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भारत की लचीली अर्थव्यवस्था, महामारी की वजह से हुई नकारात्मक विकास दर के दौर से उबर चुकी है. इस वजह से आज निराशा भरी दुनिया में उम्मीद की किरण बनकर उभरा है.
जब निराशाजनक भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक माहौल में भारत G20 और शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का अध्यक्ष बना था, तब दुनिया पर मुसीबतों का पहाड़ टूटा हुआ था. जिसे जानकार पॉलीक्राइसिस यानी तमाम जटिल समस्याओं का इकट्ठा होना कहते हैं. इन जटिल और उलझी हुई समस्याओं का नतीजा ये हुआ कि महामारी के बाद दुनिया के उबरने का सिलसिला असमान और असंतोषजनक रहा है; यूक्रेन संकट ने दुनिया की कमोडिटी वैल्यू-चेन को इस कदर तोड़-मरोड़ डाला है कि पूरे विश्व में स्टैगफ्लेशन की समस्या खड़ी हो गई है. Stagflation यानी आर्थिक विकास में कमी के बीच महंगाई का बोझ; और जलवायु परिवर्तन के लगातार हो रहे हमलों ने विकास के मानकों की दुर्गति बना डाली है.
यूक्रेन संकट ने दुनिया की कमोडिटी वैल्यू-चेन को इस कदर तोड़-मरोड़ डाला है कि पूरे विश्व में स्टैगफ्लेशन की समस्या खड़ी हो गई है.
दुनिया की ख़राब आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा हम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) द्वारा जारी किए गए वैश्विक विकास के पूर्वानुमानों के तौर पर देख सकते हैं. IMF ने कहा है कि 2023 ही नहीं 2024 में दुनिया की विकास दर 3.0 प्रतिशत से नीचे रहेगी, जबकि 2022 में इसके 3.1 फ़ीसद रहने का अंदाज़ा लगाया गया था. दुनिया के आर्थिक विकास में देखी जा रही इस सुस्ती की वजह न केवल महामारी के बाद के दौर में उबरने को बल्कि उसके बाद यूक्रेन संकट की वजह से आपूर्ति श्रृंखलाओं में पड़े खलल को भी बताया जा रहा है. केंद्रीय बैंकों द्वारा नीतिगत ब्याज दरों में इज़ाफ़ा करने की वजह से आर्थिक गतिविधियां और भी कमज़ोर पड़ गई हैं, ख़ास तौर से वैश्विक निवेश में गिरावट आने के की वजह से.
चित्र 1: 2000-2022 के दौरान वैश्विक विकास दर (%) और महंगाई (CPI %)
जैसा कि हम चित्र1 से देख सकते हैं कि 2022 का साल व्यापक आर्थिक विकास के सिद्धांत के लिहाज़ से साफ़ तौर पर एक अपवाद नज़र आ रहा है. इस सिद्धांत के मुताबिक़ आर्थिक विकास के साथ साथ महंगाई के दौर भी आते हैं. क्योंकि, खपत या निवेश बढ़ने से अर्थव्यवस्था पर मांग का दबाव बढ़ जाता है. लेकिन इसके उलट 2022 में हमने देखा कि दुनिया की विकास दर तो गिर गई, मगर महंगाई बढ़ गई. इसे ही स्टैगफ्लेशन कहा जाता है. महंगाई का सबसे ज़्यादा दबाव कमोडिटी की क़ीमतों ख़ास तौर से खाने पीने के सामान के दामों पर देखा जा रहा है, और इसी वजह से आर्थिक और सामाजिक बेहतरी पर बुरा असर पड़ा है.
चित्र 2: 2000 से 2022 के बीच भारत की विकास दर (%) और महंगाई दर (CPI %)
आइए अब भारत के हालात पर नज़र डालते हैं. चित्र 2 देखने पर पता चलता है कि भारत के विकास का सफ़र दुनिया के ठीक उलट नज़र आता है. भारत की विकास दर 7 प्रतिशत रही है, जो दुनिया की 3 प्रतिशत विकास दर से कहीं ज़्यादा है. जबकि भारत में कंज्यूमर प्राइस इन्फ्लेशन यानी CPI अभी भी 8.2 फ़ीसद की वैश्विक दर से काफ़ी नीचे है. इससे भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का वो दावा बिल्कुल सही साबित होता है, जो उन्होंने इस साल का बजट पेश करते हुए दिया था. तब वित्त मंत्री ने कहा था कि दुनिया के ख़राब आर्थिक हालात के बीच भारत निश्चित रूप से उम्मीद की रौशनी जगाने वाला है. भारत की सात प्रतिशत विकास दर दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ज़्यादा है. जबकि इस दौरान भारत, महंगाई को भी क़ाबू में रख पाने में सफल रहा है. इससे पता चलता है कि भारत का आर्थिक प्रशासन बहुत अच्छा रहा है, जिसकी वजह से वो वैश्विक अर्थव्यवस्था में फैली निराशा का शिकार होने से बच गया है.
जैसा कि सबको पता है, महामारी के साल यानी 2020 में भारत समेत पूरी दुनिया में विकास दर नकारात्मक रही थी. हालांकि, भारत की विकास दर के रफ़्तार पकड़ने की सबसे बड़ी वजह हम उपभोग पर ख़र्च में बढ़ोत्तरी के तौर पर देख सकते हैं. 2020 में जहां खपत में 4.5 प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी, वहीं 2021 में इसमें 10.5 फ़ीसद की वृद्धि दर्ज की गई. यहां इस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि 1991 के बाद से भारत के विकास में खपत की भूमिका सबसे बड़ी रही है. यहां दिलचस्प बात ये है कि खपत पर आधारित के विकास दर अपने दम पर आगे बढ़ी है और इसे सरकारी नीतियों के ज़रिए नहीं थोपा गया है. ये चीन की सोच के ठीक उलट है, जहां खपत के आधार पर वृद्धि को नीतिगत प्राथमिकता दी गई थी, जिससे घरेलू अर्थव्यवस्था में निवेश और उसका उत्पादन बढ़ाया जा सके. 2016-2020 के लिए चीन की 13वीं पंचवर्षीय योजना का दस्तावेज़ स्पष्ट रूप से इस बात का ज़िक्र करता है कि विकास का विज़न ‘खपत पर आधारित आर्थिक विकास’ होगा, जिसके लिए चीन अपने नागरिकों की ख़रीदने की क्षमता को वेतन और भत्तों में इज़ाफ़ा करके बढ़ाएगा. चीन के इस विज़न में निर्यात पर आधारित विकास के मॉडल से हटने का विकल्प दिखाया गया है. क्योंकि निर्यात पर आधारित विकास वैश्विक आर्थिक हालात पर निर्भर करता है. इस नज़र से देखें, तो खपत पर आधारित वृद्धि, घरेलू अर्थव्यवस्था को वैश्विक आर्थिक गिरावट को सहने की क्षमता देती है और विकास दर को वैश्विक आर्थिक स्थितियों से अलग करती है. जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि भारत की अर्थव्यवस्था अपने आप ही इस दिशा में आगे बढ़ती आई है और इसी ने वैश्विक विकास दर में गिरावट के दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि को संभाले रखा है. इसको महंगाई दर पर क़ाबू पाने के चतुर उपायों से सहायता दी गई है, ख़ास तौर से कमोडिटी की क़ीमतों के मामले में जहां, बाज़ार के आधुनिक संसाधनों का इस्तेमाल करके सस्ते दाम पर कच्चा तेल और खाने-पीने के सान ख़रीदे गए.
भारत की अर्थव्यवस्था अपने आप ही इस दिशा में आगे बढ़ती आई है और इसी ने वैश्विक विकास दर में गिरावट के दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि को संभाले रखा है.
भारतीय अर्थव्यवस्था के तेज़ विकास की उम्मीद इसलिए लगाई जा रही है कि उन्हें बढ़ावा देने वाली तीन परिस्थितियां पैदा हुई हैं.
दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिका और चीन के व्यापार संघर्ष और महामारी के साथ साथ रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में बाधा पड़ने के कारण, पश्चिमी देशों की कंपनियां अब आर्थिक और भू-राजनीतिक जोखिमों से बचने के लिए निवेश के दूसरे ठिकाने तलाश रही हैं. भारत की अर्थव्यवस्था उन्हें इसका एक अच्छा विकल्प मुहैया कराती है. इसके निम्नलिखित कारण हैं:
इसीलिए, भारत निवेश का प्राथमिकता वाला ठिकाना बनकर उभरा है. पिछले दो दशकों में भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) में 20 गुने का इज़ाफ़ा हुआ है. महामारी के बाद के दौर में FDI में बढ़ोत्तरी और उल्लेखनीय रही है और वित्त वर्ष 2021-22 में भारत को 84.83 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल हुआ था, जो उससे पहले साल के रिकॉर्ड से 2.87 अरब डॉलर ज़्यादा है. मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में FDI इक्विटी का निवेश वित्त वर्ष, 2020-21 में 12.09 अरब डॉलर था, जो वित्त वर्ष 2021-22 में 76 प्रतिशत (21.34 अरब डॉलर) बढ़ गया. इस तरह अप्रैल 2000 से मार्च 2023 के बीच भारत में कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 919 अरब डॉलर पहुंच चुका है, और इस FDI का 65 प्रतिशत तो पिछले नौ वर्षों में निवेश किया गया है.
पिछले दो दशकों में भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) में 20 गुने का इज़ाफ़ा हुआ है. महामारी के बाद के दौर में FDI में बढ़ोत्तरी और उल्लेखनीय रही है और वित्त वर्ष 2021-22 में भारत को 84.83 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल हुआ था, जो उससे पहले साल के रिकॉर्ड से 2.87 अरब डॉलर ज़्यादा है.
विश्व बैंक के मुताबिक़, महामारी के बाद के दौर में भारत में कुल पूंजी निर्माण में काफ़ी प्रगति दर्ज की गई है. 2021 में ये 17.9 प्रतिशत तो 2022 में 9.6 फ़ीसद रही थी. ये दर वैश्विक कुल पूंजी निर्माण में वृद्धि (2021 में 6.9 प्रतिशत) से कहीं ज़्यादा है. ये सारे आंकड़े भारत की अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत देने वाले हैं.
अपनी G20 अध्यक्षता के ज़रिए भारत ने ख़ुद को पहले ही विकासशील देशों के अग्रणी प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित कर लिया है. ये बात तब और अहम हो जाती है, जब ग्लोबल साउथ की दोहरी तिकड़ी एक के बाद एक G20 की अध्यक्षता संभाल रही हो- 2022 में इंडोनेशिया, 2023 में भारत, 2024 में साउथ अफ्रीका और 2025 में ब्राज़ील. इस साल भारत ने अपनी G20 और SCO अध्यक्षता के दौरान भारत ने अपनी आज़ादी के 76 साल भी पूरे कर लिए हैं. ऐसे में वो निराशा के दौर में न केवल विकासशील देशों के लिए उम्मीद की किरण बनकर उभरा है, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था के लिए हौसले का सबब बन गया है. भारत की लचीली अर्थ्वयवस्था, महामारी के दौर की नकारात्मक विकास दर से उबर चुकी है और अब भारत सुस्त वैश्विक आर्थिक विकास के दौर में तेज़ तरक़्क़ी का चमकदार प्रतीक बन गया है. इस बात को अगर हम चार्ल्स डिकेंस के शब्दों में समेटते हुए कहें तो: निराशा भरी सर्दी में भारत, उम्मीदों का बसंत बनकर उभरा है. क्या भारत, विश्व अर्थव्यवस्था को सुस्ती के इस दलदल से बाहर निकाल सकेगा? क्या भारत वैश्विक विकास का अगुवा बन सकेगा? इन सवालों के जवाब देने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि ये समय इनका जश्न मनाने का है. क्योंकि, ये सवाल नहीं हैं. बल्कि, भारत आज उपलब्धियों के जिस मकाम पर खड़ा है, और उसका जो भविष्य दिख रहा है, उस लिहाज़ से ये सवाल असल में भारत की उपलब्धियों का प्रतीक हैं.
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Dr Nilanjan Ghosh is Vice President – Development Studies at the Observer Research Foundation (ORF) in India, and is also in charge of the Foundation’s ...
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