Author : Shivam Shekhawat

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jul 16, 2024 Updated 0 Hours ago

सुरक्षा और अर्थशास्त्र से जुड़े मामलों में सम्मेलन से कोई महत्वपूर्ण फायदा नहीं मिलने के कारण तालिबान के साथ बातचीत में महिलाओं और सिविल सोसायटी के संगठनों को शामिल नहीं करने के मोल-तोल पर फिर से समीक्षा करने की ज़रूरत है.

दोहा में संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई वाले सम्मेलन में तालिबान की भागीदारी के मायने!

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर संयुक्त राष्ट्र (UN) की अगुवाई में दोहा में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का तीसरा संस्करण 30 जून और 1 जुलाई को आयोजित हुआ. लेकिन ये सम्मेलन बिना किसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम के ख़त्म हुआ. तालिबान की भागीदारी, जिसमें इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफ़ग़ानिस्तान (IEA) की नुमाइंदगी पांच सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल ने की, के साथ-साथ 25 देशों और कुछ अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के विशेष दूतों की मौजूदगी और महिला एवं अन्य सिविल सोसायटी समूहों की गैर-मौजूदगी अतीत में आयोजित इस सम्मेलन से एक बड़ा अंतर था. पहले सम्मेलन में जहां तालिबान को आमंत्रित नहीं किया गया था वहीं फरवरी में आयोजित दूसरी बैठक में तालिबान ने शामिल होने से इनकार कर दिया लेकिन इस बार कुछ रियायतें देकर तालिबान की भागीदारी सुनिश्चित की गई. जब अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के नियंत्रण के तीन साल पूरे होने वाले हैं, उस समय तालिबान इस क्षेत्र के देशों के साथ-साथ दुनिया भर के देशों के साथ ख़ुद को बहुत अधिक अनुकूल रणनीतिक माहौल में पा रहा है क्योंकि अलग-अलग देश इस संगठन के साथ किसी-न-किसी रूप में जुड़ने की शुरुआत कर रहे हैं. 

पहले सम्मेलन में जहां तालिबान को आमंत्रित नहीं किया गया था वहीं फरवरी में आयोजित दूसरी बैठक में तालिबान ने शामिल होने से इनकार कर दिया लेकिन इस बार कुछ रियायतें देकर तालिबान की भागीदारी सुनिश्चित की गई.

टेबल पर एक सीट के लिए होड़ 

फरवरी में दोहा कॉन्फ्रेंस के दूसरे संस्करण में भाग लेने के लिए तालिबान ने दो मांगें रखीं थीं. पहली मांग ये थी कि उसके साथ अफ़ग़ानिस्तान के अकेले नुमाइंदे के रूप में बर्ताव किया जाए यानी महिलाओं और सिविल सोसायटी संगठनों को सम्मेलन का हिस्सा बनने की अनुमति नहीं दी जाए. दूसरी मांग थी कि अफ़ग़ानिस्तान सरकार और UN के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच एक बैठक की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए. उस समय संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने इन मांगों को खारिज करते हुए इन्हें मान्यता के समान श्रेणी में रखा था. इस बार भी महिलाओं और सिविल सोसायटी संगठनों को मुख्य सम्मेलन से बाहर रखा गया और उन्हें दोहा सम्मेलन के औपचारिक समापन के बाद केवल एक अलग बैठक के लिए आमंत्रित किया गया. संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने भी भागीदारी नहीं की. उनकी जगह उप महासचिव मौजूद थे. इस तरह तालिबान और UN के महासचिव के बीच बैठक की संभावना ख़त्म हो गई. 

सम्मेलन की शुरुआत से पहले तालिबान ने UN में अफ़ग़ानिस्तान की सीट IEA को सौंपने की भी वकालत की और UN से कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में UN के विशेष प्रतिनिधि की बहाली की प्रक्रिया को रोके. सम्मेलन के एजेंडे का हिस्सा होने को लेकर फैसला लेने के मामले में तालिबान देश की आर्थिक स्थिति, नारकोटिक्स और ISKP जैसे हथियारबंद समूहों के द्वारा पेश किए गए ख़तरों का कैसे सामना करें, पर ध्यान चाहता था. तालिबान को अंतिम एजेंडे पर तालमेल के लिए कुछ अधिकार दिए गए. इस तरह महिलाओं के अधिकारों, समावेशी शासन व्यवस्था, के संबंध में मुद्दों को लेकर दूसरे आतंकी समूहों जैसे कि अल क़ायदा के साथ तालिबान के रिश्तों को एजेंडे में नहीं रखा गया. आधिकारिक एजेंडे में सिर्फ दो मुद्दे थे- आर्थिक प्रगति और नशीले पदार्थों का मुकाबला. संयुक्त राष्ट्र के उप महासचिव ने महिलाओं की गैर-मौजदूगी को ये कहते हुए सही ठहराया कि ये सम्मेलन ‘अफ़ग़ानिस्तान के भीतर’ का प्रयोग नहीं था और इसलिए सभी हितधारकों की भागीदारी की आवश्यकता नहीं थी. इसकी वजह से तालिबान को मेज पर एक सीट मिल गई. 

संयुक्त राष्ट्र के उप महासचिव ने महिलाओं की गैर-मौजदूगी को ये कहते हुए सही ठहराया कि ये सम्मेलन ‘अफ़ग़ानिस्तान के भीतर’ का प्रयोग नहीं था और इसलिए सभी हितधारकों की भागीदारी की आवश्यकता नहीं थी. 

अपनी दलील को आगे बढ़ाना 

इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफ़ग़ानिस्तान (IEA) का प्रतिनिधित्व उसके प्रवक्ता ज़बिउल्लाह मुजाहिद ने किया. उन्होंने अपनी नीतिगत प्राथमिकताओं को पेश किया और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए अपनी मांगों की सूची पेश की. अपनी नीतियों की आलोचना को अलग-अलग देशों के द्वारा दुनिया को देखने के बीच अंतर बताते हुए तालिबान के प्रवक्ता ने अपनी तीन मांगें रखीं- देश के बैंकिंग सेक्टर पर प्रतिबंधों को हटाना, सेंट्रल बैंक के रिज़र्व को मुक्त (अनफ्रीज़) करना और अफीम की खेती पर पाबंदी की पृष्ठभूमि में अफ़ग़ानिस्तान के किसानों के लिए रोज़गार के वैकल्पिक स्रोत का प्रावधान करना. बैठक ख़त्म होने के बाद तालिबान ने संतोष जताया क्योंकि शामिल होने वाले सभी देशों तक उसका संदेश सफलतापूर्वक पहुंच गया और ‘ज़्यादातर देश’ इन क्षेत्रों में सहयोग के लिए सहमत हो गए और ‘वादा’ किया कि बैंकिंग और आर्थिक पाबंदियों को हटा लिया जाएगा. हालांकि तालिबान के दावों को UN ने खारिज कर दिया और कहा कि UN की तरफ से इस तरह की कोई भी प्रतिबद्धता नहीं की गई या की जा सकती है. UN ने ये भी कहा कि तालिबान की भागीदारी का कहीं से भी ये मतलब नहीं है कि वो मान्यता मिलने की राह पर है. सम्मेलन के अंत में सिर्फ एक समझौता हुआ जो प्राइवेट सेक्टर और नशीले पदार्थों के ख़िलाफ़ दो वर्किंग ग्रुप बनाने को लेकर था. 

तालिबान के हिसाब से देखें तो जिस समय वो अपनी सत्ता के चौथे साल की तरफ बढ़ रहा हैं, उस समय बिना किसी ठोस वादे के बावजूद इस सम्मेलन ने उसे ख़ुद को अफ़ग़ानिस्तान के अकेले प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ केवल उन्हीं विषयों पर चर्चा करने की अनुमति दी जिसको लेकर वो सहज है. उसने अपनी भागीदारी को रचनात्मक जुड़ाव के लिए लगातार ज़ोर लगाने की सफलता के प्रमाण के रूप में देखा जिसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय बेअसर ‘दबाव बनाने की रणनीति’ की जगह नतीजों पर केंद्रित दृष्टिकोण की तरफ बढ़ने के लिए मजबूर हुआ. तालिबान के प्रतिनिधि ने अफीम की खेती पर पाबंदी लगाने के अपने काम के बारे में विस्तार से बताया. तालिबान की आधिकारिक मीडिया के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने इस कदम की तारीफ की. साथ ही तालिबान ने महिलाओं के अधिकारों और आज़ादी के सवालों को ‘नीतिगत मतभेद’ तक सीमित कर दिया जो कि अफ़ग़ानिस्तान का आंतरिक मुद्दा है और इसलिए बैठक में इस पर बातचीत नहीं होनी चाहिए. विशेष दूत की नियुक्ति, जो कि पिछले सम्मेलन में मुख्य मांग थी, को भी बुनियादी तौर पर टाल दिया गया और इस मामले में तालिबान के रुख को लेकर कोई जानकारी नहीं मिली. 

इस भागीदारी, जिसे अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद के पुनरुत्थान की वजह से ज़रूरी के रूप में देखा जा रहा है, ने तालिबान की हुकूमत को मज़बूती की स्थिति में रखा है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से रियायत मांगने के लिए वैधता और लाभ उठाने की स्थिति प्रदान की है. 

जैसा कि हमने पिछले तीन वर्षों में देखा है, इस क्षेत्र के देशों ने तालिबान के साथ अपनी भागीदारी बढ़ाई है. इसका कारण सामरिक सुरक्षा और आर्थिक विचार- दोनों हैं. इस भागीदारी, जिसे अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद के पुनरुत्थान की वजह से ज़रूरी के रूप में देखा जा रहा है, ने तालिबान की हुकूमत को मज़बूती की स्थिति में रखा है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से रियायत मांगने के लिए वैधता और लाभ उठाने की स्थिति प्रदान की है. मौजूदा परिदृश्य, जहां पश्चिमी देशों और चीन एवं रूस के बीच मतभेद बढ़ गए हैं, में अफ़ग़ानिस्तान अनजाने में एक ऐसा इलाका बन गया है जहां बारीक स्तर पर इस मुकाबले को दोहराया जाता है. अमेरिका की तरफ से इस क्षेत्र में अपनी भागीदारी कम करने के बाद भी चीन और रूस- दोनों के कदमों का लक्ष्य अमेरिका की मौजूदगी का मुकाबला करना है. चीन ने अफ़ग़ानिस्तान में अपना आर्थिक निवेश बढ़ाया है और तालिबान के एक राजनयिक को मान्यता दी है जबकि रूस ने पिछले दिनों आतंकी संगठनों की अपनी सूची में से तालिबान को हटाने की इच्छा जताई है. रूस और चीन- दोनों ने अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक वास्तविकता को स्वीकार करने और बिना किसी दबाव के तालिबान से बातचीत करने पर ज़ोर दिया है. 

सम्मेलन के दौरान तालिबान ने रूस, चीन, भारत, ईरान, जापान और अमेरिका के प्रतिनिधियों समेत 24 अलग-अलग बैठक की. अमेरिकी दूत के साथ बातचीत के दौरान दो क़ैदियों की रिहाई पर ध्यान दिया गया जिसके लिए IEA के द्वारा आदान-प्रदान की पेशकश की गई. उज़्बेकिस्तान, पाकिस्तान, क़तर और अफ़ग़ानिस्तान के बीच क्वाड्रिलेटरल फॉर्मेट (चार देशों के प्रारूप) में भी बातचीत हुई जिसमें ट्रांस-हिमालयन रेलवे के विकास पर चर्चा की गई. तालिबान ने इस पर ज़ोर दिया कि कैसे दूसरे देशों को भी अपने ‘पारस्परिक द्विपक्षीय फायदों’ के लिए क्षेत्रीय देशों की तरह उसके साथ जुड़ना चाहिए. 

निष्कर्ष 

वैसे तो UN ने इस सम्मेलन को उपयोगी करार दिया लेकिन इसके साथ-साथ उसने ये भी दोहराया कि सम्मेलन अफ़ग़ानिस्तान से जुड़े सभी बहुआयामी मुद्दों का समाधान नहीं कर सकता है. तालिबान के साथ अपने जुड़ाव को UN लगातार, कदम-दर-कदम प्रक्रिया के रूप में देखता है जो दूसरे देशों के द्वारा तालिबान के साथ भागीदारी से बहुत ज़्यादा अलग नहीं है. महिलाओं और सिविल सोसायटी समूहों की भागीदारी के बिना सम्मेलन आयोजित करने का फैसला उस कठिन स्थिति को उजागर करता है जिसका सामना मौजूदा समय में दुनिया तालिबान के शासन के साथ जुड़ने और अफ़ग़ानिस्तान की लगभग आधी जनसंख्या के अधिकारों एवं स्वतंत्रता को संतुलित करने के मामले में कर रही है. 

चूंकि आतंकी संगठनों के फैलने के लिए एक अड्डे के रूप में बनने का ख़तरा अफ़ग़ानिस्तान पर है, ऐसे में उसके साथ किसी तरह का संवाद ख़तरों से बचने के लिए ज़रूरी माना जाता है. अपनी सत्ता के चौथे साल की तरफ बढ़ने और अपेक्षाकृत असर की स्थिति में होने की वजह से तालिबान के सामने समावेशी सरकार और महिलाओं के अधिकारों की मांग करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की मांगों के सामने झुकने के लिए और भी कम प्रोत्साहन होगा. इससे समावेशन के एजेंडे को और ठंडे बस्ते में डालने का जोखिम है. सम्मेलन ख़त्म होने के एक दिन बाद अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं और सिविल सोसायटी समूहों के साथ अलग बैठक में 25 विशेष दूतों में से केवल 15 की भागीदारी देखी गई.  

तालिबान के लिए उनकी भागीदारी उनके लिए एक कूटनीतिक जीत थी- बातचीत में ‘काल्पनिक हितधारकों’ और एक ‘झूठे एजेंडे’ को कोई जगह नहीं मिलने के साथ उनकी ‘प्रभावी कूटनीति’ का एक प्रमाण था. 

अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की भलाई, विशेष रूप से महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार, के साथ-साथ सुरक्षा और रणनीतिक चिंताओं- दोनों को संतुलित करते हुए हालात को संभालना ये तय करेगा कि चौथे साल में इस संगठन के साथ कूटनीति कैसी दिखेगी. तालिबान के लिए उनकी भागीदारी उनके लिए एक कूटनीतिक जीत थी- बातचीत में ‘काल्पनिक हितधारकों’ और एक ‘झूठे एजेंडे’ को कोई जगह नहीं मिलने के साथ उनकी ‘प्रभावी कूटनीति’ का एक प्रमाण था. अफ़ग़ानिस्तान में भारत समेत इस क्षेत्र के सभी देशों की सुरक्षा चिंताओं के साथ-साथ अर्थव्यवस्था से जुड़ी दूसरी चिंताओं को लेकर कॉन्फ्रेंस से कोई महत्वपूर्ण फायदा नहीं होने के साथ अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए ये ज़रूरी है कि वो उन मोल-तोल की समीक्षा करें जिसके लिए उन्हें मजबूर किया गया है. साथ ही इस मामले में अपनाए गए अलग-थलग दृष्टिकोण की भी फिर से समीक्षा होना चाहिए. 


शिवम शेखावत ORF के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में जूनियर फेलो हैं. 

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