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ज्यों ज्यों श्रीलंका आर्थिक निराशा में डूबता जा रहा हैं, उसके पास मात्र दो विकल्प हैं: या तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद ले या फिर अलग-अलग देशों से कर्ज.
Sri Lanka Crisis: अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के साथ श्रीलंका के बनते-बिगड़ते रिश्ते!
पिछले कुछ अर्से से भारत का समूचा पड़ोस खिन्न और परेशानियों से घिरा हुआ है. करीब एक साल पहले म्यांमार में सैन्य तख्त़ापलट को लेकर बड़े पैमाने पर हुए विरोध प्रदर्शन, हत्या में हथियारों के इस्तेमाल से लेकर पाकिस्तान में हाल-फ़िलहाल के राजनीतिक और परत दर परत खुलता आर्थिक संघर्ष; शंघाई और शेनज़ेन जैसे चीनी शहरों में बढ़ते कोविड-19 के ताज़ा मामलों की संख्या और इस क्षेत्र के केन्द्र में स्थित और जो सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बना हुआ श्रीलंका में उभरता आर्थिक संकट – इन सब के बीच में भारत के लिये नई विदेश नीति की गतिशीलता और सारी दिशाओं में आर्थिक कूटनीति से दो चार होने की चुनौती मुंह बाये खड़ी है.
इस चीनी पहल को तब काफी आलोचना झेलना पड़ी, जब चाइना मर्चेन्ट पोर्ट होल्डिंग नामक कंपनी ने श्रीलंका स्थित हंबनटोटा पोर्ट को 99 वर्ष की लीज़ पर लिया था, क्योंकि कोलंबो चीन को उससे लिए गए 1.12 बिलियन अमेरिकी डॉलर की फंडिंग कैपिटल कर्ज़ का भुगतान करने में सक्षम नहीं था.
लंबे समय तक बाधित बिजली सप्लाई, बढ़ती महंगाई, और ज़रूरी सामानों की कमी के दृश्यों से पटा श्रीलंका की तस्वीरें – सन् 1948 में ब्रिटिश राज से मिली आजादी के बाद अपने सबसे बदतरीन आर्थिक संकट के दौर से जूझता ये देश. 26 साल तक चले गृहयुद्ध जिसका अंत 2009 में हुआ, उसने देश के वित्तीय रिज़र्व को पूरी तरह से खाली कर दिया जिसकी वजह से श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के ढेरों आर्थिक मापदंड बुरी तरह प्रभावित हुए. इसके अलावा साल 2008 में वैश्विक आर्थिक मंदी ने भी श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भण्डार भी पूरी तरह से सूख चुके थे, जिसने यहां की अर्थव्यवस्था का बहुत नुकसान किया था. इसके बाद एक के बाद एक आयी श्रीलंकाई सरकारों द्वारा किये गए आर्थिक कुप्रबंध की वजह से बजट में कमी और चालू खाते में होने वाले नुक़सान ने देश दोहरी मार की. सबसे पहले, चुनावी वादे के रूप में, कोविड-19 महामारी से महीनों पहले देश में कर में भारी कटौती की गई थी. इसकी वजह से वर्ष 2019-20 के बीच पंजीकृत करदाताओं में भारी कमी पायी गई. दूसरा, सरकार ने 2021 में हर प्रकार के खाद के आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लागू कर दिया. चूंकि, ज्य़ादातर ऐसी वस्तुओं का आयात किया जाता था, तो इस वजह से देश को रातों-रात ऑर्गैनिक फ़ार्मिंग की ओर रुख़ करना पड़ा, जिसने खाद्य उत्पादन में भारी कमी ला दी और इसके नतीजे में खाद्य आयात में बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई.
पिछले दो दशकों में श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) से कई मर्तबा कर्ज़ लिये. 2009 में, आईएमएफ़ ने इस शर्त पर कर्ज़ की अवधि बढ़ाई कि साल 2011 तक बजट घाटा देश की जीडीपी के 5 प्रतिशत तक कम हो जाएगा. बढ़त या निर्यात में बग़ैर किसी सुधार के, ये देश 2016 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ओर दोबारा दूसरे चरण के कर्ज़ के लिए गया, जो कि कुछ शर्तों के आधार पर अमेरिकी डॉलर 1.5 बिलियन का था. आईएमएफ़ के पैकेज से 2015 में विकास दर 5 प्रतिशत से 2019 में गिरकर 2.9 प्रतिशत होने से देश की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का भारी नुकसान हुआ, उसी समय पर, सरकार का राजस्व भी घट कर जीडीपी के 14.1 प्रतिशत से 12.6 प्रतिशत पर सिमट गया.
अगले छह महीनों में आवश्यक सामानों की आपूर्ति सेवा बहाल करने के लिए और अर्थव्यवस्था को recovery के पथ पर चल सकने हेतु प्रोतसाहित करने के लिए ज़रूरी 3 मिलियन अमेरिकी डॉलर के बाह्य सहायता की ज़रूरत पड़ेगी.
इस बात में कोई शक नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मिलने वाले कर्ज़ शर्त आधारित होते हैं, जो कि अक्सर कर्ज़ लेने वाले देश के लिए काफी पाबंदियों के साथ होते हैं. श्रीलंका के गंभीर भुगतान संतुलन (बीओपी) संकट के बावजूद, देश को आर्थिक पुनर्जीवन दे पाने में प्राप्त विफ़लता के मद्देनज़र, ये देश आईएमएफ से अब किसी प्रकार की सहायता न लेने को लेकर प्रतिबद्ध है. इसके वैकल्पिक रणनीति के तहत उन्होंने पड़ोसी देशों और वैश्विक प्रतिद्वंदी चीन और भारत से सहायता लेने का निर्णय लिया.
कोविड-19 की महामारी ने निस्संदेह वैश्विक अर्थव्यवस्था, ख़ासकर श्रीलंका जैसे छोटे विकासशील देशों को भारी नुकसान पहुंचाया है. इस संदर्भ में, प्रांतीय अर्थव्यवस्था के लिए ख़ासकर ये बहुत ज़रूरी हो जाता है कि वो अपने कुल बाहरी ऋण और चीन से लिया गये ऋण के बीच एक संतुलन बनाकर रखें. ये ख़ासकर के बीआरआई (बेल्ट और रोड इनिश्यटिव) देशों जैसे श्रीलंका आदि पर लागू होता है. कुछ साल पहले तक, इस चीनी पहल को तब काफी आलोचना झेलना पड़ी, जब चाइना मर्चेन्ट पोर्ट होल्डिंग (सीएमपोर्ट) नामक कंपनी ने श्रीलंका स्थित हंबनटोटा पोर्ट को 99 वर्ष की लीज़ पर लिया था, क्योंकि कोलंबो चीन को उससे लिए गए 1.12 बिलियन अमेरिकी डॉलर की फंडिंग कैपिटल कर्ज़ का भुगतान करने में सक्षम नहीं था.
कई वैश्विक खिलाड़ी श्रीलंका को चीन के ‘कर्ज़ जाल कूटनीति’ का शिकार मानते हैं – जो कि काफ़ी जायज़ तर्क है. हालांकि, श्रीलंका के कुल बकाये बाह्य ऋण का 6 प्रतिशत ही चीन को देय है, परंतु चीन की भुगतान तकनीक और विभिन्न योजनाओं में छिपे हुए ऋण, बीजिंग के आर्थिक साम्राज्यवाद के समस्याग्रस्त परिणामों को दर्शाता है. श्रीलंका में चल रहे आर्थिक संकट ने, ‘समस्याग्रस्त चीनी ऋण’ मामले को वैश्विक आर्थिक गलियारे में और तूल देते हुए, कोलंबो को फ़रवरी 2022 में दौरे पर आ रहे चीनी विदेशमंत्री के समक्ष ऋण अदायगी में राहत दिए जाने का निवेदन करने को मजबूर किया है. इस द्वीप राष्ट्र ने मार्च 2022 में लगभग 2.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के एक नए कर्ज़ की भी मांग की है.
पिछले कई वर्षों से, श्रीलंका और भारत अपने आर्थिक संबंधों को अपेक्षाकृत मज़बूती देने में सफ़ल रहे हैं और साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन यानी (SAARC) के अंतर्गत, सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर रहे हैं. भारत द्वारा श्रीलंका को दिये गये आर्थिक पैकेज का सबसे बड़ा उदाहरण 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर समतुल्य सार्क मुद्रा की अदला बदली रही है; दो महीनों में, 515.2 मिलियन अमेरिकी डॉलर एशियन क्लीयरिंग यूनियन सेटलमेंट का स्थगन और श्रीलंका में ईधन खरीदी के लिए 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता – भारत द्वारा श्रीलंका को हालिया दिए गए वित्तीय पैकेज अनुदान है. एक अभूतपूर्व कदम के तौर पर, नई दिल्ली ने खाद्य पदार्थों, दवा और बाकी अन्य ज़रूरी सामानों की व्यवस्था करने हेतु 1 बिलियन अमरेकी डॉलर की कर्ज़ सीमा भी बढ़ाई है.
दुर्भाग्यवश, परंतु आशानुरूप, श्रीलंकाई संकट की कीमत पर प्रदान की गई राहत सुविधा को लेकर चीन बनाम भारत के प्रतिस्पर्धी स्वर की कमी नहीं है. बल्कि, ऐसे समय में, कोलंबो के ऊपर बीजिंग द्वारा निःशुल्क व्यापार समझौते (एफटीए) का दबाव चिंता का विषय बना हुआ है. श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे इस बात से सहमत हैं, कि भारत ने श्रीलंका को अपना ‘अधिकतम सहयोग’ प्रदान किया है, और साथ ही उन्होंने जोड़ते हुए ये भी कहा कि, “हमें भारत द्वारा दिए गए सहयोग के परिणामों को देखना होगा, जबकि नई दिल्ली अभी भी गैर-वित्तीय तरीकों से मदद कर रही है”.
अब जबकि हजारों की संख्या में श्रीलंकाई नागरिक राष्ट्र की इस स्थिति के लिए वर्तमान सरकार के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज कर रहे हैं, तो जो सबसे अहम् सवाल घूम रहा है वो यह है कि क्या कोलंबो पुनःआईएमएफ़ के नज़दीक जाने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है? विशेषज्ञों के मुताबिक श्रीलंकाई राष्ट्रपति ने अपने भाई और वित्तमंत्री बेसिल राजपक्षे को सिर्फ़ इसलिए उनके पद से हटा दिया क्योंकि वो अमेरिका जाकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ बातचीत करना चाह रहे थे – उनकी जगह श्रीलंका के पूर्व न्यायमंत्री अली साबरी को वित्तमंत्री नियुक्त किया गया था.
12 अप्रैल को, देश ने घोषणा की, कि वो 51 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अपने बाह्य ऋण को चुकता कर पाने में असमर्थ है, जिसमें की आईएमएफ़ का बेलआउट भी लंबित है. वित्त-मंत्रालय के अनुसार, अगले छह महीनों में आवश्यक सामानों की आपूर्ति सेवा बहाल करने के लिए और अर्थव्यवस्था को recovery के पथ पर चल सकने हेतु प्रोतसाहित करने के लिए ज़रूरी 3 मिलियन अमेरिकी डॉलर के बाह्य सहायता की ज़रूरत पड़ेगी. वित्तमंत्री आईएमएफ़ के साथ अगले महीने तय मीटिंग में, ब्रिज फाइनेंसिंग की मदद से ये सहायता प्राप्त करना चाहते हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी वित्तमंत्री के साथ ‘तकनीक़ी स्तर पर बातचीत’ शुरू कर दी है.
श्रीलंका की स्थिति को देखते हुए, इस संकट से निकलने के लिए, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से समुचित सहयोग लेने के अलावा कोई और चारा नहीं है, जो कि कुछ बजट संबंधी कटौती और आपस में खुला व्यापार संबंधी कुछ शर्तें लागू करेगी. दूसरी स्थिति में, व्यक्तिगत राष्ट्रों से लिए जाने वाले भारी कर्ज़ हमेशा ही ऋणदाता देशों के व्यक्तिगत एजेंडे पर आधारित रहेगी. हालांकि, अर्थव्यवस्था के इस स्तर पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के ये निर्देश जायज़ प्रतीत होते हैं – लेकिन ये तो समय ही बताएगा कि क्या श्रीलंका का आईएमएफ़ के साथ ये संबंध कम समय तक के लिये चलने वाला सिर्फ़ एंटीडोट होगा अथवा क्या वो श्रीलंका के टिकाऊ और समावेशी पुनरुत्थान के लिए एक समुचित गाइड्लाइन प्रदान करेगा.
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Soumya Bhowmick is a Fellow and Lead, World Economies and Sustainability at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED) at Observer Research Foundation (ORF). He ...
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