अपने हाईकमान के कई अहम सदस्यों के मारे जाने से अल-क़ायदा को तगड़ा झटका लगा है. हुसम अब्द उल-रउफ़ के नाम से कुख्यात आतंकवादी सरगना अबु मोहसिन अल-मिस्री को अक्टूबर 2020 में अफ़ग़ानिस्तान के ग़ज़नी प्रांत में अफ़ग़ान फ़ौज ने मौत के घाट उतार दिया था. रउफ़ अल-क़ायदा के मुखिया अयमान अल-जवाहिरी का दायां हाथ था. कुछ अपुष्ट ख़बरों के मुताबिक जवाहिरी की मौत अभी कुछ ही महीने पहले कुदरती वजहों से हुई थी. इसी आतंकी संगठन के एक और सरगना अबु मोहम्मद अल मासरी के भी ईरान में मारे जाने की ख़बर आई थी. वो मिस्र का नागरिक था और अल-क़ायदा में नंबर-2 की हैसियत रखता था, बताया जाता है कि कुछ महीनों पहले इज़राइली मारक दस्ते ने उसकी हत्या कर दी थी. हालांकि ईरान ऐसे किसी वाकये से इनकार करता है. बहरहाल ऐसे कई झटकों के बावजूद अब भी ये आतंकवादी संगठन मध्य एशियाई क्षेत्र और भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक बड़ा ख़तरा बना हुआ है.
स्पष्ट है कि तालिबान और अल-क़ायदा के बीच साठगांठ के जो दावे किए जाते रहे हैं वो सच हैं. अफ़ग़ानिस्तान में अगर अल-क़ायदा बहुत ज़्यादा सिर नहीं भी उठाता है तो भी अफ़ग़ानिस्तान के कई प्रांतों में तालिबान के साथ उसके लड़ाकों की साठगांठ से वहां बड़े पैमाने पर हिंसक गतिविधियां होने की आशंका बढ़ गई हैं.
संयुक्त राष्ट्र की निगरानी संस्था द्वारा मई 2020 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इस बात का इशारा किया गया था कि तालिबान और अल-क़ायदा के बीच अब भी रणनीतिक तौर पर गठजोड़ जारी है. इस रिपोर्ट में आगे दावा किया गया था कि अमेरिका के साथ तालिबान के डील की तारीख नज़दीक आने के बावजूद तालिबानी लड़ाके अल-क़ायदा के साथ नियमित तौर पर संपर्क में थे. इससे साफ़ है कि तालिबान अल-क़ायदा के साथ अपने पुराने रिश्तों को आगे भी जारी रखने की फिराक में है. रऊफ़ की हत्या तालिबान की मज़बूत पकड़ वाले मध्य ग़ज़नी प्रांत के अंदार ज़िले में हुई थी. ये बात साफ़ तौर पर उभऱ कर सामने आई कि वो वहां तालिबान के संरक्षण में सालों से रहता आ रहा था. स्पष्ट है कि तालिबान और अल-क़ायदा के बीच साठगांठ के जो दावे किए जाते रहे हैं वो सच हैं. अफ़ग़ानिस्तान में अगर अल-क़ायदा बहुत ज़्यादा सिर नहीं भी उठाता है तो भी अफ़ग़ानिस्तान के कई प्रांतों में तालिबान के साथ उसके लड़ाकों की साठगांठ से वहां बड़े पैमाने पर हिंसक गतिविधियां होने की आशंका बढ़ गई हैं. ख़बरों की मानें तो अल-क़ायदा अफ़ग़ानिस्तान के 12 प्रांतों में चोरी-छिपे सक्रिय है और उसके पास उस मुल्क में 400 से 600 हथियारबंद लड़ाके हैं. अल-क़ायदा के अलावा पाकिस्तान से आए विदेशी लड़ाके जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैय्यबा और लश्कर-ए-झांगवी जैसे गुटों से जुड़कर तालिबान की छत्र-छाया में अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय हैं. ये लड़ाके अफ़ग़ानिस्तान के हेलमंड प्रांत में अफ़ग़ान लड़ाकों के ख़िलाफ़ हमले करने के लिए अक्टूबर में इन संगठनों से जुड़े थे. इन परिस्थितियों के मद्देनज़र तालिबान द्वारा फरवरी 2020 में अमेरिका के साथ किए गए डील के प्रति उसकी प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े होते हैं
शांति प्रक्रिया पर प्रभाव
तालिबान के गढ़ में अल-क़ायदा से जुड़े कई अहम किरदारों के मारे जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान की खुफ़िया सेवा के पूर्व प्रमुख और मौजूदा राजनेता रहमतुल्ला नबील ने संयुक्त राष्ट्र की उसी रिपोर्ट को दोहराते हुए कहा कि अल-क़ायदा अब भी तालिबान के साथ करीबी रिश्ता रखे हुए है और क्वेटा की शूरा के साथ उसके सीधे संबंध हैं. हालांकि तालिबान अभी तक ऐसे दावों का खंडन ही करता रहा है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही तस्वीर पेश कर रही है. वैसे तो तालिबान की ख्वाहिश है कि अमेरिका के साथ फरवरी में हुए सौदे की बुनियाद पर ही दोहा में चल रही मौजूदा वार्ताएं आगे बढ़ें, लेकिन तालिबान के अल-क़ायदा के साथ करीबी ताल्लुकात की ख़बरें फरवरी में हुई डील के ठीक विपरीत हैं. इस डील में तालिबान के लिए विदेशी आतंकी संगठनों से सारे रिश्ते ख़त्म करने की बात थी. अफ़ग़ान सरकार और तालिबान दोनों ने वार्ता प्रक्रिया में अहम प्रगति के दावे किए हैं लेकिन दोनों ही पक्ष एजेंडे के मुख्य विषय जैसे व्यापक संघर्षविराम या विदेशी संगठनों के साथ तालिबान की भागीदारी पर अभी तक किसी ठोस बातचीत या नतीजे तक नहीं पहुंच सके हैं.
बाइडन प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीनी हालत के मद्देनज़र वहां से अपनी फौज वापसी से जुड़ी मौजूदा रणनीति की समीक्षा कर सकता है. इतना ही नहीं वो तालिबान पर अफ़ग़ानिस्तान के अंदर चल रही वार्ता प्रक्रियाओं को और गंभीरता से लेने का दबाव बना सकता है.
अमेरिका में नए राष्ट्रपति के सत्ता संभालने के बाद तालिबान को उम्मीद है कि जो बाइडन पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप और अफ़ग़ानिस्तान में उनके विशेष दूत ज़ल्मे खालिज़ाद द्वारा दिखाए गए रास्ते पर ही चलेंगे. पेंटागन में भी पिछले कई महीनों से अफ़ग़ानिस्तान के उभरते सुरक्षा हालातों के मद्देनज़र वहां से अमेरिकी फौज की वापसी को लेकर भावी रणनीति पर गहन विचार विमर्शों का दौर जारी है. चीफ्स ऑफ स्टाफ्स कमेटी के चेयरमैन जनरल मार्क मिले और सेंटकॉम के मुखिया जनरल फ्रैंक मैकिंजी ज़मीनी हालात का जायज़ा लेने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फौज को निकालने की प्रक्रिया को 2021 के वसंत तक टाल दिया जाए. अफ़ग़ानिस्तान में बढ़ती हिंसा के बीच अमेरिकी फ़ौज की तादाद घटने पर राष्ट्रपति बाइडन को अपने हाथ बंधे होने का एहसास होगा. वैसे भी फरवरी 2020 के बाद से अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी फ़ौज की संख्या में भारी कटौती से वहां की सुरक्षा को पहले ही गंभीर नुकसान पहुंचा है. इसके नतीजे के तौर पर सरकार के कब्ज़े वाले कई महत्वपूर्ण ठिकाने तालिबान के हाथों में चले गए. ऐसे में अमेरिका के नए प्रशासन के तेवर में निश्चत तौर पर बदलाव की उम्मीद की जा रही है. बाइडन प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीनी हालत के मद्देनज़र वहां से अपनी फौज वापसी से जुड़ी मौजूदा रणनीति की समीक्षा कर सकता है. इतना ही नहीं वो तालिबान पर अफ़ग़ानिस्तान के अंदर चल रही वार्ता प्रक्रियाओं को और गंभीरता से लेने का दबाव बना सकता है. अमेरिका का ये रुख़ नेटो की अफ़ग़ान नीति के हिसाब से भी सटीक साबित होगा. नेटो ने ‘संयोजित’ और ‘ज़िम्मेदार’ तरीके से फ़ौज वापसी की अपील की है. अफ़ग़ानिस्तान की हाई काउंसिल फ़ॉर नेशनल रिकंसिलिएशन के चेयरमैन डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने भी ऐसी ही मांग दोहराई है. उन्होंने अमेरिकी फ़ौज वापसी की मौजूदा समयसीमा को लेकर अपना असंतोष जताया है. उनका कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौज वापसी के लिए वहां की मौजूदा ज़मीनी हक़ीक़तों के मद्देनज़र एक लचीला रुख़ अपनाए जाने की ज़रूरत है.
अमेरिकी फ़ौज वापसी की मौजूदा रणनीति अफ़ग़ानिस्तान में पिछले दो दशकों से जारी राष्ट्र-निर्माण और नागरिक स्वतंत्रता से जुड़े प्रयासों को ख़तरे में डालती दिख रही है. अफ़ग़ानिस्तान में अल-क़ायदा जैसे विदेशी आतंकी गुटों के बढ़ते प्रभाव के चलते वहां की सरकार तालिबान के साथ उस खोखले आशावाद से आगे नहीं बढ़ सकती जैसा कि अमेरिका ने तालिबान के साथ अपनी सौदेबाज़ी के दौरान दिखाई थी. अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए वहां अमेरिकी फ़ौज की मौजूदगी बनाए रखने की ज़रूरत है, ख़ासकर जबतक अफ़गानिस्तान के भीतर सत्ता के बंटवारे को लेकर चल रही वार्ताएं सफलतापूर्वक संपन्न न हो जाएं. बहरहाल अगर अमेरिका अपनी अफ़ग़ान नीति पर पुनर्विचार करता है तो इससे तालिबान के लिए दिक्कतें पैदा हो जाएंगी. एक आक्रामक लड़ाका गुट की तरह तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी कीमत पर सत्ता हथियाना चाहता है, ऐसे में अमेरिकी नीतियों में बदलाव से वो एक बार फिर अमेरिका के निशाने पर आ जाएगा. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी फ़ौज अपने इतिहास के सबसे लंबे युद्ध में उलझी हुई है. ऐसे में वहां के नए प्रशासन के लिए फ़ौज वापसी की अपनी नीतियों को वहां चल रही शांति प्रक्रिया से जोड़कर तैयार करना ही सबसे मुफ़ीद होगा.
भावी प्रभाव
जबतक तालिबान अल-क़ायदा के साथ सांठगांठ कायम रखता है तबतक अमेरिका के साथ हुए समझौते के पालन करने के रास्ते में समस्याएं खड़ी होती रहेंगी और दोनों के बीच खटास और झगड़े बढ़ते रहेंगे. हक़ीक़त ये है कि अब भी अल-क़ायदा और तालिबान मिलकर आतंकियों की भर्ती, प्रशिक्षण और बड़े पैमाने पर संयोजित हमलों की काबिलियत रखते हैं. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान और अमेरिका दोनों के लिए इस आतंकी गठजोड़ की अहमियत समझना और इसे ख़त्म करना सबसे बड़ी प्राथमिकता है.
अल-क़ायदा की ताक़त वैश्विक तौर पर भले ही खोखली होती जा रही है, लेकिन मध्य एशियाई क्षेत्रों और भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ये अब भी एक बड़ा ख़तरा बना हुआ है. इन इलाक़ों में ये संगठन तालिबान द्वारा मुहैया कराए गए सुरक्षित पनाहगाहों से सक्रिय है.
तालिबान का सितारा लगातार बुलंद होता जा रहा है, लड़ाकों की एक बड़ी फ़ौज के साथ इसकी ताक़त दिनों दिन बढ़ती जा रही है. इसके पास इतनी सैनिक क्षमता है कि वो इस इलाक़े में लंबे समय तक खुद को सक्रिय रख सकता है. दूसरी ओर अल-क़ायदा की ताक़त वैश्विक तौर पर भले ही खोखली होती जा रही है, लेकिन मध्य एशियाई क्षेत्रों और भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ये अब भी एक बड़ा ख़तरा बना हुआ है. इन इलाक़ों में ये संगठन तालिबान द्वारा मुहैया कराए गए सुरक्षित पनाहगाहों से सक्रिय है. तालिबान के नेता को ‘अमीर-उल मोमीनीन’ का ख़िताब दिया गया है. अल-क़ायदा ने भी उसके प्रति अपनी वफ़ादारी जताई है. अमीर-उल मोमीनीन को दुनिया भर के सुन्नी मुसलमानों का नेता माना जाता है, ऐसे में उसके प्रति अपनी वफ़ादारी के चलते अल-क़ायदा को तालिबान की दीर्घकालिक रणनीति और राजनीतिक मंसूबों को पूरा करने के लिए अपनी मदद देने की प्रेरणा मिलती है. अल-क़ायदा और तालिबान के आपसी रिश्ते बड़े पुराने हैं, दोनों की विचारधाराएं भी एक जैसी हैं, ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि दोनों के रिश्ते आगे भी इसी तरह बने रहेंगे. इतना ही नहीं भले ही अल-क़ायदा के पास अपने लड़ाकों की काफी कम तादाद बची हो लेकिन फिर भी वो तालिबान को फ़ौजी गतिविधियां चलाने में काफी मदद कर सकता है. आज के समय में अल-क़ायदा का दायरा वैश्विक स्तर से सिमटकर क्षेत्रीय स्तर का रह गया है. ऐसे में अगर तालिबान से उसके रिश्ते ख़त्म हो जाएं तो ये संगठन मध्य एशिया और दक्षिण एशियाई इलाक़ों से भी लुप्त होने की कगार पर पहुंच जाएगा. ऐसे में इस बात की प्रबल संभावना है कि न सिर्फ़ ये ये गठजोड़ चोरी-छिपे जारी रहे बल्कि फलता-फूलता भी रहे. वहीं दूसरी ओर तालिबान एक संभावित राजनीतिक समाधान के लिए अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के प्रतिनिधिमंडल के साथ दोहा में चल रही मौजूदा वार्ताओं में भी हिस्सा लेता रहे.
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