Author : Sunjoy Joshi

Published on Sep 25, 2021 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान में ‘गुड’ और ‘बैड’ तालिबान के फर्क़ ने अफ़ग़ान की जनता को दोराहे पर ला खड़ा कर दिया है! 

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की तूती

अमेरिका में हुए 9/11 के हमले के बीस साल के बाद, वक़्त का पहिया पूरा घूम  फिर उसी मुकाम पर पहुँच गया है – आज अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ा है, जहां वो 20 वर्ष  पहले था. काबुल में राष्ट्रपति महल के ऊपर तालिबान का झंडा लहरा रहा है. इस नई- नवेली हुकूमत में महिलाओं और तमाम वर्गों को शामिल न किए जाने से तालिबान फिर निशाने पर है.

आख़िर गलती हुई तो कहाँ? 

इस ‘नाकामी’ का ज़िम्मेदार सिर्फ 2021 के बाएडिन प्रशासन को नहीं माना जा सकता. इस असफलता का दारोमदार तो पिछले दो दशकों से लगातार चली आ रही अमरीकी गलतियों पर है.  पिछले एक दशक से तो हालत ऐसे बने की अमेरिका बेसब्र हो रहा था अफ़ग़ानिस्तान से अपना पल्ला झाड़ने के लिये. वो एन-केन-प्रकरेण किसी भी कीमत पर वहाँ से दफ़ा होने की जद्दोजहद में था. 

याद रहे तालिबान के मौजूदा उप-प्रधानमंत्री मुल्ला बरादर, दोहा शांति वार्ताओं के अहम् किरदार को 2010 में पाकिस्तान की ISI ने CIA को पटा  गिरफ़्तार कर लिया था. उनका दोष – बिना ISI को बिचोलिया बनावे  हामिद करज़ई से अमन की बात कर रहे  थे . आखिर पाकिस्तान के फ़ौजी आक़ाओं की छत्र छाया बग़ैर कौन अफ़ग़ानिस्तान में शांति क़ायम करने की सोच रख सकता था?

उसके बाद पाकिस्तान की शह में शुरू हुई कवायद तालिबान की नई छवि गढ़ने की. जिसका सिलसिला लंबे समय तक बदस्तुर चलता रहा. 

पूरी दुनिया को अमेरिका द्वारा ‘अच्छे तालिबान’ बनाम ‘बुरे तालिबान’ का भेद समझाने की कोशिश प्रारम्भ की गई . इस अकेली कार्यवाही से ही स्पष्ट था की अगर तालिबान आतंकवादी थे तो ‘आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग’ में अमेरिका को अपनी हार तो तभी, कई साल पहले, कुबूल हो चुकी थी. 

पूरी दुनिया को अमेरिका द्वारा ‘अच्छे तालिबान’ बनाम ‘बुरे तालिबान’ का भेद समझाने की कोशिश प्रारम्भ की गई . इस अकेली कार्यवाही से ही स्पष्ट था की अगर तालिबान आतंकवादी थे तो ‘आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग’ में अमेरिका को अपनी हार तो तभी, कई साल पहले, कुबूल हो चुकी थी. 

फिर भी , बुरे या ‘बैड’ तालिबान को उसकी अलग पहचान  का तमगा देने में  पूरा एक दशक लग गया –और अंततः 2021 में बुरे तालिबान की पहचान बन ही गई –  नामकरण हुआ – ISIL-खुरासान.

क्या अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाते हुए अमेरिका कोई और रणनीति अपना सकता था? क्या तालिबानी तख़्तापलट और इस कोहराम से बचा जा सकता था?

अफ़ग़ानिस्तान को अपना नया संविधान साल 2004 में दिया गया. लेकिन, उसके तहत जिन संस्थाओं की बुनियाद सुदृढ़ की जानी थी उन पर अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी देशों का ही भरोसा नहीं रहा. पूरे जतन कर बनी सरकार और उसके पिट्टुओं को भ्रष्ट और निकम्मा करार देने में मानो  तालिबान और अमेरिका मिलकर जुटे दिखे. ऐसे में सरकार, फौज और उसके तहत संस्थाओं का रेत के पहाड़ की भांति अगस्त 2021 में डह जाना कोई अचरज की बात कदापि नहीं है.

तालिबान में गुटबाज़ी

दोहा शांति वार्ताप्रारम्भ से ही न तो अफ़ग़ानिस्तान में अमन और शांति के उद्देश से और न ही अमरीकी फौज के हटने के बाद के हालातों के बारे में थी. ये बातचीत का मक़सद तो मात्र अमेरिकी सेना की वहाँ से बाइज्जत बिदाई का था. दोहा समझौते में सभी अफ़ग़ान समूहों के बीच बातचीत का ज़िक्र जरूर था. लेकिन, दोहा में अमेरिका के साथ सौदा करने वाला इकलौता अफ़ग़ान दल तालिबान ही था. स्पष्ट है पूरी वार्ता में कौन सा पक्ष ज्य़ादा बलवान था.

अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात से क्या भारत के अलावा रूस और उसके पड़ोसी देश भी चिंतित हैं ?

पाकिस्तान की अफ़ग़ानिस्तान नीति पाकिस्तानी सेना के इंडिया-फ़िक्सेशन का शिकार बन कर रह गयी है. उसका एक मात्र उद्देश  भारत किसी भी प्रकार से इस क्षेत्र में भारत के उभरते प्रभाव को सीमित करना रहा है.

हक़ीक़त है कि अस्थिर अफ़ग़ानिस्तान किसी के भी हित में नहीं है – चाहे वो रूस हो, चीन हो या फिर ईरान और मध्य एशियाई देश. सभी को ख़तरा दिखता है. अस्थिर अफ़ग़ानिस्तान ड्रग्स और हथियारों के अवैध कारोबार का केंद्र बन पूरी दुनिया में एक बार पुनः आतंकवाद और आतंक से भागते त्रस्त अफ़ग़ान शरणार्थियों का स्रोत बन जाएगा. अफ़ग़ानिस्तान की अस्थिरता उसकी सीमाओं में नहीं ठहर सकती. उबाल बन कर सभी पड़ोसी देश, रूस, चीन, मध्य एशिया, ईरान, भारत और यहाँ तक की पाकिस्तान ,सभी को अपनी चपेट में ले सकती है.

पाकिस्तान की अफ़ग़ानिस्तान नीति पाकिस्तानी सेना के इंडिया-फ़िक्सेशन का शिकार बन कर रह गयी है. उसका एक मात्र उद्देश  भारत किसी भी प्रकार से इस क्षेत्र में भारत के उभरते प्रभाव को सीमित करना रहा है.

एक अस्थिर अफ़ग़ानिस्तान, निश्चित रूप से अपने पड़ोसी देशों में भी अस्थिरता फैलाएगा. पर अंत में इस अस्थिरता की क़ीमत सबसे ज़्यादा अगर किसी को चुकानी पड़ेगी तो वो कोई और नहीं अफ़ग़ानिस्तान के नागरिकों ही होंगे.

तो फिर क्या तालिबान से ही अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता की आस रखनी  पड़ेगी?

यही परम दुविधा है. और इस समस्या का समाधान आसान नहीं. तालिबान में अपने अंदरूनी कलह है. आज भी एक गुट उन राजनीतिज्ञों का है जिन्होंने दोहा में समझौता वार्ता की अगुवाई की. दूसरी तरफ धार्मिक कट्टरपंथी हैं जो शरीयत लागू करने को आतुर हैं. फिर है वे तमाम लड़ाके जो बाहरी  फ़ौजों को हरा देश से खदेड़ आपने को सर्वोपरि मान रहे हैं. कोई किसी की बात  सुनने को शायद ही तैयार हो. ये सब एक  हो भी जाएँ तो तमाम क़बीले हैं और जातीयताएं हैं और उनके आपसी समीकरण. इन हालातों में  तालिबान की मौजूदा हुकूमत को लेकर ज़्यादा उम्मीद लगाना कठिन ही दिख रहा है.

यही परम दुविधा है. और इस समस्या का समाधान आसान नहीं. तालिबान में अपने अंदरूनी कलह है. आज भी एक गुट उन राजनीतिज्ञों का है जिन्होंने दोहा में समझौता वार्ता की अगुवाई की. दूसरी तरफ धार्मिक कट्टरपंथी हैं जो शरीयत लागू करने को आतुर हैं.

हाँ, एक अस्थिर तालिबान से दो पक्षों को फ़ायदा होता है: पहला है पाकिस्तानी फौज/ISI और दूसरा इस्लामिक स्टेट. अस्थिर और हिंसा के शिकार अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के जनरलों को पाकिस्तान और बाक़ी दुनिया में अपने अहमियत बनाए रखने के लिए मुफ़ीद मौक़ा दिखता है. साथ ही उनको भारत में आतंक फैलाने का भरपूर मौका हाथ लग जाता है. 

अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध हो या शांति प्रयास, लगातार  पाकिस्तान अकेला देश है, जो तालिबान के साथ साथ सभी महाशक्तियों के लिए मध्यस्थ की भूमिका में सामने देखा गया है. वह इसका इतना आदि हो चुका है की उसके लिए यह लत छोड़ पाना मुश्किल ही दिखता है. अस्थिर अफ़ग़ानिस्तान पाकिस्तानी जनरलों के हाथ मज़बूत तो कर सकता है, पर यही अस्थिरता अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट को जड़ें जमाने का भरपूर मौका दे सकती है जिसका खामियाज़ा अन्तत: पाकिस्तान को भी भुगतना पड़ेगा.

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