Published on Jul 29, 2023 Updated 0 Hours ago

चीन, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच नज़दीकी रिश्ते दक्षिण एशिया के दूसरे राष्ट्रों की तालिबान नीति को भी प्रभावित करेंगे

दक्षिण एशिया और तालिबान: इलाके के छोटे देशों द्वारा तालिबान को लेकर ‘इंतज़ार करो और देखो’ की रणनीति के मायने?
दक्षिण एशिया और तालिबान: इलाके के छोटे देशों द्वारा तालिबान को लेकर ‘इंतज़ार करो और देखो’ की रणनीति के मायने?

अगस्त 2021 से अफ़ग़ानिस्तान (Kabul, Afghanistan) की सत्ता पर तालिबान (Taliban) का क़ब्ज़ा है. उस समय से ही दुनिया की बड़ी ताक़तों ने तालिबान को लेकर “इंतज़ार करो और देखो” की रणनीति अपना रखी है. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी हुकूमत को दुनिया के किसी भी देश ने अब तक औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी है. ऐसे में दक्षिण एशिया (South Asia) के छोटे देशों ने भी अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी सत्ता (Talibani Government) को लेकर लगभग ऐसा ही रुख़ अपना रखा है.

बांग्लादेश ने साफ़ किया है कि वो अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार के साथ काम करने को तभी तैयार होगा जब वो लोकतांत्रिक तरीक़े से चलेगी और उसे जनता का समर्थन हासिल होगा.  

बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने ज़ोर देकर कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के क़ब्ज़े और उसको मान्यता देने के बारे में फ़िलहाल किसी भी तरह की टिप्पणी करना जल्दबाज़ी होगी. उन्होंने दो टूक कहा है कि भविष्य के घटनाक्रमों के आधार पर ही बांग्लादेश इस बारे में कोई फ़ैसला करेगा. हालांकि उनकी ओर से ये स्पष्ट किया गया कि अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर बांग्लादेश बारीकी से नज़र बनाए हुए है. बांग्लादेश ने साफ़ किया है कि वो अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार के साथ काम करने को तभी तैयार होगा जब वो लोकतांत्रिक तरीक़े से चलेगी और उसे जनता का समर्थन हासिल होगा.

श्रीलंका की प्रतिक्रिया

श्रीलंका की सरकार की ओर से भी इसी तरह की प्रतिक्रिया जताई गई है. श्रीलंका का कहना है कि वो अफ़ग़ान मसले को लेकर चिंतित है और उसपर नज़र बनाए हुए है. श्रीलंका का मानना है कि इस संकट की वजह से अफ़ग़ानिस्तान चरमपंथियों का पनाहगाह बन सकता है. साथ ही इससे इस पूरे इलाक़े में पलायन और शरणार्थियों से जुड़ी समस्या पैदा हो सकती है. इसके अलावा प्रतिबंधित नशीले पदार्थों की तस्करी का भी ख़तरा है. हालांकि, श्रीलंका ने उम्मीद जताई है कि तालिबान अपने वादों पर खरा उतरेगा. ग़ौरतलब है कि तालिबान ने विरोधियों के प्रति नरम नीतियां अपनाने और मानव अधिकारों और महिलाओं के हक़ों की हिफ़ाज़त करने की बात कही है.

दक्षिण एशिया के इन छोटे देशों ने भी तालिबान को लेकर “इंतज़ार करो और देखो” की रणनीति अपना रखी है. क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर की बड़ी ताक़तों की ओर से इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद पहले से ही थी. 

नेपाल की ओर से भी अफ़ग़ानिस्तान को लेकर कमोबेश इसी तरह की प्रतिक्रिया जताई गई. नेपाली विदेश मंत्रालय ने एक आधिकारिक बयान जारी कर अफ़ग़ानिस्तान में स्थायी शांति क़ायम करने पर ज़ोर दिया. हालांकि नेपाली अधिकारियों ने इस मसले पर ‘तटस्थ रुख़’ अपनाने की बात कही है. नेपाल का मत है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में भविष्य के घटनाक्रम और उस पर दुनिया द्वारा जताई जाने वाली प्रतिक्रियाओं को देखकर ही इस मसले पर आगे कोई फ़ैसला करेगा. मालदीव ने तालिबान को लेकर आधिकारिक तौर पर कोई बयान जारी नहीं किया है. वहां के अधिकारियों का कहना है कि मालदीव सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी हुकूमत को लेकर अब तक कोई फ़ैसला नहीं लिया है.

मोटे तौर पर दक्षिण एशिया के इन छोटे देशों ने भी तालिबान को लेकर “इंतज़ार करो और देखो” की रणनीति अपना रखी है. क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर की बड़ी ताक़तों की ओर से इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद पहले से ही थी. बहरहाल, छोटे देशों के इस असमान्य रुख़ की पड़ताल के लिए तीन प्रमुख आकलनों का सहारा लिया जा सकता है: आंतरिक सुरक्षा, घरेलू राजनीति और बाहरी कारक.

आंतरिक सुरक्षा

तालिबान के हाथों में अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता जाने से दक्षिण एशियाई देशों में आतंकवाद और आंतरिक अशांति को लेकर अनेक तरह की चिंताएं फिर से उभर कर सामने आ गई हैं. अलग-अलग आतंकी संगठनों के साथ तालिबान के क़रीबी रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं. ज़ाहिर है तालिबानी राज में उन्हें सुरक्षित पनाह मिलने की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता. इसके अलावा समूचे अफ़ग़ानिस्तान पर हुकूमत चलाने की उसकी नाक़ाबिलियत से तमाम आतंकी संगठनों को फलने-फूलने का मौका मिल जाएगा. इससे इस पूरे इलाक़े में कट्टरतावाद, आतंकी प्रशिक्षण और फ़ंडिंग, ग़ैर-क़ानूनी हथियारों और नशीले पदार्थों की तस्करी को बढ़ावा मिलने का डर है. ज़ाहिर तौर पर ये तमाम हालात दक्षिण एशिया के छोटे देशों के हितों और उनकी अखंडता के ख़िलाफ़ होंगे.

चिंताओं का वाजिब आधार

निश्चित तौर पर दक्षिण एशिया के छोटे देशों की ऐसी चिंताओं का वाजिब आधार मौजूद है. इसे हम बांग्लादेश की मिसाल से अच्छे से समझ सकते हैं. अतीत में बांग्लादेश के कई नागरिक मुजाहिदीन गुटों (जिनमें तालिबान और अल-क़ायदा भी शामिल हैं) की ओर से आतंकी प्रशिक्षण हासिल करते और लड़ाइयों में हिस्सा लेते पाए गए हैं. इनमें से ज़्यादातर लड़ाके बाद में बांग्लादेश लौट गए थे. वतन वापसी के बाद वो वहां के बंगाली युवाओं और पनाह चाह रहे रोहिंग्या शरणार्थियों में कट्टरवाद का प्रचार-प्रसार करने और उनको प्रशिक्षित करने की क़वायदों में जुट गए. कट्टर इस्लामिक विचारों के प्रचार प्रसार की इन्हीं कोशिशों  से बांग्लादेश में घरेलू तौर पर कई बड़े और खूंखार आतंकी संगठनों की नींव पड़ी. इनमें हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी (HuJI-B) और जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (JMB) जैसे संगठन शामिल हैं. हालांकि मौजूदा वक़्त में इन संगठनों की गतिविधियों पर काफ़ी हद तक लगाम लग चुकी है. बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी क़ब्ज़े के बाद इन आतंकी संगठनों में नई जान आने और इनके दोबारा उभरने की आशंका पैदा हो गई है. दरअसल बांग्लादेश के कई नागरिक इन आतंकी संगठनों के साथ जुड़ने के लिए अफ़ग़ानिस्तान तक पहुंचने लगे हैं. ऐसे में बांग्लादेश की चिंता साफ़ तौर पर समझी जा सकती है.

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी क़ब्ज़े के बाद इन आतंकी संगठनों में नई जान आने और इनके दोबारा उभरने की आशंका पैदा हो गई है. दरअसल बांग्लादेश के कई नागरिक इन आतंकी संगठनों के साथ जुड़ने के लिए अफ़ग़ानिस्तान तक पहुंचने लगे हैं. 

श्रीलंका के सामने भी कुछ इसी तरह की चुनौतियां हैं. अफ़ग़ानिस्तान में अपनी पिछली हुकूमत के दौरान तालिबान ने प्रतिबंधित नशीले पदार्थों, कालेधन और अवैध हथियारों का ज़बरदस्त नेटवर्क तैयार कर लिया था. उस दौर में दक्षिण एशिया के अनेक आतंकी संगठनों और अलगाववादी गुटों के साथ तालिबान ने मज़बूत संपर्क बना लिए थे. इनमें श्रीलंका का प्रतिबंधित संगठन LTTE भी शामिल था. इससे LTTE को हथियार और दौलत जुटाने में काफ़ी मदद मिली थी. 2001 में अमेरिका के हाथों तालिबान की शिकस्त के बाद भी श्रीलंका में LTTE की ताक़त बरकरार रही. मौजूदा वक़्त में श्रीलंका में इस्लामिक आतंकवाद की घटनाओं में इज़ाफ़ा देखा जा रहा है. श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहला आबादी और मुसलमानों के बीच बढ़ते मतभेदों ने इसे और हवा दी है. इसके अलावा तमिल अलगाववादी आंदोलन के फिर से उभरने को लेकर भी अटकलों का बाज़ार गर्म है. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान में एक बार फिर तालिबान के उभार ने श्रीलंका की चिंताएं बढ़ा दी हैं. इस बार तो तालिबानी लड़ाकों के पास और भी आधुनिक हथियार मौजूद हैं. साथ ही ग़ैर-क़ानूनी ड्रग्स की तस्करी को लेकर भी आशंकाएं जस की तस बरकरार हैं.

मालदीव की चिंताएं

मालदीव की चिंताएं भी इसी से मिलती जुलती हैं. मालदीव में अल-क़ायदा, ISIS और तमाम दूसरे आतंकवादी संगठनों की ओर से लड़ने वाले विदेशी लड़ाकों की प्रति व्यक्ति तादाद सबसे ज़्यादा है. तालिबानी हुकूमत वाला अफ़ग़ानिस्तान इन लड़ाकों के लिए अपने कारनामे दोबारा शुरू करने का अड्डा साबित हो सकता है. मालदीव में घरेलू स्तर पर पनपे आतंकी संगठनों के हमले बढ़ते जा रहे हैं. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान के हालात मालदीव की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकते हैं.

ज़ाहिर है इन तमाम मसलों के चलते दक्षिण एशिया के ज़्यादातर छोटे देश तालिबान के ख़िलाफ “इंतज़ार करो और देखो” की नीति अपना रहे हैं. हालांकि, तालिबान को लेकर इन तमाम देशों के इस रुख़ के पीछे उनकी घरेलू राजनीति का भी योगदान है.

घरेलू राजनीति

बांग्लादेश में एक लंबे अर्से से इस्लामिक राष्ट्रवाद और सेकुलर विचारधारा के बीच विभाजन क़ायम है. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना अपने सेकुलर और इस्लामिक वोटबैंक के बीच संतुलन साधने में लगी हैं. इसी क़वायद के तहत वो इस्लामिक राष्ट्रवादियों की कई मांगों को स्वीकार करने लगी हैं. साथ ही कई बार उनके दबाव में फ़ैसले भी लेने लगी हैं. दरअसल शेख़ हसीना के इस क़दम के पीछे सोची-समझी रणनीति है. इस्लामिक कट्टरपंथियों और समूचे चरमपंथी नेटवर्क के ख़िलाफ़ अपनी कठोर नीतियों के चलते शेख़ हसीना की ‘इस्लाम-विरोधी’ छवि और गहरी होने लगी थी. बांग्लादेश की सुरक्षा को वास्तविक रूप से कोई ख़तरा न होने की सूरत में शेख़ हसीना की सरकार द्वारा तालिबान और बांग्लादेश में उसके हमदर्दों के ख़िलाफ़ किसी तरह की नीति को मंज़ूरी देने की संभावना ना के बराबर है.

विस्तृत हिंद-प्रशांत रणनीति के तहत अमेरिका के लिए दक्षिण एशिया के इन छोटे देशों की अहमियत एक बार फिर बढ़ गई है. ऐसे में ये तमाम छोटे देश अमेरिका के साथ अपनी नज़दीकियों के इस्तेमाल के ज़रिए दूसरी क्षेत्रीय ताक़तों (भारत और चीन) के साथ संतुलन साधने की कोशिश करेंगे. 

दूसरी ओर श्रीलंका के ज़्यादातर लोगों के लिए तालिबान की पिछली करतूतों को भुला पाना आसान नहीं होगा. आज भी वहां के कई लोग बामियान में गौतम बुद्ध की प्रतिमा को ब्लास्ट के ज़रिए तबाह किए जाने की घटना को याद रखे हुए हैं. इस संदर्भ में ये तय है कि श्रीलंका में आने वाले समय में तालिबान को एक आतंकी संगठन के तौर पर ही देखा जाता रहेगा. इससे राजपक्षे और उनकी पार्टी के लिए मुश्किल हालात पैदा हो जाते हैं. दरअसल, श्रीलंका का कट्टर बौद्ध समुदाय राजपक्षे की पार्टी का मुख्य जनाधार है. ये समुदाय श्रीलंका में सिंहला बहुल राज्यसत्ता की स्थापना का हिमायती है. चरमपंथी हमलों और विचारधाराओं से सिंहला बौद्ध समाज की हिफ़ाज़त करने का वादा करके ही राजपक्षे और उनकी पार्टी ने चुनावी जीत हासिल की थी. ज़ाहिर है तालिबान को मान्यता देने की कोई क़वायद राजपक्षे प्रशासन के लिए फ़ायदे से ज़्यादा नुकसान का सबब बनेगी.

मालदीव में सुन्नी सलाफ़ी इस्लाम को धीरे-धीरे मंज़ूरी मिलती जा रही है. वहां के सामाजिक तानेबाने में इस विचारधारा की पैठ बढ़ गई है. वहां राष्ट्रीय पहचान के साथ मजहब का घालमेल सरकार के लिए नई चुनौती बनकर सामने खड़ा है. इस संदर्भ में सत्ताधारी मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी में भी धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है. कट्टर इस्लाम की आलोचना के चलते एक अर्से से इस पार्टी की ‘इस्लाम विरोधी’ छवि बन गई थी. अब इसमें बदलाव आ रहा है. मालदीव की मौजूदा सरकार रुढ़िवादियों और मजहबी विपक्षी पार्टियों के उभार और उनकी बढ़ती अहमियत को भांप चुकी है. लिहाज़ा वो इन दलों का समर्थन जुटाने की जुगत में लग गई है. प्रस्तावित नफ़रती अपराध विधेयक का निपटारा इस बढ़ते रुझान की सिर्फ़ एक बानगी भर है. ज़ाहिर है अफ़ग़ानिस्तान के नए सुन्नी शासकों को स्वीकार करने या उनको ख़ारिज करने को लेकर मालदीव किसी तरह की जल्दबाज़ी करने के मूड में नहीं है.

बहरहाल इन तमाम कारकों के अलावा “इंतज़ार करो और देखो” की नीति तय करने में कुछ बाहरी ताक़तों का भी बड़ा हाथ रहा है.

बाहरी कारक

इस सिलसिलेf में तालिबान को लेकर भारत की मान्यता और संवाद प्रमुख कारक है. भारत के ये तमाम पड़ोसी देश आतंकवाद को लेकर भारत की चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाते रहे हैं. चीन की ज़ोर ज़बरदस्ती वाली नीतियों और कर्ज़ के मकड़जाल में फंसाने की चाल के मद्देनज़र भविष्य में इस संवेदनशीलता के और बढ़ने की संभावना है. ग़ौरतलब है कि भारत इस इलाक़े में क्षेत्रीय कनेक्टिविटी की अगुवाई कर रहा है. साफ़ है कि दक्षिण एशिया के ये छोटे देश तालिबान और आतंकवाद को लेकर ऐसी नीति अपनाना चाहेंगे जिससे भारत की सुरक्षा चिंताओं में बढ़ोतरी न हो. इन देशों की कोशिश होगी कि उनकी नीतियों के चलते भारत के लिए किसी तरह का ख़तरा न पैदा हो. ये बात बेहद अहम है. दरअसल अतीत में इन मसलों पर मतभेदों के चलते कुछ मौक़ों पर भारत के साथ इन देशों के रिश्तों में खटास आती रही है. कंधार विमान अपहरण की घटना के बाद नेपाल और 2000 से शुरू हुए दशक में सीमा पार से हुए आतंकी हमलों के सिलसिले में बांग्लादेश के साथ भारत के रिश्तों में तल्ख़ी देखी गई थी.

हाल के वर्षों में दक्षिण एशिया के इन छोटे देशों के लिए व्यापार और विकास भागीदार के रूप में भारत के विकल्प के तौर पर चीन ने कुछ हद तक अपनी पैठ बना ली है. ज़ाहिर है अगर चीन तालिबानी सरकार को मान्यता देता है या बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत अफ़ग़ानिस्तान में अपने निवेश का विस्तार करता है तो नेपाल जैसे देशों के लिए नए संकेत उभर सकते हैं. चीन की इस तरह की नीतियां नेपाल के लिए एक आकर्षक हालात पैदा कर सकती हैं. दरअसल, चारों ओर से ज़मीनी सीमा से घिरे नेपाल जैसे देश नए बाज़ारों की तलाश में हैं. वो भारत पर अपनी निर्भरता को कम करने की जुगत लगा रहे हैं. मोटी बात ये है कि चीन, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच नज़दीकी रिश्ते दक्षिण एशिया के दूसरे राष्ट्रों की तालिबान नीति को भी प्रभावित करेंगे. चीन और पाकिस्तान की ओर से उनको कुछ हद तक प्रोत्साहनकारी प्रस्ताव भी मिल सकते हैं. दूसरी ओर इन देशों पर भारत का दबाव भी होगा. ज़ाहिर है ये तमाम छोटे राष्ट्र क्षेत्रीय स्तर पर उभरते ढांचों के हिसाब से ही इस मसले पर अपना निर्णय लेना चाहेंगे.

इस सिलसिले में एक और अहम बात पर ध्यान देना ज़रूरी है. दरअसल, विस्तृत हिंद-प्रशांत रणनीति के तहत अमेरिका के लिए दक्षिण एशिया के इन छोटे देशों की अहमियत एक बार फिर बढ़ गई है. ऐसे में ये तमाम छोटे देश अमेरिका के साथ अपनी नज़दीकियों के इस्तेमाल के ज़रिए दूसरी क्षेत्रीय ताक़तों (भारत और चीन) के साथ संतुलन साधने की कोशिश करेंगे. अगर चीन तालिबान पर अपना प्रभाव जमाने में कामयाब हो जाता है तो इन छोटे देशों की सौदेबाज़ी की ताक़त और उनकी अहमियत और बढ़ जाएगी. लिहाज़ा सौदेबाज़ी और संतुलनकारी शक्तियों के प्रभाव के लिए ये तमाम छोटे देश तालिबान को लेकर अमेरिकी रुख़ को भी अपने ध्यान में रखेंगे. उनकी अपनी नीतियां इन्हीं क़वायदों से तय होंगी.

अब ये बात स्पष्ट है कि दक्षिण एशिया के छोटे देशों ने अफ़ग़ानिस्तान के मसले पर “इंतज़ार करो और देखो” की नीति अपना रखी है. अपने हितों को आगे बढ़ाने और उसकी रक्षा के साथ-साथ आंतरिक सुरक्षा को लेकर अपनी चिंताओं के चलते उन्होंने ये तौर-तरीक़ा अपनाया है. इसमें उनकी घरेलू राजनीति और बाहरी कारकों का भी योगदान है. हक़ीक़त ये है कि ये तमाम देश अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम पर बारीकी से नज़र बनाए हुए हैं.

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