Published on May 27, 2019 Updated 0 Hours ago

आतंकवाद ऐसी सियासत है, जो राजनीति के बुनियादी उसूलों से परे, केवल हिंसा के ज़रिए अपनी विचारधारा का प्रचार करता है.

तक़नीक और आतंक: डिजिटल की सीमाविहीन दुनिया में पैर फैलाता एक नया ख़तरा

दुनिया में आतंकवाद बड़ी तेज़ी से फैल रहा है. इसके विस्तार के पीछे है तकनीक की ताक़त. एक तरफ़ इस्लामिक स्टेट है, जो सीरिया में घर में बने ड्रोन में गो-प्रो कैमरा लगाकर उसका इस्तेमाल कर रहा है, दूसरी तरफ़ अफ्रीकी देश कॉन्गो में इस्लामिक कट्टरपंथी हज़ारों वीडियो इंटरनेट पर अपलोड कर के अबू बकर अल-बग़दादी के लिए वफ़ादारी का ऐलान कर रहे हैं. आज साइबर दुनिया में नई-नई तकनीक की मदद से आतंकवादी गतिविधियों का बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार हो रहा है. तकनीक और आतंक के इस घातक मेलजोल से हक़ीक़त और वर्चुअल दुनिया में बेहद ख़तरनाक चुनौती पैदा हो रही है. इसके बरक्स, दुनिया भर की हुकूमतें, इस ख़तरनाक जोड़ी से निपटने में मुश्किलें महसूस कर रही हैं. उन्हें, राष्ट्रीय सुरक्षा और साइबर दुनिया की आज़ादी के बीच तालमेल बिठाने में दिक़्क़त पेश आ रही है.

आतंकवाद के विस्तार के पीछे कई पेचीदा वजहें होती हैं. इससे निपटने के लिए हमें कई बार तकनीक की दुनिया में मिलने वाली आज़ादी से समझौते करने पड़ते हैं. तकनीकी दुनिया पर नियंत्रण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कई बार ज़रूरी हो जाता है. मगर साइबर दुनिया की आज़ादी के समर्थक इसे अपनी स्वतंत्रता में बाधा मानने लगते हैं. इन दोनों के बीच सही तालमेल बिठाना ज़रूरी है. इसकी नीतियां बनाने वालों को चाहिए कि वो पहले लगातार बढ़ती जा रही इस चुनौती के हर पहलू को समझें और उसका मूल्यांकन करें.

आतंकवाद के बारे में आम तौर पर माना जाता है कि ये भी एक तरह की राजनीति है, जो हिंसा के ज़रिए की जाती है. यानि, आतंकवाद ऐसी सियासत है, जो राजनीति के बुनियादी उसूलों से परे, केवल हिंसा के ज़रिए अपनी विचारधारा का प्रचार करता है.

आतंकवाद का कोई भी किरदार हो, कोई भी संगठन या नेता हो, वो अपनी अलग विचारधारा, सियासी नियमों और सामाजिक मूल्यों को हिंसक तरीक़े से सामने रखता है. आतंकवादी बनने के कारण भले अलग-अलग हों, पर हर आतंकी संगठन अपनी ख़तरनाक विचारधारा के प्रचार-प्रसार, पैसे और लड़ाके जुटाने के लिए बुनियादी तौर पर हिंसा का ही सहारा लेता है. जिस तरह मुख्य़धारा के राजनीतिक दल और संगठन आज अपने विस्तार के लिए तकनीक का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं, ठीक उसी तरह आतंकवादी संगठन भी अपना मक़सद पूरा करने के लिए तकनीकी हथियारों का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं.

बहुत से विद्वानों ने बार-बार कहा है कि अपने विस्तार के लिए हर आतंकी संगठन को एक बड़ा तमाशा खड़ा करने की ज़रूरत होती है. तकनीक इस काम में उनकी सबसे बड़ी मददगार है. नई तकनीक की मदद से वो हिंसा के इस भयानक खेल को नए-नए दर्शकों तक पहुंचा सकते हैं. नए इलाक़ों में पहुंच बना सकते हैं.

मिसाल के लिए न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च में हुई गोलीबारी की वारदात को ही लीजिए. बेगुनाह और निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाने वाले ने अपनी राइफ़ल पर कैमरा लगा रखा था. वो गोलीबारी की इस नृशंस घटना को सोशल मीडिया पर लाइव दिखा रहा था. संचार के ये नए माध्यम बिना किसी ख़र्च के दूर-दूर तक पहुंच बनाने में मदद करते हैं.

इसीलिए हम ने देखा है कि पिछले कई साल से आतंकवादी संगठन तक़नीक का बढ़-चढ़ कर इस्तेमाल कर रहे हैं. हिंसक घटनाओं को दुनिया और समाज के सामने बेहिचक परोस रहे हैं. बहुत से समुदायों और देशों को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ी है.

इंटरनेट की कई सुविधाएं ऐसी हैं, जिन्होंने आतंकी संगठनों के काम को आसान बना दिया है. एंड-टू-एंड एनक्रिप्शन से दो लोगों और समूहों के बीच गुप-चुप संवाद आराम से होता है. इसे ख़ुफ़िया या जांच एजेंसियां नहीं देख-सुन पाती है. इसी तरह वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क यानी वीपीएन (VPN) की मदद से दो लोग बिना किसी की नज़र में आए संवाद कर सकते हैं. इंटरनेट से मिलने वाली ऐसी सहूलियतों का आतंकी संगठन भरपूर फ़ायदा उठा रहे हैं. वो इनके ज़रिए नए-नए लोगों को अपने साथ जोड़ लेते हैं और अपने संगठन का विस्तार करते हैं. जैसे कि, इस्लामिक स्टेट (ISIS) के लिए प्रचार करने वाले बहुत से समूहों ने फ़ेसबुक और ट्विटर छोड़कर टेलीग्राम को अपना लिया. इसकी सबसे बड़ी वजह थी टेलीग्राम में एनक्रिप्शन की सुविधा. इसके सदस्यों की बातचीत को कोई देख-सुन या पढ़ नहीं सकता. ऐसे में फ़ेसबुक की खुली दुनिया से टेलीग्राम का ख़ुफ़िया मैदान, इस्लामिक स्टेट की प्रचार मशीनरी को ज़्यादा मुफ़ीद लगा.

तकनीक का एक फ़ायदा ये भी है कि आतंकवादी तमाम भौगोलिक सरहदें लांघ सकते हैं. देशों की सरहदें उनके विस्तार के आड़े नहीं आतीं. सीरिया में बैठे इस्लामिक स्टेट के लड़ाके या प्रचारक, बड़ी आसानी से भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश में मौजूद अपने समर्थकों से संपर्क कर सकते हैं. सऊदी अरब या पाकिस्तान में मौजूद आतंकी संगठन नई तकनीक की मदद से दूर-दूर से अपने लिए पैसे जुटा सकते हैं. लोगों को बरगला अपने संगठन के लिए काम करने को राज़ी कर सकते हैं. इंटरनेट ने आतंकी संगठनों के लिए ये काम बहुत आसान बना दिए हैं.

ऑनलाइन दुनिया में संवाद के हर माध्यम का ये ख़तरनाक आतंकी संगठन जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं. फ़ेसबुक और टेलीग्राम जैसे सार्वजनिक मंच तो हैं ही. चैट रूम, पोर्न वेबसाइट और ऑनलाइन गेम के ज़रिए भी आतंकी संगठन लोगों तक पहुंच बना रहे हैं. ये वर्चुअल दुनिया आतंकवाद की नई पौध तैयार करने का उपजाऊ मैदान है. हिंसात्मक विचारधारा के प्रचार का अच्छा और असरदार माध्यम है. आज आतंकी संगठन ‘डिजिटल आतंकी दस्ते’ बना रहे हैं, जिनका मक़सद किसी आतंकवादी संगठन के लिए भर्तियां करना और पैसे जुटाना है. डिजिटल दुनिया के इन आतंकी दस्तों की अहमियत इसी बात से समझ सकते हैं कि 2016 में इस्लामिक स्टेट ने ज़मीनी लड़ाकों की ही तरह वर्चुअल दुनिया में काम करने वालों को मी़डिया मुजाहिद कह कर ख़ून-ख़राबा करने वालों के बराबर दर्ज़ा दिया था. इससे ऑनलाइन आतंकवादियों को भी लोगों को मारने वाले आतंकियों के बराबर सम्मान हासिल हो गया. ये इस बात की मिसाल है कि आज आतंकी संगठनों की डिजिटल शाखाएं और साइबर दस्ते, उनके लिए कितनी अहम हो गए हैं.

आतंकी संगठन पहले हवाला के ज़रिए अपने लिए पैसे जुटाते थे. तकनीक ने फंडिंग जुटाने का काम भी आतंकी संगठनों के लिए आसान कर दिया है. आज ई-वॉलेट, डिजिटल और क्रिप्टो करेंसी के ज़रिए आतंकवादी संगठन आसानी से फंड जुटा रहे हैं. यहां तक कि वो क्राउड फंडिंग यानि ख़ास मक़सद से दान देने वालों को जोड़ कर भी आराम से वर्चुअल दुनिया से पैसे की उगाही कर रहे हैं. इनसे अपनी गतिविधियों के लिए पैसे जुटा रहे हैं.

इसका नतीजा ये हुआ है कि किसी आतंकी संगठन की फंडिंग पर लगाम लगाने के परंपरागत तरीक़े नाकाम हो रहे हैं. आज आतंकवादी संगठनों के पास पैसे जुटाने के पहले से ज़्यादा ज़रिए मौजूद हैं.

आतंकवाद और तकनीक के इस बेहद घातक मेलजोल से निपटने में हुकूमतों को बहुत मुश्किलें आ रही हैं. सबसे बड़ी दिक़्क़त इस बात की है कि सरकारों को साइबर दुनिया की आज़ादी में कोई दख़ल दिए बिना, आतंकी संगठनों पर लगाम लगानी है. क्योंकि, इंटरनेट ने आम नागरिक को भी बहुत से मंच मुहैया कराए हैं. साइबर दुनिया पर इकतरफ़ा कार्रवाई से ये आम नागरिक भी परेशान होंगे. तकनीक ने उन्हें तरक़्क़ी के जो नए मौक़े मुहैया कराए हैं, वो आम जनता से छिन जाएंगे.

ख़ुद तकनीकी कंपनियां भी आतंकवाद के इस वर्चुअल ख़तरे से निपटने में मुश्किल महसूस कर रही हैं. आज सोशल मीडिया में सोशल ही सबसे ज़्यादा निशाने पर है. आतंकवाद, फ़ेक न्यूज़ और राजनीतिक दख़लंदाज़ी को क़ाबू करने की मुहिम में इन तकनीकी कंपनियों की अपनी नीतियां ही रोड़े डाल रही हैं.

सोशल मीडिया के तमाम मंचों का इस्तेमाल दुनिया भर में अरबों लोग करते हैं. ऐसे में इन तक़नीकी कंपनियों के सामने अपने ग्राहकों के प्रति जवाबदेही का ख़याल रखते हुए सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने की चुनौती है. फिर सवाल उनके निवेशकों और बाज़ार का भी है.

आज सरकारें, निजी कंपनियां और ज़मीनी संगठन आतंकवाद और तकनीक के इस भयानक गठजोड़ की चुनौती से निपटने में लगी हैं. उनके लिए ज़रूरी है कि इस चुनौती से जुड़ी कुछ बुनियादी बातों का ख़ास ख़याल रखें.

पहली बात तो ये है कि, गैर-इरादतन तरीक़े से तकनीक की दुनिया के खुलेपन पर पर्दा न डाला जाए. बहुत से देशों ने आतंकवादी घटनाओं के बाद इंटरनेट और इससे जुड़ी सुविधाओं पर इकतरफ़ा पाबंदी लगाई है. जैसे कि हाल ही में श्रीलंका ने किया.

हुकूमतों को तकनीक को दुश्मन के तौर पर नहीं देखना चाहिए, बल्कि आतंकवाद के ख़तरे से निपटने के लिए तकनीक का बेहतर इस्तेमाल सीखना चाहिए. ऐसा करने पर वो इंटरनेट की दुनिया की ज़्यादा बेहतर निगरानी कर सकेंगे. इसके अलावा ख़ुफ़िया और जांच एजेंसियों को नई-नई तकनीक की मदद लेनी चाहिए, ताकि वो आतंकी संगठनों के डिजिटल दस्तों को पहचान कर उनका ख़ात्मा कर सकें. नए क़ानून और नियमों से इंटरनेट को क़ाबू नहीं किया जा सकता. डिजिटल आतंकवाद से निपटने के लिए तकनीक का ज़्यादा और बेहतर इस्तेमाल ही सही तरीक़ा है. लेकिन, ज़्यादातर देश आतंकवाद से लड़ने में तकनीक के इस्तेमाल में नाकाम रहे हैं.

दूसरी बात, डिजिटल दुनिया के आम नागरिकों को भी उन नए नियमों, माध्यमों और संस्थाओं का गवाह बनना होगा, जो आतंकवाद से निपटने के लिए बनाए जा रहे हैं. तभी इस अहम मसले पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग कारगर होगा. आतंकवाद की चुनौती अब सीमाओं से परे हो चुकी है. आज हम इस पर चर्चा को क्षेत्रीय आतंकवाद या अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के दायरे में नहीं बांध सकते. आतंकवाद का पूर्वी और पश्चिमी में बंटवारा बेकार हो चुका है. आज हुकूमतों और तकनीकी कंपनियों को ऐसे नए माध्यम और मौक़े तलाशने होंगे, जिनके ज़रिए वो आपसी तालमेल बढ़ाएं. तभी हम संस्थागत, औपचारिक-अनौपचारिक तरीक़ों से आतंकवाद से निपटने का रास्ता निकाल सकेंगे.

निज़ाम और निजी क्षेत्र के बीच अविश्वास की ख़ाई बहुत गहरी और पुरानी है, इस दूरी का फ़ायदा आतंकवादी संगठन उठाने में कामयाब रहे हैं.

तीसरी अहम बात ये है कि तकनीकी कंपनियों को अपने मंच पर हो रही आतंकी गतिविधियों को सामने रखने में और खुलापन लाना होगा. इन कंपनियों को शेयर बाज़ार में अपने शेयरों के भाव की ज़्यादा फ़िक्र होती है. इसका नतीजा ये है कि आतंकवाद से निपटने की वैश्विक रणनीति असरदार नहीं हो पा रही है. तकनीकी कंपनियों को अपने भीतर ऐसी व्यवस्था विकसित करनी होगी ताकि अपने मंच पर वो जब भी कोई आतंकी गतिविधि पकड़ें तो उसे फ़ौरन जांच और ख़ुफ़िया एजेंसियों को बताएं. इन कंपनियों को अपने यहां चल रही आतंकी गतिविधियों के पकड़े जाने पर और इनके तौर-तरीक़ों के बारे में समय-समय पर जानकारी सार्वजनिक करना चाहिए. इन्हें बताना चाहिए कि किस तरह से ये आतंकवादी गतिविधियां उनकी पकड़ में आईं. उनसे निपटने के लिए कंपनियों ने कौन से क़दम उठाए. पारदर्शी तरीक़े से आपसी सहयोग में आना-कानी के कारण डिजिटल दुनिया में होने वाले आतंकी हादसे सार्वजनिक नहीं हो पाते. इससे हम इन ग़लतियों से सबक़ नहीं ले पाते. आतंकवाद का नेटवर्क किसी और डिजिटल कंपनी के मंच या माध्यम का इस्तेमाल करने लगता है जो ये बड़ी गंभीर समस्या है.

चौथी अहम बात है कि सरकारों को भी ये समझना होगा कि तकनीक असल में एक औज़ार है, ये हक़ीक़त की दुनिया का विकल्प नहीं है. कई बार सरकारी संस्थाएं एनक्रिप्शन कमज़ोर करने के लिए नियम बनाती है. असल में उनकी समझ बचकानी होती है. उन्हें लगता है कि इससे वो वर्चुअल दुनिया की निगरानी की अपनी ज़िम्मेदारी बेहतर ढंग से निभा सकेंगे. पर, होता इसके उलट है. करोड़ों आम लोग, जिनकी ज़िंदगियां तकनीक की मदद से बेहतर हो रही हैं, उन्हें नुक़सान उठाना पड़ता है. वहीं, आतंकी संगठन ऐसे नियमों से पार पाने के लिए दूसरे और बेहतर माध्यम का रुख़ कर लेते हैं. हाल के दिनों में हम इसकी कई मिसालें देख चुके हैं.

पांचवीं, आतंकवाद से निपटने के लिए स्थानीय संगठनों को मज़बूत करना ज़रूरी है. आतंकवाद के ख़िलाफ़ पहला मोर्चा यही ज़मीनी संगठन लेते हैं. सरकार और निजी तकनीकी कंपनियों को वक़्त की इस ज़रूरत को समझना होगा. इस में कोई दो राय नहीं कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय स्तर के ख़ुफ़िया संगठनों की अहमियत बनी हुई है. लेकिन, अगर हमें तकनीकी हथियारों से लैस आतंकी संगठनों को हराना है, तो स्थानीय पुलिस और दूसरे ज़मीनी संगठनों को तकनीकी रूप से सक्षम बनाना होगा जब तक हम इन संगठनों को तकनीक और इसके इस्तेमाल के हुनर नहीं सिखाएंगे, तब तक इस जंग में आतंकवादी हमेशा एक क़दम आगे ही रहेंगे. आज इंटरनेट पर ख़ुद से करिए (DIY — Do it Yourself) जैसे तरीक़ों से आतंकवाद ख़ूब फल-फूल रहा है. इनसे ज़मीनी लड़ाई के लिए लोकल संस्थाओं को मज़बूत बनाना ज़रूरी है.

और आख़िर में, ये क़दम उठाने के साथ-साथ हुकूमतों और तकनीकी कंपनियों को रणनीतिक संवाद की क्षमता बढ़ाने में निवेश करना होगा. जब तक भले लोग, लुभाने वाली कट्टरपंथी सोच और आतंकवाद से लड़ने में सक्षम नहीं होंगे, तब तक आतंकवाद के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई कमज़ोर ही रहेगी. सरकारों को आम आदमी को आतंकवाद और कट्टरपंथी विचारधारा से लड़ने के संसाधनों से लैस करना होगा. वरना, ये काम आतंकवादी करेंगे. आतंकवाद से लड़ने की पुरानी रणनीति में क्रांतिकारी बदलाव लाने की ज़रूरत है. उसे बेहतर बनाना होगा. आतंकवादियों ने तकनीक और हथियारों का घातक कॉकटेल विकसित कर लिया है. वहीं, उनसे लड़ने वाले आम नागरिकों, सरकारी और दूसरे संगठन अभी इस ख़तरे को पहचानने और इससे निपटने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने में बहुत पीछे हैं.

तकनीक की ताक़त से लैस आतंकवाद से निपटने के लिए रणनीति बनाने वालों को समझना चाहिए कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में पूरे समाज को साथ लाना होगा. आतंकी गतिविधियों के ख़िलाफ़ पहला मोर्चा अक्सर स्थानीय समुदाय और स्थानीय संगठन लेते हैं. तकनीक कितनी भी बदल जाए, इस बुनियादी बात में कोई फ़र्क़ नहीं आएगा.

इसलिए ज़रूरी है कि तकनीकी कंपनियों को प्रशासन के साथ मिलकर बुनियादी सामुदायिक संस्थाओं को तकनीकी रूप से ताक़तवर बनाना होगा. उन्हें आम नागरिकों को इस ख़तरे के प्रति जागरूक करना होगा. कंपनियों को पारदर्शी तरीक़े से अपने वो नियम-क़ायदे और तौर-तरीक़े आम लोगों से साझा करने होंगे, जिनसे तरक़्क़ी, अधिकार और सुरक्षा के त्रिकोण का तालमेल बना रहे.

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