Author : Rakesh Sood

Published on May 04, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत ने न केवल वायरस से भयानक तबाही की उन भविष्यवाणियों को झुठला दिया था, जिनका एलान कई पश्चिमी महामारी विशेषज्ञों ने किया था, बल्कि ऐसा लगता था कि भारत, कोविड-19 की दूसरी लहर से भी बच निकला था, वो भी उस वक़्त जब एक नया वैरिएंट ब्राज़ील में भयंकर तबाही मचा रहा था.

वृत्तांत उस त्रासदी का जिसकी चेतावनी पहले से ही दी जा रही थी

हालात बहुत अच्छे हों, तो भी भारत ऐसा देश है जहां शासन करना मुश्किल होता है. इसकी वजह, भारत का विशाल आकार, विविधता और हर बात पर तर्क-वितर्क करने की भारतीयों की आदत है. फिर भी, भारत ने अब तक बहुत से संकटों से पार पाया है. लेकिन, आज हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उस तरह देश के नेतृत्व ने भारत को इतना निराश कभी नहीं किया था. नेतृत्व करने वाले राजनीतिक लाभ की ज़िद पर इस क़दर अड़े हैं, कि वो ये स्वीकार करने को तैयार ही नहीं कि देश 1947 के विभाजन के बाद से अब तक के सबसे भीषण संकट का सामना कर रहा है.

हमें आत्मतुष्टि ने डुबोया

इस साल जनवरी फरवरी की बात है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तसल्ली महसूस करने की वजह वाजिब थी. भारत में कोविड-19 संक्रमण के मामले लगातार घट रहे थे और ये पिछले साल सितंबर में 96 हज़ार प्रति दिन के शीर्ष से घटते हुए, इसके दसवें हिस्से तक आ गए थे. वायरस से मौत की दर भी 1200 से घटकर 80 तक आ गई थी. भारत के उस वक़्त के हालात की तुलना अमेरिका से करें, तो इस साल जनवरी में अमेरिका, इस महामारी की तीसरी लहर से जूझ रहा था. वहां हर रोज़ कोरोना वायरस के संक्रमण के पांच लाख से ज़्यादा नए मामले सामने आ रहे थे. मौत की दर भी हर रोज़ 4000 से ज़्यादा थी; उस समय यूरोपीय देशों ने अपने यहां तीसरी बार लॉकडाउन लगा दिया था; और ब्रिटेन में वायरस के नए वैरिएंट के चलते संक्रमण के मामलों का विस्फोट सा हो रहा था, क्योंकि वो पहले के वैरिएंट से डेढ़ गुना अधिक संक्रामक था.

भारत के उस वक़्त के हालात की तुलना अमेरिका से करें, तो इस साल जनवरी में अमेरिका, इस महामारी की तीसरी लहर से जूझ रहा था.

लेकिन, भारत ने न केवल वायरस से भयानक तबाही की उन भविष्यवाणियों को झुठला दिया था, जिनका एलान कई पश्चिमी महामारी विशेषज्ञों ने किया था, बल्कि ऐसा लगता था कि भारत, कोविड-19 की दूसरी लहर से भी बच निकला था, वो भी उस वक़्त जब एक नया वैरिएंट ब्राज़ील में भयंकर तबाही मचा रहा था. देश की अर्थव्यवस्था भी खुल गई थी. वित्त वर्ष 2020-21 में 8.5 प्रतिशत सिकुड़ने के बाद, 2021-22 में भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर दोहरे अंकों में होने की भविष्यवाणी से हौसला भी बढ़ा था.

16 जनवरी को भारत ने तीन चरणों का कोविड-19 टीकाकरण अभियान शुरू किया था. इस अभियान के पहले चरण में तीन करोड़ स्वास्थ्यकर्मियों और ज़रूरी सेवाएं देने वाले फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को कोरोना के टीके लगाए जाने थे. उसके बाद अगले चरण में 60 वर्ष से ज़्यादा उम्र के उन लोगों को कोविड-19 का टीका लगाया जाने लगा, जिन्हें अन्य बीमारियां भी थीं. इनके साथ साथ, एक अप्रैल से 45 वर्ष या उससे ज़्यादा उम्र वाले सभी लोगों को कोविड-19 का टीका लगाने की शुरुआत की गई. आबादी के ये समूह, भारत की जनसंख्या का 22 प्रतिशत या क़रीब 30 करोड़ लोग थे. उम्मीद की जा रही थी कि टीकाकरण अभियान के ये चरण अगले छह महीनों में यानी जुलाई अगस्त तक पूरे कर लिए जाएंगे. लेकिन, टीकाकरण को इतने समय में पूरा करने का लक्ष्य तभी उचित होता, जब नए संक्रमणों की संख्या लगातार घटती रहे.

जीत के जोश ने भटका दिया

ऐसे हालात में देश में कोरोना पर विजय का माहौल बनने लगा था. इसमें, भारत के दुनिया भर में अपवाद होने के यक़ीन ने और तड़का लगा दिया. कोरोना पर जीत का शोर मचाने वालों की अगुवाई सरकार समर्थक कर रहे थे. उस समय सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी मार्च अप्रैल में होने वाले पांच राज्यों के चुनाव के प्रचार अभियान की शुरुआत करने जा रही थी. जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने थे, वो थे- असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल. आख़िरी दो राज्य बीजेपी के लिए राजनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण माने जा रहे थे. 21 फ़रवरी को बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं और सभी राज्य इकाइयों के प्रमुखों ने इकट्ठा होकर एक प्रस्ताव का अनुमोदन किया, जिसमें कोविड-19 महामारी से प्रभावी तरीक़े से निपटने और देश को दोबारा विकास के रास्ते पर लाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को उनके दूरदर्शी नेतृत्व के लिए धन्यवाद दिया गया था.

उत्तराखंड ने नवनियुक्त मुख्यमंत्री के नेतृत्व में कुंभ मेले के आयोजन की तैयारी शुरू कर दी थी. मेले में लाखों श्रद्धालुओं के एकत्र होकर गंगा में डुबकी लगाने और पूजा करने की संभावना जताई जा रही थी. इन लापरवाहियों से आगे जाकर उत्तराखंड की सरकार ने कुंभ मेले में आने वालों के लिए कोविड-19 की नेगेटिव RT-PCR रिपोर्ट की अनिवार्यता भी इस विश्वास पर ख़त्म कर दी कि श्रद्धालुओं की रक्षा हिंदुत्व में उनकी अगाध आस्था करेगी. कुछ लोगों का कहना है कि कुंभ का आयोजन तय समय से एक वर्ष पूर्व ही किया जा रहा था, क्योंकि बीजेपी के चुनावी रणनीतिकारों का मानना था कि एक महामारी के दौरान कुंभ जैसा विशाल आयोजन बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के बीच पार्टी को ज़बरदस्त चुनावी सफलता दिलाने वाला साबित होगा.

वर्ष 2020 में महामारी के पीक के बाद देश भर में 160 ऑक्सीजन बनाने वाले प्लांट लगाने को मंज़ूरी दी गई थी. लेकिन, इस फ़ैसले पर कितना अमल हुआ, ये देखने की किसी ने ज़हमत नहीं उठाई. हालत ये थी कि अप्रैल के मध्य तक इनमें से केवल 32 ऑक्सीजन प्लांट ही लगाए गए थे.

7 मार्च को दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के वार्षिक सम्मेलन को संबोधित करते हुए स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने बड़े घमंड से ऐलान किया कि ‘हम भारत में कोविड-19 महामारी के अंतिम चरण से गुज़र रहे हैं.’ इस मौक़े पर उन्होंने विस्तार से अपनी सरकार का बखान करते हुए कहा कि, ‘भारत दुनिया के दवाखाने’ के तौर पर उभरा है, और हमने दुनिया से किया गया अपना वादा निभाते हुए एक ज़िम्मेदार राष्ट्र के तौर पर, 62 देशों को कोरोना वायरस के टीके की 5.51 करोड़ ख़ुराक उपलब्ध कराई हैं. इस वैश्विक संकट के समय मोदी के नेतृत्व की सराहना करते हुए, स्वास्थ्य मंत्री ने ये भी कहा कि, ‘आज भारत विश्व में अंतरराष्ट्रीय सहयोग के शानदार उदाहरण के तौर पर उभरा है.’

तारीफ़ों के ये पुल, उस विचार से बहुत अच्छे से मेल खाने वाले हैं कि मोदी के नेतृत्व में भारत विश्वगुरू के तौर पर उभर रहा है और अपना खोया हुआ गौरव हासिल कर रहा है. उधर मोदी, अपनी लंबी सफेद दाढ़ी वाले नए रूप में ख़ुद को विश्व गुरुकुल के प्रधान आचार्य के तौर पर प्रस्तुत कर रहे थे. 

आंकड़े छुपाने के साथ जान-बूझकर की गई अनदेखी

जिस समय बीजेपी, मोदी की तारीफ़ वाले प्रस्ताव का अनुमोदन कर रही थी, ठीक उसी समय महाराष्ट्र में कोरोना महामारी की नई लहर बड़ी तेज़ी से फैलने लगी थी. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research) के डॉक्टरों ने महाराष्ट्र में संक्रमण के विस्फोट को लोगों की लापरवाही बता रहे थे, उस समय स्थानीय डॉक्टर कोरोना वायरस का नया वैरिएंट उभरने को लेकर चिंता जता रहे थे. वहीं, देश के स्वास्थ्य मंत्री मार्च के दूसरे हफ़्ते में तब, ‘महामारी के ख़ात्मे’ का एलान कर रहे थे, जब वायरस से रोज़ाना मौत की संख्या 50 प्रतिशत बढ़कर 120 पहुंच गई थी और रोज़ नए संक्रमण के मामले दोगुने होकर 18 हज़ार से अधिक हो गए थे.

लेकिन, इनमें से किसी भी चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया. लबालब भरे स्टेडियमों में क्रिकेट मैच खेले जा रहे थे. गोवा में घरेलू पर्यटन दोबारा रफ़्तार पकड़ रहा था. घरेलू फ्लाइट दो-तिहाई से भी अधिक क्षमता के साथ उड़ानें भर रही थी. बहुत से यात्री शिकायतें भी कर रहे थे कि विमान में कई लोग तो मास्क भी नहीं पहन रहे थे. अहंकार में डूबा देश ये मान बैठा था कि भारत इस महामारी के सामने अजेय है. बीजेपी के मुख्य चुनावी रणनीतिकार, गृह मंत्री अमित शाह हफ़्ते में पांच दिन चुनाव वाले राज्यों में रैलियां और रोड शो कर रहे थे.

1 मई से देश भर के 18 से 44 वर्ष के लोगों के टीकाकरण को भी हरी झंडी दे दी गई है. हालांकि, केंद्र ने ये ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी है. पर, दिक़्क़त इस बात की है कि टीकों की आपूर्ति इतनी कम है कि राज्य इस समय टीकाकरण अभियान का दायरा बढ़ाने से इनकार कर रहे हैं.

मार्च के तीसरे हफ़्ते तक, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी के वैज्ञानिक, महाराष्ट्र में कोरोना वायरस के नए डबल म्यूटेंट वैरिएंट स्ट्रेन की मौजूदगी की ओर इशारा कर रहे थे. 4 अप्रैल तक भारत में कोरोना वायरस के नए केस पिछले साल सितंबर के पीक से अधिक होने लगे थे. रोज़ाना एक लाख से भी अधिक नए केस आने लगे थे और मरने वालों की संख्या भी 700 से अधिक हो चुकी थी. फरवरी की शुरुआत में जहां कोविड-19 के कुल एक्टिव केस 1,45,000 केस थे, वहीं अगले 60 दिनों में इनकी संख्या 8 लाख से अधिक हो चुकी थी. नए संक्रमण की रफ़्तार वर्ष 2020 से कहीं अधिक थी. 

टीवी चैनलों ने अपना पूरा ध्यान चुनावी रैलियों पर लगा रखा था. इन रैलियों में न तो नेता ही और न ही हज़ारों की तादाद में जुट रही भीड़ ही मास्क पहन रही थी. चुनाव आयोग भी बस नाम के लिए राज्य प्रशासकों को फ़रमान जारी कर देता था कि वो कोविड-19 के प्रोटोकॉल का पालन कराना सुनिश्चित करें. चुनाव आयोग ने कभी किसी राजनेता को राजनीतिक कार्यक्रमों में मास्क न पहनने पर फटकार नहीं लगाई.

चूंकि, चुनाव आयोग ने चुनावी रैलियां कराने की इजाज़त दे रखी थी. ऐसे में किसी धार्मिक आयोजन को रोक पाना बहुत मुश्किल था. हरिद्वार के कुंभ में शाही और पवित्र स्नानों के दिन तीस लाख तक श्रद्धालु इकट्ठे होते थे. वो न मास्क पहनते थे और न ही सामाजिक दूरी के नियमों का पालन करते थे.

नवंबर 2020 से मार्च 2021 के दौरान राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद की एक भी बैठक नहीं बुलाई गई. 2020 में देश भर में लागू किए गए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन क़ानून के तहत ये परिषद, फ़ैसले लेने वाली सर्वोच्च संस्था है. फिर भी इसकी बैठक न तो वायरस के बर्ताव की निगरानी के लिए बुलाई गई और न ही, वर्ष 2020 में लिए गए उन फ़ैसलों को लागू करने की पड़ताल के लिए बुलाई गई, जिन्हें स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए लिया गया था. आने वाली सुनामी से निपटने में जान-बूझकर लापरवाही बरती गई, क्योंकि देश का नेतृत्व राजनीति करने में ऐसा उलझा था कि उसने इस आपदा की ओर से मुंह मोड़ लिया था.

केंद्रीय संगठनों द्वारा जो अस्थायी कोविड सुविधा केंद्र बनाए गए थे, वो दिसंबर 2020 से ख़ाली पड़े हुए थे. इस साल की शुरुआत में उनका बोरिया-बिस्तर भी समेटा जाने लगा था. वायरस की जीनोम सीक्वेंसिंग का काम भी सुस्त गति से चल रहा था. 2020 में जहां वायरस के क़रीब 90 हज़ार जीनोम सीक्वेंस किए गए थे; वहीं जनवरी की शुरुआत से ये तादाद हर महीने बस कुछ सौ तक सिमट गई. इससे तय समय में वायरस के किसी नए स्ट्रेन की पहचान कर पाना बहुत मुश्किल हो गया. वर्ष 2020 में महामारी के पीक के बाद देश भर में 160 ऑक्सीजन बनाने वाले प्लांट लगाने को मंज़ूरी दी गई थी. लेकिन, इस फ़ैसले पर कितना अमल हुआ, ये देखने की किसी ने ज़हमत नहीं उठाई. हालत ये थी कि अप्रैल के मध्य तक इनमें से केवल 32 ऑक्सीजन प्लांट ही लगाए गए थे.

मार्च के आख़िर में वैक्सीन के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के अलावा, इस बात का कोई और प्रयास नहीं किया गया कि आख़िर वैक्सीन का उत्पादन या टीकाकरण की रफ़्तार को कैसे बढ़ाया जा सकता है. जिन विदेशी वैक्सीन निर्माताओं ने भारत में अपने टीके उतारने की इजाज़त मांगी थी, उन्हें कहा गया कि वो पहले यहां पर अपनी वैक्सीन का ब्रिजिंग ट्रायल करें. यानी वैक्सीन को आपात परिस्थिति में इस्तेमाल करने की प्रक्रिया को कई महीनों के लिए टाल दिया गया था. अप्रैल के मध्य तक हालात इस क़दर बिगड़ गए कि उनकी अनदेखी करना असंभव सा हो गया.

जब महामारी की सुनामी आई

15 अप्रैल को भारत में हर दिन नए संक्रमण के मामले दो लाख के पार चले गए थे. 30 अप्रैल तक ये संख्या दोगुनी यानी चार लाख के क़रीब पहुंच गई. देश में एक्टिव कोविड-19 मामलों की तादाद 32 लाख से भी ज़्यादा हो चुकी थी और अब हर रोज़ 3500 से ज़्यादा मौतें इस वायरस से हो रही थीं. पिछले एक पखवाड़े में संक्रमण और मौत की संख्या में विस्फोट सा आया है. स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा बिखर गया है. अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से लोगों की जान जा रही है. टीकाकरण की रफ़्तार जो क़रीब 35 लाख प्रतिदिन थी, वो घटकर 25 लाख से भी नीचे चली गई है. ये इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अभी ही नहीं, आने वाले समय में भी कोरोना के टीके की आपूर्ति तेज़ नहीं होने वाली है.

17 अप्रैल से प्रधानमंत्री मोदी लगभग हर दिन अपने सलाहकारों के साथ बैठकें कर रहे हैं, उन तीन टास्क फोर्स के साथ मीटिंग कर रहे हैं, जिन्हें पिछले साल संक्रमण के फैलाव पर नज़र रखने के लिए बनाया गया है. मोदी ने वैक्सीन के अनुसंधान एवं विकास व उत्पादन, स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे से जुड़े लोगों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकें की हैं. वो इस दौरान दो बार देश को संबोधित भी कर चुके हैं. वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाने के लिए आपातकालीन फंड भी उपलब्ध कराए गए हैं. कोरोना के जिन टीकों को अमेरिका, यूरोपीय संघ और रूस में आपातकालीन इस्तेमाल की मंज़ूरी मिल गई थी, उन्हें मंज़ूरी देने का काम तेज़ कर दिया गया है. अब तक देश में 500 से अधिक ऑक्सीजन बनाने वाले प्लांट लगाने का एलान किया गया है. महामारी से लड़ने के लिए ज़रूरी प्रमुख दवाओं और टीकों पर आयात कर घटाकर लगभग शून्य कर दिया गया है.

महामारी से निपटने के लिए सरकार ने पिछले ही साल देशव्यापी लॉकडाउन के ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल कर लिया था. इसके राजनीतिक नुक़सान को देखते हुए, अब सरकार के पास ये विकल्प बचा नहीं है. इसके बजाय अब राज्यों से अपील की जा रही है कि वो स्थानीय स्तर पर कंटेनमेंट ज़ोन बनाएं. 1 मई से देश भर के 18 से 44 वर्ष के लोगों के टीकाकरण को भी हरी झंडी दे दी गई है. हालांकि, केंद्र ने ये ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी है. पर, दिक़्क़त इस बात की है कि टीकों की आपूर्ति इतनी कम है कि राज्य इस समय टीकाकरण अभियान का दायरा बढ़ाने से इनकार कर रहे हैं.

इस सवाल का जवाब सिर्फ़ एक शब्द में दिया जा सकता है- अहंकार. अहंकार और अति-आत्मविश्वास में डूबे नेताओं की ये कमी जानलेवा साबित हुई है. 

चुनाव आयोग ने 2 मई को विधानसभा चुनाव के नतीजों वाले दिन विजय जुलूस निकालने पर रोक लगा दी थी. हालांकि, लगभग हर राज्य में इस आदेश का उल्लंघन हुआ. वैसे भी पश्चिम बंगाल में कोरोना के संक्रमण पिछले एक महीने में 1800 प्रतिशत तक बढ़ गए हैं. ऐसे में नई सरकार के पास जश्न मनाने का मौक़ा ही नहीं है.

राष्ट्रीय स्तर पर भारत में पिछले एक साल में कोरोना के संक्रमण के एक करोड़ दस लाख से अधिक मामले दर्ज किए गए हैं. इनमें से 75 लाख तो पिछले दो महीनों के दौरान आए हैं. अब तक इस महामारी से देश में हुई दो लाख 8000 से अधिक मौतों में से एक चौथाई इस साल मार्च और अप्रैल के महीने में हुई हैं और अभी भी दूसरी लहर अपने शीर्ष से काफ़ी दूर दिख रही है. महामारी की सुनामी ने हमारे देश पर धावा बोल दिया है और अब इससे बचने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है.

विश्व गुरू का पतन

सवाल ये है कि जो भारत 60 दिन पहले तक विश्व गुरू और दुनिया का दवाखाना कहा जा रहा था, वो इतने कम समय में कैसे कोविड-19 की सुनामी का शिकार हो गया? क्या ‘भक्त’ इस महामारी को हराने के लिए ख़ुद की पीठ थपथपाने के जोश में होश ही गंवा बैठे थे? हम आंख मूंदकर चलते हुए 1947 में देश के विभाजन के बाद आई सबसे बड़ी तबाही की चपेट में कैसे आ गए? 

इस सवाल का जवाब सिर्फ़ एक शब्द में दिया जा सकता है- अहंकार. अहंकार और अति-आत्मविश्वास में डूबे नेताओं की ये कमी जानलेवा साबित हुई है. 

पिछले हज़ार बरस से, चाहे महाभारत हो या फिर यूनानी पौराणिक कथाएं, हम इंसानों को अहंकार के ख़तरों से बार बार आगाह किया जाता रहा है. ग़ुरूर में डूबे इंसान के दिमाग़ में ऐसी ताक़त आ जाती है कि वो अपने सबसे ज़रूरी हितों की भी अनदेखी कर देता है. झूठे अहंकार और अति-आत्मविश्वास में इंसान ख़ुद को आफ़त में डुबो देता है. पौराणिक कहानियों में ऐसे नायकों के क़िस्सों की भरमार है, जिन्होंने ईश्वर को चुनौती देने का अहंकार दिखाया और फिर अपने अहंकार की भारी क़ीमत भी चुकाई. इतिहास की किताबें ऐसे नेताओं की कहानियों से भरी पड़ी हैं, जिन्होंने चेतावनी के संकेतों की अनदेखी की और अपनी जनता को जानते-बूझते तबाही की आग में झोंक दिया.

वैक्सीन की 1.35 अरब ख़ुराक की ज़रूरत होगी. अगर सरकार एक डोज़ 200 रुपए की ख़रीदती है, तो उसे टीकों के लिए 27 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करने होंगे. अगर बड़े व्यापारिक घराने अपने कर्मचारियों और उनके परिवारों के टीकाकरण का बोझ ख़ुद उठाते हैं, तो ये रक़म और भी कम हो जाएगी. हालांकि, अपने आप में ये राशि काफ़ी ज़्यादा है. फिर भी ये भारत के GDP का महज़ 0.5 प्रतिशत ही है. 

ये अहंकार ही था, जिसने हमारे नेताओं को उन संकेतों की ओर से अंधा बना दिया था, जो पहले फरवरी और फिर मार्च अप्रैल में महाराष्ट्र से आ रहे थे. दुख की बात ये है कि झूठ और इनकार का ये सिलसिला अब भी जारी है. 27 अप्रैल को एक रक्तदान शिविर का उद्घाटन करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने कहा कि, ‘2021 में भारत इस महामारी से निपटने के लिए 2020 की तुलना में बेहतर रूप से तैयार है.’ ऐसे बयान उस सच्चाई के सामने साफ़ झूठ लगते हैं, जब हम रोज़ ये देख रहे हों कि सैकड़ों हज़ारों भारतीय नागरिक, स्वास्थ्य की बेहद बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं और उन्हें सम्मानजनक मौत तक हासिल नहीं हो पा रही है.

टीकों की अलग अलग क़ीमतों को लेकर एक बेवजह का विवाद खड़ा हो गया है. हम मोटे तौर पर अनुमान लगाएं, तो अगर भारत को अपनी आबादी के 75 फ़ीसद या 18 साल से ज़्यादा उम्र के 90 करोड़ लोगों को कोरोना का टीका लगाना है, तो इसके लिए वैक्सीन की 1.35 अरब ख़ुराक की ज़रूरत होगी. अगर सरकार एक डोज़ 200 रुपए की ख़रीदती है, तो उसे टीकों के लिए 27 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करने होंगे. अगर बड़े व्यापारिक घराने अपने कर्मचारियों और उनके परिवारों के टीकाकरण का बोझ ख़ुद उठाते हैं, तो ये रक़म और भी कम हो जाएगी. हालांकि, अपने आप में ये राशि काफ़ी ज़्यादा है. फिर भी ये भारत के GDP का महज़ 0.5 प्रतिशत ही है. इसके लिए पीएम-केयर्स के फंड का प्रभावी ढंग से उपयोग हो सकता है, और इससे टीकों की क़ीमत को लेकर उठे विवाद का भी समाधान अपने आप हो जाएगा.

एक राज्य पर राज करना और पूरे भारत का राज-काज चलाना

नरेंद्र मोदी वर्ष 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे, और वहां से वर्ष 2014 में वो देश के प्रधानमंत्री बन गए. वो चुनावी लड़ाई बहुत तल्ख़ थी, ख़ास तौर से ख़ुद बीजेपी के अंदर इस बात को लेकर काफ़ी मतभेद थे कि उनका उम्मीदवार कौन होना चाहिए और क्या ये फ़ैसला लोकसभा चुनाव से एक साल पहले ही कर लेना वाक़ई ज़रूरी है. लेकिन, इन बहसों में मोदी समर्थकों की जीत हुई थी. 2014 का चुनाव अभियान राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर लड़ा गया था और मोदी जब दिल्ली आए तो उनके साथ गुजरात का तजुर्बा और बंद ज़हन था.

समस्या ये है कि उन्होंने कभी इस बात को स्वीकार नहीं किया कि एक राज्य की सरकार चलाने और भारत जैसे विशाल, विविधता भरे और संघीय ढांचे वाले देश का शासन चलाने में अंतर होता है. यही वजह है कि वो ख़ुद को एक राज्य के मुख्यमंत्री से भारत के प्रधानमंत्री के रूप में बदल नहीं पाए. मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने हमेशा विपक्ष की अनदेखी की थी; वर्ष 2001 से 2014 तक का औसत निकालें तो वो साल में एक से भी कम बार विधानसभा जाया करते थे. दूसरी बात ये कि उन्होंने गुजरात का शासन अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ मिलकर नहीं, बल्कि एक अधिशाषी राज्यपाल की तरह कुछ वफ़ादार और प्रतिबद्ध सरकारी अधिकारियों की मदद से चलाया. तीसरी बात ये कि मोदी ने राष्ट्रीय मीडिया की ये कहकर अनदेखी कर दी कि वो तो पक्षपातपूर्ण है. हालांकि, गुजरात में वो प्रेस, रेडियो और टीवी पर हमेशा अपना शिकंजा मज़बूत किए रहे क्योंकि राज्य स्तर का मीडिया विज्ञापन से आमदनी और पहुंच के लिए राज्य सरकार पर निर्भर था. आख़िर में जब मुख्यमंत्री रहते हुए उनकी योजनाएं बेअसर रहीं, तो दोष देने के लिए उनके पास हमेशा एक विकल्प मौजूद रहता था; वो केंद्र सरकार को जब चाहे ग़लत ग़लत वित्तीय और मौद्रिक नीतियों के लिए कोस कर ये आरोप लगा सकते थे कि केंद्र सरकार के नकारेपन और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली ग़ैर ज़रूरी पाबंदियों के चलते भारत के हाथ से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के कई मौक़े निकल गए.

मोदी ये भूल गए कि भारत एक संघीय देश है और प्रशासन के गुजरात मॉडल को इतनी विविधता वाले देश में राष्ट्रीय स्तर पर लागू नहीं किया जा सकता है.

जब 2014 में नरेंद्र मोदी ने केंद्र सरकार की कमान संभाली, तो वो अक्सर ये बात भूल जाने लगे कि अब ज़िम्मेदारी उनकी है. वो अपने बहुमत के आत्मविश्वास में डूबकर तब तक संसद की अनदेखी करते रहे, जब तक उन्हें ये एहसास नहीं हुआ कि संसद की कार्यवाही का तो सजीव प्रसारण होता है और संसद से अनुपस्थित रहने पर उनकी छवि को नुक़सान पहुंचता है. विपक्ष के प्रति उनका अहंकारपूर्ण बर्ताव यहां भी जारी रहा. ये बात कुछ हद तक इसलिए भी तार्किक लगती थी कि संसद में विपक्ष की हैसियत ही बेहद कमज़ोर थी. लेकिन, ये बाद किसी संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के ख़िलाफ़ जाती है. चूंकि दिल्ली स्थित राष्ट्रीय मीडिया के साथ मोदी के संबंध मुश्किल भरे रहे थे, तो उन्होंने अपने आपको बिल्कुल अलग कर लिया. उन्होंने रेडियो कार्यक्रम मन की बात के ज़रिए जनता से सीधे संवाद शुरू कर दिया. मोदी ने ख़ुद को कुछ ऐसे वफ़ादार और प्रतिबद्ध अफ़सरों से घेर लिया, जो उनके कार्यक्रम लागू करने में मददगार हों. मोदी ये भूल गए कि भारत एक संघीय देश है और प्रशासन के गुजरात मॉडल को इतनी विविधता वाले देश में राष्ट्रीय स्तर पर लागू नहीं किया जा सकता है.

जल्द ही इसके नतीजे भी दिखने लगे. नवंबर 2016 को बेहद ख़राब तरीक़े से लागू किए गए और तबाही मचाने वाले नोटबंदी के फ़ैसले ने बड़े बड़े क़दम उठाने की मोदी की आदत को ज़ाहिर कर दिया. नोटबंदी के मोदी के फ़ैसले में इंदिरा गांधी के बैंकों के राष्ट्रीयकरण वाले उस फ़ैसले की झलक दिखी थी, जिसके चलते कई दशकों तक देश की अर्थव्यवस्था की चूलें हिली रही थीं. इस तबाही वाले फ़ैसले के बावजूद मोदी जनता के ग़ुस्से का सामना करने से बच निकले, क्योंकि उन्होंने वो मनोवैज्ञानिक दांव खेला कि अगर देश के ग़रीबों ने कष्ट सहा, तो भारत के अमीरों को भी नोटबंदी से बहुत नुक़सान उठाना पड़ा; ये हक़ीक़त तो बहुत बाद में उजागर हुई कि नोटबंदी से देश के अमीरों को तो ख़रोंच तक नहीं आई. नाक़ाबिलियत भरा ऐसा ही योजना निर्माण हमें देश भर में GST लागू करने में देखने को मिला. मोदी की चुनावी रणनीति बहुसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण की रही. इसके लिए वो राष्ट्रवाद और लोक-लुभावन वादों का सहारा लेते रहे. कश्मीर से धारा 370 हटाना, नागरिकता संशोधन क़ानून बनाना, 2019 के आम चुनाव से एक महीने पहले बालाकोट का हवाई हमला. ये सारे क़दम राष्ट्रवाद और जनवादी नीतियों के ज़हरीले मगर बेहद असरदार मेल वाले थे.

वफ़ादारी को सर्वोच्च प्राथमिकता

मोदी एक शानदार वक्ता हैं. इससे उन्हें विश्वसनीयता भी हासिल हो जाती है, और वैधानिकता भी मिल जाती है. वो अपनी भाषण कला का इस्तेमाल चुनाव जीतने में बख़ूबी करते हैं. हाल ये है कि हर राज्य के चुनाव में मोदी ही अपनी पार्टी के सबसे बड़े प्रचारक होते हैं. जहां तक प्रशासन की बात है, तो मोदी ने इसके लिए बड़ी चालाकी से कुछ जुमले गढ़ लिए हैं. मसलन-सबका साथ सबका विकास, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया वग़ैरह. इसके अलावा वो नामों के संक्षिप्तीकरण का भी ख़ूब इस्तेमाल करते हैं (3D, 5T, अम्रुत, प्रगति, सागर, उड़ान…ऐसे लगभग पचास नामों के लघु रूप होंगे, जो मोदी ने योजनाओं को दिए हैं). वर्ष 2016 में बीजेपी की एक राष्ट्रीय बैठक में उनके प्रशंसकों ने मोदी का मतलब-Modifier Of Developing India बताकर उनका गुणगान किया. उचित तो ये होता कि नमो को राष्ट्रीय उपनाम निर्माण संगठन (NaMo=National Acronym Manufacturing Organisation) कहा जाता.

मोदी ख़ुद को दिल्ली में ‘बाहरवाला’ के तौर पर पेश करने में बहुत गर्व महसूस करते हैं. वो दिल्ली के अंतरंग लोगों को ‘ख़ान मार्केट गैंग’ या ‘लुटियन्स दिल्ली गिरोह’ कहकर उनका मज़ाक़ उड़ाते हैं. ‘क़ाबिलियत’ को उन्होंने ‘कुलीनवाद’ से जोड़ दिया. मोदी के राज में सत्ता के गलियारों तक पहुंच बनाने के लिए वफ़ादारी को पहली शर्त बना दिया गया. कुलीन वर्ग को हमेशा से ये मालूम था कि वो संख्या में बहुत कम हैं. लेकिन ये तबक़ा हमेशा मध्यम वर्ग के मेहनतकश होने के साथ खड़ा होता था क्योंकि कड़ी मेहनत से ही ‘क़ाबिलियत और सफलता’ हासिल की जा सकती है; लेकिन, अब कुलीन वर्ग को शोषक कहकर ख़ारिज किया जाने लगा और इसके साथ साथ विशेषज्ञता और क़ाबिलियत को भी हाशिए पर धकेल दिया गया. सरकारी अफ़सर, न्यायपालिका और मीडिया भी क़दमों में झुक गए. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो इन सब ने अपनी आशंकाओं को अपने भीतर समेट लिया.

पहली बार राष्ट्रपति बनने वाला हो या प्रधानमंत्री, वो इस पद पर किसी अनुभव के साथ नहीं आता है. असरदार और सफल नेता अपनी ज़िम्मेदारी और अनुभवों से ही सीखते हैं. लेकिन, ऐसा तभी होता है जब उनके पास ऐसा करने के तौर तरीक़े या ‘टूल-किट’ हो और साथ में ये विनम्रता भी हो, जिससे वो स्वीकार कर सकें कि उन्हें सीखने की ज़रूरत है. मोदी को कुछ नीतिगत सफलताओं का श्रेय ज़रूर दिया जा सकता है. लेकिन, सलाह-मशविरे के प्रति उनकी अनिच्छा ने उन्हें अक्सर राह से भटका दिया है. उन्होंने बार बार ये दिखाया है कि उनके पास जननेता होने और चुनाव जीतने की ख़ूबी तो है. लेकिन, इस हुनर को असरदार प्रशासन देने में तब्दील करने की क़ाबिलियत उनमें नहीं है.

मोदी को कुछ नीतिगत सफलताओं का श्रेय ज़रूर दिया जा सकता है. लेकिन, सलाह-मशविरे के प्रति उनकी अनिच्छा ने उन्हें अक्सर राह से भटका दिया है. उन्होंने बार बार ये दिखाया है कि उनके पास जननेता होने और चुनाव जीतने की ख़ूबी तो है. लेकिन, इस हुनर को असरदार प्रशासन देने में तब्दील करने की क़ाबिलियत उनमें नहीं है.

मोदी ने नेहरू-गांधी परिवार के प्रति अपनी नफ़रत को कभी छुपाया नहीं है. लेकिन, उनकी गुप्त महत्वाकांक्षा इक्कीसवीं सदी के भारत के निर्माता के रूप में ठीक उसी तरह याद किए जाने की है, जैसे नेहरू को संस्थाओं और बीसवीं सदी के भारत के निर्माता के रूप में याद किया जाता है. हालांकि, जब तक मोदी अपने तौर-तरीक़ों में बदलाव नहीं लाते, तो संभावना इसी बात की ज़्यादा है कि उन्हें संस्थाओं को पटरी से उतारने, असुरक्षित होने, तानाशाह और ‘सत्ता के मद में चूर इंदिरा गांधी के अक़्स’ के रूप में याद किया जाएगा.

जैसे किसी सफल नीति को लागू करने का श्रेय प्रधानमंत्रियों को मिलता है, भले ही उसे सफल बनाने में कई लोग जुटे हों, उसी तरह राजनीतिक फ़ैसलों की नाकामी की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की बनती है. स्वच्छ भारत, खुले में शौच से मुक्त भारत या जन-धन योजनाएं लागू करने के लिए निश्चित रूप से मोदी की तारीफ़ की जानी चाहिए. लेकिन, आज देश जिस तबाही के दौर से गुज़र रहा है, उसकी ज़िम्मेदारी भी मोदी की ही बनती है.

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