Author : Nilanjan Ghosh

Published on Sep 15, 2021 Updated 0 Hours ago

राष्ट्र जिस इंफ्रास्ट्रक्चर में शामिल होने का इरादा रखता है, उसके लिए पूंजीगत व्यय (कैपेक्स) उपलब्ध कराने के लिए एक संस्थान की ज़रूरत सर्वोच्च है. लेकिन 21वीं सदी में डीएफआई की भूमिका पहले की तुलना में अलग है.

भारत में प्रस्तावित विकास वित्त संस्थान के संदर्भ विचार के कुछ बिंदू

भारत सरकार के आम बजट 2021-22 में एक नए विकास वित्त-संस्थान (Development Finance Institution) यानी डीएफआई की स्थापना का प्रस्ताव किया गया. इसको देखते हुए संसद के बजट सत्र में एक नए विधेयक, जिसका शीर्षक है ‘द नेशनल बैंक फॉर फाइनेंसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपमेंट (एनएबीएफआईडी) विधेयक, 2021’ पेश किया जाएगा, ताकि विकास वित्त-संस्थान की स्थापना की जा सके. इस संस्थान का उद्देश्य इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और उनके पूरे इको सिस्टम के लिए पूरे जीवन काल तक वित्त उपलब्ध करवाना है. कोरोना महामारी और उसके कारण लगाए गए लॉकडाउन की वजह से पहले ही 2024 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना ध्वस्त हो चुका है. मौजूदा वक्त में अर्थव्यवस्था को एक वास्तविक ‘धक्के’ की ज़रूरत है, जिससे कि वह इस नाज़ुक मोड़ से वांछित विकास की राह पर दौड़ सके, जिसके भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए निर्णायक क्षण साबित होने की उम्मीद है. ऐसे ‘धक्के’ के लिए सबसे अहम चालक निश्चित तौर पर भौतिक पूंजी या भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर है.

डीएफआई सामाजिक लाभ के लिए निम्न और निरंतर ब्याज दर पर कर्ज़ उपलब्ध करवाता है. यह कर्ज़ वाणिज्यिक बैंकों द्वारा उपलब्ध करवाए गए कर्ज़ से अलग होता है. वाणिज्यिक बैंकों को अपने स्वयं के तमाम उद्देश्यों को पूरा करना होता है. 

दीर्घकालिक विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण में डीएफआई के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया जा सकता. दरअसल, पूंजीगत व्यय या कैपेक्स (capex) के ज़रिए भौतिक पूंजी के निर्माण से कुल कारक उत्पादकता (total factor productivity) यानी टीएफपी को बढ़ावा मिलता है, वहीं भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर से एक अर्थव्यवस्था में समग्र कारोबारी और प्रतिस्पर्धी माहौल के बढ़ने का अनुभवजन्य प्रमाण (empirical evidence) मिलता है. अनिवार्य रूप से जो समस्या उत्पन्न होती है वह यह है कि इस तरह के भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर लंबी उत्पादन पूर्व अवधि और लंबी अवधि की और अन्य परियोजनाओं की तुलना में मुश्किल से निजी निवेश को आकर्षित करते हैं. इस तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर से मिलने वाली सेवाओं का चरित्र ‘सार्वजनिक वस्तु’ (Public Goods) जैसा होने के कारण अक्सर लाभार्थी की सटीक प्रकृति की पहचान ठीक से नहीं हो पाती है. ऐसे में अक्सर ‘लाभार्थी को भुगतान’ (beneficiaries pay) के सिद्धांत का पालन मुश्किल होता है. ऐसे में यहां पर डीएफआई की भूमिका अहम हो जाती है डीएफआई खास अहमियत रखने वाली इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को दीर्घकालिक वित्त प्रदान करता है जो बाज़ार में मिलने वाले मौजूदा रिटर्न मानक के अनुरूप हो सकता है या नहीं भी हो सकता है. दरअसल, डीएफआई सामाजिक लाभ के लिए निम्न और निरंतर ब्याज दर पर कर्ज़ उपलब्ध करवाता है. यह कर्ज़ वाणिज्यिक बैंकों द्वारा उपलब्ध करवाए गए कर्ज़ से अलग होता है. वाणिज्यिक बैंकों को अपने स्वयं के तमाम उद्देश्यों को पूरा करना होता है. इसके लिए वे अल्पकालिक से मध्यम अवधि की जमा राशि स्वीकार करते हैं और उसी अवधि के लिए कर्ज़ देने का विकल्प चुनते हैं. ऐसा वे परिपक्वता में घालमेल (maturity mismatch) से बचने के लिए करते हैं, क्योंकि यह उनके अपने जोखिम प्रबंधन का एक अहम घटक है.

नया नहीं है डीएफआई

ऐसा नहीं है कि भारत में डीएफआई कोई नई चीज़ है. भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर, उद्योग और कृषि क्षेत्र में वित्त की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पहले से ही कई डीएफआई चल रहे हैं. भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (The Industrial Finance Corporation of India) यानी आईएफसीआई आजादी के बाद 1948 में स्थापित होने वाला पहला डीएफआई था. इसके बाद 1964 में आईडीबीआई, 1972 में आईआईबीआई, 1982 में नाबार्ड और एग्जिम बैंक, 1990 में सिड्डबी और कई अन्य की स्थापना हुई. बीते 25 वर्षों के दौरान आईसीआईसीआई, आईडीबीआई और आईडीएफसी, डीएफआई से वाणिज्यिक बैंक में तब्दील हो गए हैं, जबकि नाबार्ड, एग्जिम बैंक, सिड्डबी, आरईसी आदि सेक्टर विशेष में निवेश उपलब्ध करवा रहे हैं. इसलिए इस मोड़ पर इंफ्रास्ट्रक्चर में हलचल पैदा करने के लिए पूंजीगत व्यय उपलब्ध कराने के लिए एक संस्था की ज़रूरत है. ऐसा करना राष्ट्र के लिए सर्वोपरि है. लेकिन आज 21वीं सदी में डीएफआई की भूमिका पहले की तुलना में काफी बदल गई है. एक डीएफआई केवल आर्थिक विकास के दृष्टिकोण से अनियंत्रित इंफ्रास्ट्रक्चर फंडिंग के बारे में नहीं सोच सकता. बल्कि अन्य अंतरराष्ट्रीय डीएफआई जैसे विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक और यूरोपीयन बैंक फॉर रिकन्स्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट के कामकाज के अनुरूप प्रस्ताविक डीएफआई को कुछ बेहतर व्यवहार और मानदंड को अपनाना चाहिए, जिससे कि व्यापक विकास के लक्ष्यों जैसे संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास लक्ष्य (SDGs) को हासिल करने की पुष्टि हो.

अंतरराष्ट्रीय डीएफआई जैसे विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक और यूरोपीयन बैंक फॉर रिकन्स्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट के कामकाज के अनुरूप प्रस्ताविक डीएफआई को कुछ बेहतर व्यवहार और मानदंड को अपनाना चाहिए, जिससे कि व्यापक विकास के लक्ष्यों जैसे संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास लक्ष्य (SDGs) को हासिल करने की पुष्टि हो. 

सबसे पहले यह कहा जा सकता है कि प्रस्ताविक डीएफआई को निश्चित रूप से अपने वित्त पोषण के तरीके में आर्थिक दक्षता, सामाजिक समानता और पर्यावरण और विकासात्मक स्थिरता के सिद्धांतों को आत्मसात करना चाहिए. बीते वर्षों में भारत और विकासशील व विकसित दुनिया के कई हिस्सों में अनियंत्रित और बिना सोचे-समझे हुए इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के परिणामस्वरूप सामाजिक संघर्ष हुए हैं. विशेष तौर पर विस्थापन और पुनर्वास और पर्यावरण को नुकसान देखा गया है. विकास के कारण विस्थापन और पुनर्वास की कमी सामाजिक तनाव का कारण रही है. यह चीज़ इंफ्रास्ट्रक्चर की सामाजिक कीमत में जुटती है. लेकिन ये चीज़ें इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लागत-लाभ के मैट्रिक्स में कभी नहीं दिखाई देती हैं. 2011 के आईआईटी रूढ़की के पेपर के अनुसार बीते 50 साल के दौरान भारत में विकास से जुड़ी परियोजनाओं के कारण करीब 5 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं. इसमें 2.13 करोड़ लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए हैं. इनमें बांधों के निर्माण के कारण विस्थापित हुए 1.64 करोड़ लोग शामिल हैं. इसके अलावा खनन की वजह से करीब 25.5 लाख, औद्योगिक विकास के कारण 12.5 लाख और वन्य जीव अभ्यारण्य और नेशनल पार्क की वजह से करीब 6 लाख लोग विस्थापित हुए. इसका मतलब यह है कि पुनर्वास ठीक तरीके से नहीं हुआ. इससे सामाजिक एकजुटता में बिखराव, सामाजिक संघर्षों में बढ़ोतरी हुई और दीर्घकालिक सामाजिक लागत में वृद्धि आई. यह निःसंदेह एक ‘बाह्यता’ (externality) है, जिसे परियोजना लागत में शामिल किया जाना चाहिए. कभी-कभी इन तत्वों को पैसे में तब्दील करना (monetise) मुश्किल होता है. वैसे कुछ दकियानूस अनुमान या यहां तक कि ‘कम करके आंकी गई लागत’ से विचाराधीन परियोजनाओं को युक्तिसंगत बनाने में मदद मिल सकती है.

निजी निर्णय समर्थन प्रणाली विकसित हो

अन्य अहम तत्व पर्यावरणीय लागत के रूप में पैदा होते हैं. प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के कामकाज में बाधा डालने वाला कोई भी इंफ्रास्ट्रक्चर विकास न केवल पारिस्थितिकी तंत्र के लिए हानिकारक है बल्कि दीर्घ अवधि में मानव समुदाय के लिए भी हानिकारक साबित होता है. ऐसा पारिस्थितिकी सेवाओं को क्षति के कारण होता है, जबकि प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र से मानव समुदाय को मिलने वाले फायदे निशुल्क होते हैं. इन फायदों के आकलन के लिए तंत्र हैं. इसके तहत छोड़ दी गई लागत (avoided cost) या अन्य दृष्टिकोण के जरिए इन पारिस्थितिकी सेवाओं के लिए मौद्रिक मूल्य (monetary values) तय किए जा सकते हैं. उदाहरण के लिए जंगल कार्बन सोखते हैं और जलवायु परिवर्तन (global warming) से निपटने में सहयोग करते हैं. ऐसे में जंगलों की तबाही से वायुमंडल में कार्बन बढ़ेगा. इस तरह समाज पर तमाम तरह के सामाजिक खर्चों का बोझ पड़ेगा. उनका स्वास्थ्य पर खर्च, उत्पादकता खर्च आदि बढ़ जाएगा. इसी तरह एक बांध के निर्माण से मछलियों की गतिविधियां रुक जाएंगी और निचले इलाके में मछुआरे समुदाय की आजीविका ख़त्म हो जाएगी. पारिस्थितिकी सेवाओं के नुकसान के कारण ये सभी सामाजिक लागतें आती हैं और इनका पारिस्थितिकी सेवाओं के मूल्यांकन के ज़रिए मौद्रीकरण किया जा सकता है.

ऐसे में जंगलों की तबाही से वायुमंडल में कार्बन बढ़ेगा. इस तरह समाज पर तमाम तरह के सामाजिक खर्चों का बोझ पड़ेगा. उनका स्वास्थ्य पर खर्च, उत्पादकता खर्च आदि बढ़ जाएगा. इसी तरह एक बांध के निर्माण से मछलियों की गतिविधियां रुक जाएंगी और निचले इलाके में मछुआरे समुदाय की आजीविका ख़त्म हो जाएगी.

इसलिए, डीएफआई द्वारा अपने स्वयं के निर्णय समर्थन प्रणाली (decision support system) यानी डीएसएस के लिए समीकरणों का एक नया सेट बनाने की ज़रूरत है, जिससे कि उसके किसी इंफ्रास्ट्रक्चर को वित्त पोषित करने के फैसले का परिणाम  स्थान और समय के साथ सामाजिक और पारिस्थितिकी रूप से इष्टतम समाधान (optimal solutions) हो. यह अच्छी अर्थव्यवस्था का निष्कर्ष होना चाहिए. इसे संभव बनाया जा सकता है, यदि डीएसएस समय और स्थान के साथ विभिन्न लागतों और लाभों को शामिल करके कुल योजना अवधि में शुद्ध लाभ (फायदे में से लागत को घटाने के बाद) निकाले तो. यह एक अंतरराष्ट्रीय बेहतरीन परिपाटी है, लेकिन भारत में इसका मुश्किल से पालन किया जाता है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन मानदंडों को शामिल करने से या तो परियोजना की निर्माण अवधि बढ़ जाएगी या फिर इसके कारण प्राप्त होने वाले रिटर्न की दर में कमी आ जाएगी. यह भी हो सकता है कि कुछ परियोजनाएं अव्यवहार्य ही न बन जाएं. लेकिन इन लागतों से नजर फेर लेना बीती शताब्दी में दुनिया की तमाम व्यवस्थाओं की बड़ी मूर्खता है. टिकाऊपन मानदंड के आधार पर उनके भौतिक पूंजी विकास से जुड़े फैसलों की निरर्थकता का अहसास बहुत बाद में हुआ. तब तक ऐसा समय आ गया था कि क्षति अपरिवर्तनीय हो गई थी!

एक विकसित राष्ट्र की पहचान प्रति व्यक्ति जीडीपी के वांछित आंकड़े को प्राप्त करने के संदर्भ में नहीं की जानी चाहिए, बल्कि उसे एक एसडीजी सूचकांक जैसे समग्र विकास संकेतकों के जरिए मापी गई आर्थिक और सामाजिक प्रगति के वांछित स्तर के संदर्भ में की जानी चाहिए. इसलिए प्रस्तावित डीएफआई से उम्मीदें और उसकी ज़िम्मेदारियां बहुत बड़ी हैं. उसे समानता, दक्षता और टिकाऊपन की त्रिमूर्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करना होगा.

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