Author : Bob Fay

Published on Feb 01, 2021 Updated 0 Hours ago

ये कंपनियां दुनिया भर में सेवाएं दे रही हैं, लेकिन अगर उनके लिए कायदा-कानून है भी तो, नाममात्र का. इतना ही नहीं, इन नियम-कायदों का दायरा भी घरेलू है यानी वे चलती भी हैं तो किसी देश की सरहद के अंदर.

टेकनोलॉजी: डिजिटल युग में ज़रूरी है बने ग्लोबल नियामक सहकारिता

रोजमर्रा की जिंदगी की कई जरूरतें पूरी करने के लिए हम डिजिटल टेक्नोलॉजी पर किस कदर आश्रित हैं, यह बात कोविड-19 महामारी के दौरान सामने आ गई. गूगल, फेसबुक, ट्विटर और एमेजॉन जैसे प्लेटफॉर्म्स, वीचैट और वट्सऐप जैसे मेसेजिंग ऐप्स दुनिया भर में फैले हैं और अरबों लोगों को सेवाएं दे रहे हैं. अब तो वे बुनियादी सामाजिक कामकाज तक से जुड़ गए हैं. हालांकि, उनके कामकाज को लेकर जो नियम-कायदे हैं, वे अस्थायी, आधे-अधूरे और नाकाफी हैं. ये कंपनियां दुनिया भर में सेवाएं दे रही हैं, लेकिन अगर उनके लिए कायदा-कानून है भी तो, नाममात्र का. इतना ही नहीं, इन नियम-कायदों का दायरा भी घरेलू है यानी वे चलती भी हैं तो किसी देश की सरहद के अंदर.

अभी बिग डेटा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और प्लेटफॉर्म गवर्नेंस के लिए जो व्यवस्था है, वह कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति का कुनबा जोड़ा जैसी है और इनमें बड़ी खामियां हैं. प्लेटफॉर्म्स अपने लिए खुद नियम तय कर रहे हैं या कुछ देशों में उनके लिए जो नियम बने हैं, उन्हें वैश्विक स्तर पर अपनाया जा रहा है. दिक्कत यह है कि इसके लिए कोई विमर्श या बातचीत नहीं हुई है. यह तक पता करने की कोशिश नहीं हुई कि क्या ये नियम लागू किए जाने चाहिए? या समाज पर इनका क्या असर होगा?

प्लेटफॉर्म्स अपने लिए खुद नियम तय कर रहे हैं या कुछ देशों में उनके लिए जो नियम बने हैं, उन्हें वैश्विक स्तर पर अपनाया जा रहा है. दिक्कत यह है कि इसके लिए कोई विमर्श या बातचीत नहीं हुई है. यह तक पता करने की कोशिश नहीं हुई कि क्या ये नियम लागू किए जाने चाहिए? 

इसमें भी कोई शक नहीं कि डिजिटल टेक्नोलॉजीज़ से समूची दुनिया की अर्थव्यवस्था को फायदा हुआ है. इसे देखते हुए इनकी निगरानी के लिए नीतियां, नियम और कानूनी व्यवस्था भी बनाई जानी चाहिए थी. लेकिन इनकी तरक्की और रेगुलेशन के बीच तालमेल नहीं दिखता. इसलिए अनजाने जोख़िम और ख़तरे पैदा हो रहे हैं. आज ये जोख़िम साफ-साफ दिख रहे हैं और इनकी जद भी बढ़ती जा रही है. ऐसे में एक नई और व्यापक व्यवस्था जल्द बननी चाहिए क्योंकि आज दुनिया डेटा के लिहाज़ से  बंट रही है.

अमेरिका में यह पूरी तरह से निजी क्षेत्र पर केंद्रित है और वहां फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियां राष्ट्रीय हितों की पैरोकार हैं. अमेरिका ने जो भी व्यापार समझौते किए हैं, उनमें डेटा के ओपन फ्लो (लोकलाइजेशन यानी जिस देश में डेटा जेनरेट हो रहा हो, वहां कुछ अपवादों को छोड़कर डेटा स्टोर करने की इजाजत नहीं) पर ज़ोर दिया गया है. इसका मतलब यह है कि इन प्लेटफॉर्म्स पर जिस देश में भी डेटा जेनरेट हो रहा हो, उस पर अमेरिकी कंपनियों का ही अधिकार होगा.

यह भी अमेरिकी टेक्नोलॉजी कंपनियों की ताकत, उनकी पहुंच और उनके दायरे का अहसास कराता है. व्यापार समझौतों में वहां की सोशल मीडिया कंपनियों के लिए सेफ हार्बर प्रोविजंस यानी कानूनी जवाबदेही कम करने की भी शर्त शामिल है, जिसके कारण उन पर डाले जा रहे कंटेंट को रेगुलेट करना मुश्किल हो जाता है. इससे भी बड़ी बात यह है कि अमेरिका इन कंपनियों को नियम, शर्तें तय करने और उन पर अमल करने की आजादी देता है.

यूरोपीय संघ की नीति — रणनीतिक रेगुलेशन

यूरोपीय संघ के पास गूगल और फेसबुक जैसे नेशनल चैंपियंस नहीं हैं. इसलिए वह इन मार्केट प्लेटफॉर्म्स को काबू में रखने के लिए रणनीतिक रेगुलेशन पर ध्यान देता है. इसके साथ वह जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (GDPR) के जरिये इस मामले में लोगों के अधिकार को प्रोत्साहित करता है. GDPR में लोगों के पर्सनल डेटा की प्राइवेसी पर ध्यान दिया गया है और इसकी रक्षा के लिए कानूनी प्रावधान तय किए गए हैं. जो भी कंपनी यूरोपीय संघ में ऑपरेट करती है और वहां के लोगों के पर्सनल डेटा का इस्तेमाल करती है, उसे GDPR पर या उससे मिलते-जुलते ढांचे पर अमल करना होगा, जिसकी वहां समीक्षा हो चुकी हो.

चीन इस क्षेत्र में एक मानक बनना चाहता है ताकि वह अपनी तकनीक के इस्तमाल से अपने मूल्यों को दुनिया भर में फैला सके. यानी इस मामले में दुनिया कई खानों में बंटी हुई है और इससे पेचीदा मसले खड़े हुए हैं. इन मसलों के कारण इस क्षेत्र में ग्लोबल गवर्नेंस को लेकर तरक्की नहीं हो पा रही है. 

चीन और उसके ग्रेट फायरवॉल के रूप में एक और तरीका हमारे सामने है. इसमें फुल डेटा लोकलाइजेशन किया जाता है. चीन के पास अपने नागरिकों का जो विशाल डेटाबेस है, उसकी मदद से वहां भी नेशनल चैंपियंस तैयार किए जा सकते हैं. चीन इस वैल्यू चेन में आगे बढ़ना चाहता है और यह तरीका उसे सूट करता है. चीन के ग्रेट फायरवॉल में कई खामियां भी हैं, जिसे वह बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव और दूसरे जरियों से डेटा हासिल करके दूर करने की कोशिश कर रहा है. चीन इस क्षेत्र में एक मानक बनना चाहता है ताकि वह अपनी तकनीक के इस्तमाल से अपने मूल्यों को दुनिया भर में फैला सके. यानी इस मामले में दुनिया कई खानों में बंटी हुई है और इससे पेचीदा मसले खड़े हुए हैं. इन मसलों के कारण इस क्षेत्र में ग्लोबल गवर्नेंस को लेकर तरक्की नहीं हो पा रही है. इसी वजह से हर क्षेत्र को समाहित नहीं किया जा सका है और दुनिया सिर्फ डेटा के आधार पर बंटी दिख रही हैः

  • बड़े डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का मार्केट में दबदबा है क्योंकि उनकी पहुंच और आकार बड़ा है और वे इस सेग्मेंट में कदम रखने वाली शुरुआती कंपनियां हैं. इन्हें चुनौती देना बहुत मुश्किल है क्योंकि जिन देशों ने डेटा साम्राज्य बना रखे हैं, उनके बाहर से विरोध की आवाज तक नहीं उठ रही है. इसलिए जो चल रहा है, उसे नियति मान लिया गया है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि डिजिटल टेक्नोलॉजी कॉम्प्लेक्स होती है और उनमें तेजी से बदलाव होता रहता है. इसके अलावा, टेक्नोलॉजी को लेकर जो विमर्श हो रहा है, वह भी उलझाने वाला है. सरकारें अक्सर नियम बनाती हैं और उन पर इन कंपनियों से अमल की उम्मीद करती हैं. दूसरी तरफ, ये कंपनियां अपने बनाए नियम-कायदे पर चलती हैं. इसलिए इनके इंटरनेशनल रेगुलेशन की बात तो भूल ही जाइए, किसी देश का कानून तक लागू करना मुश्किल हो जाता है.
  • वैसे, कई अलग-अलग गवर्नेंस इनीशिएटिव लिए गए हैं, लेकिन उन्हें साथ लाने को लेकर कोई पहल नहीं हो रही है. इसी वजह से डिजिटल बिजनेस मॉडल से संभावित जोखिम और खतरों का व्यापक स्तर पर अनुमान नहीं लगाया जा सका है. अगर ऐसा होता तो इससे इन कंपनियों के गवर्नेंस में मदद मिलती.

इस मामले में वैश्विक तालमेल की जरूरत की अहमियत सबको पता है, लेकिन इसके बावजूद इस दिशा में अभी तक खास प्रगति नहीं हो पाई है. हालांकि, इसके लिए फाइनेंशियल स्टेबिलिटी बोर्ड  से प्रेरणा ली जा सकती है, जिसे वैश्विक वित्तीय संकट के बाद ग्लोबल बैंकों और इंश्योरेंस कंपनियों को रेगुलेट करने के लिए बनाया गया था. इसी तरह से, बड़ी डिजिटल कंपनियों को डिजिटल स्टेबिलिटी बोर्ड  (DSB) बनाकर डिजिटल टेक्नोलॉजीज की वजह से सामने आने वाले वैश्विक मसलों से निपटा जा सकता है.

इसके लिए DSB को ये जिम्मेदारियां सौंपनी होंगीः

  • डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जिन-जिन क्षेत्रों में दखल रखते हैं, उन सबको ध्यान में रखते हुए नियम और नीतियां बनाने की खातिर तालमेल हो. इसमें डेटा और AI वैल्यू चेन जैसे क्षेत्रों को शामिल किया जा सकता है, लेकिन यह इन्हीं तक सीमित न रहे. इसके दायरे में प्राइवेसी, एथिक्स, डेटा क्वॉलिटी, पोर्टेबिलिटी और एल्गोरिद्म की जवाबदेही को भी रखना होगा. इसके साथ सोशल मीडिया कंटेंट, कंपटीशन पॉलिसी और इलेक्ट्रोरल इंटेग्रिटी को भी शामिल किया जाना चाहिए. इस तालमेल से ऐसे नियम और सिद्धांत तैयार किए जाएं, जिन्हें दुनिया भर में लागू किया जा सके. किसी देश के अपने आदर्शों और रवायत के हिसाब से उसमें बदलाव की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए.
  • जो भी नई चीजें सामने आएं, उन पर नजर रखे. अच्छे तौरतरीकों का सुझाव दे. जो भी जोखिम या खामियां नजर आएं, उन्हें दूर करने की तय समय में पहल करे.
  • इन टेक्नोलॉजीज के चलते सिविल सोसायटी पर असर सहित जो जोखिम दिखे और उन्हें दूर करने के लिए तय समय में रेगुलेटरी और नीतिगत पहल करे.
  • यह भी पक्का करे कि उसके द्वारा उठाए गए कदम दूसरे संस्थान, मसलन विश्व व्यापार संगठन तक पहुंचें, जिसे बिग डेटा और AI के मुत्तालिक अपने व्यापार नियमों में बदलाव करने की जरूरत है. इतना ही नहीं, उसे व्यापार पर पड़ने वाले असर और व्यापार से जुड़े नियमों पर अमल का ढांचा भी तय करना होगा.
  • दुनिया के किसी भी हिस्से में स्थित देश आज अपने यहां के पर्सनल, कॉरपोरेट और गवर्नमेंट डेटा के इस्तेमाल पर अधिक नियंत्रण चाहते हैं. इसलिए यह अमीर और विकासशील देशों के मिलकर काम करने का भी मौका है. 

सबसे बड़ी बात यह है कि इस प्रक्रिया में संबंधित पक्षों को शामिल करना होगा. इसके लिए होने वाली बातचीत में सिविल सोसायटी और विकासशील देशों की भी नुमाइंदगी होनी चाहिए.

दुनिया के किसी भी हिस्से में स्थित देश आज अपने यहां के पर्सनल, कॉरपोरेट और गवर्नमेंट डेटा के इस्तेमाल पर अधिक नियंत्रण चाहते हैं. इसलिए यह अमीर और विकासशील देशों के मिलकर काम करने का भी मौका है. इंटरनेशनल ग्रैंड कमिटी में उन्होंने इस दिशा में दिलचस्पी दिखाई है. इस कमेटी के सदस्य देशों में एक तरह की विविधता है. इसके अलावा, हाल में AI ग्लोबल पार्टनरशिप  की स्थापना हुई है, जिसके संस्थापक सदस्य देशों में भारत और कनाडा भी शामिल हैं. इन सबके बावजूद डिजिटल टेक्नोलॉजी का ग्लोबल गवर्नेंस आसान नहीं होगा. इसके लिए लगातार राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी. भारत इसमें अगुवा की भूमिका निभा सकता है. वह जल्द ही जी-20 की अध्यक्षता करने वाला है. ऐसे में वह समावेशी ग्लोबल डिजिटल गवर्नेंस को लेकर जरूरी विमर्श की शुरुआत कर सकता है. उसके पास अलग-अलग डेटा साम्राज्यों की वजह से जो खाई बनी है, उसे पाटने का भी मौका है. वह इस मुहिम में विकासशील और विकसित देशों को साथ लेकर चल सकता है.


ये लेख — कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.