Author : Premesha Saha

Published on May 18, 2023 Updated 0 Hours ago
1998 का पोखरण परमाणु परीक्षण: इंडो-पैसिफिक से आयी प्रतिक्रियाएं और जवाब

यह आलेख, 25 इयर्स सिंस पोखरण II : रिव्यूविंग इंडियाज न्यूक्लियर ओडिसी श्रृंखला का हिस्सा है.


1998 के पोखरण परमाणु परीक्षणों ने वैश्विक स्तर पर काफ़ी हंगामा मचा दिया था. इन परीक्षणों के अधिकांश आलोचकों ने न केवल यह कहा था कि इन परीक्षणों का सिर्फ दक्षिण एशिया ही नहीं, बल्कि व्यापक तौर पर एशिया-प्रशांत क्षेत्र (जिसे अब इंडो-पैसिफिक अथवा हिंद-प्रशांत कहा जाता है) के साथ ही बड़े पैमाने पर वैश्विक प्रभाव भी पड़ेगा. यह सभी जानते हैं कि 1998 में भारत की ओर से किए गए परमाणु परीक्षणों को लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका (US), चीन, यूरोपीय देशों जैसे अन्य देशों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली थी. लेकिन इसके साथ ही जापान, रिपब्लिक ऑफ कोरिया (RoK), ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और मलेशिया जैसे देशों ने भी कड़े बयान जारी करते हुए अपने स्तर पर इस स्थिति से निपटने के उपाय किए थे. ये देश जिन्हें अब भारत का समान विचारधारा वाला महत्वपूर्ण सहयोगी देश माना जाता है, वर्तमान में हिंद-प्रशांत को मुक्त, खुला, सुरक्षित और स्थिर रखना सुनिश्चित करने के लिए भारत के साथ मिलकर काम कर रहे हैं.

इंडो-पैसिफिक में प्रमुख देशों की प्रतिक्रिया और प्रतिसाद

जापान

जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों में 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद गिरावट आई थी. 1990 के दशक के आरंभ में भारत में हुए आर्थिक सुधारों के पश्चात भारत-जापान के संबंधों में सुधार के संकेत मिले थे. 1998 आते-आते यह आर्थिक संबंध स्पष्ट रूप से मज़बूत होने लगे थे. फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट अर्थात प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) प्रतिबद्धता 1997 में 531.5 मिलियन US$ के शिखर को छू रही थी; टोयोटा, होंडा, सोनी, मित्सुबिशी, मात्सुशिता, फुजित्सु और वाईकेके जैसी जापानी कंपनियां भारत में अपनी मौजूदगी दर्ज़ करा रही थीं. जापान का इंटरनेशनल ट्रेड एंड इंडस्ट्री (MITI) यानी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और उद्योग मंत्रालय सक्रिय रूप से भारत के साथ एक मज़बूत आर्थिक साझेदारी को बढ़ावा देने में जुटा हुआ था. लेकिन 1998 के परमाणु परीक्षणों ने इन दोनों देशों के बीच नवोदित संबंधों में तनाव पैदा करने का काम किया. विश्लेषकों ने इसे लेकर संकेत दिए, ‘‘भारत और जापान के बीच वास्तव में गहन रणनीतिक साझेदारी की संभावना पर विचार करने में केवल एक समस्या है. वह समस्या परमाणु मुद्दा है. बात जब परमाणु हथियारों और परमाणु ऊर्जा की बात आती है, तो दोनों देश राष्ट्रीय नीति के मामले में लगभग ध्रुवीय विरोधी हैं. यहां तक कि राष्ट्रीय राजनीतिक पहचान के मामले पर भी यह बात लागू होती है.’’

1998 में भारत ने जब परमाणु परीक्षण किए तो उसके बाद, जापान ने न केवल कुछ कड़े बयान जारी किए, बल्कि भारत पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगा दिए. जापान की ओर से जारी बयान में कहा गया था कि, ''यह बेहद अफसोस की बात है कि भारत ने 13 मई, 1998 को दो और परमाणु परीक्षण किए हैं. इस स्थिति को बहुत गंभीरता से लेते हुए जापान सरकार ने भारत से परमाणु परीक्षण और परमाणु हथियारों का विकास रोकने को लेकर अपनी मांग को मज़बूती से दोहराया है.’’ इसके अलावा, 15 मई, 1998 को संयुक्त राष्ट्र की ओर से आयोजित निरस्त्रीकरण सम्मेलन में, जापानी अधिकारी ने कहा था कि, ‘‘जापानी सरकार और लोगों के पास भारत के परमाणु परीक्षणों पर अपने सदमे को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त शब्द नहीं थे. यह कहा गया था कि विस्फोटों ने परीक्षणों की एक श्रृंखला को पूरा किया. लेकिन इन परीक्षणों की वज़ह से जो नुकसान हुआ और इन परीक्षणों का अंतरराष्ट्रीय निरस्त्रीकरण के लक्ष्यों पर जो अंतिम प्रभाव पड़ा वह असीमित था.’’ 

इसके अलावा, जापान ने भारत के ख़िलाफ़ कुछ प्रतिबंध भी लगाए थे, जो ज्यादातर आर्थिक थे. इन प्रतिबंधों में : a) आपातकालीन और मानवीय सहायता और जमीनी स्तर की परियोजनाओं के लिए अनुदान सहायता को छोड़कर, नई परियोजनाओं के लिए भारत को अनुदान सहायता बंद कर दी गई थी; b) नई परियोजनाओं के लिए भारत को दिए जाने वाले येन-ऋण पर भी रोक लगा दी गई; और c) बहुराष्ट्रीय विकास बैंकों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा भारत को दिए जाने वाले ऋण कार्यक्रमों की जापानी सरकार सावधानी से जांच कर रही थी.

जापान ने 2001 में इन आर्थिक उपायों को बंद कर दिया, क्योंकि टोक्यो ने स्वीकार किया था कि भारत ने ‘‘आगे के परमाणु परीक्षणों पर अपनी रोक लगाए रखने के फ़ैसले का कड़ाई से पालन किया था. इतना ही नहीं भारत ने भविष्य में भी इस रोक को जारी रखने का इरादा भी सार्वजनिक तौर पर घोषित किया था. इसके साथ ही भारत ने यह भी कहा था कि वह परमाणु और मिसाइल से संबंधित सामान और तकनीकों पर सख़्त नियंत्रण सुनिश्चित करेगा.’’ इसके अतिरिक्त, जापान की ओर से इस बात पर जोर भी दिया गया कि, ‘‘जापान के लिए भारत के साथ अपने सकारात्मक संबंधों को मज़बूत करना अनिवार्य है. जापान को भारत से आतंकवाद से निपटने और दक्षिण पश्चिम एशिया क्षेत्र में स्थिरता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की उम्मीद भी है.’’

ऑस्ट्रेलिया

भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों की ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने कड़ी निंदा की थी. ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने परीक्षणों को ‘‘आउट्रेजस एक्ट्स अर्थात उपद्रवी कृत्यों के रूप में वर्णित किया था, जो एक गलत कदम के रूप में दक्षिण एशिया और वैश्विक स्तर पर सुरक्षा के लिए हानिकारक परिणाम देने वाला साबित हो सकता है. ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने इसके साथ ही भारत से सभी परीक्षण बंद करने; कॉम्प्रिहेंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी अर्थात व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) पर अविलंब हस्ताक्षर करने और इंटरनेशनल न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफिरेशन रेजिम अर्थात अंतरराष्ट्रीय परमाणु अप्रसार व्यवस्था में शामिल होने का आग्रह किया था.’’

इसके अलावा, 15 मई, 1998 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित निरस्त्रीकरण सम्मेलन में, ऑस्ट्रेलियाई प्रतिनिधि, जॉन कैंपबेल ने कहा था कि, ‘‘ऑस्ट्रेलिया केवल यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि यह एक ऐसी सरकार का काम था, जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के लिए स्वीकृत अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार मानदंडों की अत्यधिक अवहेलना करने वाली सरकार है. भारत की यह कार्रवाई परमाणु हथियार मुक्त दुनिया के लक्ष्य की दिशा में काम करने के लिए प्रतिबद्ध अंतरराष्ट्रीय समुदाय के चेहरे पर एक बहुत बड़ा तमाचा है.’’ इस दौरान, ऑस्ट्रेलिया ने भी भारत की परमाणु क्षमताओं और उसके इरादों में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए एक फिसल मटेरियल कट-ऑफ अर्थात विखंडनीय सामग्री कट-ऑफ संधि की आवश्यकता पर बातचीत शुरू को लेकर दबाव बनाना शुरू कर दिया. परमाणु परीक्षणों के तुरंत बाद, तत्कालीन ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री ने भारतीय उच्चायुक्त को बुलाकर यह संदेश दिया था कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार, ‘‘भारत के परमाणु परीक्षणों की कड़ी निंदा करती है.’’

ऑस्ट्रेलिया ने भी अपने स्तर पर कुछ उपाय किए थे. US और जापान के विपरीत, ऑस्ट्रेलिया ने व्यापार और निवेश को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया था. उसकी ओर से किए गए उपायों में : a) भारत के साथ द्विपक्षीय रक्षा संबंधों का निलंबन किया गया और नई दिल्ली में तैनात तत्कालीन ऑस्ट्रेलियाई रक्षा सलाहकार को वापस बुला लिया गया; b) ऑस्ट्रेलियाई जहाज़ और विमान के दौरे, अधिकारियों के आदान-प्रदान और रक्षा से संबंधित अन्य यात्राओं को रद्द कर दिया गया; c) भारत में ऑस्ट्रेलियाई डिफेंस फोर्स पर्सनेल अर्थात रक्षा बल कर्मियों के प्रशिक्षण को रद्द किया गया; d) ऑस्ट्रेलिया में रक्षा महाविद्यालयों में तैनात तीन भारतीय रक्षा कर्मियों को तत्काल प्रस्थान का अनुरोध किया गया; e) गैर-मानवीय सहायता का निलंबन करने; के साथ ही f) मंत्रिस्तरीय और वरिष्ठ सरकारी दौरों का निलंबन शामिल थे. इन उपायों के बावजूद, भारत में ऑस्ट्रेलिया का व्यवसाय प्रभावित नहीं हुआ था. ऑस्ट्रेलियाई विदेश विभाग ने अपने भारतीय समकक्ष के साथ सामान्य बातचीत को भी जारी रखा था.

रिपब्लिक ऑफ कोरिया 

कोरिया गणराज्य ने अपने पड़ोसी जापान की तरह भारत की ओर से किए गए परमाणु परीक्षणों को लेकर कोई कड़ा बयान तो जारी नहीं किया था, लेकिन उसने इन परमाणु परीक्षणों का स्वागत भी नहीं किया था. रिपब्लिक ऑफ कोरिया के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि, ‘‘11 मई और 13 मई, 1998 को भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों से उनका देश चिंतित था. कोरिया के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि यह परीक्षण ऐसे वक़्त पर किए गए जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर परमाणु-हथियार-मुक्त दुनिया हासिल करने को लेकर CTBT के माध्यम से हो रहे प्रयास काफ़ी आगे बढ़ चुके थे. ऐसे में भारत की ओर से किए गए ये परीक्षण और अधिक ख़ेदजनक थे.’’

मलेशिया

मलेशियाई विदेश मंत्रालय की ओर से जारी आधिकारिक बयान में कहा गया था कि, ‘‘भारत द्वारा की गई कार्रवाई इस क्षेत्र को परमाणु हथियारों से मुक्त रखने की कोशिशों को लगा एक तगड़ा झटका थी. भारत के द्वारा किये गए परीक्षणों के कारण परमाणु परीक्षण पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की दिशा में किये जा रहे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के प्रयासों को भी कमज़ोर कर दिया है. मलेशिया विशेष रूप से इस बात से निराश था कि भारत ने CTBT को व्यापक रूप से अपनाए जाने के आलोक में ऐसा कदम उठाया था.’’

न्यूजीलैंड

परीक्षणों के बाद न्यूजीलैंड सरकार ने नई दिल्ली में तैनात अपने उच्चायुक्त को हटाते हुए एक बयान जारी किया था कि, ‘‘न्यूजीलैंड भी अन्य संबंधित देशों की ओर से की गई इस अपील में शामिल है, जिसमें भारत से आग्रह किया है कि वह आगे कोई परीक्षण न करने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करें. न्यूजीलैंड ने भारत से NPT में शामिल होने और CTBT पर तत्काल हस्ताक्षर करने का भी आह्वान किया था.’’

वर्तमान संबंध

ढाई दशक पहले इंडो-पैसिफिक के प्रमुख देशों की आम तौर पर नकारात्मक प्रतिक्रियाओं को देखते हुए, क्या परमाणु मुद्दा अभी भी भारत की इंडो-पैसिफिक साझेदारी में रोड़ा बना हुआ है? जापान जैसे देशों को अभी भी इस बात को लेकर चिंता हो सकती है क्योंकि भारत ने अभी भी न्यूक्लियर नॉन-प्रॉलिफरेशन ट्रीटी अर्थात परमाणु अप्रसार संधि (NPT), कॉम्प्रिहेंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी अर्थात व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT)  और फिसल मटेरियल कट-ऑफ ट्रीटी (FMCT) अर्थात विखंडनीय सामग्री कट-ऑफ संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. लेकिन अमेरिका के साथ 123 समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत को 2008 में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) से छूट मिल गई है. अत: अब इस मुद्दे की वज़ह से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समान विचारधारा वाले देशों के साथ भारत की बढ़ती साझेदारी किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होती है. भारत ने जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम के साथ सिविल न्यूक्लियर एग्रीमेंट्स अर्थात सैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर भी किए हैं. जापान के साथ, भारत ने परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग में सहयोग के लिए भारत-जापान समझौते पर हस्ताक्षर किए. यह समझौता 2017 में लागू हुआ. इस समझौते का उद्देश्य जापान को परमाणु ऊर्जा संयंत्र तकनीक निर्यात करने और भारत में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिए वित्त प्रदान करने की अनुमति देना है. भारत ने 2015 में यूरेनियम खरीदने में सक्षम होने के लिए ऑस्ट्रेलिया के साथ असैन्य परमाणु समझौता किया था. यह समझौता पांच दौर की बातचीत के बाद हुआ है, ताकि ऑस्ट्रेलिया परमाणु बिक्री पर अपनी नीति को संशोधित कर सके क्योंकि भारत ने अब तक NPT पर हस्ताक्षर नहीं किए है. दक्षिण कोरिया के साथ, भारत ने 2018 में एक असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसका उद्देश्य कोरियाई कंपनियों को भारत में परमाणु ऊर्जा संयंत्र परियोजनाओं में शामिल होने की अनुमति देने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करना था.

अब इस बात को दुनिया स्वीकार करती जा रही है कि चूंकि भारत अपनी भूमि सीमाएं पाकिस्तान और चीन जैसे परमाणु-सशस्त्र देशों के साथ साझा करता हैं. वर्तमान में इन दोनों ही देशों के साथ भारत के संबंध सौहार्दपूर्ण नहीं है. अत: भारत के लिए इन परीक्षणों का संचालन करते हुए ख़ुद को परमाणु क्षमताओं से लैस करने की अपनी महत्वाकांक्षाओं तक पहुंचना अनिवार्य हो गया था. चीन की बढ़ती हठधर्मिता ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों को अपनी रक्षा और सुरक्षा नीतियों पर पुनर्विचार करने की दिशा में सोचने पर मजबूर कर दिया है. इसे हम हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की ओर से जारी रक्षा सामरिक समीक्षा और 2022 में जारी जापान की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में परिलक्षित होता हुआ देख सकते हैं. इंडो-पैसिफिक में ऑस्ट्रेलिया, जापान और रिपब्लिक ऑफ कोरिया (RoK) जैसे अनेक प्रमुख देशों के साथ, भारत ने अपने द्विपक्षीय संबंधों को एक कॉम्प्रिहेंसिव स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप अर्थात व्यापक रणनीतिक साझेदारी (CSP) का दर्जा दे दिया है. 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षणों और इसके आम तौर पर सकारात्मक अप्रसार रिकॉर्ड के बाद जारी की गई भारत की 'नो फर्स्ट यूज' (NFU) नीति ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ उसकी रणनीतिक साझेदारी को विकसित करने में अहम योगदान दिया है.


प्रेमेशा साहा, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में फेलो हैं.

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