कई लोगों को ये पता नहीं है और बाकियों ने इसे स्वीकार नहीं किया है लेकिन भारत के पड़ोसी देश इस तरह से मंथन कर रहे हैं जो पूरे क्षेत्र के लिए मिल कर काम करने वाली नहीं तो तालमेल वाली विदेश एवं सुरक्षा नीति में योगदान दे सकता है. हो सकता है कि ये तुरंत नहीं हो लेकिन जब ऐसा होगा तो ये अलग-अलग ढंग से और विभिन्न पैमानों पर एसोसिएशन ऑफ साउथ-ईस्ट एशियन नेशंस (आसियान) और यूरोपियन यूनियन (EU) का आकार ले सकता है. इससे पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान अलग रह सकते हैं जो दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (सार्क) के आठ सदस्यों में शामिल हैं.
CSC की स्थापना से पहले भारत ने दक्षिणी पड़ोसियों को लेकर अपने विचार में बदलाव किया और इस उद्देश्य के लिए अपने आधिकारिक सिस्टम में फेरबदल किया था.
पहले से ही भारत, मालदीव, श्रीलंका और मॉरिशस ‘कोलंबो सिक्योरिटी कॉन्क्लेव यानी CSC’ के सदस्य हैं जिसकी स्थापानी 2020 में हुई थी और जिसमें बांग्लादेश और सेशेल्स ‘ऑब्ज़र्वर’ के तौर पर शामिल हैं. इस संगठन का उद्देश्य “साझेदार देशों के द्वारा समुद्री सुरक्षा, आतंकवाद, तस्करी और संगठित अपराध के बढ़ते ख़तरों से साझा तौर पर मुकाबला” करना है. वर्तमान में ये समुद्री पड़ोसी गैर-पारंपरिक क्षेत्रों जैसे कि पर्यावरण और साइबर सुरक्षा जैसी नई पीढ़ी की चिंताओं के क्षेत्र पर ध्यान दे रहे हैं. उम्मीद है कि ये साझेदारी बाद में धीरे-धीरे पूरी तरह सुरक्षा एवं रक्षा सहयोग में बदल जाएगी.
CSC की स्थापना से पहले भारत ने दक्षिणी पड़ोसियों को लेकर अपने विचार में बदलाव किया और इस उद्देश्य के लिए अपने आधिकारिक सिस्टम में फेरबदल किया था. इस तरह भारत ने विदेश मंत्रालय के तहत हिंद महासागर क्षेत्र (इंडियन ओशियन रीजन या IOR) से जुड़ा एक नया डिवीज़न बनाया जो हिंद महासागर के क्षेत्र में भारत के निकटतम पड़ोसी देशों के साथ बातचीत करेगा. इसकी शुरुआत मालदीव, श्रीलंका, मॉरिशस और सेशेल्स के साथ हुई थी. 2019 में भारत ने विदेश मंत्रालय के इस डिवीज़न का विस्तार करते हुए इसके कार्य क्षेत्र में मेडागास्कर, कोमोरोस और फ्रेंच रीयूनियन आईलैंड को शामिल किया और इस तरह नज़दीक के हिंद महासागर क्षेत्र का बाहरी इलाका बन गया.
फिलहाल के लिए श्रीलंका जैसे देश इस बात को लेकर सावधानी बरत रहे हैं कि जिस समय अमेरिका और भारत हर बदलते साल के साथ एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं और दूसरी तरफ चीन उनसे दूरी बरत रहा है, ऐसी वैश्विक या क्षेत्रीय भू-सामरिक स्थिति में वो किसी एक पक्ष की तरफ खड़ा न दिखाई दें. पिछले दिनों विदेश मंत्री अली साबरी ने श्रीलंका के इस आधिकारिक रुख को दोहराया कि वो ‘चीन-भारत के मुकाबले में तटस्थ’ बना रहेगा.
हालांकि, भारत जैसे देशों को देखना होगा कि श्रीलंका, उदाहरण के तौर पर, के द्वारा पारंपरिक सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों के क्षेत्र में क्षेत्रीय गारंटी और पारस्परिक समर्थन को स्वीकार करना क्या चीन के चंगुल से अलग होने की दिशा में उठाया गया एक कदम है जिसके कर्ज़ का जाल बिना महसूस हुए एक प्रकार की ‘सामरिक गुलामी’ का दूसरा नाम बन गया है. ये निकट भविष्य में होने की उम्मीद नहीं है, कम-से-कम जब तक श्रीलंका अपने बाहरी कर्ज़ को लेकर लंबे समय का समझौता न कर ले और अपने हालात को सुधार न ले.
‘पड़ोस सर्वप्रथम’ और उससे अधिक
इस बार विदेश नीति के मामले में पड़ोसी देश भारत का समर्थन कर रहे हैं या किसी तीसरे देश के साथ मुद्दों का समाधान करने के लिए भारत की मदद मांग रहे हैं. इस तरह भारत की ‘पड़ोस सर्वप्रथम या नेबरहुड फर्स्ट’ की नीति को अधिक प्रासंगिक बना रहे है, उसे ज़्यादा अहमियत दे रहे हैं और इसे सभी क्षेत्रीय देशों के लिए एक साझा नारा बना रहे हैं.
ये कदम उस पारंपरिक सोच से आगे जाता है जिसके तहत संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) में मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों और युद्ध अपराधों की जांच के मामले में श्रीलंका के साथ भारत खड़ा होता है. कुछ वर्षों को छोड़ दें, जब 2012 और 2013 में भारत ने अमेरिका की अगुवाई में ‘स्वतंत्र छानबीन’ की मांग करने वाले प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया था लेकिन वो भी तब जब भारत ने प्रस्ताव के मसौदे को श्रीलंका के पक्ष में हल्का कर दिया था, तो भारत हमेशा श्रीलंका को लेकर प्रस्ताव पर वोटिंग के दौरान अनुपस्थित रहा है. इस तरह भारत अपने दक्षिणी पड़ोसी के प्रति सहानुभूति दिखाता है जिसने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) जैसे आतंकी समूह को ख़त्म किया है और जिस तरह का काम कोई दूसरा देश नहीं कर पाया है. लेकिन इसके साथ-साथ भारत ने इस बात को भी स्वीकार किया है कि श्रीलंका को ‘जातीय सुलह’ के लिए और कदम उठाने की ज़रूरत है और जिसका वादा श्रीलंका ने UNHRC में मामला जाने से पहले भी किया था.
यही वो पृष्ठभूमि है जिसके तहत संभवत: पहली बार श्रीलंका ने क्षेत्रीय मामलों में खुलकर कनाडा के ख़िलाफ़ भारत के इस आरोप का समर्थन किया है कि वो ‘खालिस्तान समर्थक संगठनों’ की गतिविधियों को काबू करने में ‘वोट बैंक की राजनीति’ से प्रेरित है. पिछले दिनों कनाडा में रहने वाले ‘खालिस्तानी चरमपंथियों’ ने जब भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या (अक्टूबर 1980 में) का सार्वजनिक तौर पर महिमामंडन किया तो भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर के द्वारा जताई गई चिंताओं का समर्थन करते हुए श्रीलंका के विदेश मंत्री अली साबरी ने एक ट्वीट में कहा कि कोई भी देश आतंकवादियों और अलगाववादियों को पनाह देने का जोखिम नहीं उठा सकता.
दक्षिण एशिया के भीतर मुद्दों को लेकर मालदीव की संसद के स्पीकर मोहम्मद नशीद ने उस वक्त भारत का साथ दिया जब माले में सार्क देशों की संसद के स्पीकर के सम्मेलन के दौरान पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के डिप्टी स्पीकर क़ासिम सूरी ने ‘कश्मीर मुद्दे’ को उठाने की कोशिश की. जब भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता हरिवंश नारायण सिंह, जो कि राज्यसभा के उप सभापति हैं, ने ज़ोरदार और साफ तरीके से विरोध किया तो नशीद ने अध्यक्ष के नाते ये फैसला दिया कि कश्मीर का मुद्दा इस सम्मेलन के लिए सहमत विषयों में शामिल नहीं है. उन्होंने ये भी कहा कि मालदीव का हमेशा से ये रुख़ रहा है कि वो कश्मीर को 1947 में भारत की आज़ादी के समय से भारत का ‘आंतरिक मुद्दा’ मानता है.
दक्षिण एशिया के भीतर मुद्दों को लेकर मालदीव की संसद के स्पीकर मोहम्मद नशीद ने उस वक्त भारत का साथ दिया जब माले में सार्क देशों की संसद के स्पीकर के सम्मेलन के दौरान पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के डिप्टी स्पीकर क़ासिम सूरी ने ‘कश्मीर मुद्दे’ को उठाने की कोशिश की.
महत्वपूर्ण बात ये है कि मालदीव कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय मामला भी नहीं मानता है, हालांकि तीसरे देशों और उनके द्वारा हस्तक्षेप की संभावना को लेकर यही भारत का रुख रहा है. इसके अलावा मालदीव के मौजूदा राष्ट्रपति मोहम्मद सोलिह ने एक कानून का एलान करके विपक्षी PPM-PNC गठजोड़ के द्वारा शुरू किए गए ‘इंडिया आउट’ अभियान पर पाबंदी लगाई है. भारत विरोधी इस अभियान के पीछे जेल में बंद पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन हैं. कानून की घोषणा करने के पीछे सोलिह ने इस अभियान को ‘राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए एक ख़तरा’ बताया. मालदीव के हाई कोर्ट ने अब राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती देने वाली अर्ज़ी पर सुनवाई शुरू की है.
बांग्लादेश के लिए अनुरोध
पड़ोसी देशों को लेकर भारत की नीति में एक कम जानकारी वाला घटनाक्रम ये है कि दूसरे देशों को भारत से उम्मीद है कि वो उनकी तरफ से बड़ी ताकतों के सामने दलील रखेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे से पहले, जहां उन्होंने दूसरे कार्यक्रमों के अलावा राष्ट्रपति जो बाइडेन से मुलाकात की थी, बांग्लादेश ने कथित तौर पर भारत से अनुरोध किया कि ‘अमेरिका के साथ रिश्तों के खराब दौर से उबारने’ में मदद करे.
रिपोर्ट के मुताबिक, बांग्लादेश ने भारत की सहायता मांगी है, ख़ास तौर पर अपने देश में होने वाले आगामी आम चुनावों को लेकर अमेरिका के संदेह के मामले में. ख़बरों के अनुसार, अमेरिकी राजदूत पीटर हास के द्वारा बार-बार बांग्लादेश में स्वतंत्र और पारदर्शी आम चुनाव की अपील और मामले की चर्चा के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ उनकी बैठक के बाद बांग्लादेश ने ये कदम उठाया है. वहीं अमेरिका ने बांग्लादेश के उन नागरिकों के लिए अमेरिकी वीज़ा पर पाबंदी लगाने का आदेश जारी किया है जो वहां की ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया में दखल’ दे रहे हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे से पहले, जहां उन्होंने दूसरे कार्यक्रमों के अलावा राष्ट्रपति जो बाइडेन से मुलाकात की थी, बांग्लादेश ने कथित तौर पर भारत से अनुरोध किया कि ‘अमेरिका के साथ रिश्तों के खराब दौर से उबारने’ में मदद करे.
इस पृष्ठभूमि में ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि बांग्लादेश के विदेश मंत्री ए के अब्दुल मोमेन ने 12 जून को वाराणसी में G20 के विकास मंत्रियों की बैठक के दौरान भारत के विदेश मंत्री जयशंकर के साथ इस मामले पर चर्चा की. हालांकि, ये मालूम नहीं है कि इस विषय पर भारत-अमेरिका के बीच शिखर सम्मेलन स्तर की बातचीत में चर्चा हुई या नहीं लेकिन दक्षिण एशिया के देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय मंचों, जिनमें UNHRC के फैसले भी शामिल हैं, पर एक-दूसरे का समर्थन करने में क्षेत्रीय सहयोग के रास्ते पर चलना ख़ुशी की बात है और ये भविष्य के लिए काफी भरोसा बढ़ाने वाला है.
चेन्नई में रहने वाले एन. सत्य मूर्ति राजनीतिक विश्लेषक और समीक्षक हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.