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पर्यटन के चरम मौसम और बरसात के ख़तरों के एक साथ आने से हिमालय पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है. इससे न केवल पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है, बल्कि भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं का खतरा भी बढ़ रहा है. यह स्थिति हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि अब पर्यटन और बुनियादी ढांचे की योजना जलवायु और पर्यावरण को ध्यान में रखकर बनानी होगी, ताकि पहाड़ों का संतुलन और लोगों की सुरक्षा दोनों बनी रहे.
Image Source: Getty images
हिमालय की बर्फ़ से लकदक चोटियां और विशाल ग्लेशियर नदियों के प्रवाह के प्रमुख स्रोत हैं. हिमालय की घाटियों ने सिंधु-गंगा के मैदानी इलाक़ों और तिब्बत के पठारी क्षेत्रों में सभ्यताओं के फलने-फूलने में मदद की है. वर्तमान में ये हिमालयी क्षेत्र छुट्टियां बिताने और धार्मिक पर्यटन का एक प्रमुख केंद्र बनकर उभरे हैं. हिमालय के पहाड़ी इलाक़ों में पर्यटकों की संख्या में लगातार इज़ाफा हो रहा है, वर्ष 2018 में पहाड़ों की ओर रुख़ करने वाले पर्यटकों की संख्या क़रीब 10 करोड़ थी, जो आज बढ़कर लगभग 24 करोड़ हो गई है. इतना ही नहीं पर्यटन पहाड़ी राज्यों की जीडीपी की रीढ़ बन चुका है, यहां तक कि कई पहाड़ी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर की जीडीपी में पर्यटन सेक्टर की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत तक है.
पहाड़ों पर बेतहाशा पर्यटन ने कहीं न कहीं एक पारिस्थितिक संकट भी पैदा कर दिया है. पर्यटकों की बढ़ती आवाजाही की वजह से पहाड़ों पर सालाना 50,000 मीट्रिक टन कचरा जमा होता है. पर्यटन के लिहाज़ से प्रसिद्ध और पसंदीदा पहाड़ी इलाक़ों में वन क्षेत्र में लगातार गिरावट दर्ज़ की जा रही है, जिसके चलते इन क्षेत्रों में भूजल का स्तर भी गिरता जा रहा है. इतना ही नहीं, पर्यटन को बढ़ाने और पर्यटकों की सुविधाओं के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में इन्फ्रास्ट्रक्चर का बेतरतीब तरीक़े से विकास किया गया है, जिसने देखा जाए तो पहाड़ों के इस कमज़ोर और संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र को ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लडस् (GLOFs) और भूस्खलन के प्रति बेहद संवेदनशील बना दिया है, यानी इससे वहां ग्लेशियर रिसने से बनी झीलों के फटने और भूस्खलन का गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है.
पहाड़ी राज्यों की अर्थव्यवस्था में पर्यटन सबसे अहम है, यही सेक्टर लोगों को रोज़गार देता है और इन राज्यों की आमदनी बढ़ाता है.
अगर पहाड़ी इलाक़ों में तकनीक और नए उपायों को अपनाया जाए, तो आपदाओं के समय लोगों और संपत्ति के नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है.
जिस प्रकार से आपदाओं का तौर-तरीक़ा बदल रहा है, उससे न केवल यह पता चलता है कि जलवायु संकट और बेतरतीब विकास कितना विनाशकारी है, बल्कि इन आपदाओं का समय भी बहुत कुछ बताता है. पहाड़ों में अक्सर देखा जाता है कि जब मानसून का मौसम होता है, उसी दौरान वहां पर्यटकों की आवाजाही भी बहुत ज़्यादा होती है. इसके अलावा बारिश का समय घट रहा है और जब भी बारिश हो रही है तो बहुत ज़्यादा हो रही है. इन सारे हालातों से पहाड़ों के पहले से ही कमज़ोर इकोसिस्टम और बुनियादी ढांचे पर और ज़्यादा दबाव पड़ रहा है, जिससे आपदाएं विनाशकारी होती जा रही हैं, यानी इनसे व्यापक स्तर पर जान माल का नुक़सान हो रहा है.
पहाड़ों में अक्सर देखा जाता है कि जब मानसून का मौसम होता है, उसी दौरान वहां पर्यटकों की आवाजाही भी बहुत ज़्यादा होती है. इसके अलावा बारिश का समय घट रहा है और जब भी बारिश हो रही है तो बहुत ज़्यादा हो रही है.
हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं के बीच अंतराल कम हो गया है यानी वहां बादल फटना, मूसलाधार बारिश होना, भूकंप और हिमस्खलन जैसी आपदाओं में तेज़ी आई है. इन घटनाओं ने पड़ाही क्षेत्रों के सामाजिक और आर्थिक तानेबाने को भी भारी नुक़सान पहुंचाया है. यानी आपदाएं देखा जाए तो हिमालयी क्षेत्र के लिए आम हो गई हैं. ख़ास तौर पर जब पहाड़ों में पर्यटन सीज़न चरम पर होता है, उसी दौरान वहां मानसून भी सक्रिय हो जाता है, यानी जब वहां बड़ी तादाद में लोग पहुंचते है, उसी वक़्त पहाड़ों में आपदाओं का ख़तरा भी काफ़ी बढ़ जाता है. ज़ाहिर है कि पहाड़ी क्षेत्र में सड़कें और होटल जैसे जो भी इन्फ्रास्ट्रक्चर बने हुए हैं, वो औसत मौसम और कम भीड़ भाड़ के हिसाब से निर्मित हैं. लेकिन पर्यटन सीजन के दौरान वहां इतनी भीड़ आ जाती है कि पैर रखने की भी जगह नहीं होती है और उस दौरान बुनियादी ढांचा सुविधाओं पर बहुत अधिक दबाव पड़ता है. यह वो समय होता है, जब चरम मौसमी घटनाएं भी सामने आती हैं और भारी बारिश पूरे पहाड़ी क्षेत्र को बेहद ख़तरनाक व असुरक्षित बना देती हैं.
तालिका 1: पर्यटकों की आमद और मानसून सीजन के दौरान ख़तरे व आपदाएं

स्रोत: लेखकों द्वारा कई मीडिया रिपोर्ट्स से जुटाई गई जानकारी
वर्ष 2013 में उत्तराखंड में चार धाम यात्रा के दौरान केदारनाथ में बादल फटने के बाद मची तबाही में 6,000 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई थी. इस भयानक आपदा के बाद से वहां अक्सर जब पर्यटन सीजन अपने चरम पर होता है, लगभग उसी दौरान वहां ऐसी प्राकृतिक आपदाएं देखने को मिलती हैं.
पहले पहाड़ी इलाक़ों में एक नियत समय में इतनी बड़ी संख्या में पर्यटन नहीं पहुंचते थे, बल्कि थोड़ी-थोड़ी संख्या में लगातार पहुंचते रहते थे. लेकिन पहाड़ी राज्यों में पहाड़ों को काटकर बनाई गई चौड़ी सड़कों के बेहतर नेटवर्क, हेलीकॉप्टर सेवाओं और ऑनलाइन बुकिंग ने पहाड़ी क्षेत्रों में पर्यटकों की पहुंच आसान बनाई है, जिसके चलते कुछ ही महीनों के भीतर लाखों-लाख पर्यटक पहाड़ों में पहुंच जाते हैं. ज़ाहिर है कि नाज़ुक मौसमी हालातों के दौरान इतनी बड़ी संख्या में पर्यटकों की मौज़ूदगी वहां ख़तरों को बढ़ावा देती है और इससे नुक़सान भी व्यापक होता है.
ज़ाहिर है कि पहाड़ी राज्यों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर्यटन उद्योग ही है और इसी सेक्टर से वहां रोज़गार पैदा होता है और आर्थिक कमाई होती है. हस्तशिल्प और परिवहन के अलावा होटल, होमस्टे व रिसोर्ट स्थानीय लोगों की कमाई का मुख्य साधन हैं और इन्हीं सब से उनकी रोजीरोटी चलती है. नतीज़तन पहाड़ों की पारिस्थितिकी को बरक़रार रखने की सोच पीछे छूट जाती है और किसी भी तरह से अधिक से अधिक कमाई करना प्राथमिकता हो जाती है. साल 2023 में सरकार ने चार धाम यात्रा के लिए प्रतिदिन 47,500 तीर्थयात्रियों की सीमा निर्धारित की थी, लेकिन स्थानीय स्तर पर तमाम विरोध-प्रदर्शनों के बाद सरकार ने यह निर्णय वापस ले लिया था. पहाड़ों में पर्यटन से जुड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर पर लगातार भारी-भरकम निवेश किया जा रहा है, लेकिन जलवायु अनुकूल विकास और आपदा का सामना करने से जुड़ी नीतियों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है और जो नीतियां हैं भी उनका ज़मीनी स्तर पर कार्यान्वयन ठीक से नहीं हो रहा है. इन्हीं नीतियों में से एक है फॉरेस्ट राइट एक्ट, इसे भी ज़मीनी स्तर पर कड़ाई से लागू नहीं किया गया है. ज़ाहिर है कि यह अधिनियम स्थानीय जनजातियों को जंगलों की ज़मीन का आजीविका और व्यवसाय के लिए उपयोग करने का अधिकार देता है.
इसके चलते तीर्थयात्रा के रास्तों पर और मंदिर वाले कस्बों व ऊंचाई वाली जगहों पर तीर्थ यात्रियों व पर्यटकों के रहने और उनकी सुरक्षा के लिए मनमाने तरीक़े से इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण किया गया है. यह सब आपदाओं के लिहाज़ से पहाड़ी इलाक़ों की संवेदनशीलता और जोख़िमों को बढ़ाने का काम करता है.
पहाड़ों में पर्यटन से जुड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर पर लगातार भारी-भरकम निवेश किया जा रहा है, लेकिन जलवायु अनुकूल विकास और आपदा का सामना करने से जुड़ी नीतियों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है और जो नीतियां हैं भी उनका ज़मीनी स्तर पर कार्यान्वयन ठीक से नहीं हो रहा है.
पहाड़ी राज्यों के शहर लगातार पर्यटकों की बढ़ती संख्या की समस्या से तो जूझ ही रहे हैं, इसके अलावा शिमला, गंगटोक और दार्जिलिंग जैसे कई शहर तेज़ी से हो रहे शहरीकरण की समस्या का भी सामना कर रहे हैं. पहाड़ी इलाकों में ढलानों पर होटलों और पर्यटकों के ठहरने व उनकी अन्य सुविधाओं के लिए बुनियादी ढांचों का निर्माण, ज़्यादा लोगों और वाहनों की आवाजाही के लिए सड़कों का चौड़ीकरण और इसके लिए पहाड़ियों को काटना, टनल बनाना, जलविद्युत जलाशयों का निर्माण जैसी गतिविधियां कहीं न कहीं आपदा के ख़तरों को बढ़ाने का काम करती हैं. सभी को पता है कि पहाड़ी क्षेत्र में ऐसी परियोजनाएं बेहद ख़तरनाक हैं, बावज़ूद इसके पारिस्थितिक लिहाज़ से संवेदनशील पहाड़ी इलाक़ों में बगैर किसी जांच-पड़ताल के अंधाधुंध तरीक़े से ऐसी परियोजनाओं का निर्माण लगातार बढ़ता जा रहा है. उदाहरण के तौर पर सरकारी विभाग और एजेंसियां अक्सर परियोजना-पूर्व पर्यावरणीय प्रभाव आकलनों (EIAs), यानी किसी प्रस्तावित परियोजना के पर्यावरण पर पड़ने वाले सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों का मूल्यांकन जैसे अहम कार्य को महत्वपूर्ण नहीं समझती हैं. इसके अलावा, किसी परियोजनाओं के निर्माण के लिए पर्यावरणीय मंजूरी हासिल करने के लिए, ख़ास तौर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन करने के लिए, ठोस वैज्ञानिक विश्लेषण को भी नजरअंदाज कर देती हैं.
जहां तक EIAs का सवाल है, यह आज भी एक अधिक स्थिर जलवायु काल के सामाजिक और पर्यावरणीय बेसलाइन डेटा यानी आधारभूत आंकड़ों पर निर्भर है, यानी उन आंकड़ों पर निर्भर है, जिनका आज के दौर में कोई मतलब नहीं हैं. कहने का मतलब है कि जब ग्लेशियर अधिक स्थिर थे, वर्षा का मौसम इतना अनियमित नहीं था और पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले स्थानीय लोगों पर अत्यधिक पर्यटन का इतना ज़्यादा दबाव नहीं था, उस दौर के आंकड़ों पर आधारित होने की वजह से आज से समय में उन EIAs की प्रासंगिकता कहीं न कहीं कम हो जाती है. ज़्यादातर EIAs एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली कई परियोजनाओं के मिले जुले प्रभावों का आकलन किए बिना, अलग-अलग परियोजनाओं पर विचार करते हैं. उदाहरण के तौर पर सिक्किम की तीस्ता नदी बेसिन परियोजना और उत्तराखंड की चारधाम सड़क परियोजना को लेकर भी यही हुआ है.
इतना ही नहीं, आम तौर पर यह देखने में आता है कि परियोजना के प्रभाव के आकलन की इस प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों की चिंताओं और पर्यावरण के बारे में उपलब्ध पारंपरिक जानकारी को भी ख़ास तवज्जो नहीं दी जाती है. ज़ाहिर है कि साल 2020 में केंद्र सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ईआईए अधिसूचना जारी की थी, लेकिन इसके प्रो-इंडस्ट्री होने यानी उद्योग और व्यापार के हित में होने के बाद व्यापक स्तर पर इसकी आलोचना होने लगी और फिर सरकार को इसका नोटिफिकेशन वापस लेना पड़ा था.
पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों की बढ़ती आवाजाही को नियंत्रित करने के लिए धार्मिक पर्यटन, एडवेंचर टूरिज़्म और छुट्टियां बिताने के लिए पहाड़ों का रुख़ करने वालों के लिए पारदर्शी परमिट व्यवस्था के लिए प्रतिदिन का कोटा निर्धारित करना बहुत आवश्यक है. इसके अलावा, राज्यों को न केवल आंकड़े साझा करना चाहिए, बल्कि आपदा प्रबंधन और पर्यावरणीय वास्तविकताओं का आकलन और समन्वय सुनिश्चित करना चाहिए, साथ ही पर्यावरण अनुकूल बुनियादी ढांचे के विकास के लिए स्थानीय नगरपालिकाओं की वित्तीय ज़रूरतों को पूरा करने पर भी ध्यान देना चाहिए.
पहाड़ी क्षेत्र में अगर टेक्नोलॉजी और इनोवेशन को बढ़ावा दिया जाता है, तो निश्चित रूप से आपदाओं के दौरान जान-माल के नुक़सान को कम किया जा सकता है. ऐसे में अगर आपदा से जुड़े ख़तरों के बारे में लोगों को पहले जानकारी देने के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों, बारिश के पूर्वानुमान के लिए डॉप्लर रडार्स, अचानक आने वाली बाढ़ की चेतावनी के लिए रिवर सेंसर और रियल टाइम डेटा व निगरानी से जुड़ी संचार प्रणालियों को हिमालय के संवेदनशील इलाक़ों में तैनात किया जाता है, तो यह बेहद कारगर साबित हो सकता है. इसके अलावा, अगर इन तकनीक़ों को पर्यटकों के लिए बनाए गए ऑनलाइन बुकिंग सिस्टम से जोड़ दिया जाए, तो पहाड़ों में लोगों की आवाजाही को नियंत्रित करने में भी काफ़ी मदद मिल सकती है.
वैश्विक स्तर पर संवेदनशील जगहों पर पर्यटकों के आने-जाने को नियंत्रित करने वाले तौर-तरीक़े भी इसमें मददगार हो सकते हैं. जैसे कि पेरू ने माचू पिच्चू में पर्यटन के सबसे व्यस्त सीज़न में रोज़ाना आने वाले पर्यटकों की संख्या 5,600 निर्धारित की गई है, साथ ही वहां बिताए जाने वाले समय को भी निश्चित किया है, ताकि कोई भी पर्यटक ज़्यादा वक़्त तक वहां नहीं रुक सके. इसी प्रकार से आइसलैंड का सेफट्रैवल ऐप एक महत्वपूर्ण ऐप है, जो कलर कोडेड जोनिंग के साथ पर्यटकों को मौसम, सड़क की हालत और आपात स्थितियों को बारे में रियल टाइम जानकारी उपलब्ध कराता है. भारत के हिमालयी राज्यों को भी इसी तरह की तकनीक़ों का इस्तेमाल करना चाहिए. यानी ऐसे डिजिटल बुकिंग एप्स का उपयोग किया जाना चाहिए, जिनमें विजिटर्स के बुकिंग की सीमा निर्धारित हो, रियल टाइम पर्यटकों की संख्या पता चले, साथ ही सुरक्षा अलर्ट के बारे में भी जानकारी मिले. इसके अलावा, पहाड़ी राज्यों में ऑफ-सीज़न पर्यटन को भी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए.
इतना ही नहीं, परियोजनाओं के पर्यावरण, स्थानीय समाज और इकोनॉमी पर असर से संबंधित नए प्रभाव आकलन प्रोटोकॉल्स में सैटेलाइट मॉनिटरिंग, जलवायु ख़तरों का आकलन और ताज़ा आधारभूत सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों को शामिल करना अनिवार्य किया जाना चाहिए. भारत के सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2024 में पहाड़ी इलाक़ों में विकास परियोजनाओं के लिए बीती हुई तारीख़ से प्रभावी पर्यावरणीय मंजूरी पर रोक लगा दी थी. हालांकि, उच्चतम न्यायालय के इस फैसले का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए एक स्वतंत्र निकाय द्वारा सख़्त क़ानूनी निगरानी की ज़रूरत है. पहाड़ी राज्यों में परियोजनाओं की मंजूरी में इस कमी को दूर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस की अध्यक्षता में एक पर्वतीय शहरी नियामक प्राधिकरण (MCRA) की स्थापना की जा सकती है. यानी ऐसे प्राधिकरण की स्थापना, जिसमें राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, शहरी विकास और पर्यटन विभागों, वन एवं पर्यावरण मंत्रालयों, जलवायु विशेषज्ञों और महिलाओं और स्थानीय समूहों सहित सिविल सोसाइटी संगठनों के प्रतिनिधि शामिल हों. इसके अलावा, MCRA के पास तमाम तरह के पर्यावरणीय ख़तरों के आधार पर परियोजनाओं को मंजूर करने, निलंबित करने या निरस्त करने का अधिकार होना चाहिए. साथ ही उसके पास आपदा-रोधी बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए मानकों को निर्धारित करने, डिजिटल प्लेटफॉर्म के ज़रिए पहाड़ों में आने वाले विजिटर्स और गाड़ियों की संख्या तय करने एवं आपातकालीन परिस्थितियों में अलग-अलग विभागों द्वारा उठाए जाने वाले क़दमों में तालमेल स्थापित करने का भी अधिकार होना चाहिए. इसके अतिरिक्त, MCRA को एक समर्पित पर्वतीय लचीलापन फंड बनाने में स्थानीय निकायों की सहायता करनी चाहिए और इसके लिए पर्यटन शुल्क व हरित बांड्स के ज़रिए राशि जुटाने के साधन विकसित करने चाहिए.
भूटान में पर्यटन के लिए अपनाई जाने वाली रणनीति काफ़ी कुछ सिखाती है. ज़ाहिर है कि भूटान उच्च मूल्य और कम प्रभाव वाले पर्यटन मॉडल को अपनाता है, यानी ऐसे पर्यटन को बढ़ावा देता है, जिसका पर्यावरण पर ज़्यादा असर नहीं हो. ऐसा करके भूटान पर्यटन और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करता है. भूटान में पर्यटकों से सतत विकास शुल्क (SDF) वसूला जाता है, जिसका इस्तेमाल पारदर्शी तरीक़े से पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय समुदायों की बेहतरी के लिए किया जाता है. इसके अलावा, भूटान में सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण और पर्यावरण को नुक़सान से बचाने के लिए पर्यटकों पर कड़े नियम लागू किए गए हैं. ज़ाहिर है कि भारत के हिमालयी राज्यों को भी इसी तरह की नीतियों को अमल में लाना चाहिए. यानी भारत में भी पर्यटकों को पहाड़ों की स्थानीय संस्कृति और परंपराओं का सम्मान करने, वहां कम से कम कचरा फैलाने और स्थानीय लोगों के व्यवसायों व आजीविका के साधनों को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
जब तक पहाड़ों में विकास, पर्यटन और तीर्थाटन से जुड़ी गतिविधियों को जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से अनुकूलित नहीं किया जाता है, तब तक पहाड़ी इलाक़ों में आपदाओं में तेज़ी आती रहेगी और जान-माल का नुक़सान भी बढ़ता रहेगा.
इसके अलावा, पहाड़ों में रहने वाले स्थानीय समुदायों को पर्यावरण संरक्षक के तौर पर सशक्त किया जाना चाहिए, यानी उन्हें इस मुहिम में भागीदार बनाते हुए पर्वतीय पारिस्थितिक तंत्र को बचाने से जुड़े आजीविका के वैकल्पिक साधन प्रदान किए जाने चाहिए. पहाड़ी राज्यों की सरकारों को प्राकृतिक इकोसिस्टम को संरक्षित करने के लिए पेमेंट्स फॉर इकोसिस्टम सर्विसेज (PES) यानी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए भुगतान के ज़रिए स्थानीय समुदायों को संबल प्रदान करना चाहिए. इसके अतिरिक्त, स्थानीय लोगों को हरित उद्यमों यानी पर्यावरण अनुकूल उद्यमों के लिए जलवायु-संबंधित माइक्रो फाइनेंस की सुविधा देने के बारे में सोचना चाहिए. इतना ही नहीं, स्थानीय लोगों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए उन्हें कचरे को अलग-अलग करने यानी गीले और सूखे कचरे में बांटने से जुड़े कार्यों, जैविक खेती को बढ़ावा देने, नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने और पर्यावरण अनुकूल होमस्टे के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. इसके अलावा, स्थानीय लोगों की ओर से ट्रेकिंग मार्गों का प्रबंधन करने, पहाड़ी क्षेत्रों में पार्किंग व्यवस्था को वहां के निवासियों को देने और कचरा एकत्र करने से जुड़े कामों में स्थानीय लोगों को तवज्जो देने से जहां टिकाऊ पर्यटन और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा मिल सकता है, वहीं स्थानीय समुदायों की कमाई के साधन भी विकसित हो सकते हैं.
पहाड़ी राज्यों की सरकार को पर्यावरण के लिहाज़ से संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्रों को कुछ समय के अंतराल पर पर्यटन गतिविधियों के लिए बंद करने के बारे में सोचना चाहिए. ऐसे करने से जहां उन क्षेत्रों के प्राकृतिक इकोसिस्टम को बहाल करने में मदद मिलेगी, साथ ही स्थानीय विभाग भी पर्यटकों के दबाव के बिना रखरखाव और बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़े काम सुगमता से कर पाएंगे. ज़ाहिर है कि अल्पाइन इकोसिस्टम की रक्षा यानी ऊंचाई वाले पहाड़ी इलाक़ों के पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करने से टिकाऊ पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा.
कुल मिलाकर, अगर पहाड़ी क्षेत्रों में पर्यटन पर आर्थिक निर्भरता को जलवायु प्रतिरोधी नीतियों यानी पर्यावरण अनुकूल क़दमों के साथ संतुलित किया जाता है, तो इससे पहाड़ों में दीर्घकालिक आपदा जोख़िमों को कम किया जा सकता है. इको और हेरिटेज टूरिज़्म को बढ़ावा देना, होमस्टे को प्रोत्साहित करना, स्थानीय कला व शिल्प को बढ़ावा देना और रिन्यूएबल एनर्जी का उपयोग बढ़ाना पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों की सतत आजीविका को बढ़ावा दे सकता है. इसके अलावा, स्थानीय सरकारों, आपदा प्राधिकरणों, मंदिरों के ट्रस्टों, होटल व्यवसायियों, पर्यटकों और स्थानीय निवासियों के बीच पहाड़ों में हो रहे विकास और उसके प्रभाव के बारे में समय-समय पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए. इससे अत्यधिक पर्यटन और बेतरतीब इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण को लेकर न केवल जागरूकता को बढ़ाया जा सकता है, बल्कि इससे सभी हितधारकों को यह भी पता चलेगा कि बेतहाशा पर्यटन किस प्रकार आपदाओं को न्योता देने का काम करता है. इसके अलावा, इस तरह की बैठकों में स्थानीय मुद्दों पर गंभीर चर्चा से जहां पहाड़ों में स्थानीय समुदायों के लिए सतत आजीविका के साधन अपनाने में मदद मिल सकती है, वहीं पहाड़ों में आने वाले पर्यटकों की संख्या और रुकने की अवधि को निर्धारित करने, साथ ही समय-समय पर पर्यटक स्थलों को आवाजाही के लिए बंद करने जैसे उपायों को लागू करने में भी मदद मिल सकती है.
निष्कर्ष
अक्सर इस बात की चर्चा की जाती है कि पहाड़ों में एक साल में कितने ज़्यादा पर्यटक या तीर्थयात्री पहुंच सकते हैं और पहाड़ उनकी आवभगत करने में कितने सक्षम हैं. लेकिन यह मुद्दा इतना ज़रूरी नहीं है, बल्कि ज़रूरी यह है कि पर्यटकों की बेहिसाब आवाजाही को किस तरह से नियंत्रित किया जाए, ताकि उसका स्थानीय इकोसिस्टम और पर्यावरण पर कम से कम असर हो.
सरकार और नीति निर्माताओं को इसका गंभीरता से आकलन करना चाहिए कि तात्कालिक फायदों के लिए अनियंत्रित पर्यटन से पहाड़ों पर और वहां के प्राकृतिक इकोसिस्टम पर क्या असर पड़ रहा है. यानी बढ़ते पर्यटन के कारण संभावित आपदाओं से होने वाला नुक़सान कितना अधिक है, इसका सटीक आकलन करना ज़रूरी है, साथ ही पर्यावरण अनुकूल पर्वतीय अर्थव्यवस्था का निर्माण भी बहुत आवश्यक है. अंत में, जब तक पहाड़ों में विकास, पर्यटन और तीर्थाटन से जुड़ी गतिविधियों को जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से अनुकूलित नहीं किया जाता है, तब तक पहाड़ी इलाक़ों में आपदाओं में तेज़ी आती रहेगी और जान-माल का नुक़सान भी बढ़ता रहेगा.
धवल देसाई ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो और वाइस प्रेसिडेंट हैं.
साहिल कपूर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेश के अर्बन स्टडीज़ प्रोग्राम में इंटर्न हैं.
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Dhaval is Senior Fellow and Vice President at Observer Research Foundation, Mumbai. His spectrum of work covers diverse topics ranging from urban renewal to international ...
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Sahil Kapoor is an Intern with the Urban Studies Programme at the Observer Research Foundation. ...
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