Published on Sep 20, 2017 Updated 0 Hours ago

बौनेपन के स्थायी और अपरिवर्तनीय परिणाम होते हैं और यह व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा उत्पन्न करता है। इसे भविष्य में मधुमेह, मोटापे और उच्च रक्तचाप का बहुत ज्यादा खतरा होने, दिमाग का पूरी तरह विकास न होने, स्कूल में खराब प्रदर्शन तथा आमदनी में कमी होने से जोड़कर देखा जाता रहा है।

बौनापन, कुपोषण और भारत के श्रमिक बल पर इसका प्रभाव

भारत, विश्व में बच्चों (15 साल से कम उम्र वाले बच्चों)की विशालतम आबादी का घर है, दुर्भाग्यवश उसे दुनियाभर में बौने बच्चों की सबसे अधिक संख्या का भी सामना करना पड़ता है। नवीनतम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस 4) के अनुसार, 2016 में देश के 38.4% बच्चे बौनेपन का शिकार थे — पिछले दशक के मुकाबले इस संख्या में 10 प्रतिशत अंकों की कमी आई है। बच्चों में बौनेपन की स्थिति उनके जीवन के प्रारंभिक 1000 दिनों (गर्भावस्था से लेकर 2 साल की उम्र तक) के दौरान चिरकालिक कुपोषण से संबंधित है और इसके परिणामस्वरूप बच्चों के विकास में रुकावट (उम्र के अनुसार लम्बाई का कम होना) आती है।

बौनेपन के स्थायी और अपरिवर्तनीय परिणाम होते हैं और यह व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा उत्पन्न करता है। इसे भविष्य में मधुमेह, मोटापे और उच्च रक्तचाप का बहुत ज्यादा खतरा होने, दिमाग का पूरी तरह विकास न होने, स्कूल में खराब प्रदर्शन तथा आमदनी में कमी होने से जोड़कर देखा जाता रहा है। दरअसल, अनुमान दर्शाते हैं कि बौने बच्चे, प्रौढ़ होने पर तंदुरुस्त इंसानों की तुलना में 20 प्रतिशत कम कमाते हैं, जिसके राष्ट्रीय विकास के लिए भी संभावित निहितार्थ होते हैं। सेव द चिल्ड्रन की हाल की रिपोर्ट में चौंकाने वाला अनुमान व्यक्त किया गया है कि भारत में 48.2 मिलियन बच्चे बौने हैं, यह संख्या आंध्र प्रदेश की पूरी आबादी के बराबर है।

कुपोषण के महत्वपूर्ण संकेतक के रूप में, बौनेपन का सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजीएस) के दूसरे लक्ष्य के साथ प्रत्यक्ष और कई अन्य लक्ष्यों के साथ परोक्ष संबंध है। भारत एसडीजीएस का हस्ताक्षरकर्ता है। एसडीजीएस के अलावा, विश्व स्वास्थ्य सभा (डब्ल्यूएचए) ने भी छह विशेष पोषण लक्ष्यों का चयन किया है, जिन्हें 2025 तक पूरा किया जाना है। इनमें से प्रथम लक्ष्य बौनेपन का शिकार होने वाले पांच साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या में  40%  कमी लाना है।

देश में कुपोषण की समस्या से मुकाबला करना हमेशा से सरकार के एजेंडे में शामिल रहा है। किसी व्यक्ति की बाल्यावस्था के पोषण का उसके भावी जीवन की अवस्थाओं पर स्थायी प्रभाव पड़ता है, इसे समझते हुए बीते वर्षों के दौरान बाल पोषण पर केंद्रित अनेक योजनाएं शुरू की जाती रहीं। 1970 के दशक में प्रारंभ की गई भारत की समेकित बाल विकास सेवाएं (आईसीडीएस) प्रारंभिक बाल्यावस्था और विकास के लिए दुनिया का सबसे विशाल पहुंच कायम करने वाला कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम का लक्ष्य पूरक आहार, टीकाकरण, 0-6 साल तक की उम्र के बच्चों के लिए स्वास्थ्य जांच जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराते हुए उनमें पोषण और स्वास्थ्य के स्तर में सुधार लाना है। हालांकि अब एक नई नई कार्यनीति अपनाए जाने की जरूरत है, जो आईसीडीएस से आगे बढ़े और इस बात को स्वीकार करे कि बौनेपन की समस्या में कमी लाने के लिए और भी क्षेत्रों द्वारा कार्रवाई किए जाने की जरूरत है।

देश में कुपोषण की समस्या से मुकाबला करना हमेशा से सरकार के एजेंडे में शामिल रहा है। किसी व्यक्ति की बाल्यावस्था के पोषण का उसके भावी जीवन की अवस्थाओं पर स्थायी प्रभाव पड़ता है, इसे समझते हुए बीते वर्षों के दौरान बाल पोषण पर केंद्रित अनेक योजनाएं शुरू की जाती रहीं।

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मानचित्र: समस्त राज्य और जिला स्तरों पर पूरी तरह भिन्नताएं हैं | स्रोत: आईएफपीआरआई

वैसे तो, देश ने पिछले दशक भर में बच्चों में बौनेपन की समस्या में कमी लाने की दिशा में प्रगति की है, लेकिन इसकी प्रवृत्ति या ट्रेंड में एकरूपता का अभाव देखा गया है। वर्ष 2006 में बौनेपन के मामलों की संख्या 48% थी, जो 2016 में घटकर 38.4% रह गई, इसमें सालाना  औसतन 2.2% की कमी देखी गई, लेकिन अंतर-राज्यीय विविधताएं बहुत अधिक देखी गईं (चित्र-1)। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि 6 राज्यों में बौनेपन की समस्या ‘बहुत अधिक'(>40%)रही, 12 राज्यों में ‘अधिक'(>30-39%), 17 राज्यों में मध्यम (>20-29%) तथा 1 राज्य में ‘कम'(<20%) रही। वैसे तो सभी राज्यों में बौनेपन के स्तरों में सुधार हुआ है, लेकिन ऐसे मामलों में सबसे ज्यादा कमी छत्तीसगढ़ में देखी गई, जहां पिछले दशक में इसकी संख्या में 15 प्रतिशत अंक की गिरावट आई है। दूसरी ओर, तमिलनाडु में बहुत कम प्रगति हुई है, इसके बावजूद, राज्य में बौनेपन का प्रचलन राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे बना हुआ है।

एनएफएचएस 4 से प्राप्त आंकड़े दर्शाते हैं कि देश के ग्रामीण (41.2%) और शहरी (31%) क्षेत्रों में बौनेपन की समस्या में विविधता है। शुरूआत में, राज्यों में शायद प्रगति के चिन्ह दिखाई देते हैं, वहीं जिला स्तरों पर बौनेपन के स्तरों में व्यापक अंतर है। दूसरे शब्दों में कहें, तो भले ही कुछ राज्यों में बौनेपन के पूरी तरह अधिक या कम स्तर हों, राज्य के जिलों के भीतर की स्थिति इसके विपरीत हो सकती है। इसी तरह, जिलों के भीतर भी, ग्रामीण-शहरी स्तरों में व्यापक असमानताएं हो सकती हैं।

मिसाल के तौर पर, ओडीशा में बौनेपन के स्तर 34.1%  (जिसे ‘उच्च प्रचलन’ के रूप में भी जाना जाता है) होने के बावजूद, उसके कटक (15.3%) और पुरी (16.1%) जैसे कुछ जिले देश के 10 शीर्ष ‘कम बौनेपन स्तर’ वाले जिलों में शुमार हैं। इसी तरह कर्नाटक में, मंडया जैसे जिलों में बौनेपन की दर 18.6% जितनी कम है, जबकि कोप्पल जैसे अन्य जिलों में 55.8 % जितनी अधिक है। स्तरों का अंतर राज्यों और जिलों के बीच में ही नहीं, बल्कि जिलों के भीतर भी है। वर्धमान, पश्चिम बंगाल का एक जिला है, जिसके शहरी क्षेत्रों में इसका प्रचलन 19.3% और ग्रामीण क्षेत्रों में 42.7% है।

राज्यों, जिलों और जिलों के भीतर स्तरों में पूर्णतया मौजूद ये भिन्नताएं इस बात की ओर इशारा करती हैं कि कोई भी राज्य पूरी तरह सफल या विफल नहीं रहा है। इसलिए इस संदर्भ में विशेष तौर पर प्रयास किए जाने तथा राज्यों के प्रचलनों, उनके सभी जिलों में बदलावों और विविधताओं के बारे में बारीकी से अध्ययन किए जाने की जरूरत है, ताकि नीति निर्माता इस बात को बेहतर रूप से समझ सकें कि प्रगति की रफ्तार में तेजी लाने के लिए किन क्षेत्रों पर ध्यान देने और किन कारकों को सुलझाने की आवश्यकता है।

देश में पोषण संबंधी संतुष्टता की स्थिति में प्रगति होने के बावजूद यह अब तक नाकाफी है। इसका कारण यह है कि वर्तमान में उठाए जा रहे पोषण पर केंद्रित ज्यादातर कदम जन्म के बाद की अवधि की जरूरते पूरी करने पर केंद्रित हैं। अध्ययन इस ओर संकेत करते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य और पोषण अनेक सामाजिक-आर्थिक कारकों के साथ-साथ भ्रूण के जन्म और विकास संबंधी उपलब्धियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मां और बच्चे का स्वास्थ्य आपस में इस तरह जुड़े हुए हैं कि उन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता, इसलिए मां का पोषण (गर्भावस्था के पूर्व और पश्चात) बच्चे के विकास के लिए बेहद महत्वपूर्ण है और ऐसे में इसे हर हाल में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस बात को रेखांकित करना महत्वपूर्ण होगा कि जहां एक ओर बौनापन, कुपोषण का प्रत्यक्ष परिणाम है, वहीं यह समस्या कहीं ज्यादा गंभीर है तथा प्रसव पूर्व देखभाल, स्वच्छता और साफ-सफाई, टीकाकरण, शिक्षा, महिलाओं का सशक्तिकरण, गरीबी उन्मूलन, कृषि संबंधी पैदावार आदि जैसे कई अन्य कारक इसमें योगदान देते हैं।

देश में पोषण संबंधी संतुष्टता की स्थिति में प्रगति होने के बावजूद यह अब तक नाकाफी है। इसका कारण यह है कि वर्तमान में उठाए जा रहे पोषण पर केंद्रित ज्यादातर कदम जन्म के बाद की अवधि की जरूरते पूरी करने पर केंद्रित हैं।

राष्ट्र की प्रगति पर प्रभाव

ऐसा अनुमान है कि शिक्षा में कमी और मानसिक दुर्बलताओं के कारण उत्पादकता की हानि की वजह से कुपोषण देश की आर्थिक प्रगति की रफ्तार में लगभग 8% कमी ला सकता है। अनुसंधान में सुझाव दिया गया है कि भारत में पोषण संबंधी हस्तक्षेपों पर खर्च किया गया 1 डॉलर, वैश्विक औसत से तीन गुणा ज्यादा 34.1 डॉलर से 38.6 डॉलर तक सार्वजनिक आर्थिक आय सृजित कर सकता है। विश्व की तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के नाते भारत को अपनी वृद्धि के स्तर को बरकरार रखने के लिए मजबूत और तंदुरूस्त श्रमिक बल की जरूरत है। एनएफएचएस 2 के आंकड़ों के अनुसार,भारत में 3 साल से कम उम्र के 46% बच्चे बौने थे। आज, 18 साल बाद, वे देश के श्रमिक बल का अविभाज्य अंग बन चुके हैं और शायद अर्थव्यवस्था को अपना बेहतरीन दे पाने में लाचार हैं। जहां बौनेपन के निवारण का महत्व आर्थिक पहलुओं से कहीं अधिक है, वहीं पोषण के क्षेत्र में किए जा रहे निवेश की बदौलत देश होने वाले समस्त प्रकार के लाभ और आय के बारे में सजग होना भी महत्वपूर्ण है।

इस प्रमुख चुनौती से निपटने के लिए, भारत को पोषण के संबंध में बहुक्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाने तथा नियोजन, समन्वयन और अवस्थाओं की समीक्षा करने जैसे कार्यों में विविध हितधारकों को साथ जोड़ने की जरूरत है। इसके लिए प्राथमिक तौर पर इस बात की समझ की जरूरत होगी कि किस तरह विभिन्न क्षेत्र पोषण संबंधी उपलब्धियों में सुधार लाने में योगदान दे सकते हैं। व्यापक पैमाने पर संयुक्त नियोजन की आवश्यकता है, ताकि सरकार विभिन्न प्रकार की योजनाएं, विशेषकर मूलभूत योजनाओं, पोषण के प्रति ज्यादा संवेदनशील योजनाएं बनाने के तरीकों की पहचान कर सके।

हालांकि इस तरह की योजनाओं का कार्यान्वयन विभागों पर ही निर्भर करता है। इसलिए प्रत्येक विभाग को कार्यान्वयन की अपनी पद्धतियों को इस्तेमाल में लाना चाहिए। अंत में, सभी हितधारकों के लिए आवश्यक होगा कि वे नियमित तौर पर सरकार के साथ मिलकर स्थिति की समीक्षा करें, ताकि योजनाओं के कार्यान्वयन के दौरान विभिन्न विभागों के समक्ष आने वाले मसलों का पता लगाया जा सके और उनका समाधान किया सके, कार्यक्रमों के प्रभाव को जाना जा सके और इस बारे में चर्चा की जा सके कि उनमें सुधार लाने के लिए क्या किया जा सकता है।

ऐसे में, बहुक्षेत्रीय दृष्टिकोण सही मायनों में सरकार के सभी मंत्रालयों और विभागों, सामाजिक संगठनों को सक्रिय रूप से साथ जोड़ सकेगा और यह केवल पोषण तक सीमित न रहकर, पोषण के प्रति संवेदनशील हस्तक्षेपों तक फैला होगा। जैसा कि हाल ही में ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन और बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन द्वारा आयोजित एक दिवसीय एसडीजी परामर्श के दौरान भारत में यूएनडीपी के रेजीडेंट प्रतिनिधि श्री यूरी अफानासिएव ने अपने शुरूआती संबोधन में कहा था, “भारत किसी तरह के समाधान की हू-ब-हू नकल नहीं कर सकता है — मैं इसे एक अच्छे संकेत की तरह देख रहा हूं।” यदि भारत को बौनेपन के बारे में डब्ल्यूएचए और एसडीजी के लक्ष्यों को हासिल करना है, तो उसे फौरन कदम उठाने होंगे तथा पोषण के लिए अपना एक विशिष्ट मॉडल तैयार करना होगा।

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Authors

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian is Senior Fellow and Head of Health Initiative at ORF. He studies Indias health sector reforms within the broad context of the ...

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Malancha Chakrabarty

Malancha Chakrabarty

Dr Malancha Chakrabarty is Senior Fellow and Deputy Director (Research) at the Observer Research Foundation where she coordinates the research centre Centre for New Economic ...

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Priyanka Shah

Priyanka Shah

Priyanka is the Communications and Events Officer for the Local Government Revenue Initiative (LoGRI). She is responsible for developing the initiative’s engagement with external stakeholders ...

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Tanoubi Ngangom

Tanoubi Ngangom

Tanoubi Ngangom is a Chief of Staff and Deputy Director of Programmes. Tanoubi is interested in the political economy of development — the evolution of global ...

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