Published on Nov 03, 2023 Updated 0 Hours ago
‘प्रकृति के अनुकूल ऊर्जा की तरफ बदलाव के लिये तकनीक और वित्त का बेहतर इस्तेमाल’

1.नेट-ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करने के लिए कृषि एक प्रमुख साधन है

नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन को हासिल करने की रेस में मुख्यधारा की अधिकतर बातचीत में ऊर्जा परिवर्तन (एनर्जी ट्रांज़िशन) का दबदबा है. ये चर्चा हो रही है कि हम जीवाश्म ईंधन से कम कार्बन वाले ऊर्जा के स्रोतों जैसे कि सौर, पवन, हाइड्रोजन और परमाणु ऊर्जा की तरफ कितना तेज़ बदलाव कर सकते हैं. लेकिन ये बातचीत जलवायु परिवर्तन के पूरे पैमाने को नहीं ज़ाहिर करती है. जीवाश्म ईंधन को जलाना ग्रीन हाउस गैस (GHG) के उत्सर्जन में केवल एक लेकिन महत्वपूर्ण योगदानकर्ता है. लगभग 25 प्रतिशत GHG उत्सर्जन कृषि, वानिकी और ज़मीन के इस्तेमाल के पैटर्न के परिणामस्वरूप है जिसे केवल कोयला और पेट्रोकेमिकल से परे ऊर्जा ईंधन के स्रोत में विविधता लाने से ख़त्म नहीं किया जा सकेगा. इसके अलावा, स्वच्छ ईंधन से सिर्फ उत्सर्जन में कमी आएगी न कि औद्योगिक गतिविधि के नतीजतन वातावरण में पहले से मौजूद अतिरिक्त कार्बन सामग्री को हटाया जाएगा. यहां तक कि 100 प्रतिशत स्वच्छ ऊर्जा के मिश्रण के साथ भी- ये ऐसी वास्तविकता है जो कई दशक दूर है- कार्बन उत्सर्जन का उत्पन्न होना जारी रहेगा. इस तरह शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए उत्सर्जन कम करने या उत्सर्जन से परहेज करने से आगे बढ़ने की आवश्यकता है. इसके लिए वातावरण से भी कार्बन को हटाना पड़ेगा.

स्वतंत्रता के 75 साल के बाद भी लगभग 55 प्रतिशत भारतीय आबादी रोज़गार के लिए कृषि और इससे जुड़ी गतिविधियों में शामिल है. लोगों को केंद्र में रखने वाला ऊर्जा परिवर्तन जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता जो कि जलवायु परिवर्तन के असर से सबसे ज़्यादा असुरक्षित है. लगभग 70 प्रतिशत भारतीय किसान छोटी जोत वाले हैं जो कि एक हेक्टेयर से कम ज़मीन पर खेती करते हैं. इनमें से ज़्यादातर किसान अभी भी फसल की कटाई और उत्पादन के लिए मौसम की अनियमितता पर निर्भर हैं और सूखा एवं बाढ़ जैसी मौसम से जुड़ी घटनाओं के मामले में सबसे असुरक्षित हैं. 

लोगों को केंद्र में रखने वाला ऊर्जा परिवर्तन जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता जो कि जलवायु परिवर्तन के असर से सबसे ज़्यादा असुरक्षित है.

ख़ास तौर पर “हरित क्रांति” के समय से पारंपरिक खेती की पद्धतियों जैसे कि ज़रूरत से ज़्यादा जुताई, खेतों में अधिक पानी, अवशेषों को जलाना, वनों की कटाई और केमिकल फर्टिलाइज़र के आवश्यकता से अधिक उपयोग ने देश के ज़्यादातर हिस्सों में मिट्टी की गुणवत्ता ख़राब कर दी है. हालांकि इन पद्धतियों ने कई क्षेत्रों में फसल की उपज बढ़ा दी है लेकिन ये साफ होता जा रहा है कि इस तरह के फायदे पर्यावरण के ख़िलाफ़ हैं. भारत की लगभग 30 प्रतिशत ज़मीन को कम उपजाऊ (डिग्रेडेड) माना जाता है. भारत की मिट्टी में ‘ऑर्गेनिक कंटेंट यानी जैविक सामग्री’ विशेषज्ञों द्वारा निर्धारित मात्रा से बहुत कम है और इसमें कई पोषक तत्वों की लगातार कमी हो रही है. रोज़गार के साधन के तौर पर गुज़र-बसर की तलाश में छोटी जोत वाले किसानों के पर्यावरण विरोधी तौर-तरीकों में शामिल होने की ज़्यादा आशंका है. इन पद्धतियों की वजह से कार्बन का भी ज़्यादा उत्सर्जन होता है. 

2.वराह का समाधान: प्रकृति के लिए तकनीक और वित्त का लाभ उठाना

वराह छोटी जोत वाले किसानों के लिए कार्बन मुक्त पर्यावरण को आसान बनाने के उद्देश्य से एक तकनीकी प्लैटफॉर्म बना रहा है. हम सबसे बेहतरीन वैज्ञानिक और डिजिटल मेज़रमेंट (माप), रिपोर्टिंग एवं वेरिफिकेशन के ज़रिए सटीक और अतिरिक्त “प्रकृति आधारित” कार्बन ऑफसेट क्रेडिट जेनरेट करते हैं. साथ ही कार्बन से परहेज और उसे हटाने की परियोजना को विकसित करने के लिए छोटी जोत वाले किसानों और ज़मीन के मालिकों के साथ नज़दीकी तौर पर काम करते हैं. प्रोजेक्ट के हमारे बढ़ते पोर्टफोलियो में शामिल हैं: 

  1. रिजेनरेटिव कृषि जिसमें जुताई नहीं करना, फसल विविधता, कवर क्रॉपिंग (ऐसे पौधे जो मिट्टी को ढंकने के लिए लगाए जाते हैं), फसल अवशेष को शामिल करना जैसी प्रथाएं शामिल हैं. ये सभी विशेष मिट्टी और फसल के प्रकार में उपयोग की जाती हैं; 
  2. एग्रोफॉरेस्ट्री (कृषि वानिकी) जो कि ज़मीन के इस्तेमाल की एक पद्धति है जिसमें खेतों और साझा ज़मीनों में पेड़ों और झाड़ियों के मिश्रण को लगाया जाता है; 
  3. मैंग्रोव की वापसी जिसका मतलब है प्राकृतिक दलदली ज़मीन के इकोसिस्टम की बहाली और संरक्षण ताकि “ब्लू कार्बन” सिंक (कार्बन को सोखने वाला समुद्री और तटीय इकोसिस्टम) के रूप में उनकी कुदरती क्षमता को बढ़ाया जा सके; और 
  4. लकड़ी के कोयले का उत्पादन जो ‘पाइरोलाइसिस’ नाम की एक प्रक्रिया में बायोमास को नियंत्रित तरीके से जलाने के रूप में हो.

वराह का अंतिम स्तर का कार्बन प्रोजेक्ट सक्षमता मॉडल किसानों और समुदायों की प्राकृतिक संपदा का इस्तेमाल करता है ताकि सतत पद्धतियों को प्रोत्साहन देने के लिए कार्बन मार्केट वित्त टूल जैसे कि अग्रिम मूल्य निर्धारण (फॉरवर्ड प्राइसिंग) को बढ़ावा देते हुए कार्बन उत्सर्जन से परहेज किया जा सके और उसे हटाया जा सके. हमारा डेटा कलेक्शन और ज़मीनी डेटा के सत्यापन (वैलिडेशन) की प्रक्रियाएं खेत के स्तर पर “अतिरिक्त” साबित होती है. ज़मीनी स्तर के डेटा को इकट्ठा करने के लिए किसान के पास मौजूद ऐप और भौतिक तरीके से मिट्टी के नमूने का सहारा लिया जाता है. ज़मीनी पद्धति के सत्यापन के लिए इसके साथ बेहद जटिल तकनीकों जैसे कि रिमोट सेंसिंग आधारित मशीन लर्निंग (ML) मॉडल और लाइट डिटेक्शन एंड रेंजिंग (LiDAR) की भी मदद ली जाती है. हमारा मापने का मॉडल तब सटीक ढंग से GHG उत्सर्जन को निर्धारित करके अच्छी क्वालिटी वाला, टिकाऊ कार्बन क्रेडिट उत्पन्न करता है जिसे दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पद्धतियों के अनुसार थर्ड पार्टी के द्वारा स्वतंत्र रूप से सत्यापित किया जाता है. 

ज़मीनी स्तर के डेटा को इकट्ठा करने के लिए किसान के पास मौजूद ऐप और भौतिक तरीके से मिट्टी के नमूने का सहारा लिया जाता है.

वराह के समुदाय केंद्रित और विज्ञान सबसे पहले वाले दृष्टिकोण ने हमें कम समय में प्रकृति आधारित जलवायु समाधान के मामले में दुनिया में सबसे आगे बढ़ने वाले डेवलपर में से एक बना दिया है. हम कार्बन क्रेडिट की बिक्री से मिलने वाला ज़्यादातर राजस्व सीधे हमारे 1,00,000 से ज़्यादा छोटी जोत वाले किसानों और ज़मीन का प्रबंधन करने वाले साझेदारों से साझा करते हैं. हमारी मौजूदा परियोजनाएं पांच देशों (भारत, नेपाल, बांग्लादेश, केन्या, तंज़ानिया) में 10 लाख हेक्टेयर से ज़्यादा इलाक़े में फैली हुई हैं और हम इन पांच देशों के अलावा आठ से नौ देशों में बड़ा नेटवर्क बना रहे हैं. सीधे तौर पर आमदनी बढ़ाने और कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने के अलावा हमारी परियोजनाएं पर्यावरण के लिए कई अन्य लाभ उत्पन्न करती हैं. उदाहरण के लिए, गंगा के मैदानी क्षेत्रों में सात राज्यों में हमारी प्रमुख रिजेनरेटिव कृषि की परियोजना मिट्टी में ऑर्गेनिक पदार्थ को सुधारने, कटाव कम करने और पानी की क्वालिटी सुधारने में मदद करती है. इस प्रोजेक्ट से ज़्यादातर क्रेडिट कार्बन हटाने वाला क्रेडिट है जो जलवायु परिवर्तन को ठीक करने में सकारात्मक योगदान के बारे में बताता है.  

3.आगे बढ़ने में चुनौतियां और प्रमुख भागीदारों के लिए सिफारिशें

कार्बन से परहेज और उसे हटाने के उद्देश्य से प्रकृति आधारित समाधान के लिए आगे के रास्ते की तरफ नज़र डालने पर कुछ चुनौतियां मिलती हैं. इस मामले में सार्वजनिक नीति और प्राइवेट सेक्टर की बाज़ार भागीदारी- दोनों के द्वारा इन चुनौतियों से निपटने में भूमिका निभाई जानी है. 

प्रकृति आधारित समाधान अभी भी कृषि के भीतर एक उभरता क्षेत्र है और सरकार समेत प्रमुख हिस्सेदारों को शिक्षित करके जागरूकता का निर्माण करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास की आवश्यकता है. इस तरह सरकार और समुदाय के साथ जुड़े लोग छोटी जोत वाले किसानों को प्रकृति के मामले में सकारात्मक, ऑर्गेनिक कृषि और कृषि वानिकी के दीर्घकालीन लाभों के बारे में बता सकते हैं. ये ख़ास तौर पर इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि पहले 1-2 वर्षों में उपज में अस्थायी कमी (पारंपरिक, केमिकल वाली खेती की पद्धति की तुलना में) आ सकती है. ज़्यादातर किसान प्रकृति के लिए सकारात्मक, ऑर्गेनिक खेती की पद्धतियों के दीर्घकालीन लाभ के बारे में सहजता से समझते हैं लेकिन शुरुआत में अपने तरीके को बदलने के बारे में झिझक रखते हैं. इसके लिए वो आमदनी के नुकसान और अनिश्चित उपज को मुख्य चिंता बताते हैं. जैसे-जैसे प्रकृति आधारित समाधान के लिए बाज़ार परिपक्व होता है, वैसे-वैसे इन चिंताओं का समाधान शुरू हो जाएगा. इसकी वजह ये है कि ज़्यादातर प्रोजेक्ट के फाइनेंसर कार्बन मार्केट की वैल्यू चेन के हिस्से के रूप में प्रवेश करते हैं ताकि शुरुआती वर्षों में नुक़सान की भरपाई की जा सके. इस मामले में शुरुआती परियोजनाएं सफलता दिखा रही हैं.

आज प्रकृति आधारित, कार्बन ऑफसेट सॉल्यूशंस के लिए ज़्यादातर मांग अभी भी अंतर्राष्ट्रीय स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार में है. ये बढ़ता बाज़ार अभी भी अपने विकास के शुरुआती चरण में है और कीमत की खोज का तौर-तरीका परिपक्व हो रहा है.

आज प्रकृति आधारित, कार्बन ऑफसेट सॉल्यूशंस के लिए ज़्यादातर मांग अभी भी अंतर्राष्ट्रीय स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार में है. ये बढ़ता बाज़ार अभी भी अपने विकास के शुरुआती चरण में है और कीमत की खोज का तौर-तरीका परिपक्व हो रहा है. चूंकि अनुपालन (कम्प्लायेंस) के बाज़ार का दुनिया भर में उदय हो रहा है, ऐसे में विकासशील अर्थव्यवस्थाएं जैसे कि यूरोपियन यूनियन और अमेरिका के साथ शुरू करके उम्मीद की जाती है कि भारत में अच्छी क्वालिटी के प्रकृति आधारित क्रेडिट के लिए ज़्यादा और अधिक स्थिर मांग होगी. उदाहरण के लिए, जापान ने ज्वाइंट क्रेडिटिंग मेकेनिज़्म (JCM) के तहत अपने साझेदारों की सूची में भारत को शामिल किया है. इसमें जापान कार्बन क्रेडिट के बदले में भारत में उत्सर्जन कम करने वाली परियोजनाओं के लिए वित्त मुहैया कराएगा. 

भारतीय पूंजी बाज़ारों ने अभी भी कार्बन ऑफसेट को पूरी तरह नहीं अपनाया है. इसका मुख्य कारण स्पष्ट रूप से सतर्क नीतिगत दृष्टिकोण है. केंद्र सरकार के द्वारा ऊर्जा संरक्षण बिल के हिस्से के रूप में कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) के ज़रिए घरेलू कार्बन एवं “ग्रीन” क्रेडिट बाज़ार की स्थापना के लिए ठोस कदम उठाते हुए देखना ख़ुशी की बात है. पारदर्शिता, बाज़ार की ईमानदारी और मानकीकरण (स्टैंडर्डाइज़ेशन) को सुनिश्चित करना इसकी सफलता के लिए महत्वपूर्ण है. साथ ही CCTS को ठीक ढंग से भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) के लक्ष्यों और वैश्विक जलवायु मानक के साथ जोड़ना अंतर्राष्ट्रीय मान्यता हासिल करने के लिए आवश्यक है. 

जून 2023 में ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम (GCP) का एक मसौदा जारी किया गया था जिसमें प्रकृति आधारित क्रेडिट को जेनरेट करने की क्षमता के साथ लोगों, कृषि सहकारी समितियों, वानिकी उद्यमों (फोरेस्ट्री एंटरप्राइज़ेज़) और अन्य संस्थानों के लिए लागू करने के नियमों और संरचना की रूप-रेखा बताई गई थी. भारत एक राष्ट्रीय एकीकृत कार्बन बाज़ार (ICM) विकसित कर रहा है जहां कुछ क्षेत्रों को कैप-एंड-ट्रेड कम्प्लायेंस मार्केट (कार्बन ऑफसेट के लिए एक बाज़ार) के तहत रखा जाएगा और इसके समानांतर एक स्वैच्छिक बाज़ार चलेगा. भारत फिलहाल पेट्रोकेमिकल, लोहा एवं इस्पात, सीमेंट और लुगदी एवं पेपर सेक्टर की कंपनियों के लिए तीन साल में कार्बन उत्सर्जन तीव्रता मानक और कटौती  का लक्ष्य निर्धारित कर रहा है. इन क्षेत्रों की कंपनियां शायद अप्रैल 2025 से सबसे पहले देश के कार्बन ट्रेडिंग मार्केट में व्यापार करेंगी. 

ये नीतिगत गतिशीलता बनी रहनी चाहिए. महत्वपूर्ण बात ये है कि इसके साथ घरेलू स्तर पर उत्पन्न क्रेडिट की अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बिक्री पर पाबंदी नहीं लगनी चाहिए. ऐसा करने पर भारत के छोटी जोत वाले किसान बाज़ार के एक महत्वपूर्ण अवसर से वंचित रह जाएंगे और ये 2022 में गेहूं के निर्यात पर लगाई गई पाबंदी के ख़राब असर को दोहराना होगा. इसके विपरीत सरकार को सक्रिय रूप से भारतीय प्रकृति आधारित समाधानों ख़ास तौर पर प्रोजेक्ट में वित्त मुहैया कराने वालों और “फॉरवर्ड” क्रेडिट ख़रीदारों में वैश्विक और घरेलू निवेश को बढ़ावा देना चाहिए. वास्तव में एक चिट्ठी के जवाब में कार्बन मार्केट एसोसिएशन ऑफ इंडिया के महासचिव रोहित कुमार ने कहा कि “भारत सरकार और भारतीय कार्बन बाज़ार के तहत राष्ट्रीय ETS (एमिशन ट्रेडिंग स्कीम) अंतर्राष्ट्रीय स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार में भारतीय कारोबार की भागीदारी और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय मूल के स्वैच्छिक कार्बन क्रेडिट के निर्यात को नहीं रोकेगी”. 

इसके साथ-साथ घरेलू अंतिम ख़रीदार की मांग को बढ़ावा देने की ज़रूरत है. भारतीय कंपनियों को और ज़्यादा ज़रूरत दिखानी चाहिए. उन्हें पहले उत्सर्जन की भरपाई करने के लिए विज्ञान आधारित लक्ष्यों को अपनाना चाहिए और फिर ठोस कदम उठाने चाहिए. व्यवसायों को इसे एक अवसर के तौर पर स्वीकार करना चाहिए न कि अनुपालन से जुड़ी बाधा के रूप में. ज़्यादा ज़मीन पर काम करने वाली कंपनियों (उदाहरण के लिए खाद्य एवं पेय पदार्थ और कपड़ा कंपनियां) के लिए ख़ास तौर पर अपनी सप्लाई चेन को कार्बन मुक्त करने का एक अवसर है. इसके साथ-साथ वो दीर्घकालीन लागत में कमी कर सकती हैं, साझेदार समुदायों (यानी किसानों) के कल्याण को बढ़ा सकती हैं और पर्यावरण से जुड़े कई लाभ को आसान बना सकती हैं. नीति निर्माता प्रकृति आधारित भरपाई की रणनीति को अपनाने की दिशा में तेज़ कार्रवाई के लिए कंपनियों को प्रेरित कर सकते हैं. 

आगे बढ़ने की दिशा में अन्य संभावित चुनौतियों में ज़मीन का मालिकाना अधिकार स्थापित करने में परेशानियां और “साझा” ज़मीन (वन और मैंग्रोव) पर प्रकृति आधारित परियोजनाओं को लागू करने के लिए मंज़ूरी देने में सरकार के द्वारा धीमी कार्रवाई शामिल हैं. आदर्श रूप से सरकारों को संभावित प्रकृति संरक्षण और बाज़ार के अवसरों के लिए प्रशासनिक बाधाओं की पहचान करने और उन्हें दूर करने में खेतिहर समुदायों और प्रोजेक्ट का विकास करने वालों के साथ मिलकर काम करना चाहिए. इससे भारत के नेट-ज़ीरो, खाद्य सुरक्षा और संरक्षण के लक्ष्यों में योगदान किया जा सकेगा. 

आदर्श रूप से सरकारों को संभावित प्रकृति संरक्षण और बाज़ार के अवसरों के लिए प्रशासनिक बाधाओं की पहचान करने और उन्हें दूर करने में खेतिहर समुदायों और प्रोजेक्ट का विकास करने वालों के साथ मिलकर काम करना चाहिए.

अंत में, बाज़ार के भागीदारों जैसे कि प्रोजेक्ट डेवलपर और मान्यता देने वालों को ये ज़रूर स्वीकार करना चाहिए कि किसी भी उद्योग के लिए ‘भरोसा’ समय के साथ हासिल किया जाता है. डेवलपर को किसानों की आमदनी एवं पर्यावरण पर असर को मापने जैसे फायदों की सख्त निगरानी और पारदर्शी रिपोर्टिंग पर ज़ोर देना चाहिए और प्रोजेक्ट के डिज़ाइन एवं लाभ साझा करने में खेतिहर समुदायों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए. समय बीतने के साथ ये लोगों और प्रकृति के लिए सकारात्मक ऊर्जा परिवर्तन में निर्णायक भूमिका अदा करने की संभावना वाले एक उभरते सेक्टर में भरोसा बनाएगा.

4.निष्कर्ष 

चूंकि जलवायु परिवर्तन का असर तेज़ होना जारी है, ऐसे में न सिर्फ बहुत से भारतीयों का रोज़गार ख़तरे में है बल्कि बाकी लोगों की खाद्य सुरक्षा भी. वराह का समाधान ऐसा है जो भारत को उसके महत्वकांक्षी नेट-ज़ीरो लक्ष्य की तरफ ले जाने के साथ मिट्टी की गिरती गुणवत्ता और पर्यावरण के प्रतिकूल खेती की पद्धतियों को रोकने की तत्काल समस्या को हल करता है. वराह में काम करते हुए हम ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ इस लड़ाई में सबसे कमज़ोर समुदायों को प्राथमिकता मिले और उन्हें सबसे आगे एवं केंद्र में रखा जाए. हमारे बिज़नेस मॉडल के मूल में तकनीक और प्राइवेट मार्केट इनोवेशन का तालमेल है और इसकी मदद से हम इस सपने को साकार करने का लक्ष्य रखते हैं.


मधुर जैन वराह के को-फाउंडर और CEO हैं. 

गौरांग बियानी वराह के चीफ ऑफ स्टाफ हैं.

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