Published on Nov 20, 2023 Updated 0 Hours ago
श्रीलंका में चीनी जहाज की मौज़ूदगी और भारत से रिश्तों पर इसका असर

चीनी जहाज जिस प्रकार से हाल के दिनों में एक बाद एक श्रीलंका पहुंच रहे हैं, उसने भारत और श्रीलंका के रिश्तों में खटास पैदा करने का काम किया है. इसी प्रकार से हिंद महासागर के दूसरे पड़ोसी मुल्क मालदीव के साथ नई दिल्ली के संबंधों में भी चीन एक प्रमुख रोड़ा बन गया है. देखा जाए तो भारत के पड़ोस में मौज़ूद अलग-अलग देशों में चीन की उपस्थिति भारत के लिए व्यापक स्तर पर चिंता का सबब रही है. भारत के रणनीतिक गलियारों के एक वर्ग ने हाल ही में भूटान और चीन के बीच हुई सीमा वार्ताओं और अक्टूबर 2023 में दोनों देशों के बीच सहयोग समझौते पर हुए हस्ताक्षर को लेकर भी चिंता जताई है. यह सब इसके बावज़ूद हुआ है कि भूटान द्वारा हर बात की जानकारी भारत को दी जाती है. हाल ही में भूटान के राजा जिग्मे खेसर की नई दिल्ली यात्रा के दौरान इसे देखा गया, तब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी से बातचीत की थी. इस सब में  चीन के उत्तर-पश्चिम में पाकिस्तान के साथ रिश्ते और अफ़ग़ानिस्तान के साथ नए व पुराने ताल्लुकात शामिल नहीं हैं.

 

सवाल यह उठता है कि भारत यदि अपने अलग-अलग पड़ोसियों से चीन को अलग-थलग कर सकता है, तो क्या ऐसा करने से नई दिल्ली अपने हर पड़ोसी देश के साथ सामूहिक रूप से ज़्यादा नज़दीकी रिश्ते बन पाएगा और पारस्परिक तनाव कम हो जाएगा? अगर वास्तविकता में ऐसा होता है, तो निश्चित तौर पर यह भारत को मौज़ूदा दौर की तुलना में ज़्यादा आत्मविश्वास से भरे राष्ट्र के रूप में स्थापित करेगा, या फिर जिस प्रकार से भारत को अभी तक पड़ोसी और दूसरे देशों द्वारा देखा जा रहा है, उस रूप में स्थापित करेगा.

 

भारत यदि अपने अलग-अलग पड़ोसियों से चीन को अलग-थलग कर सकता है, तो क्या ऐसा करने से नई दिल्ली अपने हर पड़ोसी देश के साथ सामूहिक रूप से ज़्यादा नज़दीकी रिश्ते बन पाएगा और पारस्परिक तनाव कम हो जाएगा.

आने वाले वर्षों में भारत के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के अनुमान जताए जा रहे हैं, लेकिन इससे भारत की ताक़त में इज़ाफा होगा, इसके बारे में फिलहाल निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है. क्वॉड देशों में शामिल भागीदार देशों के समक्ष भारत फिलहाल अपनी ताक़त दिखाने के योग्य नहीं है, क्योंकि अमेरिका की तुलना में भारत हथियार निर्माण के मामले में बहुत पीछे है. कम से कम आने वाले कुछ समय में भारत न तो ऐसी क्षमता हासिल कर सकता है और न ही चीन के साथ होड़ करने की उम्मीद कर सकता है. 355 युद्धपोतों की ताक़त के साथ चीन के पास आज विश्व की सबसे बड़ी नौसेना है और उसकी शक्ति अमेरिका से कहीं अधिक है.

 

ज़ाहिर है कि भारत के पास हार्डवेयर की कमी सबसे बड़ी रुकावट है, जिसे वो अपने पड़ोसी देशों के साथ बेहतर रिश्तों के बल पर दूर कर सकता है और इस प्रकार से राष्ट्रीय गौरव और आत्मविश्वास को हासिल कर सकता है. देखा जाए तो पड़ोसी मुल्कों में भारत के प्रति व्यक्तिगत रूप से भी और सामूहिक रूप से भी सद्भावना बढ़ रही है. अगर भारत उत्तेजित नहीं हो और संयम के साथ यूं ही चलता रहे तो, निसंदेह तौर पर चीन के पास भारत के पड़ोस में उसे घेरने का कोई रास्ता नहीं बचेगा.

 

देखा जाए तो भारत शीत युद्ध के बाद हुए परिवर्तन के दौरान अमेरिका से मिले अनुभव से बहुत कुछ सीख सकता है. उदाहरण के तौर पर ‘बांग्लादेश युद्ध’ (1971) के दौरान भारत और अमेरिका के बीच जिस तरह के संबंध थे, उसकी तुलना में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्ते आज काफ़ी बेहतर स्थिति में हैं. इसमें भारत के लिए एक सबक हो सकता है. नई दिल्ली को चीन को परे रखकर पड़ोसी देशों के साथ अपने स्वतंत्र द्विपक्षीय संबंध बनाने पड़ेंगे, यानी चीन के दृष्टिकोण से पड़ोसियों को देखना बंद करना होगा. उदाहरण के लिए, भारत और अमेरिका के बीच सामान्य संबंध तब तक स्थापित नहीं हो पाए, जब तक अमेरिका ने भारत को पाकिस्तान के साथ अपने समीकरणों के लिहाज़ से देखना बंद नहीं किया. भारत और अमेरिका के रिश्तों में क़रीबी के लिए लिए कई अन्य फैक्टर भी मददगार साबित हुए हैं, लेकिन अस्सी के दशक तक, दोनों में से किसी ने भी ऐसा नहीं सोचा होगा कि उनके आपसी संबंध प्रगाढ़ हो पाएंगे और पारस्परिक रूप से लाभकारी एवं भरोसेमंद रिश्ते बनेंगे. ज़ाहिर है उस समय से ही दोनों के आपसी रिश्तों में गर्मजोशी बनी हुई है.

 

भारतीय नज़रिए से देखें, तो 9/11 के बाद इस्लामाबाद एवं रावलपिंडी को लेकर अमेरिका को जो अनुभव प्राप्त हुआ, उसने अमेरिका को यह निष्कर्ष निकालने के लिए प्रेरित भी किया या मज़बूर किया कि पाकिस्तान के ख़िलाफ भारत द्वारा लगाए गए सीमा पार आतंकवाद के आरोपों में सच्चाई है. वर्तमान में देखा जाए तो चाहे इस्लामाबाद के साथ द्विपक्षीय संबंधों की बात हो, या फिर वैश्विक मंचों पर आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को घेरने का मसला हो, हर जगह पर अमेरिका पाकिस्तान का विरोध करने में भारत से आगे दिखता है. यह अमेरिका ही है, जिसने पाकिस्तान की करतूतों को जोरशोर से उठाया और इसके लिए उसका धन्यवाद है, जिसके चलते तमाम दूसरे पश्चिमी देश, जो पाकिस्तान के भारत-विरोधी आतंकवादी मॉड्यूल पर सबसे अधिक दुविधा में थे, अब धीरे-धीरे उनकी यह दुविधा कम हो रही है. हालांकि इसके अलावा भी कई अन्य कारण है, जिनकी वजह से पश्चिमी देश पाकिस्तान के कई संकटों के चलते उससे दूर होते जा रहे हैं और भारत के नज़दीक आते जा रहे हैं.

 

लगातार दो चीनी जहाजों का दौरा

चीनी रिसर्च वैसेल यानी 'अनुसंधान पोत', शी यान-6 की श्रीलंका यात्रा और श्रीलंकाई विशेषज्ञों के साथ उसके साझा समुद्री अनुसंधान कार्य ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. एक साल से अधिक समय के भीतर यह दूसरा मौक़ा है, जब चीनी जहाज की श्रीलंका में मौज़ूदगी देखी गई है. चीन और श्रीलंका का यही कहना है कि ये रिसर्च पोत हैं. युआन वांग-5 नाम के चीनी जहाज को अगस्त 2022 में श्रीलंका के दक्षिण में स्थित हंबनटोटा बंदरगाह पर खड़ा किया गया था. हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि शी यान-6 को राजधानी कोलंबो के पोर्ट पर खड़ा किया जा रहा, यानी राजधानी में मौज़ूद राजनयिक समुदाय और मीडिया की नज़रों के सामने लंगर डाला जा रहा है, या फिर इस जहाज को हंबनटोटा बंदरगाह पर खड़ा किया जा रहा है, जो कि 99 वर्षों के पट्टे पर चीन के कब्जे में है. इससे यह भी स्पष्ट नहीं हो रहा है कि भारत को अपनी सुरक्षा संबंधी चिंताएं को गंभीरता से लेना चाहिए या फिर उसे ज़्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए.

 

 भारत इसलिए चिंतित है, क्योंकि चीनी जहाज श्रीलंका में समुद्री क्षेत्र से संबंधित विभिन्न आंकड़े जुटा रहा है और भारत को लगता है कि इन आंकड़ों का उपयोग करके चीन भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर अपने युद्धपोतों और ख़ास तौर पर पनडुब्बियों की सुरक्षित तरीक़े से तैनाती कर सकता है.

चीनी पोत शी यान-6 साझा रिसर्च के दौरान जुटाए गए आंकड़ों को तारीख़ और समय के साथ श्रीलंका को सौंप सकता है, या फिर इसकी उम्मीद है. श्रीलंका का दावा है कि उसे इस रिसर्च के दौरान जुटाए गए आंकड़ों का विशेष अधिकार दिया गया है, लेकिन अगर चीन शामिल न हो तो इन आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है. इसकी वजह यह है कि पोत पर उपस्थित श्रीलंका के विशेषज्ञों में से किसी को न तो डेटा एकत्र करने का विशेषज्ञ माना जाता है और न ही उन्हें आंकड़ों में अंतर करने की समझ है. एक और बात यह कि चाहे वो चीन हो या कोई अन्य देश, आम तौर पर यह उम्मीद तो कतई नहीं की जा सकती है कि वो किसी 'तीसरे देश' के विशेषज्ञों को पोत पर अपने उपकरणों के उपयोग की मंज़ूरी देगा. डुअल यूज़ टेक्नोलॉजी की बात आंखों में धूल झोंकने के लिए है, यानी इसका उपयोग कुछ और बताया जाता है, बल्कि असल मकसद कुछ और होता है. इससे पहले श्रीलंका में चीनी पोत युआन वांग-5 आया था, उसने जासूसी के अन्य कार्यों के अलावा उपग्रह और मिसाइल-ट्रैकिंग जैसे कामों को भी अंज़ाम दिया था. चीन का शी यान-6 जहाज भी कुछ ऐसे ही जासूसी से जुड़े कार्य वहां के समुद्री इलाक़ों एवं नौसैनिक क्षेत्रों में करने में सक्षम है.

 

भारत इसलिए चिंतित है, क्योंकि चीनी जहाज श्रीलंका में समुद्री क्षेत्र से संबंधित विभिन्न आंकड़े जुटा रहा है और भारत को लगता है कि इन आंकड़ों का उपयोग करके चीन भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर अपने युद्धपोतों और ख़ास तौर पर पनडुब्बियों की सुरक्षित तरीक़े से तैनाती कर सकता है. ज़ाहिर है कि इस तरह के संवेदनशील आंकड़ों से कोलंबो को तात्कालिक रूप से या फिर बाद में भले ही ज़्यादा फर्क नहीं पड़े, लेकिन इस बात की प्रबल संभावना है कि चीन द्वारा भारत के साथ-साथ हिंद महासागर के उसके अन्य पड़ोसी देशों के विरुद्ध प्रतिकूल सैन्य स्थिति में इन आंकड़ों का उपयोग किया जा सकता है. इसमें अमेरिका का डिएगो गार्सिया में स्थित मिलिट्री बेस भी शामिल है, जिसे इन आंकड़ों से नुक़सान पहुंच सकता है.

 

ख़ास तौर पर श्रीलंका को सबसे पहले इसके बारे में विचार करना चाहिए कि जिन आंकड़ों को जुटाने में कोलंबो ने चीन की सहायता की थी, उसका चीन द्वारा किस प्रकार का उपयोग संभव है. इसके साथ ही श्रीलंका को यह भी सोचना चाहिए कि इन आंकड़ों से उसकी सामरिक सुरक्षा किस तरह से प्रभावित हो सकती है और उसकी राजनीतिक स्थिरता एवं आर्थिक स्थिति पर क्या असर पड़ सकता है. ज़ाहिर है कि श्रीलंका के आर्थिक हालात आज भी वैसे ही ख़राब हैं, जैसी स्थिति में वर्ष 2022 में पहुंच गए थे. तीन देशों के द्वि-वार्षिक समुद्री अभ्यास में राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन (2013-18) के नेतृत्व में मालदीव के रूखे व्यवहार के बाद श्रीलंका को इस बारे में सोचना चाहिए कि वर्तमान घटनाक्रम IOR राष्ट्रों यानी इंडियन ओशन  रिम एसोसिएशन के सदस्य देशों के मल्टी-नेशन कोलंबो सिक्योरिटी कॉन्क्लेव (CSC) को किस प्रकार से प्रभावित कर सकता है, जिसका श्रीलंका स्थाई अध्यक्ष है और भारत एक प्रमुख सदस्य है.

 

प्रत्यक्ष लाभ

 

ख़ास तौर पर पड़ोसी देशों में बढ़ती घबराहट और चिंता का मुद्दा यह है कि श्रीलंका के बंदरगाह इस प्रकार से चीनी पोतों के लिए ईंधन की आपूर्ति के सुरक्षित ठिकाने बन सकते हैं. ऐसे में भविष्य में श्रीलंका के समुद्री क्षेत्र से पैदा होने वाला कोई भी चीनी ख़तरा, भले ही वो उसकी ज़मीन से न हो, उसके पड़ोसी मुल्कों के लिए सुरक्षा ख़तरा बन सकता है, इसके अलावा भारत के साथ श्रीलंका के द्विपक्षीय रिश्तों को भी प्रभावित कर सकता है.

 

भारत और अमेरिका की ओर से शी यान-6 की यात्रा को लेकर गंभीर चिंताएं जताए जाने के बाद श्रीलंका ने ऐलान किया है कि उसने विदेशी युद्धपोतों और लड़ाकू-विमानों को अपने क्षेत्र का इस्तेमाल करने की इज़ाजत देने के लिए एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर  (SOP) का ड्राफ्ट बनाया है. हालांकि, पिछले वर्ष हंबनटोटा पोर्ट पर चीनी जहाज युआन वांग-5 के लंगर डालने से पहले भी श्रीलंका ने दावा किया था को वो जहाज श्रीलंकाई क्षेत्र से बाहर है.

 

न तो अभी और न कभी पहले, श्रीलंका ने यह नहीं जानना चाहा कि चीनी जहाजों के उसके यहां आने से उसे प्रत्यक्ष तौर पर क्या फायदा हो सकता है. मान लिया जाए कि श्रीलंका में चीनी जहाजों को आने की अनुमति देना, उसके द्वारा कई मुद्दों पर अतीत में और भविष्य के लिए चीन से किए गए वादों की पूर्ति हेतु एक प्रकार का राजनीतिक समझौता था, तब भी ऐसा करने से पहले कोलंबो को भारत की ओर से जताई गई चिंताओं पर ध्यान देना चाहिए. श्रीलंका द्वारा ऐसा किया जाना उचित भी है, क्योंकि भारत हमेशा से श्रीलंका से साथ खड़ा रहा है और भारत की ओर से उसकी दीर्घकालिक आर्थिक सहायता के साथ ही ऐसी कई प्रकार की मदद की जाती रही हैं.

 

श्रीलंकाई राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे द्वारा इस वर्ष की शुरुआत में की गई दिल्ली यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच तमाम समझौता ज्ञापनों (MoUs) पर हस्ताक्षर किए गए थे. इन समझौतों का मकसद श्रीलंका की आर्थिक एवं ऊर्जा सुरक्षा में सुधार करना था. ज़ाहिर है कि वर्ष 2022 में तमाम संकटों से जूझ रहे श्रीलंका को इन दोनों ही मोर्चों पर अत्यधिक नुक़सान उठाना पड़ा था. इसके एवज में श्रीलंका को कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि भारत एक राष्ट्र के रूप में स्वयं को सुरक्षित महसूस करे. साथ ही श्रीलंका को उन पहलों का भी सम्मान करना चाहिए, जिन्हें नई दिल्ली की ओर से 'नेबरहुड फर्स्ट', यानी पड़ोसी प्रथम की नीति एवं दूसरे सहायक  कार्यक्रमों के एक हिस्से के रूप में प्रारंभ किया गया था.

 

‘बिना शर्त मदद’

 

युआन वांग-5 जहाज के लंगर डालने से पहले, कथित तौर पर जिसके श्रीलंका में रुकने की वजह रसद आपूर्ति और ईंधन भरना बताया गया था, चीन ने अपने आलोचकों को आड़े हाथों लिया था. उस दौरान चीन ने भारत और अमेरिका का नाम लिए बग़ैर यह कहा था कि 'कुछ देशों द्वारा श्रीलंका पर दबाव बनाने के लिए तथाकथित 'सुरक्षा चिंताओं' का हवाला देना अनुचित है.' लेकिन इस बार बीजिंग ने चुप्पी साध रखी है और कोलंबो की तरफ से ही सारी प्रतिक्रिया दी जा रही है.

 

पिछले कुछ हफ्तों से चीन द्विपक्षीय संबंधों को लेकर ख़ासा सक्रिय है. अक्टूबर में चीन द्वारा अपने बेल्ट एंड रोड पहल यानी BRI प्रोजेक्ट की शुरुआत के दस वर्ष पूरे होने पर आयोजित समारोह में हिस्सा लेने बीजिंग पहुंचे श्रीलंकाई राष्ट्रपति विक्रमसिंघे के साथ शी जिनपिंग ने अलग से बैठक की थी. इस मीटिंग के बाद जिनपिंग ने ऐलान किया था कि बीजिंग के कोलंबो के साथ द्विपक्षीय संबंधों में ‘कोई राजनीतिक शर्त नहीं है’ यानी कि बदले में कुछ मांगे बग़ैर कोलंबो की मदद की जा रही है.

 

बीजिंग में श्रीलंकाई राष्ट्रपति  विक्रमसिंघे के साथ बैठक में चीन के उप प्रधानमंत्री डिंग ज़ुएज़ियांग ने 'कोलंबो पोर्ट सिटी (CPC) और हंबनटोटा बंदरगाह को आगे भी विकसित' करने को लेकर प्रतिबद्धता जताई. इतना ही नहीं, चीनी वित्त मंत्री लियू कुन ने विक्रमसिंघे को अवगत कराया कि बीजिंग 'श्रीलंका के क्रेडिट-ऑप्टिमाइजेशन को बढ़ाने यानी ऋण जोख़िम को कम करने के लिए प्रतिबद्ध' है. हालांकि, इस मुद्दे पर अभी दोनों तरफ से ज़्यादा स्पष्टीकरण मिलना बाक़ी है. लेकिन इस बात से फिलहाल कोलंबो में सकारात्मक माहौल बना हुआ है और वहां के लोगों को लगता है कि श्रीलंका पर मौज़ूदा ऋणों के पुनर्निर्धारण के लिए चीन के साथ सफल बातचीत ने आख़िरकार 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण की दूसरी किश्त को मंजूरी देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्वीकृति हासिल करने में उसकी मदद की है.

 

लेकिन भारतीय नज़रिए एवं व्यापक क्षेत्रीय दृष्टिकोण से यह देखना बाक़ी है कि अगर बीजिंग द्वारा श्रीलंका पर राष्ट्रपति शी जिनपिंग की BRI की तरह ही महत्वाकांक्षी ‘ग्लोबल सिक्योरिटी इनीशिएटिव ’ यानी 'वैश्विक सुरक्षा पहल' (GSI) पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला जाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी. BRI की शुरुआत के 10 वर्ष पूरे होने पर बीजिंग में आयोजित सम्मेलन में नेपाल की सेंटर-लेफ्ट सरकार के प्रधानमंत्री पुष्प कुमार दहल उर्फ प्रचंड ने GSI में शामिल होने से इनकार कर दिया था. हालांकि, प्रचंड ने 'फॉरवर्ड रेल प्लान' समेत चीन की विकास वित्त पोषण  एवं पहलों को स्वीकार किया था.

 

अगर अगले साल राष्ट्रपति चुनावों के पश्चात श्रीलंका द्वारा नेपाल की भांति ऐसी हिम्मत दिखाई जाती है और अपनी बात को दृढ़ता के साथ रखा जाता है, तो यह भारत ही नहीं, बल्कि पूरे रीजन के लिए बहुत अच्छा होगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि हाल के दिनों में हंबनटोटा से लेकर दो चीनी जहाजों के दौरों तक और कोलंबो पोर्ट सिटी से लेकर कोलंबो पोर्ट के इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल (CTC) तक, श्रीलंका में जो भी घटनाक्रम हुए हैं, उनको लेकर भारत द्वारा अपनी सुरक्षा एवं पूरे क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंताएं जताई गई हैं. लेकिन इस मुद्दे पर श्रीलंका द्वारा भारत को आश्वस्त करने के लिए उस स्तर पर प्रयास नहीं किए गए हैं, जो किए जाने चाहिए थे. अब ऐसे में विकल्प यही है कि भारत को पड़ोसी देशों के साथ अपने समीकरणों एवं रिश्तों से चीन को अलग करने की दिशा में कार्य करना चाहिए, यानी पड़ोसियों के साथ स्वतंत्र संबंधों पर आगे बढ़ना चाहिए.


एन साथिया मूर्ति, चेन्नई में रहते हैं और पॉलिसी एनालिस्ट एवं राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.

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