Author : Rajen Harshé

Published on Nov 24, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत को अपने क़दम फूंक-फूंक कर रखने होंगे. तेज़ी से बदलती सूडान की घरेलू परिस्थितियों के बीच भारत को उस इलाक़े में अपने कारोबार, निवेश और व्यापक हितों की सुरक्षा करनी होगी. 

सूडान: सैनिक तख़्तापलट के बाद तेज़ी से बदलता घटनाक्रम

25 अक्टूबर 2021 को अफ़्रीकी देश सूडान में सैन्य तख़्तापलट की घटना सामने आई थी. प्रधानमंत्री अब्दल्ला हमदोक को उनके कई कैबिनेट मंत्रियों समेत गिरफ़्तार कर लिया गया था.  निश्चित रूप से एक संवैधानिक लोकतंत्र बनने के रास्ते पर आगे बढ़ रहे सूडान के लिए ये वाक़या बहुत बड़ा झटका साबित हुआ. सूडान के फ़ौजी जनरल अब्दल-फ़तह अल-बुरहान ने सेना और नागरिकों द्वारा साझा रूप से चलाई जा रही संक्रमणकालीन सरकार को भंग करते हुए सत्ता अपने हाथों में कर ली थी. सत्ता पर जबरन कब्ज़े के साथ ही सूडान में एक बार फिर से फ़ौज सबसे ताक़तवर संस्था बनकर उभरी. इसे संयोग ही कहेंगे कि पिछले क़रीब 10 महीनों में अफ़्रीका के चार देशों- सूडान, गिनी, चाड और माली में सैनिक तख़्तापलट की घटनाएं देखने को मिली हैं. बहरहाल अगर सूडान की बात करें तो 1956 में आज़ादी मिलने के बाद से सूडान में तक़रीबन 16 बार जबरन सत्ता हथियाने की कोशिशें हुईं और फ़ौज ने 5 बार कामयाबी से तख़्तापलट की घटनाओं को अंजाम दिया. इस कालखंड में दुनिया में सिर्फ़ दो देशों- बोलिविया और अर्जेंटीना में इतनी बार जबरन सत्ता हथियाने की घटनाएं देखने को मिली थीं.

जनरल बुरहान ने टीवी पर दिए अपने बयान में बताया कि अब्दल्ला हमदोक अगले चुनावों तक एक निष्पक्ष और टेक्नोक्रैटिक कैबिनेट की अगुवाई करेंगे. हालांकि इस अंतरिम सरकार के पास कितनी ताक़त होगी, ये अभी साफ़ नहीं है. 

अक्टूबर में तख़्तापलट के साथ ही जनरल अल-बुरहान ने देश में इमरजेंसी लगाने की घोषणा कर दी थी. इतना ही नहीं फ़ौजी हुकूमत से नागरिक सरकार को सत्ता का हस्तांतरण करने के लिए जुलाई 2022 में होने वाले चुनावों को जुलाई 2023 तक के लिए खिसकाने का भी एलान कर दिया था. हालांकि तख़्तापलट की इस घटना के बाद से ही सूडान में ज़बरदस्त विरोध-प्रदर्शनों का दौर भी शुरू हो चुका था. पूर्ववर्ती सरकार के नियंत्रण वाले सूचना मंत्रालय ने तो प्रधानमंत्री हमदोक को ही वैध अधिकारी करार दे दिया. सेना द्वारा जबरन सत्ता पर कब्ज़ा कर लिए जाने के ख़िलाफ़ हज़ारों लोग सड़कों पर उतर गए. 25 अक्टूबर के बाद से हिंसक झड़पों में अब तक 40 से भी ज़्यादा लोगों की जान जा चुकी है और सैकड़ों लोग घायल हुए हैं. फ़ौजी तानाशाही के ख़िलाफ़ इस व्यापक विरोध-प्रदर्शन में कई प्रभावशाली नागरिक संगठनों, डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों, सरकारी तेल कंपनी के कामगारों और वक़ीलों ने भी ज़ोर-शोर से हिस्सा लिया. बहरहाल इन्हीं विरोध प्रदर्शनों के बीच 21 नवंबर को अपदस्थ प्रधानमंत्री हमदोक ने फ़ौज के साथ एक करार पर दस्तख़त किया. इस सौदे के मुताबिक हमदोक की दोबारा प्रधानमंत्री के पद पर बहाली हो जाएगी. जनरल बुरहान ने टीवी पर दिए अपने बयान में बताया कि अब्दल्ला हमदोक अगले चुनावों तक एक निष्पक्ष और टेक्नोक्रैटिक कैबिनेट की अगुवाई करेंगे. हालांकि इस अंतरिम सरकार के पास कितनी ताक़त होगी, ये अभी साफ़ नहीं है. बहरहाल सरकार के कामकाज पर फ़ौज अपनी नज़र और निगरानी रखेगी. सूडान में तख़्तापलट के बाद विरोध-प्रदर्शनों में शामिल एक प्रमुख लोकतंत्र समर्थक समूह ने इस सौदे को “एक प्रकार का विश्वासघात” बताया है. 14-सूत्री समझौते के मुताबिक फ़ौज को 25 अक्टूबर को हुए तख़्तापलट के दौरान बंदी बनाए गए तमाम सियासी नेताओं और सरकारी अधिकारियों को रिहा करना है.

ग़ौरतलब है कि तख़्तापलट की वारदात के फ़ौरन बाद अफ़्रीकी संघ से सूडान की सदस्यता निलंबित कर दी गई थी. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी अपनी आपात बैठक में सूडान के घटनाक्रम पर गंभीरता से विचार-विमर्श किया था. सूडान की फ़ौज से तमाम राजनीतिक बंदियों को रिहा करने की अपील की गई थी. अमेरिकी विदेश मंत्री एंथोनी ब्लिंकेन ने तख़्तापलट की वारदात को “सूडान में हुई शांतिपूर्ण क्रांति के प्रति धोखा” करार दिया था. अमेरिका ने सूडान को आपात मदद के तौर पर दी जाने वाली 70 करोड़ अमेरिकी डॉलर की रकम पर रोक लगा दी थी. विश्व बैंक ने भी सूडान को आर्थिक सहायता देने की प्रक्रिया मुल्तवी कर दी.

फ़ौज द्वारा वहां की सत्ता जबरन हथियाने की घटना का न सिर्फ़ क्षेत्रीय बल्कि वैश्विक राजनीति पर भी असर होना स्वाभाविक है. हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका के इलाक़े से दुनिया की तमाम बड़ी ताक़तों- अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन, रूस और भारत का सक्रिय और सीधा वास्ता है. 

सूडान क्षेत्रफल के हिसाब से एक बड़ा देश है. वहां प्राकृतिक संसाधन भी प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं. हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका में वो सामरिक रूप से बेहद अहम स्थान पर मौजूद है. लिहाज़ा फ़ौज द्वारा वहां की सत्ता जबरन हथियाने की घटना का न सिर्फ़ क्षेत्रीय बल्कि वैश्विक राजनीति पर भी असर होना स्वाभाविक है. हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका के इलाक़े से दुनिया की तमाम बड़ी ताक़तों- अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन, रूस और भारत का सक्रिय और सीधा वास्ता है.

उमर अल-बशीर की अगुवाई वाला फ़ौजी शासन

सूडान में 1989 से 2019 तक उमर अल-बशीर के नेतृत्व वाली बेरहम फ़ौजी तानाशाही का दौर चला था. इस दौर की प्रशासनिक व्यवस्था कट्टर इस्लामिक विचारधारा से प्रभावित थी. बशीर के शासनकाल में दक्षिण सूडान से तेल की खुदाई के ज़रिए भारी-भरकम कमाई की गई. इस कमाई का इस्तेमाल कर चीन जैसे देशों से हथियार ख़रीदे गए और उनका सूडानी नागरिकों पर प्रयोग किया गया. 21वीं सदी के पहले दशक में पश्चिमी सूडान के दारफुर में विद्रोही गतिविधियों को कुचलने में जंजावीड लड़ाकों का हाथ रहा था. बशीर हुकूमत की सरपरस्ती में इन लड़ाकों ने बड़े पैमाने पर नरसंहार की घटनाओं को अंजाम दिया. दक्षिण सूडान के लोग दशकों से आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करते आ रहे थे. इन मांगों को भी इसी बेरहमी के साथ दबाया जाता रहा. 1990 के दशक की शुरुआत में बशीर ने खारतूम में अल-क़ायदा के तत्कालीन सर्वोच्च नेता ओसामा बिन लादेन की मेज़बानी की थी. 1998 में केन्या और तंज़ानिया में अमेरिकी दूतावासों पर हुए हमलों में अल-क़ायदा का हाथ रहा था. नतीजतन अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने सूडान पर आर्थिक पाबंदियां लागू कर दीं. इन पाबंदियों के चलते सूडान की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी. सरकारी संस्थाओं के लड़खड़ाने और अर्थव्यवस्था के धराशायी होने की आंच बशीर हुकूमत पर पड़ने लगी. नतीजतन दक्षिण सूडान में दशकों से फलते-फूलते हथियारबंद विद्रोह से निपटने में बशीर को मुश्किलें पेश आने लगीं. आख़िरकार जुलाई 2011 में दक्षिणी सूडान को एक अलग देश का दर्जा मिल गया. संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में हुई रायशुमारी के बाद दुनिया के नक़्शे में एक नया मुल्क उभरकर सामने आया. तेल के ज़्यादातर खदान दक्षिणी सूडान में स्थित हैं. लिहाज़ा दक्षिणी सूडान के अलग होने के बाद सूडान की आर्थिक हालत और भी ज़्यादा ख़राब हो गई.

निश्चित रूप से 2018-19 में सूडान में राजकाज चलाने का काम और भी मुश्किल हो गया. दरअसल सूडानी प्रोफ़ेशनल एसोसिएशन (एसपीए) के बैनर तले डॉक्टरों, स्वास्थ्यकर्मियों और वक़ीलों आदि ने लोकतंत्र के समर्थन में बशीर की तानाशाही वाले भ्रष्ट प्रशासन के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. इससे भी अहम बात ये थी कि बशीर प्रशासन के ख़िलाफ़ देश की तक़रीबन 70 फ़ीसदी महिलाओं ने बग़ावत का झंडा थाम लिया. अप्रैल 2019 में यही महिला प्रदर्शनकारी आंदोलन का चेहरा बनकर उभरीं. इन्हें स्थानीय ज़ुबान में कंडाका (मतलब न्युबियन रानी) कहकर बुलाया जाता था. ये अजीब विडंबना है कि फ़ौजी तानाशाह बशीर को सैनिक तख़्तापलट के ज़रिए ही पद से हटाया गया. उसे गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे डाल दिया गया. बशीर के बाद सत्ता संभालने वाले अल-बुरहान जैसे फ़ौजी नेताओं ने सूडान को तानाशाही हुकूमतों के दौर से निकालकर लोकशाही की ओर ले जाने का वादा किया. इतना ही नहीं अगस्त 2021 में सूडानी सरकार ने बशीर को द हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय आपराधिक अदालत (आईसीसी) के हवाले करने का फ़ैसला भी कर लिया. दारफुर संघर्ष में नरसंहार और सरेआम मानवाधिकारों के उल्लंघन से जुड़े मामलों में उस पर मुक़दमे चलाए जाने के मकसद से ये निर्णय लिया गया था.

तानाशाही के ख़ात्मे के बाद की हुकूमत में दरार

बशीर की हुकूमत के पतन के बाद सत्ता चलाने के लिए संक्रमणकालीन संप्रभु परिषद (Transitional Sovereign Council) अस्तित्व में आई थी. हालांकि समय के साथ इसकी सैनिक और नागरिक शाखाओं के बीच तनाव और टकराव का माहौल बनने लगा. खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और ज़रूरी वस्तुओं की बढ़ती क़ीमतों के चलते फ़ौजी जनरल अल-बुरहान को लगने लगा कि देश का प्रशासन ठीक ढंग से नहीं चल रहा है. बुरहान को एहसास हुआ कि मुल्क एक और गृह युद्ध के मुहाने पर आ गया है. इसके विपरीत प्रधानमंत्री हमदोक का विचार था कि सूडानी सेना आर्थिक संकट के चलते पैदा हुए तनाव का फ़ायदा उठाकर अपना उल्लू सीधा करने की ताक में है. फ़ौज की समर्थक ताक़तें किसी भी क़ीमत पर देश में हालात को पटरी पर लाना चाहती थीं. उनका मानवाधिकारों से कोई मतलब नहीं था. इस प्रक्रिया में सूडानी सशस्त्र बलों (एसएएफ़) को मोहम्मद हमदान डागोलो उर्फ़ हेमेती की अगुवाई वाले रैपिड सपोर्ट फ़ोर्सेज़ (आरएसएफ़) का समर्थन हासिल था. आरएसएफ़ पूर्ववर्ती जंजावीड लड़ाकों के ज़रिए ही वजूद में आए थे. इतना ही नहीं एक कबीलाई गुट ने फ़ौजी मदद के बूते सूडान के सबसे बड़े बंदरगाह पोर्ट सूडान को अपने घेरे में कर लिया था. इसके चलते देश में खाने-पीने के सामान, करेंसी और ईंधन का गंभीर संकट पैदा हो गया. नतीजतन लोगों की आर्थिक स्थिति और बिगड़ने लगी. ऐसा लगने लगा था कि फ़ौज तख़्तापलट की तैयारी कर रही है. दारफुर और दक्षिणी इलाक़ों में तनाव में आई कमी के चलते फ़ौज के पास और भी ज़्यादा हथियार और वित्तीय संसाधन इकट्ठा हो गए थे. ग़ौरतलब है कि सूडान की फ़ौज के मिस्र, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) जैसे क्षेत्रीय ताक़तों के साथ बेहद मज़बूत रिश्ते हैं. लिहाज़ा वो अमेरिकी मदद के हाथ से निकल जाने का जोख़िम उठाने के लिए भी तैयार थी.

भारत ने सूडान की संक्रमणकालीन सरकार द्वारा अक्टूबर 2020 में किए गए जुबा शांति समझौते का भी समर्थन किया था. ये समझौता जटिल प्रकार का है. इसके दायरे में प्रशासन, सुरक्षा और संक्रमणकालीन न्याय जैसे क्षेत्र आते हैं.

इस सिलसिले में एक बात पर ध्यान देना ज़रूरी है. संप्रभु परिषद के शासनकाल में सूडान में अभूतपूर्व राजनीतिक बदलाव देखने को मिले. लैंगिक न्याय के नज़रिए से देखें तो संप्रभु परिषद में बड़ी तादाद में महिलाओं को जगह दी गई थी. इतना ही नहीं इसमें मजहबी और भौगोलिक तौर पर भी अलग-अलग गुटों को प्रतिनिधित्व दिया गया. यहां तक कि अलग-अलग विद्रोही गुटों को भी इस परिषद में शामिल किया गया. मिसाल के तौर पर असमा अब्दल्ला सूडानी कैबिनेट में पहली महिला विदेश मंत्री बनी थीं. सरकार अलग-अलग इलाक़ों के विद्रोही गुटों को साथ लेकर चलने की कोशिश कर रही थी. इनमें दारफुर, ब्लू नील और दक्षिणी कोरदोफ़ान के विद्रोही गुट शामिल थे. और तो और सूडान ने अक्टूबर 2020 में इज़राइल के साथ भी सामान्य रिश्ते बना लिए थे. अमेरिका ने भी 2017 में सूडान पर लागू पाबंदियों में से कुछ को वापस ले लिया था. इतना ही नहीं 14 दिसंबर 2020 को अमेरिका ने सूडान को आतंकवाद का सरकारी प्रायोजक बताने वाले अपने घोषणापत्र को भी रद्द कर दिया था. इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने 2021 की शुरुआत में सूडान की संक्रमणकालीन सरकार के साथ 50 अरब अमेरिकी डॉलर का कर्ज़ राहत समझौता भी किया था. सौ बात की एक बात ये है कि दारफुर संघर्ष, दक्षिणी सूडान के साथ लड़ाइयों और किसानों और चरवाहों के बीच घरेलू टकरावों (जिसमें क़रीब 4 लाख 30 हज़ार लोग विस्थापित हो चुके हैं) के बावजूद सूडान में अमनचैन का माहौल बनाने और हालात पटरी पर लाने की कोशिशें धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगी थीं. 25 अक्टूबर की घटना और 21 नवंबर के समझौते के बाद इन क़वायदों पर सवालिया निशान लग गए हैं.

बाहरी किरदार

दुनिया की बड़ी ताक़तों की बात करें तो सूडान में फ़ौजी तानाशाही की वापसी का सबसे बड़ा कुप्रभाव अमेरिका पर होना तय है. अमेरिका ने सूडान में स्थिरता लाने की क़वायद में आर्थिक मदद के तौर पर करोड़ों डॉलर ख़र्च किए हैं. सूडान की तटरेखा क़रीब 400 मील लंबी है. दुनिया में माल ढोने वाले तक़रीबन 30 फ़ीसदी कंटेनर जहाज़ लाल सागर के रास्ते से स्वेज़ नहर और भूमध्यसागर और पूर्वी अमेरिका का सफ़र तय करते हैं. पश्चिमी एशियाई देशों से जुड़ने के लिए लाल सागर में अमेरिकी मौजूदगी समान रूप से महत्वपूर्ण है. आसान भाषा में कहें तो हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका एक अशांत क्षेत्र है. यहां सूडान, इथियोपिया और मिस्र के बीच ग्रैंड इथियोपियन रिनेशां डैम को लेकर तनाव का माहौल है. इथियोपिया में गृह युद्ध के हालात हैं. सोमालियाई तट के नज़दीक समुद्री लुटेरों का आतंक है. ये पूरा क्षेत्र मानव तस्करी और नशीले पदार्थों के काले कारोबार का बहुत बड़ा अड्डा है. ज़ाहिर है ये पूरा इलाक़ा जैसे बारूद की ढेर पर बैठा है. इन तमाम मसलों के चलते यहां कभी भी देशों के भीतर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर टकराव पैदा हो सकता है. एक और बात, भूसामरिक दृष्टिकोण से जिबूती की अहमियत के चलते यहां कई देशों के सैनिक अड्डे बने हुए हैं. इनमें अमेरिका, चीन, फ़्रांस, स्पेन, जर्मनी, इटली, यूनाइटेड किंगडम और सऊदी अरब शामिल हैं. रूस भी इस क्षेत्र में पैर पसार रहा है. सूडान में रूसी नौसेना का अड्डा है. यहां इस अड्डे को लेकर जारी विवादों के बावजूद इसके बरकरार रहने की संभावना है. सूडानी सरज़मीं पर अपनी मौजूदगी की बदौलत रूस को देर-सवेर सोने और तेल जैसे संसाधनों की खुदाई में हाथ आज़माने का मौका मिल ही जाएगा. बदले में रूस सूडान को दूरसंचार, कृषि और हवाई यातायात जैसे क्षेत्रों में मदद पहुंचा रहा है. इतना ही नहीं हथियार हासिल करने और फ़ौजी साज़ोसामान पाने में भी सूडान को रूसी मदद मिल रही है.

सूडान के प्रति भारत का रुख़

सूडान और हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका में दुनिया की बड़ी ताक़तों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही है. लिहाज़ा भारत को इस इलाक़े में सावधानी से आगे बढ़ना होगा. भारत ने सूडान की संक्रमणकालीन सरकार के गठन के प्रति अपने समर्थन की प्रतिबद्धता जताई थी. भारत ने सूडान के साथ द्विपक्षीय स्तर पर 49 परियोजनाओं पर पहले ही अमल चालू कर दिया था. सूडान को भारत की ओर से सस्ते दर पर 61.2 करोड़ अमेरिकी डॉलर की सहायता उपलब्ध कराई गई है. सूडान के ऊर्जा, परिवहन और कृषि-कारोबार उद्योग जैसे क्षेत्रों में इस सहायता का इस्तेमाल हो रहा है. भारत ने सूडान की संक्रमणकालीन सरकार द्वारा अक्टूबर 2020 में किए गए जुबा शांति समझौते का भी समर्थन किया था. ये समझौता जटिल प्रकार का है. इसके दायरे में प्रशासन, सुरक्षा और संक्रमणकालीन न्याय जैसे क्षेत्र आते हैं. संवैधानिक वार्ताओं की भावी प्रक्रियाओं पर इनका असर होने के आसार हैं. भारत ने बाहर से संचालित होने वाली हथियारबंद मुहिमों को वार्ता प्रक्रियाओं में शामिल किए जाने से जुड़े क़दम की भी हिमायत की थी. इसके साथ ही 1200 जवानों से संबंधित नागरिक सुरक्षा से जुड़ी राष्ट्रीय योजना का भी भारत ने समर्थन किया था. इंडियन टेक्निकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (आईटीईसी) के तहत भारत ने क्षमता निर्माण के क्षेत्र में सूडान को 290 स्कॉलरशिप मुहैया कराने का प्रस्ताव किया था. इतना ही नहीं, पिछले साल भारत ने सूडान को खाद्य आपूर्ति समेत तमाम तरह की मानवीय सहायता देने की पेशकश की थी. सितंबर में भारत ने सूडानी नौसेना के साथ अपना पहला साझा नौसैनिक अभ्यास भी किया था.

सूडानी सरज़मीं पर अपनी मौजूदगी की बदौलत रूस को देर-सवेर सोने और तेल जैसे संसाधनों की खुदाई में हाथ आज़माने का मौका मिल ही जाएगा. बदले में रूस सूडान को दूरसंचार, कृषि और हवाई यातायात जैसे क्षेत्रों में मदद पहुंचा रहा है.

ग़ौरतलब है कि 2002-2003 में भारत ने अपनी ईंधन ज़रूरतें पूरी करने के लिए सूडान को एक अहम स्रोत के तौर पर स्थापित करने की क़वायद शुरू की थी. उस समय भी सूडान में सैनिक तानाशाही हुकूमत का दौर था. भारत और सूडान के बीच द्विपक्षीय व्यापार में भी पिछले वर्षों में बढ़ोतरी हुई है. 2005-06 में दोनों देशों का कारोबार 32.73 करोड़ अमेरिकी डॉलर था. 2018-19 में ये बढ़कर 166.37 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया. सूडान और दक्षिणी सूडान में भारत का निवेश तक़रीबन 3 अरब अमेरिकी डॉलर था. इनमें से 2.4 अरब अमेरिकी डॉलर अकेले पेट्रोलियम सेक्टर में लगा हुआ था. भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी ओएनजीसी विदेश के ज़रिए ये पैसा लगाया गया था. दक्षिण सूडान के तौर पर एक नए देश के उदय के बाद भारत ने जुबा में अलग से अपना दूतावास स्थापित किया. रिश्तों में और मज़बूती लाने के मकसद से भारत के विदेश राज्यमंत्री वी. मुरलीधरन 18-22 अक्टूबर के बीच सूडान और दक्षिणी सूडान की यात्रा पर थे.

दरअसल अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए भारत सिर्फ़ ईरान, इराक़ और सऊदी अरब जैसे पश्चिम एशियाई देशों (जिन्हें विश्व में ईंधन का अड्डा माना जाता है) के भरोसे नहीं रह सकता. लिहाज़ा भारत ने सोच-समझकर अफ़्रीका के उन देशों के साथ क़रीबी रिश्ते बनाने शुरू किए हैं जहां तेल के प्रचुर भंडार मौजूद हैं. इनमें सूडान, नाइजीरिया और अंगोला जैसे देश शामिल हैं. ज़ाहिर है कि सूडान और दक्षिणी सूडान के साथ भारत ने रिश्तों का जो ढांचा तैयार किया है, उसे इस मौके पर छेड़ा नहीं जा सकता. हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका में अपने निवेश, कारोबार और दूसरे हितों की रक्षा करना भारत के लिए ज़रूरी हो जाता है. लाल सागर का इलाक़ा भारत की सामुद्रिक सुरक्षा रणनीति के हिसाब से बेहद अहम है. ऐसे में सूडान में 25 अक्टूबर के बाद तेज़ी से बदलते हालातों पर भारत को क़रीब से निग़ाह रखनी होगी.

निष्कर्ष

संक्षेप में कहें तो अक्टूबर में तख़्तापलट की घटना ने लोकतंत्र की ओर बढ़ते सूडान की यात्रा में खलल डाला है. हालांकि 21 नवंबर के समझौते के बाद अपदस्थ प्रधानमंत्री हमदोक की सत्ता में फिर से बहाली तय हो गई है. बहरहाल सूडानी प्रोफ़ेशनल एसोसिएशन ने इस समझौते की तीखी आलोचना की है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सूडान को अमेरिका से आगे आर्थिक मदद मिलेगी. दूसरी ओर यूएई, सऊदी अरब, मिस्र और रूस द्वारा सूडान की नई व्यवस्था को समर्थन दिए जाने को लेकर अभी कोई ठोस संकेत नहीं मिले हैं. बहरहाल सूडान के साथ रिश्तों के मौजूदा ढांचे और हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका में उसकी भौगोलिक स्थिति के चलते भारत को अपने क़दम फूंक-फूंक कर रखने होंगे. तेज़ी से बदलती सूडान की घरेलू परिस्थितियों के बीच भारत को उस इलाक़े में अपने कारोबार, निवेश और व्यापक हितों की सुरक्षा करनी होगी.

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