
बदलाव की यह आवश्यकता इस बात से बाधित होती दिखती है कि सरकार ने इसे लेकर एक व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति दस्तावेज जारी नहीं किया है जो हमारे वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में मक़सद और हितों के साथ-साथ राष्ट्रीय ताक़त को स्पष्ट करता हो. सेना के लिए एनएसएस एक व्यापक सैन्य सिद्धांत की बुनियाद है, जो यह तय करता है कि सेना को अपने निर्धारित मिशन को अंजाम देने के लिए कैसे संगठित, प्रशिक्षित और सुसज्जित किया जाना चाहिए. इसके अलावा, बदलाव अलग होकर नहीं किया जा सकता है, यह मौज़ूदा विरासत में मिली व्यवस्थाओं पर विचार किए बिना और किस हद तक नए विचार और तकनीक आंतरिक सामंजस्य को प्रभावित कर सकते हैं, इस पर विचार करने के बाद ही इसे अंजाम दिया जा सकता है. बहरहाल सरकार इस तर्क से नाखुश दिखती है और बिना किसी परीक्षण के ही इस योजना को शुरू करने के लिए आगे बढ़ गई है.
इतिहास ख़ुद को दोहरा सकता है, जैसा कि साल 1962 में देखा गया था, जब नेहरू और मेनन ने सुधार की पहल की थी, जिसके कारण भारत-चीन युद्ध के दौरान जनरल स्टाफ और लाइन यूनिट्स के बीच उच्च नेतृत्व और असंगति के कारण भारत को भारी उथल-पुथल देखना पड़ा था.
ऐसा लगता है कि इस योजना की परिकल्पना एक ऐसी टीम द्वारा जल्दबाज़ी में की गई है, जिसके पास सेना से जुड़े लोकाचार और कामकाज की समझ का सीमित अनुभव था. सरकार को जिस फायदे की उम्मीद है, वह अतिशयोक्तिपूर्ण है क्योंकि जो नहीं चुने गए उन्हें बाद में नौकरी मिलेगी या नहीं, जैसा कि सरकार और कॉरपोरेट्स ने वादा किया है, यह पूरी तरह से अभी अटकलें ही हैं. अगर इतिहास न्याय करने की स्थिति में है तो पीएसयू, सरकार, सीएपीएफ जैसे क्षेत्र में सैन्य दिग्गजों के लिए आरक्षित पद खाली ही रहते हैं.
इससे पहले, यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सेना के भीतर उचित प्रतिनिधित्व मिले, युवाओं के लिए सेना की नौकरी को लेकर एक बेहद पारदर्शी और गणितीय तौर पर मज़बूत नीति का पालन किया जाता था, जो साल 1966 से ही प्रचलित था. जिसमें वार्षिक वेस्टेज रेट (अपव्यय दर) , आरएमपी फैक्टर जैसे कारकों को ध्यान में रखने के साथ [i] पिछले वर्षों के इनटेक पैटर्न को भी शामिल किया जाता था. लेकिन एक केंद्रीकृत अखिल भारतीय योग्यता सूची के पक्ष में इसे समाप्त करने से, बेहतर स्कूली शिक्षा सुविधाओं और उच्च साक्षरता दर वाले क्षेत्रों में रहने वालों को अधिक लाभ मिलने की संभावना है और यह दूरदराज़ और जोख़िम वाले क्षेत्रों में रहने वालों की क़ीमत पर होगा, जैसे कि हमारी सीमाओं और पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले युवा इससे लाभान्वित नहीं हो सकेंगे. यह क्षेत्रीय असंतुलन के साथ-साथ अलगाववादी मानसिकता को बढ़ावा देगा जिसका नतीजा यह होगा कि इससे अलगाववादी आंदोलन को बढ़ावा मिलेगा जैसा कि पाकिस्तान में देखा जा रहा है जहां पंजाब क्षेत्र से सेना में भर्ती दूसरे क्षेत्र के युवाओं की क़ीमत पर जारी है.
तकनीकी ज्ञान के लिए समय की कमी
एक दूसरी प्रमुख विशेषता जिसे बताया गया है, वह यह है कि भर्ती किए गए लोगों को बेहतर गुणात्मक मानक के लायक बनाएगा. हालांकि यह सवालों के कठघरे में है क्योंकि उम्र, योग्यता, शैक्षिक, चिकित्सा और शारीरिक मानदंडों के संदर्भ में निर्धारित सभी गुणात्मक आवश्यकताएं केवल कुछ मामूली बदलावों के साथ समान ही रहती हैं. कॉम्बैट यूनिट (लड़ाकू इकाइयाँ) एक टीम के तौर पर काम करती हैं और इनकी कमान एनसीओ/जेसीओ/स्तर के अधिकारियों के हाथ में होती है जो बड़े होते हैं और जिनके शारीरिक मानक युवा सैनिकों की कमान से मेल नहीं खाते हैं. यह हमेशा से एक ऐसा मामला रहा है जिसे लेकर सभी नियोजन मानकों में इसका ख़ास ध्यान रखा जाता है.
सरकार को जिस फायदे की उम्मीद है, वह अतिशयोक्तिपूर्ण है क्योंकि जो नहीं चुने गए उन्हें बाद में नौकरी मिलेगी या नहीं, जैसा कि सरकार और कॉरपोरेट्स ने वादा किया है, यह पूरी तरह से अभी अटकलें ही हैं.
आख़िर यह कैसे मुमकिन है कि एक तरफ तो हम युवाओं की भर्ती करना चाहते हैं और दूसरी तरफ यह भी अपेक्षा करते हैं कि वे तकनीकी रूप से कुशल हों ? आख़िर यह कैसे अनुकूल कहा जा सकता है कि जहां आपको उच्च तकनीक की ज़रूरत होगी वहां आप उन युवाओं की भर्ती करेंगे जिनके पास सिर्फ हाई स्कूल की डिग्री है. मोबाइल का इस्तेमाल कर लेना भर तकनीकी कौशल का कोई पैमाना नहीं हो सकता है. इसके अलावा, स्पेशल फोर्सेज, आर्म्ड, आर्टिलरी और इंजीनियर (विशेष बलों, बख़्तरबंद, तोपखाने, और इंजीनियरों) जैसी सेना की विशेष इकाइयों में शामिल होने और टैंक, बंदूक और मिसाइलों जैसे हथियार जिसे क्रू मेंबर द्वारा संचालित किया जाता है, उसके संचालन के लिए एक से दो साल के विशेष प्रशिक्षण के अतिरिक्त एडवांस ट्रेनिंग की आवश्यकता होती है. और जब तक अग्निवीर इन इकाइयों में से किसी एक में सेवा करने के लिए योग्यता हासिल करेंगे तब तक उनके सेना से जाने का समय हो जाएगा, जो निश्चित तौर पर समय, संसाधनों और धन की बर्बादी होगी.
अग्निवीरों के लिए चार साल की सेवा सीमा मुमकिन नहीं है, क्योंकि यह उनके प्रदर्शन को बेहतर नहीं कर सकता है. ऐसे में यह सुझाव देना कि सेना के संचालन पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होगा, क्योंकि सीमित संख्या में अग्निवीरों को शामिल किया जाएगा, बेहद भ्रमात्मक होगी. सेना की किसी यूनिट की क्षमता पर इसका कैसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा यह इस बात से समझी जा सकती है कि जब अग्निवीरों की संख्या इस दशक तक किसी यूनिट में 50 फ़ीसदी के क़रीब हो जाएगी तब यह सेना वैसी ही क्षमतावान होगी जैसा कि ज़बरन भर्ती किए गए या फिर सीमित अनुबंध पर शामिल किए गए रूसी सेना के जवानों ने यूक्रेन में जंग के दौरान अब तक प्रदर्शन किया है.
“ऑल इंडिया, ऑल क्लास” (एआईएसी) भर्ती पैटर्न का प्रभाव रेजिमेंटल सिस्टम पर होगा जो कि लड़ाकू हथियारों, मुख्य रूप से पैदल सेना में प्रचलित है. पैदल सेना हमारी सेना की रीढ़ रही है और ये मुख्य रूप से ‘सिंगल क्लास रेजिमेंट्स‘ हैं. सदियों से उनका प्रदर्शन शानदार रहा है और दुनिया भर में पेशेवर क़ाबिलियत के लिए उनका सम्मान किया जाता है. हालांकि यह विचार कि रेजिमेंटल प्रणाली एक औपनिवेशिक विरासत है जो ख़त्म करने लायक है, जोर पकड़ सकता है, लेकिन इसे रातों रात समाप्त कर दिया जा सकता है ऐसा भी संभव नहीं है. सांस्कृतिक समानताएं और परंपराएं सेना के भीतर अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और इसे किसी भी तरह से इससे अलग नहीं किया जा सकता है चाहे उद्देश्य कितना भी सराहनीय क्यों ना हो.
टैंक, बंदूक और मिसाइलों जैसे हथियार जिसे क्रू मेंबर द्वारा संचालित किया जाता है, उसके संचालन के लिए एक से दो साल के विशेष प्रशिक्षण के अतिरिक्त एडवांस ट्रेनिंग की आवश्यकता होती है. और जब तक अग्निवीर इन इकाइयों में से किसी एक में सेवा करने के लिए योग्यता हासिल करेंगे तब तक उनके सेना से जाने का समय हो जाएगा, जो निश्चित तौर पर समय, संसाधनों और धन की बर्बादी होगी.
पिछले तीन वर्षों से सेना में भर्ती रोककर और सालाना 50,000 से 60,000 अधिकारी रैंक से नीचे के कर्मियों (पीबीओआर) की सेवानिवृत्त होने के साथ, सेना में लगभग 1.5 लाख जवानों की अभी भी कमी है. ऐसे में सेना में लगभग 40,000 पदों की भर्ती के साथ नई भर्ती नीति यह बताती है कि इससे पहले के बैकलॉग वेकेंसी के अलावा 10,000 से 15,000 पीबीओआर की सालाना कमी बनी रहेगी. इसका मतलब है कि कॉम्बैट यूनिट्स (लड़ाकू इकाइयां) अपनी अधिकृत ताक़त से 25 प्रतिशत कम हैं, इसके अलावा 10 प्रतिशत ऐसे जवान भी हैं जिन्हें अस्थायी रूप से सेना में सेवा के लिए अयोग्य माना जाता है, इसका सेना की यूनिट की परिचालन क्षमताओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है, ख़ास कर उन टुकड़ियों पर जिनकी तैनाती पहाड़ी इलाक़े में होती है.
बूट्स ओवर बॉट्स
ऐसा देखने को मिल रहा है कि राजनेताओं, नौकरशाहों और नीति निर्माताओं के बीच यह आम सहमति तेजी से बनती जा रही है कि हमारी सेना का आकार इतना बड़ा है कि यह अरक्षणीय है. इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए, जिस प्रकार के ख़तरे हमारे सामने हैं और जैसा कि युद्ध की प्रकृति में बदलाव हो रहा है, मौज़ूदा क्षमताएं तेजी से अप्रासंगिक हो गई हैं. रक्षा बज़ट में बढ़ोतरी की भी संभावना बहुत कम है क्योंकि इसका एक बड़ा हिस्सा राजस्व लागतों को पूरा करने में चला जाता है, लिहाजा सेना के आधुनिकीकरण से जुड़े ख़र्च के लिए पूंजी बहुत कम बच पाती है.
सैन्य नेतृत्व इन मुद्दों से अवगत होने के बावज़ूद, यथास्थिति को प्रभावित करने वाले वास्तविक बदलाव की शुरूआत करने के इच्छुक नज़र नहीं आते हैं. इनमें से कुछ उनकी रूढ़िवादी मानसिकता, युद्ध के लिए पारंपरिक दृष्टिकोण और बदलाव के प्रति अनिच्छा की वजह से है लेकिन निष्पक्ष होने के लिए, ज़्यादातर विश्लेषण यही बताते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान और इराक से खाली हाथ वापस लौटना पड़ा क्योंकि ज़मीन पर लड़ने के लिए अमेरिका के पास फौज ही नहीं थी. और ऐसा लगता है कि रूसी फौज भी यूक्रेन में इसी तरह की कठिनाइयों का सामना कर रही है.
इसके अलावा अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ी इलाक़ों में संचालन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए हमें तकनीक के मुक़ाबले मैनपावर पर अधिक निर्भर रहने की आवश्यकता है, क्योंकि ऐसे दुर्गम इलाक़े में तकनीक की अपनी सीमाएं हैं. इसके अलावा, विवादित सीमाओं के साथ, एक बार खोई हुई ज़मीन को फिर से हासिल करना बेहद मुश्किल होता है, लिहाजा सीमा पर तैनाती के लिए ज़्यादा से ज़्यादा सैनिकों की आवश्यकता होती है.
ज़्यादातर विश्लेषण यही बताते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान और इराक से खाली हाथ वापस लौटना पड़ा क्योंकि ज़मीन पर लड़ने के लिए अमेरिका के पास फ़ौज ही नहीं थी. और ऐसा लगता है कि रूसी फौज भी यूक्रेन में इसी तरह की कठिनाइयों का सामना कर रही है.
इसमें दो राय नहीं कि सेना के आकार को सही करना ज़रूरी है, रक्षा मंत्रालय और यहां रिपोर्ट करने वाले संस्थानों में लोगों की कटौती का सवाल, 500,000 नागरिकों के आंकड़े पर जाकर थमता है, जिसे कई कारणों से अब तक नज़रअंदाज़ किया जा रहा है. सेना के आकार को सही करने के कई विकल्प मौज़ूद हैं, जैसे हमारी पश्चिमी सीमाओं पर तैनात सभी सशस्त्र बलों का मशीनीकरण करना, जिसके परिणामस्वरूप तकनीक पर हमारी निर्भरता बढ़ने के साथ मैनपावर में कमी आएगी. दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि हमारी प्रादेशिक सेना की तादाद बढ़ाई जाए. चूंकि वे केवल नियमित वार्षिक प्रशिक्षण के लिए और ज़रूरत के समय में और पार्ट टाइम वॉलंटियर्स होते हैं, लिहाज़ा उनपर पेंशन और वेतन का ख़र्च कम किया जा सकता है.
आगे की राह
हालांकि सबसे अच्छा विकल्प यह होगा कि रक्षा के लिए संसदीय स्थायी समिति की 33वीं रिपोर्ट के मुताबिक़ सात साल की सेवा पूरी होने पर सीएपीएफ में सेवारत सैन्य कर्मियों के लैटरल ट्रांसफर (स्थानांतरण) के सुझावों का पालन किया जाए. कारगिल समीक्षा समिति, राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली की समीक्षा पर मंत्रियों के समूह और पांचवें और छठे केंद्रीय वेतन आयोग ने भी इसकी सिफारिश की है. हालांकि सीएपीएफ ने इस आधार पर लैटरल ट्रांसफर को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है कि इससे उनके अपने कैडर की पदोन्नति की संभावनाओं पर असर पड़ सकता है. इन सुझावों के साथ एक उपयुक्त रूप से पुनर्गठित अग्निपथ योजना पर विचार किया जा सकता है, वर्ना यह जितनी समस्या हल करने का दावा करता है उससे कहीं अधिक समस्याएं पैदा करेगा.
[i] Recruitable Male Population (RMP) is taken as 10 percent of the total male population of a State/UT, based on the Census of India Report 2011. The RMP factor for a State/UT was calculated as the proportion of RMP of that State/UT to the RMP of India.
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