Published on Aug 05, 2022 Updated 0 Hours ago
श्रीलंका: राष्ट्रपति विक्रमसिंघे के नेतृत्व में भारत के साथ बढ़ते और बेहतर होते द्विपक्षीय संबंध!

ऐसा कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे का श्रीलंका की सत्ता के सर्वोच्च पद पर पहुंचना शायद भारत के साथ मज़बूत और स्थिर संबंधों के लिहाज से सबसे बेहतरीन समय है. यह अवसर एक नए नेता के व्यक्तित्व के कारण बना है, ना कि उन राजनीतिक परिस्थितियों की वजह से, जो उन्हें यहां तक लेकर आईं. भारत अभूतपूर्व आर्थिक संकट का सामना कर रहे श्रीलंका की मदद के लिए हमेशा एक क़दम आगे रहा है. जब भी कोलंबो की तरफ से नई दिल्ली से कोई भी सहायता के लिए संपर्क किया गया, तो भारत ने बिना देरी किए श्रीलंका में ज़रूरी खाद्यान्न, ईंधन और दवाओं को पहुंचाने का काम किया है. इसने पूरे श्रीलंका में भारत की साख को बढ़ाने का काम किया है. फिर भी, घरेलू राजनीति और विरासत से जुड़े मुद्दों के कारण वहां के कुछ वर्गों में पड़ोसी भारत के प्रति घृणा और शत्रुता का रवैया बना हुआ है.

जिस प्रकार भारतीय संसद के संयुक्त सत्र को राष्ट्रपति द्वारा संबोधित किया जाता है, उसी प्रकार विक्रमसिंघे द्वारा अपनी ‘ताजपोशी के भाषण’ के दौरान अपनी तमाम प्राथमिकताओं का ऐलान किए जाने की उम्मीद है. राष्ट्रपति के रूप में वह इसके लिए आवश्यक कार्रवाई करने और एक नई औपचारिक शुरुआत के लिए संसद के एक दिन के सत्रावसान पर विचार कर रहे हैं. पूर्ववर्ती राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में विक्रमसिंघे ने दिसंबर में समाप्त होने वाले चालू वित्त वर्ष के लिए एक संशोधित, ‘यथार्थवादी’ बजट पेश करने के अपने निर्णय की घोषणा की थी.

जिस प्रकार भारतीय संसद के संयुक्त सत्र को राष्ट्रपति द्वारा संबोधित किया जाता है, उसी प्रकार विक्रमसिंघे द्वारा अपनी ‘ताजपोशी के भाषण’ के दौरान अपनी तमाम प्राथमिकताओं का ऐलान किए जाने की उम्मीद है.

विक्रमसिंघे ने तभी से राष्ट्रपति के रूप में वित्त विभाग को अपने पास ही रखा है. ऐसा कई विपक्षी दलों को इस बारे में आश्वस्त करने के लिए भी है कि वह एक सर्वदलीय सरकार के प्रस्ताव को लेकर गंभीर हैं. जैसा कि राजपक्षे के विरुद्ध अरागलाया संघर्ष के माध्यम से कई हितधारकों द्वारा मांग की गई थी. वह इस बात को बखूबी समझते हैं कि वैश्विक स्तर पर तमाम देशों के नेताओं और अन्य हितधारकों के साथ वार्ता करने के लिए वित्त मंत्रालय को एक पूर्णकालिक मंत्री की आवश्यकता होगी. इस अहम मंत्रालय को विपक्ष के तुलनात्मक रूप से सक्षम और भरोसेमंद सांसद को सौंपने से उनकी विश्वसनीयता भी बढ़ेगी. यह भी सच्चाई है कि वहां कई ऐसे नेता हो सकते हैं, जो सक्षम और कुशल तो हों, लेकिन इस विपरीत समय में अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर नहीं लगाना चाहते हों.

सहायता करने वाला एकमात्र देश

प्रदर्शनकारियों द्वारा महिंदा राजपक्षे को जबरन प्रधानमंत्री के पद से हटने के लिए मज़बूर करने के बाद पिछले दो महीनों से अधिक समय से एक प्रधानमंत्री के तौर पर विक्रमसिंघे ने इस बात को बार-बार दोहराया कि भारत मदद करने वाला एक मात्र देश था, जिसने संकट के समय में खाद्यान्न, ईंधन और दवाओं की आपूर्ति के ज़रिए श्रीलंका की लगातार सहायता की. इस हालातों के बीच नई दिल्ली ने बार-बार इस बात को स्पष्ट रूप से कहा है कि भारत को ‘श्रीलंका के लोगों‘  की मदद करने आवश्यकता पड़ सकती है, कम से कम जब तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) अपने ‘बेल-आउट पैकेज को लागू नहीं करता. यह बेल-आउट पैकेज कई विदेशी देनदारों के साथ ऋण-पुनर्गठन समझौतों पर आधारित होगा, जो अन्य देशों के लिए सहायता प्रदान करने का आधार होगा.

अगले साल के अंत में श्रीलंका में नियमित राष्ट्रपति चुने जाने तक विक्रमसिंघे के एक साल के प्रोबेशनरी पीरियड यानी एक लिहाज़ से उनकी परीक्षा अवधि के ज़रिए पश्चिमी देशों की सरकारें उनकी नेतृत्व क्षमता पर पैनी नज़र रख रही हैं. विशेष रूप से वहां सामाजिक एकजुटता और सामाजिक सुरक्षा को बहाल करने के लिए उनके द्वारा उठाए गए कदमों का आकलन कर रही हैं. ज़ाहिर है कि विरोध-प्रदर्शनों से भरे रहे पिछले कुछ महीनों के दौरान इन मुद्दों को लेकर कमोबेश काफ़ी हद तक समझौता किया गया है. पश्चिम विशेष रूप से संसद में राजपक्षे के समर्थन पर विक्रमसिंघे नेतृत्व की निर्भरता के सामान्य प्रभाव और उनकी लोकप्रियता का मूल्यांकन करेगा. उल्लेखनीय है कि संसद में राजपक्षे के 115 सांसदों के वोट का विक्रमसिंघे के राष्ट्रपति बनने में प्रमुख योगदान था.

अगले साल के अंत में श्रीलंका में नियमित राष्ट्रपति चुने जाने तक विक्रमसिंघे के एक साल के प्रोबेशनरी पीरियड यानी एक लिहाज़ से उनकी परीक्षा अवधि के ज़रिए पश्चिमी देशों की सरकारें उनकी नेतृत्व क्षमता पर पैनी नज़र रख रही हैं.

पूर्ववर्ती श्रीलंकाई राष्ट्रपति गोटबाया की तुलना में सुरक्षा बलों को अदालत के आदेशों के बावज़ूद राष्ट्रपति सचिवालय पर अवैध कब्जा करने वालों को वहां से हटाने के लिए अधिक शक्तियां देने को लेकर अमेरिका जैसे देश भी नए राष्ट्रपति से नाखुश हैं. खास तौर पर यूरोपीय संघ (ईयू) ने रानिल विक्रमसिंघे नेतृत्व को जीएसपी+ निर्यात रियायतों को ज़ारी रखने के लिए श्रीलंका की मानवाधिकार प्रतिबद्धताओं को याद दिलाया है.

 

मुद्दे और चिंताएं

परंपरागत रूप से देखा जाए, तो भारत और श्रीलंका के द्विपक्षीय संबंध कुछ विशेष मुद्दों और चिंताओं पर केंद्रित होते हैं, जैसे- सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं (अब सुरक्षा सहयोग शामिल है), नस्ली मुद्दे, मछुआरों का विवाद और निवेश का माहौल. इनमें से प्रत्येक मुद्दे पर विशेष समय और विशेष परिस्थितियों में पूरा ध्यान दिया जाता है. यहां तक कि जब भारत ने श्रीलंका को विदेशी मुद्रा सहायता देना शुरू किया, तो वहां राजनीतिक विपक्षियों का एक धड़ा बिजली क्षेत्र में अधिक लागत वाले निवेश समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए राजपक्षे शासन की आलोचना कर रहा था. हालांकि एक बात ज़रूर थी कि उनमें से किसी ने भी इस संबंध में भारत की सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की संस्थाओं का जिक्र नहीं किया.

इसी प्रकार से, आर्थिक और राजनीतिक दोनों तरह के संकटों से जूझ रहे श्रीलंका को पिछले महीनों के दौरान दी जा रही भारतीय सहायता के समय भी मछली पकड़ने के मोर्चे पर एक-दूसरे के विरुद्ध कार्रवाई और नीचा दिखाने की कोशिश की जाती रही. इस दौरान वहां रोज़ाना भारतीय मछुआरों को गिरफ़्तार किया जाता रहा और उनकी नावों और उपकणों को आईएमबीएल के उल्लंघन और श्रीलंकाई जल क्षेत्र में अवैध शिकार के आरोपों में ज़ब्त किया गया. यह सब तब भी चलता रहा, जब तमिलनाडु सरकार ने श्रीलंकाई भाइयों को तोहफ़े के रूप में भोजन और दवाइयों की सहायता की तीन खेप भेजीं.

राज्य सरकार और केंद्र इस मसले के समाधान के लिए अपनी ओर से तत्परता से कार्य कर रही हैं. ऐसे में केंद्र को एक सीमित प्रतिक्रिया के साथ श्रीलंकाई अधिकारियों से गिरफ्तार मछुआरों और उनकी नावों को मुक्त करने की अपील जारी रखनी होगी. राजपक्षे शासन के दौरान भी ऐसा था, और आर्थिक संकट के पहले और बाद में भी ऐसा है. यह संयोग ही है कि विक्रमसिंघे ने ना केवल अनुभवी तमिल राजनेता डगलस देवानंद को मत्स्य पालन मंत्री के रूप में बरकरार रखा है, बल्कि वरिष्ठता के आधार पर उन्हें प्रधानमंत्री दिनेश गुणावर्धने के बाद सत्ता में दूसरा स्थान दिया गया है.

जहां तक सुरक्षा सहयोग की बात है, तो इस मुद्दे को लेकर दर्शनीय सुधार हुआ है. गोटबाया शासन के आख़िरी हफ़्तों के दौरान उभरने वाले आर्थिक और राजनीतिक संकट के बावज़ूद, विस्तारित कोलंबो सुरक्षा कॉन्क्लेव (सीएससी) के अन्य सदस्यों के साथ दोनों देशों के रक्षा दल 2021 के फ़ैसलों और उपलब्धियों को आगे बढ़ाने के लिए भारत के कोच्चि में मिले थे. उस समय आईओआर सुरक्षा पर केंद्रित रीजनल फोरम लॉन्च किया गया था. राष्ट्रपति विक्रमसिंघे ने पूर्व राष्ट्रपति गोटबाया द्वारा नियुक्ति किए गए और यूएनएचआरसी द्वारा युद्ध-अपराध जांच पत्रों में नामित किए गए युद्ध-कालीन विवादास्पद फील्ड कमांडर जनरल कमल गुणरत्ने की रक्षा सचिव के तौर पर पुनर्नियुक्ति की है. हो सकता है कि ऐसा करके विक्रमसिंघे ने इस मोर्चे पर निरंतरता सुनिश्चित की हो, लेकिन इसके परिणाम सितंबर में होने वाले जेनेवा सत्र में दिखाई दे सकते हैं.

जहां तक सुरक्षा सहयोग की बात है, तो इस मुद्दे को लेकर दर्शनीय सुधार हुआ है. गोटबाया शासन के आख़िरी हफ़्तों के दौरान उभरने वाले आर्थिक और राजनीतिक संकट के बावज़ूद, विस्तारित कोलंबो सुरक्षा कॉन्क्लेव (सीएससी) के अन्य सदस्यों के साथ दोनों देशों के रक्षा दल 2021 के फ़ैसलों और उपलब्धियों को आगे बढ़ाने के लिए भारत के कोच्चि में मिले थे.

हालांकि, भारत की श्रीलंका में चीन के प्रभाव को लेकर चिंता अभी भी बनी हुई है. यद्यपि पिछले वर्षों के दौरान ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला है कि वहां कोई चीनी वाणिज्यिक निवेश किसी सैन्य या सुरक्षा समझौते तक पहुंचा हो और जिसको लेकर नई दिल्ली को चिंतित होना चाहिए. अब नई सरकार के गठन के बाद बीजिंग को श्रीलंका और श्रीलंकाई नागरिकों के समक्ष यह साबित करने के लिए कि आर्थिक संकट की इस घड़ी में उसने ‘ज़रूरतमंद दोस्त’ को नहीं छोड़ा, पीछे की ओर झुकना पड़ सकता है. नहीं तो मौजूदा आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र जोर-शोर से प्रचारित की गई चीन द्वारा वित्त पोषित कोलंबो पोर्ट सिटी परियोजना का पुनरुद्धार किसी भी समय संदेह में घिर सकता है.

जुड़वां वर्षगांठ

जुलाई के महीने में ही दोनों देशों के लिए स्वतंत्रता के बाद के द्विपक्षीय संबंधों पर ज़बरदस्त प्रभाव डालने वाली दो घटनाओं की वर्षगांठ है. वर्ष 1983 का ‘ब्लैक जुलाई’ तमिल विरोधी सामूहिक नरसंहार और इसके चार साल बाद 29 जुलाई, 1987 को हस्ताक्षरित किया गया ऐतिहासिक भारत-श्रीलंका समझौता. श्रीलंका के संविधान में 13वें संशोधन के माध्यम से तमिल प्रांतों का सशक्तीकरण इसी समझौते की देन है. हालांकि यह अलग बात है कि आज तक श्रीलंकाई हितधारकों ने इसे पूरा नहीं होने दिया है. दोनों पक्ष जातीय समझौते और समायोजन को लेकर दस्तावेज़ के रूप जो भी कल्पना की गई थी, उसमें जो उनके मुताबिक़ नहीं था, उसको लेकर अपने-अपने अनुसार बनाई गई धारणाओं और व्याख्याओं के साथ खड़े हुए हैं.

नई दिल्ली में सरकारें लगातार इस समझौते और 13-ए के साथ मज़बूती से खड़ी हुई हैं, जो सैद्धांतिक रूप से ‘एक एकीकृत श्रीलंका के भीतर जातीय तमिलों की कानूनी आकांक्षाओं’ को पूरा करती है. मीडिया को दिए एक साक्षात्कार में राष्ट्रपति विक्रमसिंघे ने कहा कि जातीय मुद्दा उनकी प्राथमिकताओं में था (भले ही मुख्य तमिल राष्ट्रीय गठबंधन, टीएनए ने 10 सांसदों के साथ, उनके खिलाफ मतदान करने का संकल्प लिया था, तीन अलग-अलग जातियों वाले अधिकांश अन्य अल्पसंख्यक दलों के साथ, जिनकी जड़ें तमिल मूल के लोगों में हैं). सभी दलों को साथ लेकर चलने की अपनी प्रतिबद्धता के साथ विक्रमसिंघे कार्यकारी राष्ट्रपति के पद को उस स्तर तक ले जाने में कितने सक्षम होंगे, जो मुकाम उन्होंने 2019-20 में दोहरे चुनावों के माध्यम से राजपक्षे द्वारा सत्ता हासिल किए जाने से पहले प्रधानमंत्री (2015-19) के रूप में हासिल किया था. हालांकि यह तमिल प्रस्तावों और सिंहली-बुद्धिस्ट बहुसंख्यक सामाज की प्रतिक्रिया समेक कई दूसरे कारकों पर निर्भर करता है, यह अलग बात है कि दोनों ने अरागलाया विरोध-प्रदर्शन में एक दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया था.

नई दिल्ली में सरकारें लगातार इस समझौते और 13-ए के साथ मज़बूती से खड़ी हुई हैं, जो सैद्धांतिक रूप से ‘एक एकीकृत श्रीलंका के भीतर जातीय तमिलों की कानूनी आकांक्षाओं’ को पूरा करती है. मीडिया को दिए एक साक्षात्कार में राष्ट्रपति विक्रमसिंघे ने कहा कि जातीय मुद्दा उनकी प्राथमिकताओं में था

नई दिल्ली इस मुद्दे से जुड़े घटनाक्रम के साथ-साथ द्विपक्षी संबंधों के दूसरे पहलुओं और श्रीलंका के आर्थिक संकट को दूर करने के लिए बहुपक्षीय सहायता से संबंधित घटनाक्रमों पर उत्सुकता के साथ नज़र बनाए रखेगी. इस बीच, सितंबर में दोनों देशों के यूएनएचआरसी में एक साथ काम करने की उम्मीद की जा सकती है, जब श्रीलंका के पूर्व के प्रस्ताव की समीक्षा की जाएगी. इसके साथ ही अमेरिका के नेतृत्व वाले ‘कोर ग्रुप’ से उम्मीद की जा सकती है कि वह राष्ट्रपति विक्रमसिंघे के सुरक्षा बलों को राष्ट्रपति सचिवालय को प्रदर्शनकारियों से खाली करने का आदेश देने के उनके कदम को तत्कालीन राजपक्षे सरकार के पुराने (2005-15) और नए (2019-22) शासन के ख़िलाफ़ मानवाधिकारों के उल्लंघन के लंबित आरोपों की लंबी सूची में जोड़ सकते हैं.

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