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क्या “बाज़ार में प्रतिस्पर्धा” सुनिश्चित करने के लिए मौजूद नियामक व्यवस्थाएं, प्रौद्योगिकी क्षेत्र की विशाल कंपनियों पर नियंत्रण करने के हिसाब से पर्याप्त हैं?
2010 से 2022 के बीच अमेरिका में डिजिटल जगत की पांच शीर्ष कंपनियों (एमेज़ॉन, मेटा, एप्पल, अल्फ़ाबेट और माइक्रोसॉफ़्ट) के साझा राजस्व में 29 प्रतिशत का ज़बरदस्त उछाल आया. इन कंपनियों की कुल कमाई 181 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 3.9 खरब डॉलर तक पहुंच गई. आर्थिक शक्ति में ऐसी तेज़ बढ़ोतरी के चलते इन कंपनियों की गहरी पड़ताल शुरू हो गई. इस बात पर पुनर्विचार किया जाने लगा कि “बाज़ार में प्रतिस्पर्धा” सुनिश्चित करने के लिए नियामक व्यवस्थाएं पर्याप्त हैं या नहीं.
पिछली सदी में पहले रेलवे, फिर विमानन और आख़िकार दूरसंचार क्षेत्र के तक़नीकी विनियमन ने समाधानों से जुड़े अनेक सबक़ सामने ला दिए. चार घटनाक्रमों ने सारे समीकरण उलट-पलटकर रख दिए. सबसे पहले, वेंचर कैपिटल और निजी इक्विटी फंड्स में तेज़ बढ़ोतरी ने राजस्व में सीधी बढ़ोतरी को मुनाफ़ों से ऊपर का दर्जा दे दिया. दूसरा, वैश्वीकरण ने तेज़ वृद्धि की गुंजाइश पैदा कर दी. इससे मौजूदा मुनाफ़े का चालू मूल्य भावी मुनाफ़े के एक छोटे हिस्से तक सिकुड़ गया. तीसरे, स्टार्टअप के जीवंत इकोसिस्टम ने उद्यमों के अधिग्रहण के ज़रिए वृद्धि के अवसर उपलब्ध करा दिए. गूगल (जो एक सर्च इंजन है) ने 2006 में 1.6 अरब अमेरिकी डॉलर ख़र्च कर कंटेंट मुहैया कराने वाले यूट्यूब का अधिग्रहण कर लिया. इस तरह गूगल ने कमाई के नए स्रोतों तक पैठ बना ली. चौथा, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शुरुआती दौर में चाहे जो भी लागत लगती हो लेकिन इनकी सीमांत लागत निम्न होती है.राजस्व को अधिकतम स्तर पर ले जाने के लिए मौजूदा उपभोक्ताओं पर मूल्य वृद्धि का बोझ डालने की बजाएआसपड़ोस के बाज़ारों में विस्तार की नीति फ़ायदे का सौदा बन जाती है. इससे प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एकाधिकार क़ायम करने वाली कंपनियों को लाभ होता है. इससे एक और फ़ायदा जुड़ा होता है. उपभोक्ता कल्याण की दिशा में साफ़ नज़र आने वाली नकारात्मक क़वायदों (जैसे वस्तुओं और सेवाओं की क़ीमत में बढ़ोतरी) के बिना ही एकाधिकारवादी इकाई, मुनाफ़े को अधिकतम सीमा तक ले जाने में कामयाब हो जाती हैं.
तमाम कारोबारी श्रृंखलाओं के साथ एकीकरण के चलते विनियमन के मोर्चे पर नई चुनौतियां पैदा हो गई. नामुनासिब भेदभाव रोकने से जुड़े उपाय ज़रूरी हो गए.
तमाम कारोबारी श्रृंखलाओं के साथ एकीकरण के चलते विनियमन के मोर्चे पर नई चुनौतियां पैदा हो गई. नामुनासिब भेदभाव रोकने से जुड़े उपाय ज़रूरी हो गए. अगर कोई सर्च इंजन किसी ऑपरेटिंग सिस्टम (OS) का अधिग्रहण कर लेता है तो संबंधित OS के लिए अपने मालिक़ाना हक़ वाले सर्च इंजन की हिमायत में पक्षपात करने और दूसरे सर्च इंजनों के लिए नुक़सानदेह माहौल पैदा करने को लेकर प्रोत्साहन पैदा हो जाते हैं. इसे साथ लगे बाज़ार में ऊपर से नीचे अधिग्रहण किए जाने की प्रक्रिया का उदाहरण माना जाता है. मिसाल के तौर पर साल 2005 में गूगल ने 5 करोड़ अमेरिकी डॉलर में एंड्रॉयड का अधिग्रहण किया था. इसी तरह अगर कोई सर्च इंजन (गूगल) कंटेंट उपलब्ध कराने वाले प्लेटफ़ॉर्म (यूट्यूब) का अधिग्रहण करता है तो वो प्रयोगकर्ताओं को “अपने स्वामित्व वाले” प्रदाता की ओर निर्देशित करने का प्रोत्साहन हासिल कर लेता है. इससे अन्य सामग्री प्रदाताओं पर मार पड़ती है. इस प्रक्रिया में एक अनसुलझा दुष्परिणाम ये होता है कि बाज़ारों में होने वाला तेज़ रफ़्तार नवाचार आसानी से बाज़ार प्रतिस्पर्धा में नहीं बदल पाता. दरअसल निजी इक्विटी से वित्त-पोषित आक्रामक और विशाल प्रौद्योगिकी कंपनियां नए उभरते प्रतिस्पर्धियों का अधिग्रहण कर अक्सर प्रतिस्पर्धा को ही ख़त्म कर देती हैं.
2020 आते-आते एकाधिकारवाद (anti-trust) के ख़िलाफ़ अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की उपसमिति ने एकाधिकार-विरोधी क़ानूनों में भारी बदलावों की सिफ़ारिश कर दी. इन प्रस्तावित सुधारों का मक़सद “डिजिटल अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा को दोबारा बहाल करना” था. पिछले कुछ वर्षों में न्यायिक क्रियाओं ने एकाधिकारों पर लागू वैधानिक अंकुशों में नरमी ला दी है. मौजूदा दौर में “तर्क के आधार पर नियम” वाली परिपाटी में एकाधिकार-विरोधी गतिविधियों को वास्तविक जीवन से प्रायोगिक तौर पर हासिल ठोस सबूतों के ज़रिए जायज़ ठहराना पड़ता है. इस कड़ी में प्रतिस्पर्धा की भावना को हुए शुद्ध नुक़सान को साबित करना होता है. इस ख़ास क़वायद के चलते मुक़दमा दर्ज कराने वाले पक्षके ख़िलाफ़ पासा पलट जाता है. प्रौद्योगिकी से जुड़े बाहुबलियों और याचिकाकर्ताओं के संसाधनों के बीच ग़ैर-बराबरी के चलते ऐसा नतीजा सामने आता है.
विशाल कंपनियों की शक्ति पर नियंत्रण पाने की क़वायद दुनिया भर में लोकप्रिय हो गई है. जून 2021 में राष्ट्रपति बाइडेन ने संघीय एकाधिकार विरोधी इकाई- संघीय व्यापार आयोग में अब तक के सबसे युवा अध्यक्ष के तौर पर लीना ख़ान को नियुक्त किया. सुश्री ख़ान ने 2018 में एकाधिकार-विरोधी क़ानूनों पर एक प्रभावशाली लेख लिखकर काफ़ी तारीफ़ें बटोरी थीं. इस पत्र में उन्होंने डिजिटल बाज़ारों में प्रतिस्पर्धा के संरक्षण के लिए “ढांचागत वियोग” को नए सिरे से पेश किए जाने की वक़ालत की थी. 2021 में यूरोपीय संघ के प्रतिस्पर्धा आयोग ने थर्ड-पार्टी मूल्य तुलनात्मक विक्रय सेवाओं के ख़िलाफ़ भेदभाव करने के लिए गूगल पर 2.8 अरब अमेरिकी डॉलर का जुर्माना लगाया था.
अक्टूबर 2022 में CCI ने अपने फ़ैसला में गूगल को प्रतिस्पर्धा-विरोधी हरकतों मेंशामिल क़रार दिया. फ़ैसले के मुताबिक गूगल ने एंड्रॉयड मोबाइल इकोसिस्टम सेजुड़े अनेक बाज़ारों में अपनेदबदबे वाली हैसियत का दुरुपयोग किया था.
भारत में प्रतिस्पर्धा अधिनयम 2002 ने एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम 1969 (MRTP) को ख़त्म कर एक बाज़ार-अनुकूल स्वायत्त एकाधिकार-विरोधी इकाई (भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग या CCI) का निर्माण कर दिया. दरअसल MRTP ने एकाधिकारवादी शक्तियों पर नियंत्रण पाने की आड़ में निजी कारोबारों के विकास को ही बाधित कर दिया था. नया अधिनियम प्रतिस्पर्धी बाज़ारों को प्रोत्साहित करता है और बाज़ार प्रभुत्व के मामले में तटस्थ है. एकाधिकार-विरोधी कार्रवाई केवल तभी जायज़ होती है जब बाज़ार पर दबदबे का इस्तेमाल कर प्रतिस्पर्धा पर अंकुश लगाने की कोशिश की जाती है या प्रौद्योगिकीय नवाचार या व्यापार के ग़ैर-वाजिब या भेदभावपूर्ण तरीक़ों को अमल में लाया जाता है.
अक्टूबर 2022 में CCI ने अपने फ़ैसला में गूगल को प्रतिस्पर्धा-विरोधी हरकतों मेंशामिल क़रार दिया. फ़ैसले के मुताबिक गूगल ने एंड्रॉयड मोबाइल इकोसिस्टम सेजुड़े अनेक बाज़ारों में अपनेदबदबे वाली हैसियत का दुरुपयोग किया था. लिहाज़ा CCI ने गूगल पर 13.4 अरब रुका जुर्माना लगाया. ये रकम पिछले तीन सालों में भारत में गूगल के औसतराजस्व का 10 प्रतिशत है.
गूगलप्ले स्टोर के ख़िलाफ़ इससे जुड़े एक मामले में 9.4 अरब रुपए का जुर्मानाआयद किया गया. कंपनी को प्ले स्टोर बाज़ार में अपने रसूख़ केदुरुपयोग का दोषी पाया गया. कंपनी ने (1) यूज़र द्वारा ऐप डाउनलोड करलिए जाने के बावजूद स्टोर के भीतर से ऐप की ख़रीद और उसके बाद ऐप के भीतरतमाम तरह की ख़रीदारियों के लिए गूगल बिल पे सिस्टम (GBPS) को भुगतान सेजुड़ी इकलौती व्यवस्था के तौर पर थोप दिया था (2) थर्ड-पार्टी ऐप्स के उलटयूट्यूब (गूगल के स्वामित्व वाला कंटेंट प्रोवाइडर) को विशेष सुविधाएं दीगईं. GBPS के इस्तेमाल के एवज़ में यूट्यूब से सेवा शुल्क नहीं लिया गया. (3) भुगतान के लिए ख़ुद के UPI ऐप को अन्य UPI ऐप्स के मुक़ाबले वरीयता दी गई (4) डाउनलोड के बाद फ़ॉलो-ऑन इन-ऐप ख़रीदारियों के लिए प्लेटफ़ॉर्म परमौजूद ऐप्स द्वारा प्रयोगकर्ताओं को भुगतान के वैकल्पिक "तौर-तरीक़ेसुझाने" से रोका गया.
ऐसे में समन्वयकारी भावना को वैकल्पिक और खुले इकोसिस्टम के तौर पर नए सिरे से तैयार करने की क़वायद जागरूक विकल्प हो सकती है. ये क़वायद 2007 में गूगल द्वारा प्रस्तुत ओपन हैंडसेट अलायंस की याद ताज़ा कर सकती है.
गूगल ने राष्ट्रीय कंपनी क़ानून अपीलीय प्राधिकरण (NCLAT) के फ़ैसले को चुनौती दी है. हालांकि जुर्माने की अदायगी पर वो सुप्रीम कोर्ट से फ़ौरी राहत पाने में नाकाम रहा है. NCLAT में सुनवाइयों का दौर शुरू हो चुका है. गूगल को संविदा से जुड़ी अपनीव्यवस्थाओं पर नए सिरे से काम करने की दरकार है. फ़िलहाल निर्माताओंको प्ले सर्विस सूट मुफ़्त में मिलता है. इसके साथ ही गूगल विज्ञापनसेवाओं से हासिल राजस्व को विनिर्माताओं के साथ साझा करता है. इस तरह वोइन्हें "वर्चुअल" इन-हाउस गूगल निर्माताओं में बदल देता है. चतुराई सेतैयार किए गए वैधानिक हथकंडों और वित्तीय प्रोत्साहनों ने गूगल के ओपनइकोसिस्टम को आभासी रूप से एकीकृत दुर्ग में परिवर्तित कर दिया है, जोएप्पल की ही तरह प्रतिस्पर्धा से सुरक्षित रहती है. यूरोप में नियामकएजेंसियां अपने रुख़ में सख़्ती ला रही हैं. भारत में भी (भले ही नामुनासिबढंग से) ऐसी ही तस्वीर दिखाई दे रही है. एप्पल स्टोर और गूगल प्ले स्टोरजैसी मिलती-जुलती सेवाओं के लिए वो प्रतिस्पर्धा के अलग-अलग पैमानों काइस्तेमाल कर रहे हैं.
स्मार्टफ़ोन के निर्माता,गूगल से राजस्व साझा करने की क़वायद के अलावा दूसरे स्रोतों से मुनाफ़ों का जुगाड़ लगाएंगे. उसके बाद वो ये चुन सकते हैं कि किन ऐप्स को इंस्टॉल नहींकरना है, लेकिन हो सकता है कि उन्हें गूगल मोबाइल सेवाओं के लिए यूरोपीय विनिर्माताओं की तरह भुगतानकरना पड़े. ख़बरों के मुताबिक यूरोपीय विनिर्माता हर फ़ोन पर 40 अमेरिकीडॉलर की रकम अदा करते हैं. हालांकि,ऐसे तमाम निर्माता अपने ख़ुद के ब्रांड नेम के तहतएंड्रॉयड फ़ोर्क सिस्टम्स के साथ भागीदारी करने के लिए स्वतंत्र होंगे. आजकी तारीख़ में गूगल इसकी इजाज़त नहीं देता है. गूगल को फ़िलहाल अपने ऐप्सऔर सेवाओं को अनइंस्टॉल किए जाने से सुरक्षा हासिल है. सिस्टम ऐप्स की आड़में उसे इस तरह की सहूलियत मिलती है. साथ ही उसे होम स्क्रीन पर विशिष्ट, अनिवार्य, प्रमुखता वाली जगह हासिल होती है. नई व्यवस्था में गूगल को ऐसेबचावकारी प्रावधान से हाथ धोना पड़ेगा.
भारतीय स्मार्टफ़ोन विनिर्माता औरऐप डेवलपर्स ख़ुद को इन-हाउस सप्लायर्स से आज़ाद करने का चुनाव करते हैं यानहीं, ये गूगल द्वारा मुहैया कराई गई संशोधित शर्तों पर निर्भर करेगा.उसके पास वैधानिक रूप से पाक-साफ़ स्वैच्छिक क़रारों के ज़रिए ऐसा करने केसंसाधन मौजूद हैं.ऐसे में संबद्ध पूरक क़रारों को मानने कीमौजूदा मजबूरी ख़त्म हो जाएगी.
चीनी फ़ोन विनिर्माता विदेशों में ब्रांड-जागरूकता विक्रयों के लिए गूगल की प्रतिबंधित व्यवस्थाओं का पालन करते हुए अपने कारोबारी मुनाफ़े को अधिकतम सीमा तक ले जाते हैं. इस कड़ी में वो घरेलू बाज़ार के लिए एंड्रॉयड के हाइब्रिड विकल्पों का विकास करते हैं. भारत स्मार्टफ़ोन का एक प्रमुख निर्यातक बनने का मंसूबा रखता है. ऐसे में हाइब्रिड एन्ड्रॉयड मोबाइल इकोसिस्टम में निवेश करना बुद्धिमानी भरा विचार लगता है. इसके ज़रिए गूगल द्वारा आसानी से मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं (जिनमें अब बाधाएं आ गई हैं) से परे तरक़्क़ी कर पाना मुमकिन हो सकेगा.
अभी ये साफ़ नहीं है कि क़ीमतों के प्रति संवेदनशील भारतीय खुदरा उपभोक्ताओं को इन बदलावों से क्या लाभ होने वाला है. अगर नियामक बदलावों का शुद्ध प्रभाव, एंड्रॉयड स्मार्टफ़ोन्स की फुटकर क़ीमतों में बढ़ोतरी के तौर पर सामने आता है तो ये CCI के लिए नाकामयाब क़वायद साबित होगी. भारत में 5G सेवाओं की शुरुआत हो रही है. लिहाज़ा अल्पकाल में ये प्रक्रिया करोड़ों उपयोगकर्ताओं को स्मार्टफ़ोन का प्रयोग शुरू करने से वंचित कर देगी. ज़ाहिर है, एकाधिकार-विरोधी निकाय को ऐसे परिणामों से कतई ख़ुशी नहीं होगी. भविष्य में ज़्यादा प्रतिस्पर्धा की संभावना के बदले उपभोक्ता क़ीमतों में तत्काल बढ़ोतरी का विचार अपर्याप्त है.
खुदरा उपभोक्ता सक्रिय औद्योगिक नीति मॉडल के तहत बचाव की तलाश कर सकते हैं, जिसकी फ़िलहाल सरकार हिमायत कर रही है. सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी से गूगल एंड्रॉयड सेवाओं के सस्ते और खुले विकल्प हासिल हो सकते हैं. डिजिटल वाणिज्य में ऐसा ही एक उपक्रम- द ओपन नेटवर्क फ़ॉर डिजिटल कॉमर्स (ONDC)अब एक ग़ैर-मुनाफ़े वाली कंपनी के तौर पर बदल चुका है. इसे सरकार और उद्योग मिलकर बढ़ावा दे रहे हैं. ये डिजिटल कॉमर्स के क्षेत्र में अपनी तरह का खुला प्लेटफ़ॉर्म बनने की ओर आगे बढ़ रहा है, जो एमेज़ॉन और वालमार्ट से प्रतिस्पर्धा करेगा. भारत के 15 शहरों में 25,000 रजिस्टर्ड विक्रेताओं और 18 लाख उत्पादों के साथ इसके मूल्यांकन का काम जारी है.
गूगल, एप्पल की तरह वैश्विक बाहुबली है. नियामक प्रतिबंधों को सख़्त किए जाने से इसके अनोखे इकोसिस्टम को ख़तरा पैदा हो जाता है. दरअसल इसी तंत्र ने उसे एक एकाधिकारवादी की तरह बर्ताव करने और सार्वजनिक आलोचनाओं का सामना किए बग़ैर एकाधिकारवादी मुनाफ़े कमाने की छूट दी है. ऐसे में समन्वयकारी भावना को वैकल्पिक और खुले इकोसिस्टम के तौर पर नए सिरे से तैयार करने की क़वायद जागरूक विकल्प हो सकती है. ये क़वायद 2007 में गूगल द्वारा प्रस्तुत ओपन हैंडसेट अलायंस की याद ताज़ा कर सकती है.
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Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...
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